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यह सत्य है। कि भगवान् बनने की पात्रता हर पत्थर में नहीं होती लेकिन जो पत्थर भी भगवान् बनता है।। उसके लिए शिल्पकार जरूर चाहिए। जो कांट-छांट कर उसके दैवीय रूप को प्रगट कर सके। उसी शिल्पकार को गुरु कहा जाता है।। जीव को भ्रम से व्रह्म की यात्रा करा दे, शिष्य को शव से शिव बना दे, मृत में मूर्ति प्रतिष्ठापित करा दे यही तो सदगुरु का काम है। बाधा से राधा तक पहुँचाना, अपराध से आराधना की यात्रा, यही गुरु का कार्य है। गुरु कृपा से ही कौआ से हंस बना जा सकता है। दुनिया में कौन ऐसा है, जिसने गुरु तत्व की शरण ना ली हो।। भगवान् राम, भगवान् कृष्ण, सब गुरु की शरण में गए हैं। गुरु चरणों की सेवा को भगवान् राम ने तो तीसरी भक्ति भी बताया है। आज के दिन दुनिया के समस्त गुरुओं को प्रणाम करते हुए अपने सदगुरु को चरणों में प्रणाम करो।। गुरु जी की कृपा के कारण ही हमें गोविन्द की शरणागति मिली। प्रणाम हमारे जीवन को प्रभु नाममय और पवित्रमय करने के लिए।।

      

[ जीवन बहुत कुछ उस शीतल कुँए की तरह है, जिसके आगे झुक जाना ही कुछ प्राप्त करने की शर्त है। कुँए के सामने आप चाहे जितनी देर खड़े हो जाएँ मगर झुके वगैर वह आपकी सेवा में समर्थ नहीं हो पायेगा, भले ही वह आपको तृप्त करने की पूर्ण क्षमता रखता हो।। जीवन के पास भी आपको देने को बहुत कुछ है मगर वहाँ भी शर्त यही है बिना झुके श्रेष्ठ को पाना संभव नहीं है। झुककर चलना जीवन पथ में लक्ष्य प्राप्ति की अनिवार्यता है।। यहाँ अकड़कर चलने वाले रावण के दस सिर भी कट गए और झुककर रहने वाले विभीषण को अनायास ही लंका का राज्य प्राप्त हो गया। सहज जीवन जीने वाले को बहुत कुछ सहज में ही प्राप्त हो जाता है।।
[: फिर भी शरीरों की भिन्नता के कारण वह लहरों की तरह अलग-अलग दीखता है। परब्रह्म एक है। उसी के प्रतिबिम्ब प्रकाश ज्योति के रूप में हर किसी के अन्तराल में विद्यमान हैं। कपड़ों की अनेक परतों से ढक देने पर बल्ब का प्रकाश धूमिल पड़ जाता है है। इसी प्रकार कषाय-कल्मषों-मल आवरणों से आच्छादित रहने के कारण अन्तराल में विद्यमान ब्रह्म सत्ता भी प्रसुप्त जैसी स्थिति में जा पहुँचती है। उसका प्रकाश उपयुक्त मार्ग-दर्शन करने में अधिक सफल नहीं हो पाता। जीवन में प्रगति और प्रखरता भर देने में जैसा उसका सहयोग एवं अनुदान सम्भव है वह के मध्य में खड़ी हुई दीवार है। इसे गिराने के लिए जिस संकल्प, साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है उसी को आत्म साधना कहते हैं। यह मनुहार, रिश्वत, याचना या गिड़ गिड़ाहट नहीं आत्म शोधन की प्रक्रिया है। कच्ची धातु को शोधने पर ही उसका वास्तविक स्वरूप निखरता और उपयुक्त , आभूषण बनता है। ठीक इसी प्रकार आत्म शोधन की प्रक्रिया में जो जितना सफल होता है।। वह उसी स्तर का महामानव भगवद् भक्त , सिद्ध पुरुष माना जाता है। आत्मिक प्रगति का राजमार्ग आत्मशोधन ही हैं।। परब्रह्म की सत्ता ब्रह्माण्डव्यापी है। वह उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की नियति व्यवस्था बनाती और समस्त गति विधियों को स्वसंचालित क्रम से अनुशासन से बाँध कर रहती है। उसकी उपासना कर्मफल व्यवस्था स्वीकारने, मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने और नीति मर्यादा का अनुशासन पालने भर से हो सकती है।।

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