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संसार में सभी लोग अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करते हैं, और सभी क्षेत्रों में प्रतियोगिता अर्थात कंपिटीशन होता ही है। चाहे खेलकूद हो, चाहे पढ़ाई हो, चाहे सेवा हो, चाहे परोपकार हो, कोई संस्था संचालन हो, कोई विद्या की प्राप्ति हो, चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र हो, सभी में कुछ ना कुछ प्रतियोगिता रहती ही है।। चाहे वह घोषित हो, चाहे अघोषित हो, फिर भी कुछ न कुछ प्रतियोगिता सब जगह रहती ही है। और जहां प्रतियोगिता होती है।। वहां कोई आगे और कोई पीछे भी होता ही है, यह स्वाभाविक है। जो लोग प्रतियोगिता में आगे निकल जाते हैं, जीत जाते हैं।। इस जीत के कारण उनमें स्वाभाविक रूप से अभिमान उत्पन्न होता ही है। उस अभिमान को रोकना पड़ता है।। जो लोग उस अभिमान को रोक देते हैं।। अभिमान को जीत लेते हैं। वास्तव में उस क्षेत्र के वही विजेता हैं। जो लोग अभिमान को नहीं जीत पाते, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।। बुद्धि भ्रष्ट होने के कारण वे दूसरों को घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। इस तरह का दुर्व्यवहार करने से उनका शीघ्र ही विनाश हो जाता है।। तो इसका अर्थ है, कि वे वास्तव में नहीं जीते। कुछ क्रियाओं में आगे निकल जाना, यह जीत की परिभाषा नहीं है। अभिमान जैसे खतरनाक दोष को जीत लेना ही वास्तविक जीत है।।
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प्रेम प्रकट करने का एक ही उपाय है,,,कि उसे बाँटिये। प्रेम की भनक औरो को भी सुनाई पड़े।। ध्यान का परिणाम सब देखें। जो आपको मिला है, दूसरों को भी दें।। उसकी सुगंध फैलनी चाहिए, प्रेम की सुवास दूर-दूर तक पहुँचनी चाहिए। करोड़ों लोग दुखी हैं, प्यासे है। जो चीज भीतर है।। वह बाहर संसार मे नही है। आप इस ढंग से जियें इस आनंद और मस्ती के साथ जियें इतने पागलपन से जियें कि जो भी आपके पास आये, मस्त हो जाए। उसके जीवन मे भी नृत्य की शुरुआत हो जाये।।

    
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[परमात्मा का प्रेम सर्वत्र व्याप्त जलधारा के समान है।। जल धारा का बहाव उसी ओर रहता है, जिस ओर कोई गड्ढा हो या झुकाव हो, अगर कहीं कोई गड्ढा है।। तो स्वतः ही जल उसमे संचित हो जाता और यदि गड्ढा न हो, जल उस तरफ नही जाता। यही सिद्धांत ईश्वर से प्राप्ति उनकी कृपा या प्रेम के संदर्भ में स्थापित होता।। अगर हम प्रभु में मन लगाएंगें, उनकी अभीष्ट चाहना होगी हमारे हृदय में, तो जीवन मे उनकी कृपा से हम कभी भी वंचित नही हो सकते, और यदि हमारे जीवन मे उनके प्रेम की एक बूंद भी प्राप्त कर लिया तो बाकी सारी अभिलाषाएं तुच्छ और बौनी हो जा जातीं। तो आइए आज प्रभू से उनकी ही भक्ति की आध्यात्मिक प्रार्थना के साथ…

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अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं। किसी सुख-साधन सम्पन्न व्यक्ति के बारे में लोग यही कहते हैं कि भगवान की उसके ऊपर बड़ी कृपा है जो उसे के लिए इतना सब कुछ दिया। क्या वास्तव में ‘ कृपा ‘ इसी का नाम है ? जरा विचार कर लेते हैं।। कृपा अर्थात बाहर की प्राप्ति नही अपितु भीतर की तृप्ति है। किसी को भौतिक सुखों की प्राप्ति हो जाना यह कृपा हो न हो मगर किसी को वह सब कुछ प्राप्त न होने पर भी भीतर एक तृप्ति बनी रहना यह अवश्य मेरे गोविन्द की कृपा है। रिक्तता उसी के अन्दर होगी जिस के अन्दर श्री कृष्ण के लिए कोई स्थान ही नहीं।। जिस ह्रदय में श्रीकृष्ण हों वहाँ भला रिक्तता कैसी ? वहाँ तो आनंद ही आंनद होता है। आपके पुरुषार्थ से और प्रारब्ध से आपको प्राप्ति तो संभव है मगर तृप्ति नहीं, वह तो केवल और केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। अतः भीतर की तृप्ति, भीतर की धन्यता और भीतर का अहोभाव यही उस ठाकुर की सबसे बड़ी कृपा ‘ है।।

 

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