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वेद विचार में ज्ञान का विश्लेषण

भारतीय मनीषा के अनुसार जीवन विचार में -ज्ञान का स्वरूप क्या रहा होगा ?

इस पर चिन्तन की दृष्टि से हमें वेदों का आश्रय लेना पड़ेगा । क्योंकि वेद पूर्ण हैं , सनातन हैं और निखिल ज्ञान विज्ञान के मधुमय स्रोत हैं । भारतीय चिन्तन के आलोक में भूत भविष्य और वर्तमान सभी वेदों में वर्णित हैं । वेदों में सर्वत्र ज्ञान शब्द शिक्षा , स्वर , मात्रा , बल, उच्चारण , ज्ञान , विद्या , उद्गीथ , ब्रह्म व अमृतत्व का पर्याय है । ज्ञान के सर्वांगपूर्ण चिन्तन द्वारा आत्मा का परिष्कार व ब्रह्म साक्षात्कार ही शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है । शरीर , मन , बुद्धि , आत्मा और चित्त का परिष्कार ही ज्ञान का मुख्य लक्ष्य है। शरीर , मन , बुद्धि , आत्मा व चित्त की समष्टि को ही मानव की संज्ञा दी गयी है । मानव का समग्र परिवर्त्तन ही ज्ञान का साध्य है ।

ज्ञान ” असतो मा सद्गमय , तमसो मा ज्योतिर्गमय , मृत्योर्मा अमृतं गमय , मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् , वसुधैव कुटुम्बकम् , यत्र विश्वं भवत्येकनीड्म् , मा कश्छित् दुःख – भाग भवेत् , सर्वेभवन्तु सुखिनः , भूमा वै सुखम्, कृणवन्तो विश्वमार्यम् इत्यादि सर्वकल्याणकारी विचारों का उद्भावक है । इसे वेदों में विद्या अर्थात् ज्ञान
अविद्या अर्थात् अज्ञान तथा उपनिषदों में श्रेय व प्रेय – इन दो भागों में बाँटा गया है । ज्ञान विस्तार है , शान्ति है , समायोजन है , वहीं अज्ञान संकुचन है मृत्यु है , संघर्ष है , अशान्ति है व असमायोजन का द्योतक है ।

ज्ञान का मूल उद्धेश्य मानव को अभ्युदय सिद्धि व कल्याण के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ कर लौकिक पाप , शाप व ताप से मुक्ति प्रदान करना है । ज्ञान का प्रेरक मन्त्र है – 👉” सा विद्या या विमुक्तये । ” जबकि अज्ञान का मूल उद्देश्य भौतिक सुखों , कामनाओं व वासनाओं की तृप्ति व सुखोपभोग करना है और उसका प्रेरक मन्त्र है – ” सा विद्या या नियुक्तये । ” ज्ञान आनन्द व सौन्दर्य की अनुभूति के लिये युवा अन्वेषक व जिज्ञासु चित्त चाहिये , ऐसा चित्त ही जीवन व मृत्यु के सूक्ष्म रहस्यों को समग्रतापूर्वक जान सकता है । चित्त व ज्ञान को ऊर्जस्विल बनाए रखने में विचारों की प्रमुख भूमिका है , अतः विचारों को जागृत व अन्वेषणशील बनाए रखना आवश्यक है । क्योंकि जहाँ चेतना के द्वार खुले हैं , वहाँ सुबह की ताजी हवायें भी आती हैं और उगते सूरज की अरुणिमा भी आती है । ज्ञान की मूल प्रकृति सन्देह अर्थात् ” ततः किम् ततः किम् ” अर्थात् जानने की इच्छा , अभिलाषा , विचारों की भूख व अतृप्तता है । ज्ञान ही आत्मविवेक का जागरण कर सकता है । ज्ञान भविष्योन्मुख व सृजनात्मक होता है । ज्ञान वही है जो अभय सिखलाये अलोभ में प्रतिष्ठा दें , साहस दे और अज्ञात की चुनौती को स्वीकारने की हिम्मत दें तथा सहज सरल व स्वतःस्फूर्त विकास दें । ज्ञान की पूर्ण अभिव्यक्ति सत्य में, शिवत्व में और सौन्दर्य में है । ज्ञान का वास्तविक कार्य मनुष्य के मन में स्थित अज्ञानरूपी घास पात व कूड़ा – करकट को जलाकर साफ करना है ताकि उस पर प्रेम , सौन्दर्य और शान्ति के फूलों की खेती हो सके । नारायण ! इस प्रकृति पुरुषात्मक जगत् में जीवन की समस्त उपलब्धियों का आधार ज्ञान ही है। अतः हमारी भारतीय संस्कृति में ज्ञान साधना को अत्यन्त ही पवित्र माना गया है – ” नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । ” इस विग्रह में ” ल्युट ” प्रत्यय करने पर निष्पन्न ज्ञान शब्द शिक्षण चेतना तथा जानकारी का पर्याय है ।

ज्ञान शब्द से परम अतीन्द्रिय ज्ञान का भी बोध होता है , विशेषतया चिन्तन की पराकाष्ठा धर्म व दर्शन द्वारा वर्णित परमतत्त्व आत्मसाक्षात्कार ” नेति नेति ” भी ज्ञान का बोधक है । श्रीमदभवद्गीताजी में ज्ञान के सम्बन्ध में बताया गया है – ” ज्ञान सविज्ञानं सहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् । ” अर्थात् ज्ञान व विज्ञान वह है जो अशुभ का निवारण कर शुभ कार्यों की ओर ले जाता है। ” अमरकोष ” में कहा गया है कि – ” मोक्षधीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः । ” अर्थात् मोक्षदायक बुद्धि को ज्ञान कहते हैं तथा शिल्पशास्त्र आदि विषयक बुद्धि को विज्ञान कहा जाता है । लोक – व्यवहार में किसी भी विषयवस्तु अथवा क्रिया के जानकारी को ही ज्ञान कहते है । श्रीमद्भगवद्गीताजी में कहा गया है कि – ” ज्ञान वह है जिसको जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है , उस अनुभवात्मक ज्ञान को विज्ञान कहते हैं ।

श्री भगवान् वासुदेव कृष्ण कहते है, –
” ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यत् ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥
” प्राणी मात्र को वस्तु या विषयों का ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा होता है । वे पाँच हैं – ” आँख , कान , नाक , जिह्वा और त्वचा । ” इनके द्वारा वस्तुओं की कोमलता , कठोरता , माधुर्य , तिक्तता , गंध आदि की जानकारी प्राप्त की जाती है । ज्ञान मनुष्य में स्वभाव सिद्ध है । कोई ज्ञान बाहर से नहीं आता , सब अन्दर ही है । ज्ञान प्रक्रिया को समझाने वाले शास्त्र वेदान्त में अन्तःकरण को ज्ञानग्रहण का साधन माना गया है । वेदान्त में अन्तःकरण के विषय में कहा गया है कि – ” मनोबुद्धिरहंकारचित्तं करणमन्तरम् । संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया इमे ॥ ”

अन्तःकरण के चार रूप हैं – मन , बुद्धि , अहङ्कार और चित्त । मन से वितर्क और संशय होता है । बुद्धि निश्चय करती है । अहङ्कार से गर्व अर्थात् अहंभाव की अभिव्यक्ति होती है । चित्त में स्मरण होता है । अन्तःकरण को मन भी कहा जाता है । आत्म के प्रकाश से ही अन्तःकरण द्वारा ज्ञान ग्रहण की प्रक्रिया सम्पन्न होती है ।

ज्ञान ग्रहण के भी चार प्रकार है –
1 . प्रत्यक्षज्ञान 2 . अनुमान ज्ञान
3 . शब्द ज्ञान तथा 4 . अन्तर्ज्ञान ज्ञान
ग्रहण की सूक्ष्म प्रक्रिया का वर्णन अतिधन्य अथर्ववेद के एक मन्त्र में सूक्ष्मतापूर्वक बताया गया है ।
श्रुति है – ” मनसे चेतसे धिय आकूतय उत चित्तये । मत्यैश्रुताय चक्षसे विधेम हविषा वयम् ॥ उपरोक्त मन्त्र में ज्ञान ग्रहण की प्रक्रिया व विधि का श्रुतिमहारानी जी वर्णन कर रही हैं – ” मत्यै ” – संवेदना और प्रेरण , चेत – से – चेतना और चिन्तन , धिये – ध्यान व अवधान , आकूतये – अनुभूति और संवेग , चित्तये – चित्त का धर्म स्मर व विस्मरण , मत्यै – बुद्धि श्रुताय – श्रवण पठन व शिक्षण , चक्षसे – चक्षुकार्य दर्शन व प्रत्यक्षीकरण । इस प्रकार ज्ञान के ग्रहण व सुदृढ़ीकरण की सूक्ष्म प्रक्रिया का वर्णन श्रुतियों में किया गया है। ज्ञान ग्रहण की प्रक्रिया सदा चलती रहती है ।

जिज्ञासु व्यक्ति सामान्य लोगों तथा पशु पक्षियों से भी कुछ – कुछ सीख लेने में रुचि रखते हैं और जीवनपर्यन्त नवीन जानकारियाँ प्राप्त करते ही रहते है ।

ज्ञानी इस संसार को माया समझकर उससे मुक्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं जबकि अज्ञानी जन इस सांसारिक मायाजाल व भोगों में लिप्त हो जाते हैं ।

मुण्डकोपनिषद् के ऋषि कहते हैं कि –
” द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिष्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्चनन्नयो अभिचाकशीति ॥ ” अर्थात् मानव शरीर मानों एक वृक्ष है जिसमें दो मित्र पक्षी { जीवात्मा व परमात्मा } आश्रय लेकर साथ – साथ रहते हैं । उनमें से एक वृक्ष के सुस्वादु फल का उपभोग करता है किन्तु दूसरा द्रष्टा भाव से उसे केवल टुकुर – टुकुर देखता है । श्रुतियों में आध्यात्मिक मनन व चिन्तन के द्वारा आत्मज्ञान का प्रतिपादन व मोक्षप्राप्ति के उपाय बताये गये हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीताजी में श्रीवासुदेव कृष्ण अपने प्रिय सखा अर्जुन को कहते हैं कि –
” अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवे नैव वृजिनं संतरिष्यति ॥ ”
भगवान् कहते हैं – हे अर्जुन ! तुम ज्ञानरूपी नाव द्वारा ही पाप समुद्र को पार कर सकते हो । श्रीमद्भगवद्गीताजी में द्रव्य – यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ को ही श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि सम्पूर्ण कर्म की परिसमाप्ति ज्ञान में ही होती है । जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म बना देती है , उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि समस्त दुष्कर्मो को समाप्त कर देती है यथा – ”
यथैधांसिसमिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽअर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् करुते तथा ॥ ” उपनिषदों में ” सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” ” ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रम् ” व ” ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः ” कहकर ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है ।

भाष्यकार भगवान् शङ्करभगवत्पाद् के अनुसार – ” शब्दमात्र सुनने से जो बुद्धि होती है उसे ज्ञान कहते हैं । श्रीमद्भगवद्गीताजी के ” विज्ञानभाष्य ” में लिखा है कि ” भिन्न- भिन्न प्रकार के अनन्त पदार्थों में एक तत्त्व को अनुगत देखना ज्ञान कहा जाता है और एक ही तत्त्व से अनन्तपदार्थों का विस्तार हुआ , इस प्रक्रिया से उसी बात को देखने का नाम विज्ञान है ।

अनेकता में एकता का दर्शन ज्ञान और एकता को अनेक रूपों में देखने का नाम विज्ञान है । ज्ञान शब्द सामान्य रूप से जानने मात्र का बोधक है किन्तु जहाँ ज्ञान , अज्ञान विज्ञानादि की श्रेणी में ज्ञान शब्द आया है , वहाँ उनका विशेष अर्थ ही मानना समुचित होग ।

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पंचतत्वों और सतोगुण को संतुलित कर पायें सफलता और स्वास्थ्य
जीवन दो चीजों से बना है। एक शरीर दूसरा आत्मा। शरीर पंच तत्वों से बना हैं, जो पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश का प्रतिनिधित्व करते हैं और मूलरूप से ये सब हमारे शरीर में बराबर मात्रा में रहने चाहिए। जब इनमें थोड़ी-सी भी गड़बड़ी होती है या किसी एक तत्व में वृद्धि या त्रुटि आ जाने से दूसरे तत्वों में गड़बड़ी आती है, जिससे शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। साथ ही आत्मा सात गुणों से बनी हैं ज्ञान, पवित्रता, प्रेम, शांति, सुख, आनंद, खुशी, शक्ति इसलिए आत्मा को सतोगुणी कहा जाता हैं। लेकिन इन सात गुणों की कमी के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, स्वार्थ जैसी चीजे आ जाती हैं। चरक संहित के अनुसार इन्हीं तत्वों के समायोजन से स्वाद भी बनते हैं- मीठा= पृथ्वी+जल, खारा= पृथ्वी+अग्नि, खट्टा= जल+अग्नि, तीखा= वायु+अग्नि, कसैला= वायु+जल, कड़वा= वायु+आकाश। व्यक्ति बहुत परिश्रम तो करता है लेकिन न ही पञ्च भूतो और न ही सतोगुण को संतुलित करने के लिए कोई प्रयास करता, किसी व्यक्ति में अगर ये दोनों ही असंतुलित हो तो उसे सफलता की प्राप्ति नहीं होती और ना ही वह स्वास्थ्य लाभ ले पाता है. अत: किसी व्यक्ति को सुख, स्वास्थ्य, शांति और समृधि पाने के लिए अपने जीवन में शरीर और आत्मा को शुद्ध करने का कार्य करना चाहिए. इसके लिए ज्योतिष में कुंडली के ग्रहों का सहारा लिया जा सकता है. शरीर तथा आत्मा को स्वस्थ्य रखने के लिए लग्न, तीसरे और पंचम के ग्रहों के साथ ही सूर्य, चन्द्र इत्यादि ग्रहो को मजबूत करना चाहिए इसके लिए जीवन में अनुशासन रखना, लोगो की मदद करना और स्वयं को प्रसन्नचित्त रखना चाहिए. इस हेतु ईश्वर की उपासना करना अथवा ॐ नम: शिवाय का जाप करना, सूक्ष्म जीवो की सेवा करना और सत्संग, स्वाध्याय करना चाहिए.
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केवल ईश्वर ही ऐसा है, जिस में एक भी दोष नहीं है। जो सर्वगुण संपन्न है। ईश्वर में यदि कोई गुण है, तो वह सर्वाधिक मात्रा में है। और यदि दोष नहीं है, तो शून्य है अर्थात बिल्कुल नहीं है। ऐसा तो केवल मात्र एक ईश्वर ही है। जैसे ईश्वर में ज्ञान आनंद न्याय दया सेवा परोपकार इत्यादि हजारों गुण सर्वाधिक मात्रा में हैं। इसी प्रकार से काम क्रोध लोभ अविद्या ईर्ष्या द्वेष अभिमान इत्यादि, इनमें से एक भी दोष ईश्वर में नहीं है। बिल्कुल भी नहीं है।
अब मनुष्योंं की बात करें। मनुष्यों में दोष भी हैं और गुण भी हैं। कोई बहुत ऊंचा योगी विद्वान वैरागी तपस्वी संन्यासी हो, वह तो काम क्रोध लोभ अविद्या राग द्वेष अभिमान आदि दोषों से छूट गया हो, ऐसा मान सकते हैं। परंतु सांसारिक लोगों में तो प्रायः सभी में कुछ न कुछ दोष रहते ही हैं, और कुछ न कुछ गुण भी होते हैं।
यह नियम सदा याद रखना चाहिए कि गुण सदा सुख ही देते हैं, तथा दोष सदा दुख ही देते हैं, हमें भी और दूसरों को भी।
और दूसरा एक और नियम भी याद रखना चाहिए, कि यदि आप दूसरों में दोष देखेंगे, तो वे दोष आप में भी आएंगे। यदि आप दूसरों में गुण देखेंगे, तो उनके गुण आप में आएंगे।
अब दोनों नियमों को मिलाकर देखें , और निर्णय करें कि आपको सुख प्राप्त करना है, या दुख? यदि सुख प्राप्त करना हो, तो दूसरों के गुण देखें, उन्हें धारण करें, तथा सुखी होवें। यदि दुखी होना हो, तो दूसरों के दोष देखें, उनके दोष सीखें, बुरे कर्म करें और सदा दुखी रहें। दोनों रास्ते आपके सामने हैं, जो अच्छा लगे, उस पर चलें। क्योंकि हर व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है।

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