नॉलेजफुल होते हुए अगर कोई न करे तो क्या कहेंगे? इनको वापिस लिया तो क्या गति होगी? जान-बूझ करके भी अगर न करे तो क्या कहेंगे? लाईट रूप और माईट रूप होते हुए भी क्यों नहीं कर पाते हो? कारण क्या है? नॉलेज तुम्हारी बुद्धि तक है; समझ तक है। ठीक है – जानते हो, लेकिन नॉलेज को प्रैक्टिकल में लाना और समाना नहीं आता है। भोजन है, खाते भी हैं। परन्तु खाना अलग बात है, खा कर हजम करना अलग बात है। समाते नहीं हो, हजम नहीं होता, रस नहीं बनता और शक्ति नहीं मिलती। जीभ तक खा लिया तो रस नहीं बनेगा, शक्ति नहीं मिलती। समाने के बाद ही शक्ति का स्वरूप बनता है। समाया नहीं तो जीभ-रस है। समाया तो शक्ति है। सुनने का रस आया, समझ में आया, समझा किन्तु समाया नहीं, प्रैक्टिकल में नहीं लाया। जितना धारणा में आता है, संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है। नॉलेजफुल का अर्थ क्या है? नॉलेजफुल का अर्थ है हरेक कर्मेन्द्रियों में नॉलेज समा जाए। क्या करना है और क्या नहीं? तो धोखा खाने की बात रहेगी? ऑखे और वृत्ति धोखा नहीं खायेंगी जब आत्मा में नॉलेज आ जाती है तो सर्व इन्द्रियों में नॉलेज समा जाती है। जैसे भोजन से शक्ति भर जाती है तो शक्ति के आधार से काम होता है। अभी नॉलेज को समाना है। हरेक कर्मेन्द्रियों को नॉलेजफुल बनाओ।
[जैसे बीज बो कर पानी डालते हो कि बीज पक्का हो जाये। बीज को रोज-रोज पानी देना होता है, वैसे ही संकल्प रूपी बीज को रिवाइज करना है। उसमें कमी रह जाती है और आप निश्चिन्त हो जाते हो – आराम पसंद हो जाते हो। आराम पसन्द के संस्कार नहीं, मगर चिन्तन का संकल्प होना चाहिए, एक-एक संस्कार की चिन्ता लगनी चाहिए। पुरूषार्थ की एक भी कमी का दाग बहुत बड़ा देखने में आता है। फिर हमेशा ख्याल आता है कि छोटा-सा दाग मेरी वैल्यू कम कर देगा। चिन्तन चिन्ता के रूप में होना चाहिए। वह नहीं तो अलबेलापन है। कहते हो, करते नहीं हो। जो पीछे की युक्ति है उसे प्रैक्टिकल में लाओ, आराम-पसन्दी देवता स्टेज का संस्कार है, वह ज्यादा खींचता है। संगमयुग के ब्राह्मण के संस्कार जो त्याग मूर्त के हैं, वह कम इमर्ज होते हैं। त्याग-बिना भाग्य नहीं बनता अच्छा, कर लेंगे, देखा जायेगा – यह आराम पसन्दी के संस्कार हैं। ‘‘ज़रूर करूंगा’’, ये ब्राह्मणपन के संस्कार हैं। लौकिक पढ़ाई में जिसको चिन्ता रहती है, वह पास होता है। उसकी नींद फिट जाती है। 👉जो आराम-पसन्द हैं वे पास क्या होंगे? अभी सोचते हो कि प्रैक्टिकल करना है। चिन्ता लगनी चाहिए, शुभ चिन्तन, सम्पूर्ण बनने की चिन्ता, कमजोरी को दूर करने की चिन्ता और प्रत्यक्ष फल देने की चिन्ता।
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ज़्यादा पैसा, जल्दी पैसा, जितना भी हो पैसा और जीवन ही पैसा की जीवन शैली में अब हम अपना स्वास्थ्य बेचने में लगे हैं। यूँ तो हमने धन का अम्बार लगा दिया मगर स्वास्थ्य को दाव पर लगाकर, और याद रखना वो धन किस काम का जो हमसे जीवन ही छीन ले।
आज का आदमी बड़ी नासमझी में जीवन यापन कर रहा है। आज आदमी पहले पैसा कमाने के लिए सेहत बिगड़ता है फिर सेहत बापिस पाने के लिए पैसे बिगड़ता है। स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है।
स्वास्थ्य रहने पर आप धन अवश्य कमा सकते हैं मगर धन रहते हुए भी स्वास्थ्य नहीं कमाया जा सकता है। धन जीवन की आवश्यकता हो सकती है उद्देश्य कदापि नहीं। धन साधन है साध्य नहीं। धन अर्जित जरुर किया जाए मगर स्वास्थ्य की वलि देकर नहीं।
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हर एक को यह संदेश अच्छा लगेगा और आशा है कि इससे लोग सहमत भी होंगे ...
जब भगवान ने मछली का निर्माण करना चाहा, तो उसके जीवन के लिये उनको समुद्र से वार्ता करनी पड़ी।
जब भगवान ने पेड़ों का निर्माण करना चाहा, तो उन्होंने पृथ्वी से बात की।
लेकिन जब भगवान ने मनुष्य को बनाना चाहा, तो उन्होंने खुद से ही विचार विमर्श किया।
तब भगवान ने कहा: “मुझे अपने आकार और समानता वाला मनुष्य का निर्माण करना है और उन्होंने अपने समान मनुष्य को बनया।”
अब यह बात ध्यान देने योग्य है:
यदि आप एक मछली को पानी से बाहर निकालते हैं तो वह मर जाएगी; और जब आप जमीन से एक पेड़ उखाड़ते हैं, तो वह भी मर जाएगा।
इसी तरह, जब मनुष्य भगवान से अलग हो जाता है, तो वह भी ‘मर’ जाता है।
भगवान हमारा एकमात्र सहारा है। हम उनकी सेवा और शरणागति के लिए बनाए गए हैं। हमें हमेशा उनके साथ जुड़े रहना चाहिए क्योंकि केवल उनकी कृपा के कारण ही हम ‘जीवित’ रह सकते हैं।
अतः भगवान से जुड़े रहें।
हम देख सकते हैं कि मछली के बिना पानी फिर भी पानी है लेकिन पानी के बिना मछली कुछ भी नहीं है।
पेड़ के बिना प्रथ्वी फिर भी प्रथ्वी ही है, लेकिन प्रथ्वी के बगैर पेड़ कुछ भी नहीं …
इसी तरह, मनुष्य के बिना भगवान, भगवान ही है लेकिन बिना भगवान के मनुष्य कुछ भी नहीं !
इस युग में भगवान से जुड़ने का एक सरल उपाय शास्त्रों में वर्णन है; हरिनाम सुमिरन …