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🍃मन और तन का ध्यान है समाधान।।
ध्यान का संबंध प्राय: मन और मस्तिष्क से जोड़ा जाता है। इस विचार के मानने वालों का कहना है कि जिस प्रकार तन के लिए भोजन और व्यायाम आदि ज़रूरी हैं उसी प्रकार मन और  मस्तिष्क  के  लिए  ध्यान अनिवार्य है। धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों के लिए यह ईश्वर प्राप्ति या मोक्ष का साधन है। कुछ ध्यान को पूर्णत: एक आध्यात्मिक क्रिया मानते हैं। हर धर्म में चाहे वह आस्तिक हो अथवा नास्तिक ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन और बौद्ध दोनों धर्मों में ईश्वर का कोई स्थान नहीं लेकिन ध्यान के क्षेत्र में ये दोनों ही अद्वितीय हैं। आज जो लोग किसी भी धर्म विशेष में आस्था नहीं रखते अर्थात् मत निरपेक्ष हैं वे सबसे ज़्यादा महत्त्व देते हैं तो ध्यान को ही। ध्यान की अनेक विधियां हैं। 

🍃वस्तुत: ध्यान का संबंध न केवल मन-मस्तिष्क, ईश्वर, मोक्ष तथा अध्यात्म से है अपितु इसका सीधा संबंध मनुष्य के तन या भौतिक शरीर से भी है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो भी स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं उन सभी से ध्यान का गहरा संबंध है। 

🍃ध्यान का मन से क्या संबंध है?
वस्तुत: ध्यान को जानने के लिए मन को जानना ज़रूरी है और मन को जानना ही अत्यंत कठिन है। बड़ी विचित्र है इसकी भूमिका। मन ही सब समस्याओं का कारण है, सब रोगों की जड़ है और सभी समस्याओं और व्याधियों का उपचारक भी मन ही है। मनुष्यों में बंधन और मोक्ष का कारण मन ही है।

🍃यक्ष-प्रश्न है मन की गति 
यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि सबसे तेज़ गति किस की होती है? युधिष्ठिर ने जवाब दिया था कि सबसे तेज़ गति होती है मन की। क्षण के सहस्रांश में यह दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में पहुँच जाता है। 
संबंध तन और मन का।

🍃तन क्या है ? वस्तुत: तन भी मन का ही एक स्वरूप है। मन की स्थूल सृष्टि है तन। इसको समझने के लिए शरीर का एक बार पुन: विश्लेषण करना होगा। यदि हम शरीर का विभाजन करें तो मुख्य रूप से तीन शरीर हमारे इस दृश्यमान शरीर में मौजूद हैं। पहला है भौतिक शरीर, दूसरा है मानसिक शरीर तथा तीसरा है चेतना या आत्मा। भौतिक शरीर स्थूल है तथा चेतना या आत्मा सूक्ष्म है। इनके बीच उपस्थित है मानसिक शरीर या ‘मन’। ये तीनों एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि इन्हें अलग-अलग करके देखना असंभव प्रतीत होता है और इसका कारण है मन की चंचलता। ध्यान द्वारा मन की चंचलता को नियंत्रित करके हम शरीर की अलग-अलग पर्तों को देखने का प्रयास कर सकते हैं और इसी में छिपा है तन के उपचार का रहस्य।

🍃मन की बाह्य और आंतरिक गतियां।
मन की गति दो प्रकार की है—एक है बाह्य तथा दूसरी आंतरिक। बाह्य गति वह है जो भौतिक पदार्थों की ओर अग्रसर होती है। मनुष्य की भौतिक इच्छाओं का उदय मन की बाह्य गति के कारण ही होता है। हमारा तन अर्थात् स्थूल शरीर भी एक पदार्थ ही तो है। जब मन इसके बारे में सोचता है तो यह प्रतिक्रिया करता है। शरीर मन के अनुसार बदलता है। जैसी मन की इच्छा वैसा भौतिक शरीर। मन की दूसरी गति है आंतरिक गति। इसका अर्थ है मन स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म शरीर की ओर अग्रसर हो रहा है। यहाँ हम अपने मन के द्वारा अपनी चेतना से एकाकार होने की ओर अग्रसर होते हैं। इसको कहते हैं मन द्वारा मन के स्रोत की यात्रा। यह है स्वयं को जानने की यात्रा। जब यह यात्रा सम्पन्न हो जाती है तो बाहर की यात्रा की आवश्यकता ही नहीं रहती। भौतिक जगत अस्तित्त्वहीन होने लगता है।

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     *साधना के जगत में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अगर कोई बात है है तो वो है "संग।" हम कितना भी भजन कर लें, लेकिन हमारा संग अगर गलत है सुना हुआ, पढ़ा हुआ और जाना हुआ तत्व आचरण में नहीं उतर पायेगा।*

     *आपको धनवान होना है तो धनी लोगों का संग करो, राजनीति में जाना है तो राजनैतिक लोगों का संग करो। पर अगर भक्त बनना है तो संतों का और वैष्णवों का संग जरूर करना पड़ेगा।*

     *दुर्जन की एक क्षण की संगति भी बड़ी खतरनाक होती है। वृत्ति और प्रवृत्ति तो संत संगति से ही सुधरती है। संग का ही प्रभाव था लूटपाट करने वाले रामायण लिखने वाले वाल्मीकि बन गए। थोड़े से भगवान बुद्ध के संग ने अंगुलिमाल का ह्रदय परिवर्तन कर दिया। महापुरुषों के संग से व्यवहार सुधरता है।* 


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📕मित्रों, संसार जैसा कुछ है, हमें उसी रूप में समझना चाहिए और प्रस्तुत यथार्थता के अनुरूप अपने को ढालना चाहिए । संसार केवल हमारे लिए ही नहीं बना है और उसके समस्त पदार्थों एवं प्राणियों का हमारी मनमर्जी के अनुरूप बन या बदल जाना संभव नहीं है । तालमेल बिठाकर समन्वय की नीति पर चलने से ही हम संतोषपूर्वक रह सकते हैं और शांतिपूर्वक रहने दे सकते हैं ।
📕यहाँ रात भी होती है और दिन भी रहता है । अपने परिवार में जन्म भी होते हैं और मरण भी । सदा दिन ही रहे, कभी रात न हो । परिवार में जन्म संख्या ही बढ़ती रहे, मरण कभी किसी का न हो । ऐसी शुभेच्छा तो उचित है, पर वैसी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती ।रात को रात के ढंग से और दिन को दिन के ढंग से प्रयोग करके ही हम सुखी रह सकते हैं और दोनों स्थितियों के साथ जुड़े हुए लाभों का आनंद ले सकते हैं । जीवन की अपनी उपयोगिता है और मरण की अपनी । दोनों का संतुलन मिलाकर सोचा जा सकेगा तो हर्ष एवं उद्वेग के उन्मत्त-विक्षिप्त बना देने वाले आवेशों से हम बचे रह सकते हैं ।
📕हर मनुष्य की आकृति भिन्न है, किसी की शक्ल किसी से नहीं मिलती । इसी प्रकार प्रकृति भी भिन्न है । हर मनुष्य का व्यक्तित्व अपने ढंग से विकसित हुआ है । उसमें सुधार एवं परिवर्तन एक सीमा तक ही संभव है ।✍🏼
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