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जन्म कुंडली के 12 भावों के नाम स्वरूप और कार्य।

शास्त्रों में 12 भावों के स्वरूप हैं और भावों के नाम के अनुसार ही इनका काम होता है। पहला भाव तन, दूसरा धन, तीसरा सहोदर, चतुर्थ मातृ, पंचम पुत्र, छठा अरि, सप्तम जाया, आठवाँ आयु, नवम धर्म, दशम कर्म, एकादश आय और द्वादश व्यय भाव कहलाता है़।

प्रथम भाव : इसे लग्न कहते हैं। अन्य कुछ नाम ये भी हैं : हीरा, तनु, केन्द्र, कंटक, चतुष्टय, प्रथम। इस भाव से मुख्यत: जातक का शरीर, मुख, मस्तक, केश, आयु, योग्यता, तेज, आरोग्य आदि विषयों का पता चलता है।

द्वितीय भाव : यह धन भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं, पणफर, द्वितीय। इससे कुटुंब-परिवार, दायीं आंख, वाणी, विद्या, बहुमूल्य सामग्री का संग्रह, सोना-चांदी, चल-सम्पत्ति, नम्रता, भोजन, वाकपटुता आदि विषयों का पता चलता है।

तृतीय भाव : यह पराक्रम भाव के नाम से जाना जाता है। इसे भातृ भाव भी कहते हैं। अन्य नाम हैं आपोक्लिम, उपचय, तृतीय। इस भाव से भाई-बहन, दायां कान, लघु यात्राएं, साहस, सामर्थ्य अर्थात् पराक्रम, नौकर-चाकर, भाई बहनों से संबंध, पडौसी, लेखन-प्रकाशन आदि विषयों का पता चलता है।

चतुर्थ भाव : यह सुख भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- केन्द्र, कंटक, चतुष्टय। इस भाव से माता, जन्म समय की परिस्थिति, दत्तक पुत्र, हृदय, छाती, पति-पत्नी की विधि यानी कानूनी मामले, चल सम्पति, गृह-निर्माण, वाहन सुख आदि विषयों का पता चलता है।

पंचम भाव : यह सुत अथवा संतान भाव भी कहलाता है। अन्य नाम है-त्रिकोण, पणफर, पंचम। इस भाव से संतान अर्थात् पुत्र। पुत्रियां, मानसिकता, मंत्र-ज्ञान, विवेक, स्मरण शक्ति, विद्या, प्रतिष्ठा आदि विषयों का पता चलता है।

षष्ट भाव : इसे रिपुभाव कहते हैं। अन्य नाम हैं रोग भाव, आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, षष्ट। इस भाव से मुख्यत: शत्रु, रोग, मामा, जय-पराजय, भूत, बंधन, विष प्रयोग, क्रूर कर्म आदि विषयों का पता चलता है।

सप्तम भाव : यह पत्नी भाव अथवा जाया भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं-केन्द्र, कंटक, चतुष्टय, सप्तम। इस भाव से पति अथवा पत्नी, विवाह संबंध, विषय-वासना, आमोद-प्रमोद, व्यभिचार, आंतों, साझेदारी के व्यापार आदि विषयों का पता चलता है।

अष्टम भाव : इसे मृत्यु भाव भी कहते हैं। अन्य नाम हैं-लय स्थान, पणफर, त्रिक, अष्टम। आठवें भाव से आयु, मृत्यु का कारण, दु:ख-संकट, मानसिक पीड़ा, आर्थिक क्षति, भाग्य हानि, गुप्तांग के रोगों, आकस्मिक धन लाभ आदि विषयों का पता चलता है।

नवम भाव : इसे भाग्य भाव कहलाता हैं। अन्य नाम हैं त्रिकोण और नवम। भाग्य, धर्म पर आस्था, गुरू, पिता, पूर्व जन्म के पुण्य-पाप, शुद्धाचरण, यश, ऐश्वर्य, वैराग्य आदि विषयों का पता चलता है।

दशम भाव : यह कर्म भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- केन्द्र, कंटक, चतुष्टय-उपचय, राज्य, दशम। दशम भाव से कर्म, नौकरी, व्यापार-व्यवसाय, आजीविका, यश, सम्मान, राज-सम्मान, राजनीतिक विषय, पदाधिकार, पितृ धन, दीर्घ यात्राएं, सुख आदि विषयों का पता चलता है।

एकादश भाव : यह भाव आय भाव भी कहलाता है। अन्य नाम हैं- पणफर, उपचय, लब्धि, एकादश। इस भाव से प्रत्येक प्रकार के लाभ, मित्र, पुत्र वधू, पूर्व संपन्न कर्मों से भाग्योदय, सिद्धि, आशा, माता की मृत्यु आदि विषयों का पता चलता है।

द्वादश भाव : यह व्यय भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- अंतिम, आपोक्लिम, एवं द्वादश। इस भाव से धन व्यय, बायीं आंख, शैया सुख, मानसिक क्लेश, दैवी आपत्तियां, दुर्घटना, मृत्यु के उपरान्त की स्थिति, पत्नी के रोग, माता का भाग्य, राजकीय संकट, राजकीय दंड, आत्म-हत्या, एवं मोक्ष आदि विषयों का पता चलता है।

आइए इनके बारे में विस्तार से जानें:

प्रथम भाव : इस भाव से व्यक्ति की शरीर यष्टि, वात-पित्त-कफ प्रकृति, त्वचा का रंग, यश-अपयश, पूर्वज, सुख-दुख, आत्मविश्वास, अहंकार, मानसिकता आदि को जाना जाता है। इससे हमें शारीरिक आकृति, स्वभाव, वर्ण चिन्ह, व्यक्तित्व, चरित्र, मुख, गुण व अवगुण, प्रारंभिक जीवन विचार, यश, सुख-दुख, नेतृत्व शक्ति, व्यक्तित्व, मुख का ऊपरी भाग, जीवन के संबंध में जानकारी मिलती है। विस्तृत रूप में इस भाव से जनस्वास्थ्य, मंत्रिमंडल की परिस्थितियों पर भी विचार जाना जा सकता है।

द्वितीय भाव : इसे भाव से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, परिवार का सुख, घर की स्थिति, दाईं आँख, वाणी, जीभ, खाना-पीना, प्रारंभिक शिक्षा, संपत्ति आदि के बारे मे जाना जाता है। इससे हमें कुटुंब के लोगों के बारे में, वाणी, विचार, धन की बचत, सौभाग्य, लाभ-हानि, आभूषण, दृष्टि, दाहिनी आँख, स्मरण शक्ति, नाक, ठुड्डी, दाँत, स्त्री की मृत्यु, कला, सुख, गला, कान, मृत्यु का कारण जाना जाता है। इस भाव से विस्तृत रूप में कैद यानी राजदंड भी देखा जाता है। राष्ट्रीय विचार से राजस्व, जनसाधारण की आर्थिक दशा, आयात एवं वाणिज्य-व्यवसाय आदि के बारे में भी इसी भाव से जाना जा सकता है

तृतीय भाव : इस भाव से जातक के बल, छोटे भाई-बहन, नौकर-चाकर, पराक्रम, धैर्य, कंठ-फेफड़े, श्रवण स्थान, कंधे-हाथ आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें भाई, पराक्रम, साहस, मित्रों से संबंध, साझेदारी, संचार-माध्यम, स्वर, संगीत, लेखन कार्य, वक्षस्थल, फेफड़े, भुजाएँ, बंधु-बांधव आदि का ज्ञान मिलता है। राष्ट्रीय ज्योतिष के लिए इस भाव से रेल, वायुयान, पत्र-पत्रिकाएँ, पत्र व्यवहार, निकटतम देशों की हलचल आदि के बारे में जाना जाता है।

चतुर्थ स्थान : इस भाव से मातृसुख, गृह सौख्य, वाहन सौख्य, बाग-बगीचा, जमीन-जायदाद, मित्र छाती पेट के रोग, मानसिक स्थिति आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें माता, स्वयं का मकान, पारिवारिक स्थिति, भूमि, वाहन सुख, पैतृक संपत्ति, मातृभूमि, जनता से संबंधित कार्य, कुर्सी, कुआँ, दूध, तालाब, गुप्त कोष, उदर, छाती आदि का पता किया जाता है। राष्ट्रीय ज्योतिष हेतु शिक्षण संस्थाएं, कॉलेज, स्कूल, कृषि, जमीन, सर्वसाधारण की प्रसन्नता एवं जनता से संबंधित कार्य एवं स्थानीय राजनीति, जनता के बीच पहचान आदि देखा जाता है।

पंचम भाव : इस भाव से संतति, बच्चों से मिलने वाला सुख, विद्या बुद्धि, उच्च शिक्षा, विनय-देशभक्ति, पाचन शक्ति, कला, रहस्य शास्त्रों की रुचि, अचानक धन-लाभ, प्रेम संबंधों में यशनौकरी परिवर्तन आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें विद्या, विवेक, लेखन, मनोरंजन, संतान, मंत्र-तंत्र, प्रेम, सट्टा, लॉटरी, अकस्मात धन लाभ, पूर्वजन्म, गर्भाशय, मूत्राशय, पीठ, प्रशासकीय क्षमता, आय जानी जाती है।

छठा भाव : इस भाव से जातक के शत्रुक, रोग, भय, तनाव, कलह, मुकदमे, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर, जननांगों के रोग आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें शत्रु, रोग, ऋण, विघ्न-बाधा, भोजन, चाचा-चाची, अपयश, चोट, घाव, विश्वासघात, असफलता, पालतू जानवर, नौकर, वाद-विवाद, कोर्ट से संबंधित कार्य, आँत, पेट, सीमा विवाद, आक्रमण, जल-थल सैन्य के के बारे में पता चलता है।

सातवाँ भाव : इस भाव से विवाह सौख्य, शैय्या सुख, जीवनसाथी का स्वभाव, व्यापार, पार्टनरशिप, दूर के प्रवास योग, कोर्ट कचहरी प्रकरण में यश-अपयश आदि का ज्ञान होता है। इससे हमें स्त्री से संबंधित, विवाह, सेक्स, पति-पत्नी, वाणिज्य, क्रय-विक्रय, व्यवहार, साझेदारी, मूत्राशय, सार्वजनिक, गुप्त रोग तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से नैतिकता, विदेशों से संबंध, युद्ध का पता चलता हैं।

आठवाँ भाव : इस भाव से आयु निर्धारण, दु:ख, आर्थिक स्थिति, मानसिक क्लेश, जननांगों के विकार, अचानक आने वाले संकटों का पता चलता है। इससे हमे मृत्यु, आयु, मृत्यु का कारण, स्त्री धन, गुप्त धन, उत्तराधिकारी, स्वयं द्वारा अर्जित मकान, जातक की स्थिति, वियोग, दुर्घटना, सजा, लांछन आदि का पता चलता है।

नवम भाव: इसे भाव से आध्यात्मिक प्रगति, भाग्योदय, बुद्धिमत्ता, गुरु, परदेश गमन, ग्रंथपुस्तक लेखन, तीर्थ यात्रा, भाई की पत्नी, दूसरा विवाह आदि के बारे में बताया जाता है। इससे हमें धर्म, भाग्य, तीर्थयात्रा, संतान का भाग्य, साला-साली, आध्यात्मिक स्थिति, वैराग्य, आयात-निर्यात, यश, ख्याति, सार्वजनिक जीवन, भाग्योदय, पुनर्जन्म, मंदिर-धर्मशाला आदि का निर्माण कराना, योजना विकास कार्य, न्यायालय से संबंधित कार्य पता चलते है।

दसवाँ भाव : इस भाव से पद-प्रतिष्ठा, बॉस, सामाजिक सम्मान, कार्य क्षमता, पितृ सुख, नौकरी व्यवसाय, शासन से लाभ, घुटनों का दर्द, सासू माँ आदि के बारे में पता चलता है। इससे हमें पिता, राज्य, व्यापार, नौकरी, प्रशासनिक स्तर, मान-सम्मान, सफलता, सार्वजनिक जीवन, घुटने, संसद, विदेश व्यापार, आयात-निर्यात, विद्रोह आदि के बारे में पता चलता है।

एकादश भाव : इसे भाव से मित्र, बहू-जँवाई, भेंट-उपहार, लाभ, आय के तरीके, पिंडली के बारे में जाना जाता है। इससे हमें मित्र, समाज, आकांक्षाएँ, इच्छापूर्ति, आय, व्यवसाय में उन्नति, ज्येष्ठ भाई, रोग से मुक्ति, टखना, द्वितीय पत्नी, कान, वाणिज्य-व्यापार, परराष्ट्रों से लाभ, अंतरराष्ट्रीय संबंध आदि पता चलता है।

द्वादश भाव: इस भाव से से कर्ज, नुकसान, परदेश गमन, संन्यास, अनैतिक आचरण, व्यसन, गुप्त शत्रु, शैय्या सुख, आत्महत्या, जेल यात्रा, मुकदमेबाजी का विचार किया जाता है। इससे हमें व्यय, हानि, दंड, गुप्त शत्रु, विदेश यात्रा, त्याग, असफलता, नेत्र पीड़ा, षड्यंत्र, कुटुंब में तनाव, दुर्भाग्य, जेल, अस्पताल में भर्ती होना, बदनामी, भोग-विलास, बायाँ कान, बाईं आँख, ऋण आदि के बारे में जाना जाता है।

जन्म कुंडली के कारकत्व अर्थात 12 भावों से ज्ञात किये जा सकने वाले विषयों की जानकारी :

  1. प्रथम लग्न, उदय, आद्य,तनु,जन्म, विलग्न, होय शरीर का वर्ण, आकृति, लक्षण, यश, गुण, स्थान, सुख दुख, प्रवास, तेज बल
  2. द्वितीय स्व कुटुंब, वाणी, अर्थ, मुक्ति, नयन धन, नेत्र, मुख, विद्या, वचन, कुटुंब, भोजन, पैतॄक धन,
  3. तॄतीय पराक्रम, सहोदर, सहज, वीर्य, धैर्य, भ्राता, पराक्रम, साहस, कंठ, स्वर, श्रवण, आभरण, वस्त्र, धैर्य, बल, मुल, फ़ल।
  4. चतुर्थ सुख, पाताल, मातृ, विद्या, यान, यान, बंधु, मित्र, अंबु विद्या, माता, सुख, गौ, बंधु, मनोगुण, राज्य, यान, वाहन, भूमि, गॄह, हॄदय
  5. पंचम बुद्धि, पितॄ, नंदन, पुत्र, देवराज, पंचक देवता, राजा, पुत्र, पिता, बुद्धि, पुण्य, यातरा, पुत्र प्राप्ति, पितृ विचार (सूर्य से)
  6. षष्ठ रोग, अंग, शस्त्र, भय, रिपु, क्षत, रोग, श्त्रु, व्यसन, व्रण, घाव (मंगल से भी विचारणीय),
  7. सप्तम जामित्र, द्यून, काम, गमन, कलत्र, संपत, अस्त। संपूर्ण यात्रा, स्त्री सुख, पुत्र विवाह (शुक्र से भी विचारणीय)
  8. अष्टम आयु, रंध्र, रण, मॄत्यु, विनाश, आयु (शनि से भी विचारणीय)
  9. नवम धर्म, गुरू, शुभ, तप, नव, भाग्य, अंक। भाग्य, प्रभाव, धर्म, गुरू, तप, शुभ (गुरू से भी विचारणीय)
  10. दशम व्यापार, मध्य, मान, ज्ञान, राज, आस्पद, कर्म, आज्ञा, मान, व्यापार, भूषण, निद्रा, कॄषि, प्रवज्या, आगम, कर्म, जीवन, जिविका, वृति, यश, विज्ञान, विद्या,
  11. एकादश भव, आय, लाभ संपूर्ण धन प्राप्ति, लोभ, लाभ, लालच, दासता
  12. द्वादश व्यय, लंबा सफ़र, दुर्गति, कुत्ता, मछली, मोक्ष, भोग, स्वप्न, निद्रा, (शनि राहु से भी विचारणीय)

जन्म कुंडली में दशम घर या दशमेश से व्यवसाय का निर्धारण होता है। दशमेश की विभिन्न भावो में स्थिति के अनुसार कार्य।

  1. दशमेश यदि पहले भाव में हो तो व्यक्ति सरकारी सेवा करता है या उसका निज का स्वतंत्र व्यवसाय होता है।
  2. दूसरे भाव में हो तो बैंकिंग, अध्यापन, वकालत, पारिवारिक काम, होटल व रेस्तरां, आभूषण एवम नेत्रों का चिकित्सक या ऐनकों से सम्बंधित व्यवसाय होगा।
  3. तीसरे भाव में हो तो रेलवे, परिवहन, डाक एवम तार, लेखन, पत्रकारिता, मुद्रण, साहसिक कार्य, नौकरी, गायन-वादन से सम्बंधित व्यवसाय होगा।
  4. चौथे भाव में हो तो खेती -बाड़ी, नेवी, खनन, जमीन-जायदाद, वाहन उद्योग, जनसेवा, राजनीति, लोक निर्माण विभाग, जल परियोजना, आवास निर्माण, आर्किटेक्ट, सहकारी उद्यम इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  5. पांचवें भाव में हो तो शिक्षण, शेयर मार्केट, आढत-दलाली, लाटरी, प्रबंधन, कला-कौशल, मंत्री पद, लेखन,फिल्म निर्माण इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  6. छठे भाव में हो तो जन स्वास्थ्य, नर्सिंग होम, अस्त्र -शस्त्र, सेना, जेल, चिकित्सा, चोरी, आपराधिक कार्य, मुकद्दमेबाजी तथा पशुओं इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  7. सातवें भाव में हो तो विदेश सेवा, आयात-निर्यात, सहकारी उद्यम, व्यापार, यात्राएं, रिश्ते कराने का काम इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  8. आठवें भाव में हो तो बीमा, जन्म -मृत्यु विभाग,वसीयत, मृतक का अंतिम संस्कार कराने का काम, आपराधिक कार्य, फाईनैंस इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  9. नवें भाव में हो तो पुरोहिताई, अध्यापन, धार्मिक संस्थाएं, न्यायालय, धार्मिक साहित्य, प्रकाशन शोध कार्य इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  10. दसवें भाव में हो तो राजकीय एवम प्रशासकीय सेवा, उड्डयन क्षेत्र, राजनीति, मौसम विभाग, अन्तरिक्ष, पैतृक कार्य इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  11. ग्यारहवें भाव में हो तो लोक या राज्य सभा पद, आयकर, बिक्री कर, सभी प्रकार के राजस्व, वाहन, बड़े उद्योग इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  12. बारहवें भाव में हो तो कारागार, विदेश प्रवास,राजदंड इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
    : शास्त्र ज्ञान – ये 9 काम करने से रहती है घर में खुशहाली –
    हमारे शास्त्रों में कई ऐसे काम बताएं गए है जिनका पालन यदि किसी परिवार में किया जाए तो वो परिवार पीढ़ियों तक खुशहाल बना रहता है। आइए जानते है शास्त्रों में बताएं गए 9 ऐसे ही काम।
  13. कुलदेवता पूजन और श्राद्ध –
    जिस कुल के पितृ और कुल देवता उस कुल के लोगों से संतुष्ट रहते हैं। उनकी सात पीढिय़ां खुशहाल रहती है। हिंदू धर्म में कुल देवी का अर्थ है कुल की देवी। मान्यता के अनुसार हर कुल की एक आराध्य देवी होती है। जिनकी आराधना पूरे परिवार द्वारा कुछ विशेष तिथियों पर की जाती है। वहीं, पितृ तर्पण और श्राद्ध से संतुष्ट होते हैं। पुण्य तिथि के अनुसार पितृ का श्राद्ध व तर्पण करने से पूरे परिवार को उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है।
    2.जूठा व गंदगी से रखें घर को दूर –
    जिस घर में किचन मेंं खाना बिना चखें भगवान को अर्पित किया जाता है। उस घर में कभी अन्न और धन की कमी नहीं होती है। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि घर पर हमेशा लक्ष्मी मेहरबान रहे तो इस बात का ध्यान रखें कि किचन में जूठन न रखें व खाना भगवान को अर्पित करने के बाद ही जूठा करें। साथ ही, घर में किसी तरह की गंदगी जाले आदि न रहे। इसका खास ख्याल रखें।
  14. इन पांच को खाना खिलाएं –
    खाना बनाते समय पहली रोटी गाय के लिए निकालें। मछली को आटा खिलाएं। कुत्ते को रोटी दें। पक्षियों को दाना डालें और चीटिंयों को चीनी व आटा खिलाएं। जब भी मौका मिले इन 5 में से 1 को जरूर भोजन करवाएं।
  15. अन्नदान –
    दान धर्म पालन के लिए अहम माना गया है। खासतौर पर भूखों को अनाज का दान धार्मिक नजरिए से बहुत पुण्यदायी होता है। संकेत है कि सक्षम होने पर ब्राह्मण, गरीबों को भोजन या अन्नदान से मिले पुण्य अदृश्य दोषों का नाश कर परिवार को संकट से बचाते हैं। दान करने से सिर्फ एक पीढ़ी का नहीं सात पीढिय़ों का कल्याण होता है।
  16. वेदों और ग्रंथों का अध्ययन –
    सभी को धर्म ग्रंथों में छुपे ज्ञान और विद्या से प्रकृति और इंसान के रिश्तों को समझना चाहिए। व्यावहारिक रूप से परिवार के सभी सदस्य धर्म, कर्म के साथ ही उच्च व्यावहारिक शिक्षा को भी प्राप्त करें।
  17. तप –
    आत्मा और परमात्मा के मिलन के लिए तप मन, शरीर और विचारों से कठिन साधना करें। तप का अच्छे परिवार के लिए व्यावहारिक तौर पर मतलब यही है कि परिवार के सदस्य सुख और शांति के लिए कड़ी मेहनत, परिश्रम और पुरुषार्थ करें।
  18. पवित्र विवाह –
    विवाह संस्कार को शास्त्रों में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। यह 16 संस्कारों में से पुरुषार्थ प्राप्ति का सबसे अहम संस्कार हैं। व्यवहारिक अर्थ में गुण, विचारों व संस्कारों में बराबरी वाले, सम्माननीय या प्रतिष्ठित परिवार में परंपराओं के अनुरूप विवाह संबंध दो कुटुंब को सुख देता है। उचित विवाह होने पर स्वस्थ और संस्कारी संतान होती हैं, जो आगे चलकर कुल का नाम रोशन करती हैं।
  19. इंद्रिय संयम –
    कर्मेंन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों पर संयम रखना। जिसका मतलब है परिवार के सदस्य शौक-मौज में इतना न डूब जाए कि कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को भूलने से परिवार दु:ख और कष्टों से घिर जाए।
  20. सदाचार –
    अच्छा विचार और व्यवहार। संदेश है कि परिवार के सदस्य संस्कार और जीवन मूल्यों से जुड़े रहें। अपने बड़ों का सम्मान करें। रोज सुबह उनका आशीर्वाद लेकर दिन की शुरुआत करे ताकि सभी का स्वभाव, चरित्र और व्यक्तित्व श्रेष्ठ बने। स्त्रियों का सम्मान करें और परस्त्री पर बुरी निगाह न रखें। ऐसा करने से घर में हमेशा मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती. : अवचेतन

दोस्तो बहुत सारे लोगो की जिज्ञासा अवचेतन मन को कैसे जाग्रत करे। दोस्तो शायद आपने एक फिल्म का ये डायलॉग ज़रूर सुना होगा कि अगर किसी चीज़ को पूरी शिद्दत से चाहो, तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की साजिश करती है

दरअसल ये कायनात जो आपके सपनों को साकार करती है, ये शक्ति आप ही के अंदर मौजूद है और ये है आपका अवचेतन मन।

दोस्तो हमारे दिमाग के दो हिस्से होते हैं जिन्हें चेतन मन और अवचेतन मन कहा जाता है।

जहाँ चेतन मन हमारी सक्रिय अवस्था है जिसमें हम सोच-विचार और तर्क के आधार पर किसी भी कार्य को करने का निर्णय लेते हैं

वहीँ अवचेतन मन उस कमरे के समान है जहाँ हमारे सारे विचार, अनुभव और मान्यताएं जमा रहती हैं।

दिमाग के इन दोनों हिस्सों के अंतर को समझने के लिए आप साइकिल चलाने का उदाहरण ले सकते हैं पहली बार साइकिल चलाते समय आपने जो सावधानियां रखी होंगी और साइकिल पर बैलेंस बनाते समय जब डर महसूस किया होगा। उस समय आप अपना चेतन मन काम में ले रहे थे।

लेकिन जब अभ्यास करने के बाद आप साइकिल चलाने में माहिर हो गए, तब आपको साइकिल चलाने में न डर लगा, न ही साइकिल का बैलेंस बनाने में कोई मुश्किल आयी।

क्योंकि अभ्यास के दौरान साइकिल चलाने के ये अनुभव आपके अवचेतन मन में स्टोर होते चले गए और फिर आपके अवचेतन मन ने चेतन मन का स्थान ले लिया और साइकिल चलाना आपके लिए बेहद आसान काम बन गया।

हमारे रोजाना के कामों को करने में अवचेतन मन काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और शरीर में होने वाली सभी स्वचालित गतिविधियां जैसे सांस लेना और दिल का धड़कना पलकों का झपकना भी इसी के द्वारा होता है।

इस अवचेतन मन को आप एक तरह से रोबोट मान सकते हैं जिसकी प्रोग्रामिंग चेतन मन द्वारा की जाती है और जो स्वयं कुछ अच्छा-बुरा सोच नहीं सकता, बल्कि चेतन मन द्वारा की गयी प्रोग्रामिंग के अनुसार स्वचालित तरीके से निरंतर कार्य करता रहता है|

दोस्तो इसका अर्थ ये हुआ कि अगर हम चाहे तो अपने अवचेतन मन में वो सभी बातें डाल सकते है जिन्हें हम अपने जीवन मे हम सच औऱ साकार होते हुए देखना चाहते हैं।

जैसे कंप्यूटर को दिए गए निर्देशों के अनुसार ही कंप्यूटर काम करता है, ठीक बिल्कुल वैसे ही हम अपने अवचेतन मन की मनचाही प्रोग्रामिंग करके मनचाहे परिणाम पा सकते हैं।

चेतन मन को विचारों का गेट कीपर कहा जा सकता है, जब ये निर्णय लेता है कि अवचेतन मन में किन विचारों को जाने दिया जाये और किन विचारों को अवचेतन मन में नही जाने दिया जाए ये हमारे चेतन मन पर निर्भर करता है

कोई भी बार बार दोहराये जाने बाले विचार हमारे अवचेतन मन में स्थायी स्थिर हो जाते है और फिर हमारा ये अवचेतन मन उसे सच करने में जुट जाता है, वो विचार सही हो या गलत, इससे अवचेतन मन अप्रभावित रहता है।

ब्रह्माण्ड का सबसे बड़ा ट्रांसमीटर है हमारा अवचेतन मन और इसी के कारण टेलीपैथी भी संभव हो पाती है। अवचेतन मन की अपार और असीमित शक्तियों के कारण ही दुनिया में इतने महान आविष्कार और खोजें संभव हो सकी है और चौंकाने वाली बात ये है कि ये अपार शक्ति का स्रोत हर इंसान के पास है।

अवचेतन मन को जाग्रत करना बेहद आसान है। बस इसके लिए आपको शुरुआत में अपने विचारों को संयमित करना होगा और विचारों की सकारात्मकता के प्रति सजग बने रहना होगा।

बिल्कुल उसी तरह जिस तरह आप पहली बार साइकिल चलाते समय सजग और सावधान बने रहे थे। क्योंकि आप जानते थे कि ज़रा सा ध्यान हटा तो आप साइकिल से गिर जाएंगे और आपको चोट लग जायेगी।

बिलकुल इसी तरह आपके विचारों में ज़रा सी भी नकारात्मकता आने लगी तो आपके यही विचार अवचेतन मन में स्थायी हो जायेंगे और आपका अवचेतन मन इन्हें सच करने में जुट जाएगा और इन निगेटिव विचारों के परिणाम अच्छे नहीं निकलेंगे, ये तो आप समझ ही गए हैं इसलिए अभी से अपने विचारों की निगरानी करना शुरू कर दीजिये।

दोस्तो अवचेतन मन को जाग्रत करने के लिऐ नकारात्मक विचार औऱ नकारात्मक लोगो से हमेशा दूर रहे ऐसे लोगो के नाम ना आपके मोबाइल मे होने चाहिऐ औऱ ना आपके विचारो मे होने चाहिऐ

आप जो हासिल करना चहाते हो वह हमेशा आपके विचारो मे होना चाहिऐ ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक लोगो के साथ रहे औऱ हमेशा उनसे संपर्क बनाये रखे. [ आपका होने वाला पति कैसा होगा?

विवाह योग्य होती कन्याएं अक्सर यह कल्पना करती हैं कि उनका होने वाला पति कैसा होगा? जो घोडी पर चढकर आयेगा और उन्हें ले जायेगा जहां उनका नया घर संसार शुरू होगा. हर लडकी की इच्छा होती है कि उसका एक सुखी गॄहस्थ जीवन हो, प्यार देने वाला पति हो और जीवन में सुख ऐश्वर्य हो.

पर क्या सभी कन्याओं के सपने पूर्ण हो पाते हैं? एक तरफ़ ऐसा पति मिलता है जो बडा व्यापारी या ओहदेदार अफ़्सर है, अपनी पत्नि पर जान छिडकता है, उसकी सुख सुविधा के लिये अच्छा घर मकान नौकर चाकर जुटाता है तो दूसरी तरफ़ ऐसे भी पति होते हैं जो दिन रात घर में कलह किये रहते हैं. अब्बल तो वो खुद कमाने में अक्षम होकर पत्नि से दूसरों के घर झाडू बुहारी का काम करवाते हैं, बच्चों व पत्नि से मारपीट करना अपना धर्म समझते हैं. और कुछ ऐसे भी पति पाये जाते हैं जो अच्छा व्यापार, धन या अफ़सर होते हुये भी पत्नि और बच्चों को सिवाय गाली गलौच और मारपीट के कुछ नही देते, घर मे चौबीसों घंटे कलह मचाये रहते हैं. जब तक वो घर में रहते हैं, बच्चे और पत्नि यही प्रार्थना करते रहते अहिं कि कब ये घर से आफ़िस जाये और थोडी देर के लिये शांति मिले.

यानि कुछ ऐसी खुशनसीब पत्निया होती हैं जो यहां स्वर्गिक आनंद उठा रही होती हैं वही कुछ ऐसी होती हैं जो यहां साक्षात नर्क भोगती है. आईये इस बात को ज्योतिषिय दॄश्टिकोण से समझने का प्रयत्न करते हैं.

जन्म समय में जो ग्रहों की स्थिति होती है उस अनुसार विद्या, बुद्धि, धन, कुटुंब, भाग्य, सुख इत्यादि का अनुमान जन्म्कुंडली से लग जाता है इसी प्रकार किसी लडकी का दांपत्य जीवन कैसा रहेगा, इसका पता भी जन्मकुंडली स्थित ग्रहों को देखकर लग जाता है.

जनम्कुंडली का सातवां भाव जीवन साथी का होता है और गुरू पति सुख का कारक ग्रह होता है. मंगल की भुमिका यहां स्त्री के काम (यौन) सुख एवम रज से संबंधित होती है. अत: किसी स्त्री का का पति कैसा होगा और उसका भावी दांपत्य जीवन कैसा होगा? इसके लिये बहुत गहराई से स्त्री की जन्मकुंडली के सातवें भाव, सप्तमस्थ राशि, सप्तमस्थ स्थित ग्रह, सप्तम पर दॄष्टि डालने वाले अन्य भावाधिपति, वॄहस्पति ग्रह स्थित और उस पर अन्य भावाधिपतियों के प्रभाव का अध्ययन करना पडेगा. वॄहस्पति के साथ ही मंगल का भी विशेष रूप से अध्ययन कर लेना चाहिये. स्त्रियों की कुंडली का अध्ययन करते समय विशेष रूप से नवमांश कुंडली के साथ ही साथ द्रेषकाण और त्रिशांश का भलिभांति अवलोकन कर लेना चाहिये.

अब हम आपको कुछ वो योग बता रहे हैं जो किसी स्त्री की कुंडली में विद्यमान हों तो उसे दामफ्त्य सुख प्रदान करने वाले पति की प्राप्ति सहज रूप से होती है.

१. सप्तम भाव में सप्तमेष स्वग्रही हो
२. सप्तम भाव पर पाप ग्रहों की दॄष्टि ना होकर शुभ ग्रहों की दॄष्टि हो अथवा स्वयं सप्तमेश सप्तम भाव को देखता हो.
३. सप्तमस्थ कोई नीच ग्रह ना हो यदि सप्त भाव में कोई उच्च ग्रह हो तो अति सुंदर योग होता है.
४. सप्तम भाव में कोई पाप ग्रह ना होकर शुभ ग्रह विद्यमान हों और षष्ठेश या अष्टमेश की उपस्थिति सप्तम भाव में कदापि नही होनी चाहिये.
५. स्वयं सप्तमेश को षष्ठ, अष्टम एवम द्वादश भाव में नहीं होना चाहिये. सप्तमेश के साथ कोई पाप ग्रह भी नही होना चाहिये साथ ही स्वयं सप्तमेश नीच का नही होना चाहिये.
६. सप्तमेश उच्च राशिगत होकर केंद्र त्रिकोण में हो.
७. वॄहस्पति भी स्वग्रही या उच्च का होकर बलवान हो, दु:स्थानगत ना हो, उस पर पाप प्रभाव ना हो तो अति श्रेष्ठ दांपत्य सुख प्राप्त होता है.
८ मंगल भी बलवान हो. मंगल पर राहु शनि की युति अथवा दॄष्टि प्रभाव नही होना चाहिये.
[ये 15 वास्तु टिप्स आपकी जिंदगी बदल देंगे, आजमाएं तो सही
कई बार घर में बिना वजह के तनाव व लड़ाई-झगड़ा बना रहता है। आपसी रिश्तों में कड़वाहट और उदासीनता आ जाती। अगर आप अपने जीवन में खुशियां चाहते हैं तो ये उपाय अवश्य अपनाएं। प्रस्तुत हैं 15 आसान उपाय।

  • घर में सप्ताह में एक बार गूगल का धुआं करना शुभ होता है।
  • गेहूं में नागकेशर के 2 दाने तथा तुलसी की 11 पत्तियां डालकर पिसाया जाना शुभ है।
  • घर में सरसों के तेल के दीये में लौंग डालकर लगाना शुभ है।
  • हर गुरुवार को तुलसी के पौधे को दूध चढ़ाना चाहिए।
  • तवे पर रोटी सेंकने के पूर्व दूध के छींटें मारना शुभ है।
  • पहली रोटी गौ माता के लिए निकालें।
  • मकान में 3 दरवाजे एक ही रेखा में न हों।
  • सूखे फूल घर में नहीं रखें।
  • संत-महात्माओं के चित्र आशीर्वाद देते हुए बैठक में लगाएं।
  • घर में टूटी-फूटी, कबाड़, अनावश्यक वस्तुओं को नहीं रखें।
  • दक्षिण-पूर्व दिशा के कोने में हरियाली से परिपूर्ण चित्र लगाएं।
  • घर में टपकने वाले नल नहीं होना चाहिए।
  • घर में गोल किनारों के फर्नीचर ही शुभ हैं।
  • घर में तुलसी का पौधा पूर्व दिशा की गैलरी में या पूजा स्थान के पास रखें।
    वास्तु की मानें तो उत्तर या पूर्व दिशा में की गई जल की निकासी आर्थिक दृष्टि से शुभ होती है। इसलिए घर बनाते समय इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए।
    : घुटनों के दर्द के लिए कुछ टिप्स और एक एक्सरसाइज – HEALTH :
    Some Tips & An Exercise for Knee-Pain :
    (Please Also See English Version, Below)
  1. अगर आप घुटनों या जोड़ों के दर्द के लिए लगातार पेन किलर खा रहे हैं, तो यह गलत है, इससे साइड इफेक्ट हो सकता है और मरीज की किडनी और बाकी ऑर्गन पर इसका असर हो सकता है। आपको यह भी बता दें कि आप दर्द का इलाज कर रहे हैं, बीमारी का नहीं। दर्द की वजह कोई पुरानी चोट है या नहीं, यह भी देखना होगा। अगर दर्द अधिक हो, तो इसके लिए आप एमआरआई कराएं, दर्द की वजह का पता चल जाएगा।
  2. इसलिए हर किसी को :
    घुटनों के मसल्स को स्ट्रॉन्ग बनाने के लिए आप एक्सरसाइज करें, इससे स्ट्रेंथ मिलती है.
    बॉडी वेट कंट्रोल में रखना चाहिए. वेट ज्यादा होने पर दर्द ज्यादा होता है.
    जहां तक संभव हो धूप लेते रहें।
    पानी खूब पीएं, क्योंकि कई बार मसल्स डीहाईड्रेशन की वजह से क्रैंप हो जाते हैं.
    डाक्टर की सलाह से कैल्शियम और विटामिन डी3 का सप्लिमेंट ले सकते हैं।
  3. एक एक्सरसाइज :
    कपड़े का रोल बनाकर घुटने के नीचे रखें और शुरू में पाँच, और कुछ दिनों बाद, दस तक गिनती गिनते हुए नीचे दबाएं, फिर पाँच/दस तक गिनती गिनते हुए ढीला छोड़ दें.

Knee pain is a fairly common problem – it can range from a light ache or painful tightness, to a sharp catch or inflammation after exercising. The pain can be experienced in the front of the knee, around or under the knee cap (inside), or on the sides.

Some TIPS :
1) Treat Acute Injuries: by reducing pain, inflammation and tissue damage using PRICE therapy – protect, rest, ice, compression and elevation
2) Reduce Ongoing Pain: using medication, injections, ice wraps, heat and acupuncture
3) Regain Strength and Flexibility: with strengthening, stretching and stability exercises
4) Restore Function: using different aids such as knee pads, braces, compression bandages

Sit, or lie down on the floor with the leg outstretch. Place a pillow or rolled towel under the knee. Squeeze the knee to the floor and hold for 5 seconds. Be sure the knee cap moves up the center of the thigh. Don’t allow the knee joint or the leg to twist at all.
Hold for 5-10 seconds. Repeat for 2 sets of 10-12 repetitions.
KEEP THE LEG STRAIGHT –
You may get relief within a few days.
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आप का आज का दिन मंगलमयी हो – आप स्वस्थ रहे, सुखी रहे – इस कामना के साथ।


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[ सामान्य स्वस्थ व्यक्ति अगर बिल्कुल चीनी/शक्कर और मीठा छोड़ दे तो शरीर पर क्या असर होगा ? – If A Person GIVES UP SUGAR & SWEET THINGS IN FOOD, OR DRASTICALLY REDUCE, WHAT WILL BE HEALTH BENEFITS ? :

शक्कर विभिन्न प्रकार के रोगों के लिए हमारे शरीर में ज़िम्मेदार है। अगर आप शक्कर खाना कुछ वक्त के लिए छोड़ देते है, तो आप इसका असर ख़ुद ही अपने शरीर पर देख सकते है। मीठा कम करने, या छोड़ने से कौन -कौन से क्षेत्रों में लाभ मिल सकता है, आइए देखते हैं :

➡सबसे पहले अगर आप एक अच्छी नींद लेना चाहते हैं, तो सोने से पहले शक्कर से बने हुए पदार्थों/उस में पके हुए पदार्थों से दूर रहें। क्योंकि इसका सेवन आपके शरीर में स्ट्रेस हारमोंस को रिलीज करता है जो कि सोने में काफी ज़्यादा दिक्कत डालता है।

➡यह आपके वजन को कम करने के लिए मदद करेगा।

➡यह आपके दांतों की उम्र के लिए भी काफ़ी हद तक जिम्मेदार है, क्योंकि यह दांतों में होने वाली कैविटीज का एक मुख्य कारण है। अगर आप इसका सेवन कम करते हैं, तो यह आपकी दांतों की उम्र के लिए भी काफ़ी अच्छा है और आपके मुंह की दुर्गंध से भी आप को छुटकारा दिलाएगा।

➡यह दिल की बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार है, क्योंकि यह शरीर में इंसुलिन के लेवल को बढ़ाता है, जिससे कि हमारा ब्लड प्रेशर और हार्ट रेट बढ़ जाता है। अगर आप इसको खाने में नियंत्रित करेंगे तो आप दिल की बीमारियों से भी बच सकते हैं।

➡यह हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर भी असर डालता है। अगर हम शक्कर को खाना कम कर देते हैं, तो हमारी रोगों से लड़ने की शक्ति को भी बढ़ाया जा सकता है।

➡शक्कर खाने को डिप्रेशन से भी जोड़कर देखा जाता है। जब आप बहुत ज़्यादा डिप्रेस्ड होते हैं, तो आपको कुछ मीठा खाने का मन करता है। तो इसलिए अगर आप खाना में शक्कर कम कर देंगे या मीठे को किसी एक अच्छे स्वास्थ्य वर्धक चीज़ के साथ रिप्लेस कर देंगे, तो यह आपको डिप्रेशन से लड़ने के लिए भी मदद करेगा और आपको दिमागी तौर पर ताकतवर भी बनाएगा । अगर आप इसको छोड़ते हैं, तो आप देखेंगे कि यह आपके विचारों में भी स्थिरता लाएगा और आप अपनी दिनचर्या में काफ़ी अच्छी तरह से काम कर पाएंगे।

➡यह डायबिटीज के पेशेंट के लिए भी काफी हद तक अच्छा है। क्योंकि शक्कर को डायबिटीज (टाइप टू) से जोड़कर देखा जाता है तो अगर आप एक डायबिटिक पेशेंट है और आप शक्कर को खाना कम कर रहे हैं तो यह आपके लिए बहुत ही अच्छा है।

➡यह कहा जाता है, कि ज्यादा शक्कर हमारी याददाश्त/मस्तिष्क की स्मरण शक्ति पर भी असर डालती है। अगर आप इसकी मात्रा को नियंत्रित करेंगे, तो यह आपकी स्मरण शक्ति के लिए भी काफी अच्छा होगा।

➡ अगर आप इसकी मात्रा को अपनी दिनचर्या में नियंत्रित करेंगे, तो यह आपकी सुंदरता को बनाए रखने के लिए भी काफी मदद करता है। क्योंकि इसमें पाए जाने वाले कुछ तत्व हमारे शरीर में कॉलेजन नामक तत्व के साथ मिलकर एजिंग की प्रोसेस को ओर भी तेज़ करता हैं।

➡यह माइग्रेन के पेशेंट के लिए भी काफ़ी हद तक अच्छा है अगर आप अपने खाने में शुगर की मात्रा को बहुत ही कम कर देते हैं तो अगर आपको सिर दर्द की शिकायत है तो उसने भी काफी हद तक फायदा करेंगा।

➡यह मैस्ट्रूअल क्रमस को भी कम करने के लिए सहायक है। अगर आप शुगर का इंटेक कम करते हैं तो आप देखेंगे कि आपको दर्द में राहत मिलेगी।

  • इसे कम करने से आप शरीर के ढलने और बुढ़ापे की प्रक्रिया को भी धीमा कर सकते हैं.

हम आपको इसे पूरी तरह से छोड़ने की सलाह नहीं देंगे। कभी कबार आप इसे खा ही सकते हैं।

आशा करते हैं, कि आप के लिए यह पोस्ट लाभप्रद होगा।

अपना समय देने के लिए धन्यवाद।

अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिए और हमेशा खुश रहिए !
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आप का आज का दिन मंगलमयी हो – आप स्वस्थ रहे, सुखी रहे – इस कामना के साथ।


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[ज्योतिषीय भविष्यवाणियां जो कभी असत्य नहीं होती
✍🏻यद्यपि ज्योतिष ऐसा उलझा हुआ विज्ञान है कि जिस में निपुणता प्राप्त करना बहुत कठिन विषय है। तथापि इसके कुछ स्थूल पक्ष भी हैं जिनको ज्योतिष के आलोचक अथवा पूर्ण रूप से अनभिज्ञ व्यक्ति भी सहज रूप में पहचान कर ज्योतिष की विज्ञान रूप में वैधता सत्यता को अंगीकार कर सकते हैं। ✍🏻१.-यदि किसी जन्म कुंडली में चंद्र 10 वें अंक के साथ किसी भी घर में है तो उस व्यक्ति को जीवन में कम से कम एक बार भयंकर विफलता भोगनी पड़ेगी। यह अपराध इतना भयंकर होगा कि वह जनता में अपना मुंह दिखाने में भी संकोच अनुभव करेगा। स्पष्ट है कि मकर राशि के व्यक्ति के जीवन में उक्त भविष्यवाणी घटित होती ही है। २.-जब कभी चंद्र के साथ (एक ही घर में) शनि और राहु अथवा राहु एवं मंगल जैसे दो दुष्ट ग्रह हो तो वह व्यक्ति मानसिक रूप से इतना परेशान होता है कि पूर्ण रूपेण पागल मालूम पड़ता है अथवा ऐसा अनुभव करता है कि वह पागल होने वाला है। ३.-शनि जब तुला लग्न में होता है। तब वह व्यक्ति विद्वान होता है तथा प्रथम श्रेणी का विद्यार्थी होता है। ४.-जब गुरु कर्क लग्न में होता है तो वह व्यक्ति विश्वास योग्य, उदार हृदय, सादा जीवन, स्पष्ट वक्ता, सत्य प्रिय तथा चारित्रिक शुद्धता और विद्वत्ता के लिए प्रख्यात होता है। यही परिणाम तब भी होते हैं जबकि गुरु पांचवे या नवे घर में होता है। ५.-यदि लग्न में किसी भी राशि में मंगल स्थित हो तो व्यक्ति शीघ्र क्रोधी स्वभाव का होता है। ६.-यदि कर्क लग्न में अथवा नवे घर में कर्क राशि में गुरु और चंद्र स्थित हो तो वह व्यक्ति महान नेता तथा सत्य का निडर पुजारी एवं महान ख्याति प्राप्त करता है। ७.-यदि मंगल किसी भी राशि में तीसरे घर में हो तो वह व्यक्ति बहादुर और साहसी होता है। तथा किसी भी युद्ध, संघर्ष अथवा लड़ाई में भाग लेने के लिए सहसा आगे बढ़ जाने से भयभीत नहीं होता है। ८.-यदि किसी भी घर में कर्क राशि में गुरु और चंद्र अथवा शुक्र और चंद्र एकत्र हैं तो संबंधित व्यक्ति अत्यंत सुंदर एवं स्वस्थ होगा। ९.-चंद्र और शनि का चौथे घर में इकट्ठा होना व्यक्ति के लिए शैशवावस्था और किशोरावस्था में घोर विपदाओं का फल देने वाला होता है। उत्तरोत्तर जीवन में भी यह संगति नौकरियों की अकस्मात हानि अथवा वित्तीय हानियों का कारण होती है.इत्यादि…!
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: नवार्ण मंत्र साधना एवं महत्व
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माता भगवती जगत् जननी दुर्गा जी की साधना-उपासना के क्रम में, नवार्ण मंत्र एक ऐसा महत्त्वपूर्ण महामंत्र है | नवार्ण अर्थात नौ अक्षरों का इस नौ अक्षर के महामंत्र में नौ ग्रहों को नियंत्रित करने की शक्ति है, जिसके माध्यम से सभी क्षेत्रों में पूर्ण सफलता प्राप्त की जा सकती है और भगवती दुर्गा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है यह महामंत्र शक्ति साधना में सर्वोपरि तथा सभी मंत्रों-स्तोत्रों में से एक महत्त्वपूर्ण महामंत्र है। यह माता भगवती
दुर्गा जी के तीनों स्वरूपों माता महासरस्वती, माता महालक्ष्मी व माता महाकाली की एक साथ साधना का पूर्ण प्रभावक बीज मंत्र है और साथ ही माता दुर्गा के नौ रूपों का संयुक्त मंत्र है और इसी महामंत्र से नौ ग्रहों को भी शांत किया जा सकता है |

नवार्ण मंत्र-
🔸🔹🔸
|| ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ||

नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की नौ शक्तियां समायी हुई है | जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है |

ऐं = सरस्वती का बीज मन्त्र है ।
ह्रीं = महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है ।
क्लीं = महाकाली का बीज मन्त्र है ।

इसके साथ नवार्ण मंत्र के प्रथम बीज ” ऐं “ से माता दुर्गा की प्रथम शक्ति माता शैलपुत्री की उपासना की जाती है, जिस में सूर्य ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |

नवार्ण मंत्र के द्वितीय बीज ” ह्रीं “ से माता दुर्गा की द्वितीय शक्ति माता ब्रह्मचारिणी
की उपासना की जाती है, जिस में चन्द्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|

नवार्ण मंत्र के तृतीय बीज ” क्लीं “ से माता दुर्गा की तृतीय शक्ति माता चंद्रघंटा की उपासना की जाती है, जिस में मंगल ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|

नवार्ण मंत्र के चतुर्थ बीज ” चा “ से माता दुर्गा की चतुर्थ शक्ति माता कुष्मांडा की
उपासना की जाती है, जिस में बुध ग्रह
को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई
है।

नवार्ण मंत्र के पंचम बीज ” मुं “ से माता दुर्गा की पंचम शक्ति माँ स्कंदमाता की उपासना की जाती है, जिस में बृहस्पति ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के षष्ठ बीज ” डा “ से माता दुर्गा की षष्ठ शक्ति माता कात्यायनी की उपासना की जाती है, जिस में शुक्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के सप्तम बीज ” यै “ से माता दुर्गा की सप्तम शक्ति माता कालरात्रि की
उपासना की जाती है, जिस में शनि ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के अष्टम बीज ” वि “ से माता दुर्गा की अष्टम शक्ति माता महागौरी की उपासना की जाती है, जिस में राहु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के नवम बीज ” चै “ से माता दुर्गा की नवम शक्ति माता सिद्धीदात्री की उपासना की जाती है, जिस में केतु ग्रह को
नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र साधना विधी
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
विनियोग:
🔸🔹🔸
ll ॐ अस्य श्रीनवार्णमंत्रस्य
ब्रम्हाविष्णुरुद्राऋषय:गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसी,श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर
स्वत्यो देवता: , ऐं बीजम , ह्रीं शक्ति: ,क्लीं कीलकम श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर स्वत्यो प्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ll

विलोम बीज न्यास:-
🔸🔸🔹🔸🔸
ॐ च्चै नम: गूदे ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ यै नम: वाम नासा पूटे ।
ॐ डां नम: दक्ष नासा पुटे ।
ॐ मुं नम: वाम कर्णे ।
ॐ चां नम: दक्ष कर्णे ।
ॐ क्लीं नम: वाम नेत्रे ।
ॐ ह्रीं नम: दक्ष नेत्रे ।
ॐ ऐं ह्रीं नम: शिखायाम ॥

(विलोम न्यास से सर्व दुखोकी नाश होता
है,संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ दहीने
हाथ की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये)

ब्रम्हारूप न्यास:-
🔸🔸🔹🔸🔸
ॐ ब्रम्हा सनातन: पादादी नाभि पर्यन्तं मां
पातु ॥
ॐ जनार्दन: नाभेर्विशुद्धी पर्यन्तं नित्यं मां
पातु ॥
ॐ रुद्र स्त्रीलोचन: विशुद्धेर्वम्हरंध्रातं मां
पातु ॥
ॐ हं स: पादद्वयं मे पातु ॥
ॐ वैनतेय: कर इयं मे पातु ॥
ॐ वृषभश्चक्षुषी मे पातु ॥
ॐ गजानन: सर्वाड्गानी मे पातु ॥
ॐ सर्वानंन्द मयोहरी: परपरौ देहभागौ मे पातु ॥

( ब्रम्हारूपन्यास से सभी मनोकामनाये पूर्ण
होती है, संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ
दोनों हाथो की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये )

ध्यान मंत्र:-
🔸🔹🔸
खड्गमं चक्रगदेशुषुचापपरिघात्र्छुलं भूशुण्डीम शिर: शड्ख संदधतीं करैस्त्रीनयना
सर्वाड्ग भूषावृताम ।
नीलाश्मद्दुतीमास्यपाददशकां सेवे
महाकालीकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम ॥

माला पूजन:-
🔸🔹🔸
जाप आरंभ करनेसे पूर्व ही इस मंत्र से माला का पुजा कीजिये,इस विधि से आपकी माला भी चैतन्य हो जाती है.

“ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नंम:’’

ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिनी ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृहनामी दक्षिणे
करे । जपकाले च सिद्ध्यर्थ प्रसीद मम सिद्धये ॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देही देही सर्वमन्त्रार्थसाधिनी साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।

अब आप येसे चैतन्य माला से नवार्ण मंत्र का जाप करे-

नवार्ण मंत्र :-
🔸🔹🔸
ll ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ll

नवार्ण मंत्र की सिद्धि 9 दिनो मे 1,25,000 मंत्र जाप से होती है,परंतु आप येसे नहीं कर सकते है तो रोज 1,3,5,7,11,21….इत्यादि माला मंत्र जाप भी कर सकते है,इस विधि से सारी इच्छाये पूर्ण होती है,सारइ दुख समाप्त होते है और धन की वसूली भी सहज ही हो जाती है।
हमे शास्त्र के हिसाब से यह सोलह प्रकार
के न्यास देखने मिलती है जैसे ऋष्यादी,कर ,हृदयादी ,अक्षर ,दिड्ग,सारस्वत,प्रथम मातृका ,द्वितीय मातृका,तृतीय मातृका ,षडदेवी ,ब्रम्हरूप,बीज मंत्र ,विलोम बीज ,षड,सप्तशती ,शक्ति जाग्रण न्यास और
बाकी के 8 न्यास गुप्त न्यास नाम से
जाने जाते है,इन सारे न्यासो का अपना एक अलग ही महत्व होता है,उदाहरण के लिये शक्ति जाग्रण न्यास से माँ सुष्म रूप से साधकोके सामने शीघ्र ही आ जाती है और मंत्र जाप की प्रभाव से प्रत्यक्ष होती
है और जब माँ चाहे कसी भी रूप मे क्यू न आये हमारी कल्याण तो निच्छित ही कर देती है।
आप नवरात्री एवं अन्य दिनो मे इस मंत्र के जाप जो कर सकते है.मंत्र जाप रुद्राक्ष अथवा काली हकीक माला से ही किया करे।
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
[हस्त मुद्राऐं उनके लाभ और प्रकार
क्या आप जानते हैं कि आपके हाथों में एक सहज चिकित्सा शक्ति है जिसका उपयोग सदियों से विभिन्न बीमारियों को उपचार करने के लिए किया गया है?
योग विज्ञान के अनुसार, मानव शरीर में पांच बुनियादी तत्व शामिल हैं – पंच तत्व। हाथ की पांच अंगुलियां शरीर में इन महत्वपूर्ण तत्वों से जुड़ी हुई हैं और इन मुद्राओं का अभ्यास करके आप अपने शरीर में इन 5 तत्वों को नियंत्रित कर सकते हैं।इन मुद्राओं को आपके शरीर के विभिन्न भागों में ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
पांच उंगलियां ब्रह्मांड के पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं
तर्जनी ऊँगली :- यह उंगली हवा के तत्व का प्रतिनिधित्व करती है। ये उंगली आंतों से जुडी होती है। अगर आप के पेट में दर्द है तो इस उंगली को हल्का सा रगड़े , दर्द गयब हो जायेगा।
कनिष्ठा :- यह जल तत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
अंगूठा :- यह अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
अनामिका :- यह पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
मध्यमा :- यह आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती है। यह हमारे शरीर में भक्ति और धैर्य से भावनाओं के रूपांतरण को नियंत्रित करती है।
महत्वपूर्ण हस्त मुद्रायों के नाम :-
1- अग्नि मुद्रा,2- अपान मुद्रा,3- अपानवायु मुद्रा,4- शून्य मुद्रा,5- लिंग मुद्रा,6- वायु मुद्रा,7- वरुण मुद्रा,8- सूर्य मुद्रा,9- प्राण मुद्रा,10- ज्ञान मुद्रा,11- पृथ्वी मुद्रा
विशेष निर्देश

  1. कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं जिन्हें सामान्यत पूरे दिनभर में कम से कम 45 मिनट तक ही लगाने से लाभ मिलता है। इनको आवश्यकतानुसार अधिक समय के लिए भी किया जा सकता है। कोई भी मुद्रा लगातार 45 मिनट तक की जाए तो तत्व परिवर्तन हो जाता है।
  2. कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं जिन्हें कम समय के लिए करना होता है-इनका वर्णन उन मुद्राओं के आलेख में किया गया है।
  3. कुछ मुद्राओं की समय सीमा 5-7 मिनट तक है। इस समय सीमा में एक दो मिनट बढ़ जाने पर भी कोई हानी नहीं है। परन्तु ध्यान रहे की यदि किसी भी मुद्रा को अधिक समय तक लगाने से कोई कष्ट हो तो मुद्रा को तुरंत खोल दें।
  4. ज्ञान मुद्रा, प्राण मुद्रा, अपान मुद्रा काफी लम्बे समय तक की जा सकती है।
  5. कुछ मुद्राएँ तुरंत प्रभाव डालती है जैसे- कान दर्द में शून्य मुद्रा, पेट दर्द में अपान मुद्रा/अपानवायु मुद्रा, एन्जायना में वायु मुद्रा/अपानवायु मुद्रा/ऐसी मुद्रा करते समय जब दर्द समाप्त हो जाए तो मुद्रा तुरंत खोल दें।
  6. लम्बी अविधि तक की जाने वाली मुद्राओं का अभ्यास रात्री को करना आसन हो जाता है। रात सोते समय मुद्रा बनाकर टेप बांध दें, और रात्री में जब कभी उठें तो टेप हटा दें। दिन में भी टेप लगाई जा सकती है क्यूंकि लगातार मुद्रा करने से जल्दी आराम मिलता है।
  7. वैसे तो अधिकतर मुद्राएँ चलते-फिरते, उठते-बैठते, बातें करते कभी भी कर सकते हैं, परन्तु यदि मुद्राओं का अभ्यास बैठकर, गहरे लम्बे स्वासों अथवा अनुलोम-विलोम के साथ किया जाए तो लाभ बहुत जल्दी हो जाता है।
  8. छोटे बच्चों, कमजोर व्यक्तियों व आपात स्थिति उदहारण के लिए अस्थमा, अटैक, लकवा आदि में टेप लगाना ही अच्छा है।
  9. दायें हाथ की मुद्रा शरीर के बायें भाग को और बाएं हाथ की मुद्रा शरीर के दायें भाग को प्रभावित करती है। जब शरीर के एक भाग का ही रोग हो तो एक हाथ से वांछित मुद्रा बनायें और दुरे हाथ से प्राण मुद्रा बना लें। प्राण मुद्रा हमारी जीवन शक्ति बढ़ाती है, और हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। परन्तु सामान्यत कोई भी मुद्रा दोनों हाथों से एक साथ बनानी चाहिए।
  10. भोजन करने के तुरंत बाद सामान्यतः कोई भी मुद्रा न लगाएं। परन्तु भोजन करने के बाद सूर्य मुद्रा लगा सकते हैं। केवल आपात स्थिति में ही भोजन के तुरंत बाद मुद्रा बना सकते हैं जैसे-कान दर्द, पेट दर्द, उल्टी आना, अस्थमा अटैक होना इत्यादि।
  11. यदि एक साथ दो तीन मुद्रायों की आवश्यकता हो और समय का आभाव हो तो एक साथ दो मुद्राएँ भी लगाई सकती हैं ।जैसे- सूर्य मुद्रा और वायु मुद्रा एक साथ लागएं अन्यथा एक हाथ से सूर्य मुद्रा और दुसरे हाथ से वायु मुद्रा भी बना सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में 15-15 मिनट बाद हाथ की मुद्राएँ बदल लें।
  12. एक मुद्रा करने के बाद दूसरी मुद्रा तुरंत लगा सकते हैं, परन्तु विपरीत मुद्रा न हो।
    हस्त मुद्रायों के लाभ :-
    1- शरीर की सकारात्मक सोच का विकास करती है।
    2- मस्तिष्क, हृदय और फेंफड़े स्वस्थ बनते हैं।
    3- ब्रेन की शक्ति में बहुत विकास होता है।
    4- इससे त्वचा चमकदार बनती है।
    5- इसके नियमित अभ्यास से वात-पित्त एवं कफ की समस्या दूर हो जाती है।
    6- सभी मानसिक रोगों जैसे पागलपन, चिडचिडापन, क्रोध, चंचलता, चिंता, भय, घबराहट, अनिद्रा रोग, डिप्रेशन में बहुत लाभ पहुंचता है।
    7- वायु संबन्धी समस्त रोगों में लाभ होता है।
    8- मोटापा घटाने में बहुत सहायक होता है।
    9- ह्रदय रोग और आँख की रोशनी में फायदा करता है।
    10- साथ ही यह प्राण शक्ति बढ़ाने वाला होता है।
    11- कब्ज और पेशाब की समस्याओ में फायदा है।
    12- इसको निरंतर अभ्यास करने से नींद अच्छी तरह से आने लगती है और साथ में आत्मविश्वास भी बढ़ता है।
    [ त्रिफला लेने का सही नियम जो शरीर का कायाकल्प कर देगा

त्रिफला के सेवन से अपने शरीर का कायाकल्प कर जीवन भर स्वस्थ रहा जा सकता है | आयुर्वेद की महान देन त्रिफला से हमारे देश का आम व्यक्ति परिचित है व सभी ने कभी न कभी कब्ज दूर करने के लिए इसका सेवन भी जरुर किया होगा | पर बहुत कम लोग जानते है इस त्रिफला चूर्ण जिसे आयुर्वेद रसायन भी मानता है से अपने कमजोर शरीर का कायाकल्प किया जा सकता है | बस जरुरत है तो इसके नियमित सेवन करने की | क्योंकि त्रिफला का वर्षों तक नियमित सेवन ही आपके शरीर का कायाकल्प कर सकता है |

सेवन विधि – सुबह हाथ मुंह धोने व कुल्ला आदि करने के बाद खाली पेट ताजे पानी के साथ इसका सेवन करें तथा सेवन के बाद एक घंटे तक पानी के अलावा कुछ ना लें | इस नियम का कठोरता से पालन करें |

यह तो हुई साधारण विधि पर आप कायाकल्प के लिए नियमित इसका इस्तेमाल कर रहे है तो इसे विभिन्न ऋतुओं के अनुसार इसके साथ गुड़, सैंधा नमक आदि विभिन्न वस्तुएं मिलाकर ले | हमारे यहाँ वर्ष भर में छ: ऋतुएँ होती है और प्रत्येक ऋतू में दो दो मास |

१- ग्रीष्म ऋतू – १४ मई से १३ जुलाई तक त्रिफला को गुड़ १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |

२- वर्षा ऋतू – १४ जुलाई से १३ सितम्बर तक इस त्रिदोषनाशक चूर्ण के साथ सैंधा नमक १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |

३- शरद ऋतू – १४ सितम्बर से १३ नवम्बर तक त्रिफला के साथ देशी खांड १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |

४- हेमंत ऋतू – १४ नवम्बर से १३ जनवरी के बीच त्रिफला के साथ सौंठ का चूर्ण १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |

५- शिशिर ऋतू – १४ जनवरी से १३ मार्च के बीच पीपल छोटी का चूर्ण १/४ भाग मिलाकर सेवन करें |

६- बसंत ऋतू – १४ मार्च से १३ मई के दौरान इस के साथ शहद मिलाकर सेवन करें | शहद उतना मिलाएं जितना मिलाने से अवलेह बन जाये |

इस तरह इसका सेवन करने से एक वर्ष के भीतर शरीर की सुस्ती दूर होगी , दो वर्ष सेवन से सभी रोगों का नाश होगा , तीसरे वर्ष तक सेवन से नेत्रों की ज्योति बढ़ेगी , चार वर्ष तक सेवन से चेहरे का सोंदर्य निखरेगा , पांच वर्ष तक सेवन के बाद बुद्धि का अभूतपूर्व विकास होगा ,छ: वर्ष सेवन के बाद बल बढेगा , सातवें वर्ष में सफ़ेद बाल काले होने शुरू हो जायेंगे और आठ वर्ष सेवन के बाद शरीर युवाशक्ति सा परिपूर्ण लगेगा |

दो तोला हरड बड़ी मंगावे |तासू दुगुन बहेड़ा लावे ||

और चतुर्गुण मेरे मीता |ले आंवला परम पुनीता ||

कूट छान या विधि खाय|ताके रोग सर्व कट जाय ||

त्रिफला का अनुपात होना चाहिए :- 1:2:3=1(हरद )+2(बहेड़ा )+3(आंवला )

त्रिफला लेने का सही नियम –

*सुबह अगर हम त्रिफला लेते हैं तो उसको हम “पोषक ” कहते हैं |क्योंकि सुबह त्रिफला लेने से त्रिफला शरीर को पोषण देता है जैसे शरीर में vitamine ,iron,calcium,micronutrients की कमी को पूरा करता है एक स्वस्थ व्यक्ति को सुबह त्रिफला खाना चाहिए |

*सुबह जो त्रिफला खाएं हमेशा गुड के साथ खाएं |

*रात में जब त्रिफला लेते हैं उसे “रेचक ” कहते है क्योंकि रात में त्रिफला लेने से पेट की सफाई (कब्ज इत्यादि )का निवारण होता है |

*रात में त्रिफला हमेशा गर्म दूध के साथ लेना चाहिए |

नेत्र-प्रक्षलन : एक चम्मच त्रिफला चूर्ण रात को एक कटोरी पानी में भिगोकर रखें। सुबह कपड़े से छानकर उस पानी से आंखें धो लें। यह प्रयोग आंखों के लिए अत्यंत हितकर है। इससे आंखें स्वच्छ व दृष्टि सूक्ष्म होती है। आंखों की जलन, लालिमा आदि तकलीफें दूर होती हैं।

– कुल्ला करना : त्रिफला रात को पानी में भिगोकर रखें। सुबह मंजन करने के बाद यह पानी मुंह में भरकर रखें। थोड़ी देर बाद निकाल दें। इससे दांत व मसूड़े वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं। इससे अरुचि, मुख की दुर्गंध व मुंह के छाले नष्ट होते हैं।

– त्रिफला के गुनगुने काढ़े में शहद मिलाकर पीने से मोटापा कम होता है। त्रिफला के काढ़े से घाव धोने से एलोपैथिक- एंटिसेप्टिक की आवश्यकता नहीं रहती। घाव जल्दी भर जाता है।

– गाय का घी व शहद के मिश्रण (घी अधिक व शहद कम) के साथ त्रिफला चूर्ण का सेवन आंखों के लिए वरदान स्वरूप है।

– संयमित आहार-विहार के साथ इसका नियमित प्रयोग करने से मोतियाबिंद, कांचबिंदु-दृष्टिदोष आदि नेत्र रोग होने की संभावना नहीं होती।

– मूत्र संबंधी सभी विकारों व मधुमेह में यह फायदेमंद है। रात को गुनगुने पानी के साथ त्रिफला लेने से कब्ज नहीं रहती है।

– मात्रा : 2 से 4 ग्राम चूर्ण दोपहर को भोजन के बाद अथवा रात को गुनगुने पानी के साथ लें।

– त्रिफला का सेवन रेडियोधर्मिता से भी बचाव करता है। प्रयोगों में देखा गया है कि त्रिफला की खुराकों से गामा किरणों के रेडिएशन के प्रभाव से होने वाली अस्वस्थता के लक्षण भी नहीं पाए जाते हैं। इसीलिए त्रिफला चूर्ण आयुर्वेद का अनमोल उपहार कहा जाता है।

सावधानी : दुर्बल, कृश व्यक्ति तथा गर्भवती स्त्री को एवं नए बुखार में त्रिफला का सेवन नहीं करना चाहिए।
निरोगी हेतु महामन्त्र का पालन जरूर करें

मन्त्र 1 :-

• भोजन व पानी के सेवन प्राकृतिक नियमानुसार करें

• ‎रिफाइन्ड नमक,रिफाइन्ड तेल,रिफाइन्ड शक्कर (चीनी) व रिफाइन्ड आटा ( मैदा ) का सेवन न करें

• ‎विकारों को पनपने न दें (काम,क्रोध, लोभ,मोह,इर्ष्या,)

• ‎वेगो को न रोकें ( मल,मुत्र,प्यास,जंभाई, हंसी,अश्रु,वीर्य,अपानवायु, भूख,छींक,डकार,वमन,नींद,)

• ‎एल्मुनियम बर्तन का उपयोग न करें ( मिट्टी के सर्वोत्तम)

• ‎मोटे अनाज व छिलके वाली दालों का अत्यद्धिक सेवन करें

• ‎भगवान में श्रद्धा व विश्वास रखें

मन्त्र 2 :-

• पथ्य भोजन ही करें ( जंक फूड न खाएं)

• ‎भोजन को पचने दें ( भोजन करते समय पानी न पीयें एक या दो घुट भोजन के बाद जरूर पिये व डेढ़ घण्टे बाद पानी जरूर पिये)

• ‎सुबह उठेते ही 2 से 3 गिलास गुनगुने पानी का सेवन कर शौच क्रिया को जाये

• ‎ठंडा पानी बर्फ के पानी का सेवन न करें

• ‎पानी हमेशा बैठ कर घुट घुट कर पिये

• ‎बार बार भोजन न करें आर्थत एक भोजन पूणतः पचने के बाद ही दूसरा भोजन करें

आयुर्वेद में आरोग्य जीवन हेतु 7000 सूत्र हैं आप सब सिर्फ इन सूत्रों का पालन कर 7 से 10 दिन में हुए बदलाव को महसूस कर अपने अनुभव को अपने जानकारों तक पहुचाये

स्वस्थ व समृद्ध भारत निर्माण हेतु

अमर शहीद राष्ट्रगुरु, आयुर्वेदज्ञाता, होमियोपैथी ज्ञाता स्वर्गीय भाई राजीव दीक्षित जी के सपनो (स्वस्थ व समृद्ध भारत) को पूरा करने हेतु अपना समय दान दें

मेरी दिल की तम्मना है हर इंसान का स्वस्थ स्वास्थ्य के हेतु समृद्धि का नाश न हो इसलिये इन ज्ञान को अपनाकर अपना व औरो का स्वस्थ व समृद्धि बचाये। ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और जो भाई बहन इन सामाजिक मीडिया से दूर हैं उन्हें आप व्यक्तिगत रूप से ज्ञान दें।

मण्डूक की कई प्रकार से वेद तथा प्राचीन साहित्य में उपमा है-
(१) रामचरितमानस में इसकी ध्वनि की वेदपाठ की ध्वनि से तुलना की गयी है। वेदपाठ में हर अक्षर कि स्पष्ट उच्चारण उसकी मात्रा तथा स्वर के अनुसार होता है। मण्डूक का शब्द भी अलग-अलग तथा स्पष्ट होता है।
(२) मण्डूक की आत्मा से तुलना कर व्याख्या की गयी है जिसे मण्डूक्य उपनिषद् कहते हैं। यह १२ मन्त्रों का सबसे छोटा उपनिषद् है जिसमें आत्मा के ४ स्तरों का वर्णन है। शंकराचार्य के गुरु गोविन्दपाद के गुरु गौड़पाद ने इसकी व्याख्या के लिये माण्डूक्य कारिका लिखा है जिसमें सभी मन्त्रों की ४ स्तर की व्याख्या है-आगम, वैतथ्य, अद्वैत तथा आलातशान्ति। यह जागरण, सुषुप्ति, प्राज्ञ तथा तैजस का वर्णन है। आगम जागरण जैसा है, जैसा आया वैसा दीखा। सुषुप्ति में काल्पनिक दृश्य दीखते हैं, पर तथ्य भिन्न यि वैतथ्य होते हैं। अद्वैत का अनुभव बाद में बुद्धि या प्रज्ञा द्वारा होता है, अतः यह प्राज्ञ है। पहले हर चीज भिन्न भिन्न दीखती है, बाद में विचार करने पर एकता का पता चलता है, अतः उसे अनुपश्यति कहा गया है। यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति, तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः (ईशावास्योपनिषद्)। इनका समन्वय आलात (जलती लकड़ी) के घुमाने जैसा है। वह पूरा चक्र जैसा दीखता है। हर स्थान का तेज मिलकर एक चक्र होता है, यह तैजस आत्मा का स्वरूप है जो अन्य का समन्वय है। यह कई प्रकार से मेढ़क (मण्डूक) जैसा है। उसकी दीर्घ सुषुप्ति होती है, जागरण तथा वर्षा होने पर जोर का शब्द-तीन अलग-अलग स्थितियां हैं। तीनों एक ही मेढ़क के हैं, जो समन्वय रूप है। वेद भी विभिन्न विचारों के समन्वय से ही पढ़ा जाता है, जो ब्रह्म सूत्र के आरम्भ में है-अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। जन्माद्यस्य यतः। शास्त्र योनित्वात्। तत्तु समन्वयात्। मेढ़क के ४ पैर आत्मा के ४ पाद जैसे हैं। वह चारों पैरों से एक साथ उछलता है। इसी प्रकार आत्मा एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाती है।
(३) मण्डूक वर्षा का कारण नहीँ, लक्षण है। उसी प्रकार यह भूकम्प का भी लक्षण है। पृथ्वी पर भूकम्प की तुलना सरोवर में तैरते शैवाल द्वीप से की गयी है जिस पर मेढ़क बैठे रहते हैं। पानी के भीतर वेतस (बेंत) हिलने से वह शैवाल को हिला देता है जिस पर मेढ़क उछलने लगते हैं। पृथ्वी की सतह के ८ द्वीप (अनन्त या अंटार्कटिक को मिला कर) हैं जिनको ८ दिग्गज कहा गया है। ये द्रव पर तैर रहे हैं। आन्तरिक बल या बाहर ग्रहों का आकर्षण इनको बेंत जैसा हिला देता है जिससे भूकम्प होता है। घर, पशु आदि मेढ़क की तरह उछलते हैं। चीन में प्राचीन काल में भूकम्प की भविष्यवाणी के लिये जो यन्त्र बनते थे, उसमेँ कृत्रिम मेढ़क उछलते थे। पृथ्वी के भीतर बहुत दिन सोने के कारण मेढ़क को भूमि कम्पन का जल्द अनुभव होता है।
[ सत् पुरुषों का उद्देश्य क्या होना चाहिए ??
१. अन्यों के हित का ध्यान रखते हुए हिन्दुओं के अस्तित्व और आदर्श की रक्षा तथा देश की सुरक्षा एवं अखण्डता ‘

२-मानवमात्र को सुबुद्ध , स्वावलम्बी तथा  सत्यसहिष्णु बनाना 
  ४ अस्तित्व के बिना आदर्श का टिक पाना असंभव है , अतएव अस्तित्वरक्षा  अपेक्षित है । आदर्शहीन अस्तित्व का सैद्धान्तिक  महत्व नहीं है , अतएव आदर्श की रक्षा अपेक्षित है । "

(अ) #अस्तित्वकीरक्षा– सेवा , संयम , सद्भाव संघशक्ति में आस्था के द्वारा अस्तित्व की रक्षा संभव है ।

(ब) #आदर्शकीरक्षा– सनातनशास्त्रीय सिद्धांतों में आस्था के द्वारा आदर्श की रक्षा संभव है ।

(स) शक्तिसमन्वित सामंजस्य के बल पर देश की एकता और अखण्डता संभव है । ‘

     (१)  परमेश्वर की  प्राप्ति  के  अविरुद्ध और अनुरूप  स्नेह और  सहानुभूतिपूर्वक  जीवन  और  जगत  का उपयोग  संघशक्ति में  आस्था है ।

     (२)  धर्म और ब्रह्म वेदों  के  मुख्य  प्रतिपाद्य होने से वेदार्थ  हैं  । अतएव  धर्म  और  ब्रह्म  में  आस्था  सनातन शास्त्रीय  सिद्धांत  में  आस्था  है ।

यह पूज्य गुरुदेव की शिक्षा है ।
श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य परम्परा संवाहक स्वामी
रामदेवानन्द सरस्वती ।
[🚩 धर्म क्या और धार्मिक कौन ?🚩

धर्म की परिभाषा #मनुसमृति मे बिलकुल स्पष्ट है और इतनी सुंदर परिभाषा है की कोई दे नहीं सकता और पूरे ब्रह्मांड के लिए वही परिभाषा है केवल मनुष्य के लिए नहीं ,पशु पक्षी ,कीड़े मकोड़े ,चींटी हाथी सबके लिए वही परिभाषा है।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।

1️⃣पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना,
2️⃣दूसरा – (क्षमा) क्षमा मांगने और करने वाला बनना
3️⃣तीसरा – (दम) कभी उत्तेजित ना होना
4️⃣चौथा – (अस्तेय) चोरी ना करना
5️⃣पांचवां – (शौच) – पवित्रता रखना
6️⃣छठा – (इन्द्रिय निग्रह) – इंद्रियों में संयम रखना
7️⃣सातवां – (बुद्धि)
8️⃣आठवां – (विद्या)
9️⃣नवां – (सत्य)
🔟दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़

हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि यह धर्म नही होते। धर्म के दस लक्षण है जो इन्हें धारण करे वो धर्मिक है जो इनका पालन कर रहा हो वो ही धर्म पर चल रहा है।
[ भगवान परमात्मा औऱ ब्रह्म एक ही है।
जैसे हम सूर्य को अनेको नामो से जानते है दिनकर, सुभाकर, सूरज और विदेशों में वही सूर्य को sun कहते है जैसे कुछ लोगो के लिये सूर्य जीवन है वैसे ही वैज्ञानिकों के लिए वह helium और hydrozen का गोला है। वैसे ही। भगवान, परमात्मा औऱ ब्रह्म एक ही है।
अब बात की जाए ब्रह्म की तो
ब्रह्म कौन है?
परम् तत्व के निराकार स्वरूप को ब्रह्म कहते है। ब्रह्म का स्वरूप निर्गुण और असीम है।
तैत्तरीओपनिषद 1.8 ने कहा ओमिति ब्रह्म। अर्थात ॐ ही ब्रह्म है। यानी कि ब्रह्म का नाम ॐ है।
वही
स्वेतास्वेत्तरोपनिषद 6.8 में कहा गया है कि
उसके (शरीर रूप) कार्य और अंतः करण तथा इन्द्रिय रूप कारण नही है उससे बड़ा और उसके समान दूसरा कोई नही है। यानी कि वह निराकार है।
वही

मुण्डकोपनिषद 1.1.6 कहता है की वह जो जानने में न आने वाला, पकड़ने में न आने वाला , गौत्र आदि से रहित। रूप और आकृति से रहित है जो नेत्र कान आदि ज्ञानेन्द्रियो से रहित हाथ ,पैर आदि कर्मेन्द्रियों से रहित तथा वह नित्य सर्व व्यापक सभी जगह में फैला हुआ है वह अत्यंत सूक्ष्म अविनाशी परमब्रह्म है।

अब बात की जाय परमात्मा की तो वह कौन है?
परम् तत्व के साकार स्वरूप को पर्मात्मात्मा कहते है परमात्मा सगुण और साकार होता है।
परमात्मा साकार है किंतु वह कोई लीला नही करते जैसे महाविष्णु।

श्रीमद्भगवत गीता 15.17
उत्तम पुरुष तो अन्य ही है? जो परमात्मा नामसे कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकोंमें प्रविष्ट होकर सबका भरणपोषण करता है इस प्रकार वह परमात्मा कहलाता है।

वहीं श्रीमद्भगवत गीता 13.17 में कहा गया है-

वह ज्ञेय प्रत्येक शरीरमें आकाशके समान अविभक्त और एक है। तो भी समस्त प्राणियोंमें विभक्त हुआसा स्थित है क्योंकि उसकी प्रतीति शरीरोंमें ही हो रही है। तथा वह ज्ञेय स्थितिकालमें भूतभर्तृ — भूतोंका धारणपोषण करनेवाला? प्रलयकालमें ग्रसिष्णु — सबका संहार करनेवाला और उत्पत्तिके समय प्रभविष्णु — सबको उत्पन्न करनेवाला है? जैसे कि मिथ्याकल्पित सर्पादिके ( उत्पत्ति? स्थिति और नाशके कारण ) रज्जु आदि होते हैं।

यानी विष्णु रूप में सभी का पालन पोषण करने वाला है रुद्र रूप में संहार करने वाला है तथा ब्रह्मा रूप में सृष्टि करने वाला हैं
अर्थात परमात्मा साकार है इनका लोक भी है किन्तु यह लीला नही करते। परमात्मा ही सभी आत्माओ के अंदर निवास करते है तथा कर्मफल देते है।
परम् तत्व इस रूप में पालन तथा न्याय करता है। परमात्मा के जो भक्त है वह योगी कहलाते है।

अब बात की जाय भगवान की तो भगवान कौन होते है?
उस परमतत्व भगवान के साकार स्वरूप होते है इनके धाम भी होते है और यह लीला भी करते है। जैसे भगवान राम भगवान कृष्ण और कृष्ण लीला या राम लीला साकेत लोक और गोलोक। इनके लिए परमात्मा ओर ब्रह्म शब्द का प्रयोग भी ग्रंथो में हुआ है। जिसमे प्रथम यह साकार है दूसरा इनकी लीला जनकल्याण के लिए होती है तथा तीसरा भगवान परमात्मा और ब्रह्म एक ही है।
जीव के कल्याण और लाभ के लिए भगवान को ब्रह्म ओर परमात्मा से भी श्रेष्ठ बताया गया है किंतु यह एक ही है। अपने अपने सिद्धांतो से ब्रह्म, परमात्मा और भगवान श्रेष्ठ ही है
जैसे भगवान श्रीराम औऱ श्रीकृष्ण को ब्रह्म या परमात्मा कहा जाय तो शंका मत कीजियेगा क्योंकि यह तीनों एक ही है।
जैसे
भग + वान
जिसमे वान शब्द का अर्थ धारण करने वाला होता है।
जैसे
धन+वान, गुण+ वान

वैसे ही भग को धारण करे वह भगवान।
विष्णुमहापुराण 6.5.79
के अनुसार
ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, शौर्य, तेज
-यह सब भग है।
यह सब अनंत रूप में जिसमे वर्तमान है वही भगवान है।

अब भागवत पुराण कहती है ब्रह्म, परमात्मा और भगवान एक ही है।
भागवत महापुराण 12.6.39 के अनुसार
जिस परम् वस्तु को भगवान ,परमात्मा और ब्रह्म कहा जाता है उसके स्वरूप का बोध ॐकार से होता है।

मतलब ब्रह्म, परमात्मा, भगवान एक ही है।

जिस प्रकार जज न्याय देता है उसी प्रकार वही जज पुत्र को शिक्षा देता है। इसलिए इनमे कोई भेद नही हो सकता क्योंकि वह एक ही है। जैसे किसी एक व्यक्ति के कार्य अलग अलग है किंतु वह एक ही है

वैसे ही परम् तत्व
परमात्मा के रूप में वह जज है।
वैसे ही वह ब्रह्म के रूप में वह समस्त ब्रह्माण्ड को अपने अंदर समाय हुए है।
वैसे ही वह भगवान के रूप में अवतार लेकर वह जन कल्याण के लिये ज्ञान देने वाला और लोगो के कल्याण के लिये वह मधुर लीला करने वाला है।

विज्ञान के अनुसार पानी 0° celcious में ठोस , तरल, औऱ गैस होता है मतलब solid, liquid and gaseous form में होता है वैसे ही परमात्मा होता है।
इसलिए इन सब में तर्क करना बेकार है।


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आस्तिक और नास्तिक के बीच बहस
आस्तिक और नास्तिक के बीच बहस

आस्तिक नास्तिक संवाद
नास्तिक – ईश्वर नाम कि कोई चीज नहीं है , यदि ईश्वर है तो उसे किसने बनाया है ?
आस्तिक – मित्र ईश्वर को किसी ने नहीं बनाया है , बनाया उसे जाता है जिसमे बनावट हो ईश्वर निराकार है |
नास्तिक – ईश्वर जैसे कोई चीज नहीं है , ब्रम्हांड कि रचना के लिए ईश्वर कि कोई आवश्यकता नहीं है |
आस्तिक – मित्र , यदि ऐसा है तो ब्रम्हांड को किसने बनाया ?
नास्तिक – ब्रम्हांड अपने आप बन गया ?
आस्तिक – अपने आप बनाने से पूर्व यह कौन सी अवस्था में था ?
नास्तिक – यह कैसा प्रश्न है ?
आस्तिक – प्रश्न तो अभी शुरू होगा , बनाने से पहले कोई न कोई अवस्था में तो होगा ही ?
नास्तिक – हाँ किसी अवस्था में तो होगा |
आस्तिक – तो फिर उस अवस्था को किसने बनाया ?
नास्तिक – वह अवस्था अनादि(Beginningless) है उसे किसी ने नहीं बनाया ?
आस्तिक – जब आप कहते हैं कि ईश्वर को किसी ने बनाया होगा तो हमारा भी यही सवाल है , आप कैसे कह सकते हैं कि उस अवस्था को किसी ने नहीं बनाया है ?
नास्तिक – तुम बताओ – ब्रम्हांड कैसे बना ?
आस्तिक – कोई भी बनी हुयी वस्तु बिना किसी के बनाये नहीं बनती , ब्रम्हांड बना हुआ है उसे बनाने वाला ईश्वर है | ईश्वर ने उसे वैज्ञानिक नियमों के अनुसार बनाया है |

नास्तिक – ईश्वर को किसने बनाया ?
आस्तिक – इसका उत्तर पहले दे आये हैं , ईश्वर निराकार है इसलिए उसका कोई कलाकार(Creator) नहीं है |
नास्तिक – ईश्वर ने दुनिया को किस Material से बनाया ?
आस्तिक – प्रकृति यानि पदार्थ कि मूल अवस्था(Material Cause) से बनाया |
नास्तिक – उस मूल अवस्था को किसने बनाया ?
आस्तिक – मूल का कोई मूल नहीं होता , इसलिए उसको किसी ने नहीं बनाया , जिस वस्तु में संयोग होता है उसका कोई निर्माण करने वाला होता है , मूल अवस्था संयोगजन्य नहीं है इसलिए उसका कोई कर्त्ता(Creator) नहीं , ईश्वर भी संयोगजन्य नहीं है उसका भी कोई कर्त्ता(Creator) नहीं है | पदार्थ कि मूल अवस्था ऊर्जा का मूल रूप है , रूप में परिवर्तन होता लेकिन ये ऊर्जा न तो कभी पैदा होती है , न ही कभी नष्ट होती है |
नास्तिक – इसी तरह हमारी मूल अवस्था को किसी ने नहीं बनाया , और उस मूल अवस्था से ब्रम्हांड अपने आप बना |
आस्तिक – मित्र , आप ये सिद्ध नहीं कर पाए थे कि उसको किसी ने नहीं बनाया , बल्कि हमने इसे सिद्ध किया है , चलिए , अब आगे बताइये कि यदि ब्रम्हांड अपने आप कैसे बना ?
नास्तिक – सृष्टि नियमों के द्वारा अपने आप बना |
आस्तिक – नियम होंगे तो नियामक भी होगा , management होगा तो manager भी होगा , आप नियमों को मानते है तो नियम खुद तो नियामक यानि कि law maker or Ruler को सिद्ध करते है | आप बताइये नियमों को किसने बनाया ?
नास्तिक – नियम अनादि है , किसी ने नहीं बनाया |
आस्तिक – नियम अनादि है तो नियामक यानि कि ruler भी अनादि हुआ |
नास्तिक – नहीं , नियम ही अनादि है |
आस्तिक – चलिए कोई बात नहीं , नियम अनादि है तो उन नियमों को कैसे पता कि कब उन्हें लागु (Apply) होना है ?
नास्तिक – अपने आप लागु होते है ?
आस्तिक – क्या अपने आप लागु होना उन नियमों का स्वभाव(Nature or Property) है ?
नास्तिक – हाँ

आस्तिक – अपने आप लागू होंगे तो किसी एक समय नहीं होंगे , बल्कि हमेशा लागु होते रहेंगे |
नास

विवाह की बढ़ती उम्र पर खामोशी क्यों…?

३०-३५ साल की युवक युवतियां बैठे हैं कुंवारे, फिर मौन क्यों हैं समाज के कर्ता-धर्ता कुंवारे बैठे लड़के लड़कियों की एक गंभीर समस्या आज कमोबेश सभी समाजों में उभर के सामने आ रही है। इसमें लिंगानुपात तो एक कारण है ही मगर समस्या अब इससे भी कहीं आगे बढ़ गई है।

क्योंकि ३० से ३५ साल तक की लड़कियां भी कुंवारी बैठी हुई है। इससे स्पष्ट है कि इस समस्या का लिंगानुपात ही एकमात्र कारण नहीं बचा है। ऐसे में लड़के लड़कियों के जवां होते सपनों पर न तो किसी समाज के कर्ता-धर्ताओं की नजर है और न ही किसी रिश्तेदार और सगे संबंधियों की। हमारी सोच कि हमें क्या मतलब है में उलझ कर रह गई है। बेशक यह सच किसी को कड़वा लग सकता है लेकिन हर समाज की हकीकत यही है।
शादी के लिए लड़की की उम्र १८ साल व लड़के की उम्र २१ साल होनी चाहिए ये तो अब बस आंकड़ों में ही रह गया है। एक समय था जब संयुक्त परिवार के चलते सभी परिजन अपने ही किसी रिश्तेदार व परिचितों से शादी संबंध बालिग होते ही करा देते थे। मगर बढ़ते एकल परिवारों ने इस परेशानी को और गंभीर बना दिया है। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि एकल परिवार प्रथा ने आपसी प्रेम व्यवहार ही खत्म सा कर दिया है। अब तो शादी के लिए जांच पड़ताल में और कोई तो नेगेटिव करें या न करें अपनी ही खास सगे संबंधी नेगेटिव कर बनते संबंध खराब कर देते है।

उच्च शिक्षा और हाई जॉब बढ़ा रही उम्र

यूं तो शिक्षा शुरू से ही मूल आवश्यकता रही है लेकिन पिछले डेढ़ दो दशक से इसका स्थान उच्च शिक्षा या कहे कि खाने कमाने वाली डिग्री ने ले लिया है। इसकी पूर्ति के लिए अमूमन लड़के की उम्र २३-२४ या अधिक हो जाती है। इसके दो-तीन साल तक जॉब करते रहने या बिजनेस करते रहने पर उसके संबंध की बात आती है। जाहिर से इतना होते-होते लड़के की उम्र तकरीबन ३० के इर्द -गिर्द हो जाती है। इतने तक रिश्ता हो गया तो ठीक, नहीं तो लोगों की नजर तक बदल जाती है। यानि ५० सवाल खड़े हो जाते है।

चिंता देता है उम्र का यह पड़ाव

प्रकृति के हिसाब से ३० प्लस का पड़ाव चिंता देने वाला है। न केवल लड़के-लड़की को बल्कि उसके माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार और सगे संबंधियों को भी। सभी तरफ से प्रयास भी किए, बात भी जंच गई लेकिन हर संभव कोशिश के बाद भी रिश्ता न बैठने पर उनकी चिंता और बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, शंका-समाधान के लिए मंदिरों तक गए, पूजा-पाठ भी कराए, नामी विशेषज्ञों ने जो बताए वे तमाम उपाय भी कर लिए पर बात नहीं बनी। मेट्रीमोनी वेबसाइट्स व वाट्सअप पर चलते बायोडेटा की गणित इसमें कारगार होते नहीं दिखाई देते। बिना किसी मीडिएटर के संबंध होना मुश्किल ही होता है। मगर कोई मीडिएटर बनना चाहता ही नहीं है। मगर इन्हें कौन समझाए की जब हम किसी के मीडिएटर नहीं बनेंगे तो हमारा भी कोई नहीं बनेगा। एक समस्या ये भी हम पैदा करते जा रहे है कि हम सामाजिक न होकर एकांतवादी बनते जा रहे है।

आखिर कहां जाए युवा मन

अपने मन को समझाते-बुझाते युवा आखिर कब तक भाग्य भरोसे रहेगा। अपनों से तिरस्कृत और मन से परेशान युवा सब कुछ होते हुए भी अपने को ठगा सा महसूस करता है। हद तो तब हो जाती है जब किसी समारोह में सब मिलते हैं और एक दूसरे से घुल मिलकर बात करते हैं लेकिन उस वक्त उस युवा पर क्या बीतती है, यह वही जानता है। ऐसे में कई बार नहीं चाहते हुए भी वह उधर कदम बढ़ाने को मजबूर हो जाता है जहां शायद कोई सभ्य पुरूष जाने की भी नहीं सोचता या फिर ऐसी संगत में बैठता है जो बदनाम ही करती हो।

ख्वाहिशें अपार, अरमान हजार

हर लड़की और उसके पिता की ख्वाहिश से आप और हम अच्छी तरह परिचित हैं। पुत्री के बनने वाले जीवनसाथी का खुद का घर हो, कार हो, परिवार की जिम्मेदारी न हो, घूमने-फिरने और आज से युग के हिसाब से शौक रखता हो और कमाई इतनी तगड़ी हो कि सारे सपने पूरे हो जाएं, तो ही बात बन सकती है। हालांकि सभी की अरमान ऐसे नहीं होते लेकिन चाहत सबकी यही है। शायद हर लड़की वाला यह नहीं सोचता कि उसका भी लड़का है तो क्या मेरा पुत्र किसी ओर के लिए यह सब पूरा करने में सक्षम है। यानि एक गरीब बाप भी अपनी बेटी की शादी एक अमीर लड़के से करना चाहता है और अमीर लड़की का बाप तो अमीर से करेगा ही। ऐसे में सामान्य परिवार के लड़के का क्या होगा? यह एक चिंतनीय विषय सभी के सामने आ खड़ा हुआ है। संबंध करते वक्त एक दूसरे का व्यक्तिव व परिवार देखना चाहिए ना कि पैसा। कई ऐसे रिश्ते भी हमारे सामने है कि जब शादी की तो लड़का आर्थिक रूप से सामान्य ही था मगर शादी बाद वह आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो गया। ऐसे भी मामले सामने आते है कि शादी के वक्त लड़का बहुत अमीर था और अब स्थिति सामान्य रह गई। इसलिए लक्ष्मी तो आती जाती है ये तो नसीबों का खेल मात्र है।

क्यों नहीं सोचता समाज

समाजसेवा करने वाले लोग आज अपना नाम कमाने के लिए लाखों रुपए खर्च करने से नहीं चूकते लेकिन बिडम्बना है कि हर समाज में बढ़ रही युवाओं की विवाह की उम्र पर कोई चर्चा करने की व इस पर कार्य योजना बनाने की फुर्सत किसी को नहीं है। कहने को हर समाज की अनेक संस्थाएं हैं वे भी इस गहन बिन्दु पर चिंतित नजर नहीं आती।

पहल तो करें

हो सकता है इस मुद्दे पर समाज में पहले कभी चर्चा हुई हो लेकिन उसका ठोस समाधान अभी नजर नहीं आता। तो क्यों नहीं बीड़ा उठाएं कि एक मंच पर आकर ऐसे लड़कों व लड़कियों को लाएं जो बढ़ती उम्र में हैं और समझाइश से उनका रिश्ता कहीं करवाने की पहल करें। यह प्रयास छोटे स्तर से ही शुरू हो। रोशन भारत का हर समाज के नेतृत्वकर्ताओं से अनुरोध है कि वे इस गंभीर समस्या पर चर्चा करें और एक ऐसा रास्ता तैयार करें जो युवाओं को एवम उनके माता पिता को भी भटकाव के रास्ते से रोककर विकास के मार्ग पर ले जाए।


भक्ति करना कोई आसान नही है। लोग ऐसे समझते है ठाकुर जी को भोग लगाना ,आरती करना ,प्रसाद पाना इससे भक्ति हो गयी ये तो भक्ति की प्रक्रिया मात्र है।

परमात्मा के वियोग मे जिसके प्राण व्याकुल नही होते ,दर्शन ओर मिलन की आतुरता का अनुभव जिसे नही होता वह तो संसार की भक्ति करता है।

   *भक्ति का आरम्भ तब माने जब परमात्मा सॆ वियोग का दुख का अनुभव हो ।जब मनुष्य को लगे मेरी इतनी उम्र होग्यी पर प्रभु दर्शन नही हुए इसी मे व्याकुलता बढ़ जाये तभी भक्ति का आनँद मिलता है*

जय श्री कृष्ण🙏🙏
[: रुद्राक्ष यानि रुद्र+अक्ष, रुद्र अर्थात भगवान शंकर व अक्ष अर्थात आंसू।

भगवान शिव के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें भूमि पर गिरने से महान रुद्राक्ष अवतरित हुआ। भगवान शिव की आज्ञा पाकर वृक्षों पर रुद्राक्ष फलों के रूप में प्रकट हो गए। मान्यता है रुद्राक्ष अड़तीस प्रकार के हैं जिनमें कत्थई वाले बारह प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति सूर्य के नेत्रों से, श्वेतवर्ण के सोलह प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति चन्द्रमा के नेत्रों से तथा कृष्ण वर्ण वाले दस प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति अग्नि के नेत्रों से होती है। आइए जानें रुद्राक्षों के दिव्य तेज से आप कैसे दुखों से मुक्ति पा कर सुखमय जीवन जीते हुए शिव कृपा पा सकते हैं

यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:।
न तथा दृश्यते अन्या च मालिका परमेश्वरि:।।

अर्थात संसार में रुद्राक्ष की माला की तरह अन्य कोई दूसरी माला फलदायक और शुभ नहीं है।

श्रीमद्- देवीभागवत में लिखा है :
रुद्राक्षधारणाद्य श्रेष्ठं न किञ्चिदपि विद्यते।

अर्थात संसार में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर श्रेष्ठ कोई दूसरी वस्तु नहीं है।

रुद्राक्ष की दो जातियां होती हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष

रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्ष धारण करना महान फलदायक होता है।

भिन्न-भिन्न संख्या में पहनी जाने वाली रुद्राक्ष की माला निम्न प्रकार से फल प्रदान करने में सहायक होती है जो इस प्रकार है

1 रुद्राक्ष के सौ मनकों की माला धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

2 रुद्राक्ष के एक सौ आठ मनकों को धारण करने से समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। इस माला को धारण करने वाला अपनी पीढ़ियों का उद्घार करता है।

3 रुद्राक्ष के एक सौ चालीस मनकों की माला धारण करने से साहस, पराक्रम और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

4 रुद्राक्ष के बत्तीस दानों की माला धारण करने से धन, संपत्ति एवं आयु में वृद्धि होती है।

5 रुद्राक्ष के 26 मनकों की माला को सर पर धारण करना चाहिए।

6 रुद्राक्ष के 50 दानों की माला कंठ में धारण करना शुभ होता है।

7 रुद्राक्ष के पंद्रह मनकों की माला मंत्र जप तंत्र सिद्धि जैसे कार्यों के लिए उपयोगी होती है।

8 रुद्राक्ष के सोलह मनकों की माला को हाथों में धारण करना चाहिए।

9 रुद्राक्ष के बारह दानों को मणि बंध में धारण करना शुभदायक होता है।

10 रुद्राक्ष के 108, 50 और 27 दानों की माला धारण करने या जाप करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।

रुद्राक्ष माला को धारण करने के नियम

1 जिस रुद्राक्ष माला से जाप किया जाता है उसे धारण नहीं करना चाहिए। उसी प्रकार जिस माला को धारण किया जाता है उससे जाप नहीं करना चाहिए।

2 किसी अन्य के उपयोग में आया रुद्राक्ष अथवा रुद्राक्ष माला को उपयोग नहीं करना चाहिए।

3 रुद्राक्ष की प्राण-प्रतिष्ठा करवाने के पश्चात उसे शुभ मुहूर्त में ही धारण करें।

4 रुद्राक्ष धारण करने वाले जातक को मांस, मदिरा, लहसुन और प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए।

5 रुद्राक्ष को अंगूठी में जड़वाकर धारण नहीं करना चाहिए।

6 स्त्रियों को मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए।

7 रुद्राक्ष धारण कर रात को शयन नहीं करना चाहिए।

जो व्यक्ति पवित्र और शुद्ध मन से भगवान शंकर की आराधना करके रुद्राक्ष धारण करता है, उसका सभी कष्ट दूर हो जाता है। यहां तक मानना है कि इसके दर्शन मात्र से ही पापों का क्षय हो जाता है। जिस घर में रुद्राक्ष की पूजा की जाती है, वहां लक्ष्मी जी का वास रहता है। रुद्राक्ष भगवान शंकर की एक अमूल्य और अद्भुद देन है। यह शंकर जी की अतीव प्रिय वस्तु है। इसके स्पर्श तथा इसके द्वारा जप करने से ही समस्त पाप से निवृत्त हो जाते है और लौकिक-परलौकिक एवं भौतिक सुख की प्राप्ति होती है।
जय माता की !!
जय शिव शम्भू !!
[ वाँछनीय सफलता के लिए अपेक्षित गुणों में प्रभावशीलता एक बड़ा ही आवश्यक गुण है। इस गुणों में प्रभावशीलता एक बड़ ही आवश्यक गुण है। इस गुण के अभाव में अनेक साधन, सुविधायें होते हुए और शरीर आदि से पुष्ट होने पर भी मनुष्य, समाज में अपना वाँछित स्थान नहीं बना पाता। बहुत बार देखा जाता है कि कोई व्यक्ति धन के आधार पर किसी काम को बनाना चाहता है लेकिन व्यक्तित्व की प्रभावहीनता के कारण असफल रह जाता है। बहुत से पढ़े-लिखे लोग अप्रभावी व्यक्तित्व के कारण साक्षात्कार आदि परीक्षाओं में असफल हो जाते हैं और यदि किसी प्रकार वे कोई स्थान पा भी लेते हैं तो भी उनकी प्रभावहीनता आए दिन आड़े आती रहती है।

  *!!Զเधे Զเधे!!*🙏🙏

[कुछ निर्बुद्धि प्रकार के लोग हिन्दू देवी देवताओं को लेकर तरह तरह के प्रश्न करते हैं। प्रायः उनका एक सामान्य सा प्रश्न होता है की श्रीराम, गणेश, ब्रह्मा, सरस्वती आदि की पूजा अन्य देशों में क्यों नहीं होती। समय समय पर अपने लेखों के माध्यम से मैंने ये प्रमाणित किया है कि ये बात सर्वथा निर्मूल है, इनकी पूजा भिन्न रूपों में विश्व के कई देशों में होती है। आज इसी क्रम में देखिये परशुराम जी के वैश्विक प्रमाण (मूल लेख अरुण उपाध्याय जी का है) –

परशुराम कीर्ति-जिन भारतीयों के पूर्वज और आराध्य रावण, महिषासुर थे, उसका विरोध होने पर अब परशुराम पर आक्रमण आरम्भ हो गया है। राम की कुछ बातें मान लेते हैं कि उनको लड़ना पड़ा, यद्यपि वे रावण जैसे ज्ञानी या धर्मात्मा नहीं थे। पर परशुराम के बारे में प्रचार हो रहा है कि उन्होंने बिना कारण नरसंहार किया। पुराने भारतीय (तथाकथित आर्य या ब्राह्मण) पागल या पक्षपाती थे, अतः उनको अवतार मान लिया। भगवान् राम की तरह परशुराम की कीर्ति भी पूरे विश्व में थी और आज भी उसके अवशेष हैं। इसका प्रथम विदेशी उल्लेख मेगास्थनीज या उसके समकालीन ग्रीक इतिहासकारों के लेखों में मिलता है। मेगास्थनीज की इण्डिका में लिखा है कि भारत पर प्रथम आक्रमण डायोनिसस या फादर बाक्कस द्वारा सिकन्दर के आक्रमण से ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व हुआ था। सिकन्दर का आक्रमण तथा बाक्कस-दोनों की तिथि भारतीय कैलेण्डर के अनुसार है, क्योंकि भारत के अतिरिक्त वर्ष-मास-तिथि की क्रमागत दीर्घकालिक गणना और कहीं नहीं थी। किन्तु ब्रिटिश काल में केवल भारतीय कालगणना को नष्ट करने की चेष्टा हुई है, उसे समझने की नहीं। ग्रीक-रोमन परम्परा की सबसे पुरानी किताब टालेमी की है, जो पुराने सुमेरिया या असीरिया के राजाओं की है जिनका समय पूर्ण या अर्ध वर्ष में लिखा है। जैसे ११ वर्ष ४ मास को ११.५ वर्ष लिखा गया है। सुमेरिया और मिस्र में सौर वर्ष की कालगणना थी। भारत में ३ या ४ प्रकार की गणना थी-(१) शक वर्ष-शक गणना द्वारा किसी निर्दिष्ट समय से क्रमागत वर्ष-मास-दिन की गणना तथा उसके अनुसार ग्रह गति का निर्धारण। (२) सम्वत्सर-पर्व त्योहार के लिये चान्द्र तिथि की गणना। यह दीर्घकालिक क्रम में सौर शक वर्ष से अधिक मास जोड़ कर मिलाया जाता था। यह सौर वर्ष के अनुसार चलता या संशोधित होता था, या इसके अनुसार समाज चलता था। दोनों अर्थों में इसे सम्वत्सर कहा है। सम् +वत्+सरति = समान रूप से या साथ चलता है। (३) सावन वर्ष- समाज तथा शासन की सुविधा के लिये ३०-३० दिनों के १२ मास होते थे तथा अन्त में ५ या ६ दिन जोड़ते थे (पाञ्चरात्र या षळाह)। यह वत्सर कहलाता था। इसके अनुसार १५-१५ दिन का तिथि आदि का चार्ट बनता था, जिसे वेद में पतरा कहा है। पतरेव चर्चरा चन्द्र-निर्णिक् मन ऋङ्गा मनन्यान जग्मी॥८॥ (ऋक् १०/१०६/८) जैसे चर्चरा (चचड़ा- नाले के ऊपर बांस का पुल चलने पर चड़चड़ करता है) पर चलने से नीचे पानी दीखता है, उसी प्रकार नक्षत्र मार्ग पर चन्द्रमा के चलने से आकाश दीखता है। उसके अनुसार पतरा बनता है और मनुष्यों का मन बदलता है (चन्द्रमा मनसो जातः)। (४) पुराणों में राज वंशावली-इक्ष्वाकु के पहले केवल मुख्य राजाओं का वर्णन है। उसके बाद सभी राजा हैं जिन्होंने १ वर्ष से अधिक शासन किया है। शासन अवधि दो प्रकार से लिखी है जो ओड़िशा में आज भी प्रचलित है। अभिषेक के बाद जो प्रथम भाद्र शुक्ल द्वादशी आती थी उसे शून्य मानते थे अतः इसे सुनिया पर्व कहते हैं। उसके बाद के वर्षों में इस तिथि को १,२,३ —आदि गिनते थे, अतः इसे अंक पद्धति कहते हैं। इस दिन वामन ने बलि से ३ लोकों का राज्य इन्द्र को वापस दिलाया था, अतः इसे वामन द्वादशी भी कहते हैं। इसे केरल में ओणम कहते हैं तथा सिंह मास की ५वीं तिथि को मनाते हैं। यह आधुनिक प्रचलन है तथा किसी पुराने साहित्य में लिखित नहीं है। किसी विशेष वर्ष में सिंह मास की ५ तिथि को वामन द्वादशी रही होगी, अतः आधुनिक बनने के लिये अंग्रेजी अनुकरण कर दिया। एक और अंक पद्धति में ० तथा ६ से अन्त होने वाले अंकों को नहीं गिनते हैं, जैसे १,२,३,४,५,७,८, ९,११,१२– आदि। इस कारण एक ही राजा की २ प्रकार अवधि है।
काल गणना को नष्ट करने के लिये अंग्रेज तथा उनके भक्तों ने उन सभी राजाओं को काल्पनिक घोषित किया जिन्होंने शक या सम्वत् चलाये हैं। कलियुग आरम्भ से ये सम्वत् हैं-युधिष्ठिर काल के ४-युधिष्ठिर शक १७-१२-३१३९ ई.पू.से, कलि सम्वत् १७-२-३१०२ ई.पू.से, युधिष्ठिर जयाभ्युदय शक २५-६-३१०२ ई.पू से (उस दिन जय सम्वत्सर आरम्भ हुआ तथा अभ्युदय के लिये पाण्डव परीक्षित को राज्य दे कर वन चले गये), लौकिक शक (३०७७ ई.पू. मे< युधिष्ठिर देहान्त के समय। भटाब्द (आर्यभटीय लेखन काल)-३६० कलि = २७४२ ई.पू.। जैन युधिष्ठिर शक २६३४ ई.पू.-सरस्वती सूखने पर विप्लव रोकने के लिये काशी राजा ने सन्यास लिया और पार्श्वनाथ बने। उनका मूल नाम युधिष्ठिर होग या युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा थे। शिशुनाग शक (१९५४ ई.पू. में उसके देहान्त से)। इसे बर्मा में कौजाद शक कहा गया है तथा सिद्धार्थ बुद्ध के जीवन की तिथियां दी गयी हैं। नन्द अभिषेक १६३४ ई.पू.। शूद्रक शक ७५६ ई.पू.-असीरिया रानी सेमिरामी द्वारा अफ्रीका, एशिया की संयुक्त ३५ लाख सेना के आक्रमण को रोकने के लिये मालव गण। इसके निर्माता या प्रेरक विष्णु अवतार बुद्ध थे, जो मगध के अजिन ब्राह्मण के पुत्र थे। चाहमान या चपहानि शक (ब्रह्मगुप्त का चाप शक) ६१२ ई.पू. जब दिल्ली के चाहमान राजा ने असीरिया राजधानी को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था। श्रीहर्ष शक-४५६ ई.पू-शूद्रक से आरम्भ ३०० वर्ष के मालव गण का अन्त। इसे मेगास्थनीज ने ३०० वर्ष का गणराज्य कहा है। विक्रमादित्य सम्वत्सर ५७ ई.पू. से। यह आज भी पर्व के लिये मान्य है। राम और कृष्ण के बाद सबसे अधिक साहित्य इसी परमार वंशी उज्जैन राजा के बारे में है पर इनको काल्पनिक कर चन्द्रगुप्त द्वितीय को नकली विक्रमादित्य बनाया गया है जिनके बारे में कोई उल्लेख नहीं है। भारत के इतिहासकारों की धारणा है कि राजा लोग शिलालेखों में लिखते थे कि इतने वर्ष शासन के बाद वे मर गये। शालिवाहन शक ७८ ई.। कलचुरि या चेदि शक-२४८ ई। वलभी भंग शक ३१९ ई. जब वलभी के परवर्त्ती गुप्त राजाओं का राज्य भंग हुआ। इसे गुप्त काल का आरम्भ कर दिया है जो ३२७ ई.पू, से हुआ था।
यह जानने के बाद मेगास्थनीज का लेख समझ सकते हैं। बाक्कस से सिकन्दर के बीच दो गणतन्त्र काल थे-१२० तथा ३०० वर्ष के। इनमें ३०० वर्ष का मालव गण था जो सिकन्दर आक्रमण के १२९ वर्ष पूर्व समाप्त हुआ था। दूसरा परशुराम काल में था-उसमें १२० वर्ष की अवधि में २१ गणतन्त्र हुये जिसे २१ बार क्षत्रिय संहार कहा है। इस काल में किसी मनुष्य को राजा नहीं माना-कश्यप के नाम से शासन चलता था। कश्यप अदिति का काल १७५०० ई.पू. था जब अदिति के नक्षत्र पुनर्वसु से वर्ष का अन्त तथा आरम्भ होता था।
परशुराम स्पष्टतः ६७७७ ई.पू. के बाक्कस आक्रमण के बाद हुये थे। इनको विष्णु अवतार रूप में बाक्कस की १५ पीढ़ी बाद कहा है। इनकी ९ पीढ़ी के बाद भगवान् राम हुये थे। वायु पुराण के अनुसार परशुराम १९वें तथा भगवान् राम २४वें त्रेतामें हुये थे। परशुराम के देहान्त के बाद कलम्ब (जहाज का लंगर, या बन्दरगाह, जैसे कोलम्बो) या कोल्लम सम्वत् आरम्भ हुआ जो अभी तक केरल में चल रहा है। वैवस्वत मनु के बाद सत्य-त्रेता-द्वापर के १०,८०० वर्षों का अन्त ३१०२ में हुआ जिसमें २८ युग कहे गये हैं। इसमें ३६० वर्ष के ३० युग होंगे, पर वैवस्वत यम के बाद जल प्रलय में २ युग माने गये हैं। अतः परशुराम का समय ३१०२ ई.पू. से ९ x ३६० = ३२४० वर्ष पूर्व या ६३४२ ई.पू. से आरम्भ युग में था जो ५९८२ ई.पू. तक चला। कोल्लम वर्ष की गणना ८२४ ई. से आरम्भ होती है जिसमें हजार वर्षों को छोड़ दिया जाता है जैसे रोमन कैलेण्डर में शताब्दी वर्षों को छोड़ देते हैं। अतः इसका आरम्भ ६१७७ ई.पू. में हुआ जो परशुराम निधन वर्ष है। परशुराम दीर्घजीवी थे, अमर नहीं थे। राम काल के परशुराम उन्हीं की परम्परा में थे जैसे आदि शंकराचार्य की परम्परा चल रही है। बाक्कस के ६७७७ ई.पू. के ६०० वर्ष में १५ पीढ़ी का अन्तर उचित है। उसके ४ युग अर्थात् १४४० वर्ष बाद ४९०२-४५४२ ई.पू. में भगवान् राम हुये। नरसिंहम ने इस अवधि में ११-२-४४३३ ई.पू. में राम जन्म की तिथि निकाली है जो रामायण वर्णित ग्रह स्थिति से मिलती है।
परशुराम के जीवन में १२० वर्ष लोकतन्त्र रहा, उसके आरम्भ में परशुराम कम से कम ३५ वर्ष के रहे होंगे। अतः उनही आयु १५५ वर्ष से अधिक थी और दीर्घजीवी में गणना है।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३‌६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
मत्स्य पुराण अध्याय २७३-अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान् निबोधत॥७६॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भविष्यास्ते महात्मनः। अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम्॥७७॥
वायु पुराण (अध्याय ९८)-यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे॥७१॥
प्रादुर्भावे तदाऽन्यस्य ब्रह्मैवासीत् पुरोहितः। चतुर्थ्यां तु युगाख्यायामापन्नेष्वसुरेष्वथ॥७२॥
सम्भूतः स समुद्रान्तर्हिरण्यकशिपोर्वधे। द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः॥७३॥
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे। दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥
एतास्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः। मानुष्याः सप्त यास्तस्य शापजांस्तान्निबोधत॥८७॥
त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह। नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह। मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
परशुराम काल की घटना बाक्कस के आक्रमण से आरम्भ होती है। इसमें यवन तथा पारद लोगों ने आक्रमण किया था तथा भारत के भीतर हैहय और तालजंघ राजाओं ने उनका साथ दिया। इसमें सूर्यवंशी राजा बाहु मारा गया था और करीब १५ वर्ष डायोनिसस का पश्चिमोत्तर प्रदेश (अफगानिस्तान, पाकिस्तान) पर शासन रहा। उसका प्रिय पेय जौ की शराब थी जिसका नाम बाक्कस के नाम पर व्हिस्की (whisky) हुआ। इसके बाद राजा बाहु के पुत्र सगर ने और्व ऋषि की सहायता और शिक्षा से यवनों तथा अन्य आक्रमणकारियों को भगाया। यवनों का सिर मुंडाया, अरब से भगा कर ग्रीस भेज दिया। हेरोडोटस ने भी लिखा है कि यवनों के वहां जाने के बाद ग्रीस का नाम इयोनिया (यूनान) हो गया। उनके मूल स्थान अरब की चिकित्सा पद्धति को आज भी यूनानी कहते है। पह्लवों को श्मश्रुधारी बनवाया जो आजकल बकरदाढ़ी के नाम से सम्मानित है।
विष्णु पुराण(३/३)- ततो वृकस्य बाहुर्योऽसौ हैहयतालजङ्घादिभिः पराजितोऽन्तर्वत्न्या महिष्या सह वनं प्रविवेश॥२६॥तस्यौर्वो जातकर्मादि क्रिया निष्पाद्य सगर इति नाम चकार॥३६॥ पितृराज्यापहरणादमर्षितो हैहयतालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञामकरोत्॥४०॥प्रायशश्च हैहयास्तालजङ्घाञ्जघान॥४१॥ शकयवनकाम्बोजपारदपह्लवाः हन्यमानास्तत्कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः॥४२॥यवनान्मुण्डितशिरसोऽर्द्धमुण्डिताञ्छकान् प्रलम्बकेशान् पारदान् पह्लवाञ् श्मश्रुधरान् निस्स्वाध्यायवषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार॥४७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/६३)-रुरुकात्तु वृकः पुत्रस्तस्माद् बाहुर्विजज्ञिवान्॥।११९॥
हैहयैस्तालजंघैश्च निरस्तो व्यसनी नृपः। शकैर्यवनकाम्बोजैः पारदैः पह्लवैस्तथा॥१२०॥
नात्यर्थं धार्मिकोऽभूत्स धर्म्ये सति युगे तथा। सगरस्तु सुतो बाहोर्जज्ञे सह गरेण वै॥१२१॥
भृगोराश्रममासाद्य ह्यौर्वेण परिरक्षितः। आग्नेयमस्त्रं लब्ध्वा तु भार्गवात् सगरो नृपः॥१२२॥
जघान पृथिवीं गत्वा तालजंघान् सहैहयान्। शकानां पह्लवानां च धर्मं निरसदच्युतः॥१२३॥
क्षत्रियाणां तथा तेषां पारदानां च धर्मवित्।।१२४॥ सूत उवाच-
बाहोर्व्यसनिनस्तस्य हृतं राज्यं पुरा किल। हैहयैस्तालजंघैश्च शकैः सार्द्धं समागतैः॥१२६॥
यवनाः पारदाश्चैव काम्बोजाः पह्लवास्तथा। हैहयार्थं पराक्रान्ता एते पंच गणास्तदा॥१२७॥
हृतराज्यस्तदा बाहुः संन्यस्य स तदा गृहम्। वनं प्रविश्य धर्मात्मा सह पत्न्या तपोऽचरत्॥१२८॥
कदाचिदप्यकल्पः स तोयार्थं प्रस्थितो नृपः। बृद्धत्वाद्दुर्बलत्वाच्च ह्यन्तरा स ममार च॥१२९॥
पत्नी तु यादवी तस्य सगर्भा पृष्ठतोऽप्यगात्। सपत्न्या तु गरस्तस्यै दत्तो गर्भ जिघांसया॥१३०॥
सा तु भर्तुश्चितां कृत्वा वह्निं तं समरोहयत्। और्वस्तं भार्गवो दृश्ट्वा कारुण्याद्धि न्यवर्त्तयत्॥१३१॥
तस्याश्रमे तु गर्भं सा गरेण च तदा सह। व्यजायत महाबाहुं सगरं नाम धार्मिकम्॥१३२॥
और्वस्तु जातकर्मादीन्कृत्वा तस्य महात्मनः। अध्याप्य वेदाञ्छास्त्राणि ततोऽस्त्रं प्रत्यपादयत्॥१३३॥
ततः शकान् स यवनान् काम्बोजान् पारदांस्तथा। पह्लवांश्चैव निःशेषान्कर्तुं व्यवसितो नृपः॥१३४॥
ते हन्यमाना वीरेण सगरेण महात्मना। वसिष्ठं शरणं सर्वे सम्प्राप्ताः शरणैषिणः॥१३५॥
वसिष्ठो वीक्ष्य तान्युक्तान्विनयेन महामुनिः। सगरं वारयामास तेषां दत्त्वाभयं तथा॥१३६॥
सगरः स्वां प्रतिज्ञां च गुरोर्वाक्यं निशम्य च। जघान धर्मं वै तेषां वेषान्यत्वं चकार ह॥१३७॥
अर्द्धं शकानां शिरसो मुण्डयित्वा व्यसर्जयत्। यवनानां शिरः सर्वं काम्बोजानां तथैव च॥१३८॥
पारदा मुक्तकेशाश्च पह्लवाः श्मश्रुधारिणः। निःस्वाध्याय वषट्काराः कृतास्तेन महात्मना॥१३९॥
शका यवन काम्बोजाः पह्लवाः पारदैः सह। कलिस्पर्शा माहिषिका दार्वाश्चोलाः खशास्तथा॥१४०॥
सर्वे ते क्षत्रिय गणा धर्मस्तेषां निराकृतः। वसिष्ठवचनात्पूर्वं सगरेण महात्मना॥१४१॥
अष्टाङ्ग सङ्ग्रह (सूत्रस्थान ६/११६)-जगल पाचनो ग्राही रूक्षस्तद्वच मेदक। बक्कसो हृतसारत्वाद्विष्टम्भी दोषकोपन॥
शतपथ ब्राह्मण (१३/४/३/११)-असितो धान्वो राजेत्याह। तस्यासुरा विशः। त इम आसत इति। कुसीदिन उपसमेता भवन्त॥ तानुपदिशति। माया वेदः सोऽयमिति।
असित धान्व असुर= डायोनिसस।
हैहय राजाओं की अन्य भारतीय राजाओं से शत्रुता बनी रही और वे अत्याचारी हो गये। उनके वंशज सहस्रार्जुन ने कामधेनु छीन कर परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। अत्याचार के प्रतिरोध में सगर द्वारा निष्कासित कई जातियों ने परशुराम का समर्थन किया। जो यवन कामधेनु के खुर से उत्पन्न हुए उनको खुरद (कुर्द) कहते हैं जो दक्षिणी तुर्की (वृष पर्वत, वृषपर्वा राज्य-Taurus Mountain) हैहयों में कई दत्तात्रेय के शिष्य थे, वे बचे रहे। तालजंघों मे कोई नहीं बचा। यहां कामधेनु का अर्थ गौ नहीं है, उत्पादन का साधन यज्ञ है।
गीता (अध्याय ३)-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविध्यष्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक्॥१०॥
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्याद् अन्न सम्भवः। यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥१४॥
गीता (१०/२८)-धेनूनामस्मि कामधुक्॥
कामधेनु से उत्पन्न जातियों के वर्णन से लगता है कि पूरा बृहत्तर भारत कामधेनु का स्वरूप था।
ब्रह्मवैवर्त पुराण (३/२४/५९-६४)-
इत्युक्त्वा कामधेनुश्च सुषाव विविधानि च। शस्त्राण्यस्त्राणि सैन्यानि सूर्यतुल्य प्रभाणि च॥५९॥
निर्गताः कपिलावक्त्रा त्रिकोट्यः खड्गधारिणाम्। विनिस्सृता नासिकायाः शूलिनः पञ्चकोटयः॥६०॥
विनिस्सृता लोचनाभ्यां शतकोटि धनुर्द्धराः। कपालान्निस्सृता वीरास्त्रिकोट्यो दण्डधारिणाम्॥६१॥
वक्षस्स्थलान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यश्शक्तिधारिणाम्॥ शतकोट्यो गदा हस्ताः पृष्ठदेशाद्विनिर्गताः॥६२॥
विनिस्सृताः पादतलाद्वाद्यभाण्डाः सहस्रशः। जंघादेशान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यो राजपुत्रकाः॥६३॥
विनिर्गता गुह्यदेशास्त्रिकोटिम्लेच्छजातयः। दत्त्वासैन्यानि कपिला मुनये चाभयं ददौ॥६४॥
वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ५४-
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा। तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप॥१८॥
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान्। तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः॥२१॥
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह। तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः॥२३॥
सर्ग ५५-तस्या हुंकारतो जाताः काम्बोजाः रविसंन्निभाः। ऊधसश्चाथ सम्भूता बर्बराः शस्त्रपाणयः॥२॥
योनिदेशाच्च यवनाः सकृद्देशाच्छकाः स्मृताः। रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारीताः स किरातकाः॥३॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/२९)-व्यथितातिकशापातैः क्रोधेन महतान्विता।
आकृष्य पाशान् सुदृढ़ान् कृत्वाऽत्मानममोचयत्॥१८॥
विमुक्तपाशबन्धा सा सर्वतोऽभिवृताबलैः। हुंहारवं प्रकुत्वाणा सर्वतोह्यपतद्रुषा॥१९॥
विषाणखुरपुच्छाग्रैरभिहत्य समन्ततः। राजमन्त्रिबलं सर्वं व्यवद्रावयदमर्पिता॥२०॥
विद्राव्य किंकरान्सर्वांस्तरसैव पयस्विनी। पश्यतां सर्वभूतानां गगनं प्रत्यपद्यत॥२१॥
स्कन्द पुराण (६/६६)-अथ सा काल्यमाना च धेनुः कोपसमन्विता॥ जमदग्निं हतं दृष्ट्वा ररम्भ करुणं मुहुः॥५२॥
तस्याः संरम्भमाणाया वक्त्रमार्गेण निर्गताः॥ पुलिन्दा दारुणा मेदाः शतशोऽथ सहस्रशः॥५३॥
कामधेनु से उत्पन्न जातियां-(१) पह्लव-पारस, काञ्ची के पल्लव। पल्लव का अर्थ पत्ता है। व्यायाम करने से पत्ते के रेशों की तरह मांसपेशी दीखती है। अतः पह्लव का अर्थ मल्ल (पहलवान) है। (२) कम्बुज हुंकार से उत्पन्न हुए। कम्बुज के २ अर्थ हैं। कम्बु = शंख से कम्बुज या कम्बोडिया। कामभोज = स्वेच्छाचारी से पारस के पश्चिमोत्तर भाग के निवासी। (३) शक-मध्य एशिया तथा पूर्व यूरोप की बिखरी जातियां, कामधेनु के सकृद् भाग से (सकृद् = १ बार उत्पन्न), (४) यवन-योनि भाग से -कुर्द के दक्षिण अरब के। (५) शक-यवन के मिश्रण, (६) बर्बर-असभ्यब्रह्माण्ड पुराण (१/२//१६/४९) इसे भारत ने पश्चिमोत्तर में कहता है। मत्स्य पुराण (१२१/४५) भी इसे उधर की चक्षु (आमू दरिया-Oxus) किनारे कहता है। (७) लोम से म्लेच्छ, हारीत, किरात (असम के पूर्व, दक्षिण चीन), (८) खुर से खुरद या खुर्द-तुर्की का दक्षिण भाग। (९) पुलिन्द (पश्चिम भारत-मार्कण्डेय पुराण, ५४/४७), मेद, दारुण-सभी मुख से।
२१ गणतन्त्रों के लिये २-२ वर्ष युद्ध हुये। आरम्भ में ८ x ४ वर्ष युद्ध तथा ६ x ४ वर्ष परशुराम द्वारा तप हुआ। बीच का कुछ समय समुद्र के भीतर शूर्पारक नगर बसाने में लगा जिसकी लम्बाई नारद पुराण के अनुसार ३० योजन तथा ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार २०० योजन है। रामसेतु का २२ किमी १०० योजन कहा जाता है, तो यह ४४ किमी. होगा। शूर्पारक = सूप। इस आकार की खुदई पत्तन बनाने के लिये या पर्वत का जल से क्षरण रोकने के लिये किया जाता है। इसे अंग्रेजी में शूट (Chute) कहते हैं। अतः कुल मिला कर १२० वर्ष होगा जिसका वर्णन मेगास्थनीज के समय रहा होगा।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/४६)-विनिघ्नन् क्षत्रियान् सर्वान् संशाम्य पृथिवीतले। महेन्द्राद्रिं ययौ रामस्तपसेधृतमानसः॥२९॥
तस्मिन्नष्टचतुष्कं च यावत् क्षत्र समुद्गमम्। प्रत्येत्य भूयस्तद्धत्यै बद्धदीक्षो धृतव्रतः॥३०॥
क्षत्रक्षेत्रेषु भूयश्च क्षत्रमुत्पादितं द्विजैः। निजघान पुनर्भूमौ राज्ञः शतसहस्रशः॥३१॥
वर्षद्वयेन भूयोऽपि कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्। षटचतुष्टयवर्षान्तं तपस्तेपे पुनश्च सः॥३२॥
अलं रामेण राजेन्द्र स्मरतां निधनं पितुः। त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्र्या कृता॥३४॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/४७)-प्राप्ताः स्म पूजिताः किं तु नाक्षय्यफलभागिनः॥ तस्मात्त्वं वीरहत्यादि पापप्रशमनाय हि॥२६॥
प्रायश्चित्तं यथान्यायं कुरु धर्म च शाश्वतम्। वधाच्च विनिवर्तस्व क्षत्रियाणामतः परम्॥२७॥
ततः स सर्वतीर्थेषु चक्रे स्नानमतन्द्रितः। परीत्य पृथिवीं सर्वां पितृदेवादिपूजकः॥३७॥
एवं क्रमेण पृथिवीं त्रिवारं भृगुनन्दनः। परिचक्राम राजेन्द्र लोकवृत्तमनुव्रतः॥३८॥
तेषामनुमते कृत्वा काश्यपं गुरुमात्मनः। वाजिमेधं ततो राजन्नाजहार महाक्रतुम्॥४७॥
ब्रह्माणं पूजयामास यथावद् गुरुणा सह। अलंकृत्य यथान्याय कन्यां रूपमतीं महीम्॥५२॥
पुरग्रामशतोपेतां समुद्राम्बरमालिनीम्। आहूय भृगुशार्दूलः सशैलवनकाननाम्॥५३॥
काश्यपाय ददौ सर्वामृते तं शैलमुत्तमम्। आत्मनः सन्निवासार्थं तं रामः पर्यकल्पयत्॥५४॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/५६)-गोकर्णमिति च क्षेत्रं पूर्वं प्रोक्तं तु यत्तव। अर्णवोपात्तवर्त्तित्वात्समुद्रेऽन्तर्द्धिमागमत्॥५६॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/५७)-ससह्यमचलश्रेष्ठमवतीर्य भृगूद्वहः। तत्परं सरितां पत्युस्तीरं प्राप महामनाः॥२७॥
ततो रामः समुत्थाय दक्षिणाभिमुखः स्थितः। मेघगम्भीरया वाचा वरुणं वाक्यमब्रवीत्॥३५॥
तस्मिन्नस्त्रं महाघोरं भार्गवं वह्निदैवतम्॥४६॥ अधिरोपित दिव्यास्त्रं प्रचकर्ष महा शरम्॥५२॥
उत्तीर्यमाणः स्वजलं वरुणः प्रत्यदृश्यत। कृताञ्जलिः सार्वहस्तः प्रचेता भार्गवान्तिकम्॥७२॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/५८)-गोकर्णनिलयाः पूर्वमिमे मां मुनिपुंगवाः। समायाता महेन्द्रादौ निवसन्तं सरित्पते॥३॥
त्वत्तोये मेदिनी पूर्वं खनद्भिः सगरात्मजैः। अधोनिपातितं क्षेत्रं गोकर्णमृषिसेवितम्॥४॥
उपलब्धुमिमे भूयः क्षेत्रं तद्बववल्लभम्। अधावन्मामुपागम्य मुनयस्तीर्थवासिनः॥५॥
तस्मान्मदर्थे सलिलं समुत्सार्यात्मनो भवान्। दातुमर्हति तत्क्षेत्रमेषां तोये च पूर्ववत्॥७॥
वरुण उवाच-तस्माद्यावत्प्रमाणं मे भवान्संकल्पयिष्यति। तावत्संधारयिष्यामि भूमौ सलिलमात्मनः॥१२॥
ततो निरूप्य सीमानं दर्शयानो महीपते।।१४॥
भ्रामयित्वातिवेगेन चिक्षेप लवणार्णवे। क्षिप्तत्वेन समुद्रे तु दिसमुत्तरपश्चिमाम्॥१६॥
गत्वा स्रुवोपतद्राजन् योजनानां शतद्वयम्। तीर्थं शूर्पारकं नाम सर्वपापविमोचनम्॥१७॥
तीर्थं शूर्पारकं तत्तु श्रीमल्लोकपरिश्रुतम्। उत्सारयित्वा सलिलं समुद्रस्तावदात्मनः॥२०॥
अतिष्ठदपसृत्योर्वीं दत्त्वा रामाय पार्थिव। अनतिक्रान्तमर्यादो यथाकालं भृगूद्वहः॥२१॥
व्यस्मयन्त सुराः सर्वे दृष्ट्वा रामस्य विक्रमम्। नगरग्रामसीमानः किंचित्किंचित्क्वचित्क्वचित्॥२३॥
सह्ये तु पूर्ववत्तस्मिन्नब्धेरपसृतेऽम्भसि। तत्र दैवात्तथा स्थानान्निम्नत्वात्स प्रलक्ष्य तु॥२४॥
तत्तोयनिःसृतं क्षेत्रमभूत्पूर्ववदेव हि। एतद्धि देवसामर्थ्यमचिन्त्यं नृपसत्तम॥३१॥
एवं रामेण जलधेः पुनः सृष्टा वसुन्धरा। दक्षिणोत्तरतो राजन् योजनानां चतुः शतम्॥३२॥
नारद पुराण (२/७४)-गोकर्णाख्यं हरक्षेत्रं सर्वपातकनाशनम्॥२॥
पश्चिमस्थसमुद्रस्य तीरेऽस्ति वरवर्णिनि। सार्द्धयोजन विस्तारं दर्शनादपि मुक्तिदम्॥३॥
त्रिंशद् योजन विस्तारां सतीर्थ क्षेत्रकाननाम्॥ ततस्तन्निलयाः सर्वे स देवासुरमानवाः॥४॥
महेन्द्राचलसंस्थानं पर्शुरामं दिदृक्षवः। जग्मुर्मुनिवरा देवि गोकर्णोद्धारकांक्षया॥८॥
प्रगृह्य स्वधनुर्बाणान् संप्रतस्थे स तैः समम्। सोऽवरुह्य महेन्द्राद्रेर्दिशं दक्षिणपश्चिमाम्॥२०॥
संप्राप्तः सागरतटं सार्द्धं गोकर्णवासिभिः॥२१॥मुहूर्त्तं तत्र विश्रम्य वरुणं यादसां पतिम्।।२२॥
प्रचेतो दर्शनं देहि कार्यमात्त्यायिकं त्वया॥२३॥एवं राम समाहूतो यादः पतिरहन्तया॥२४॥
एवं पुनः पुनस्तेन समाहूतोऽपि नागतः। यदा तदाभिसंक्रुद्धो धनुर्जग्राह भार्गवः॥२५॥
वरुणोऽस्त्राभिसंतप्तो रामस्य भयसम्प्लुतः। स्वरूपेण समागत्य रामपादौ समग्रहीत्॥२८॥
ततोऽस्त्रं स विनिर्वर्त्य वरुणं प्राह सत्वरम्। गोकर्णो दृश्यतां देव उत्सर्पय जलं किल॥२९॥
ततो रामाज्ञया सोऽपि गोकर्णोदकमाहरत्। रामोऽपि तं समभ्यर्च्य गोकर्णं नाम शंकरम्॥३०॥
इसकी पुष्टि मंगलोर तट के पास समुद्र के भीतर ३० किमी लम्बी दीवाल से होती है जिसका समय ६००० ई.पू. अनुमानित है। h
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परशुराम के स्थान बहुत बड़े भाग में हैं। पूर्वोत्तर कोने पर परशुराम कुण्ड है जहां परशुराम पवित्र हुए थे। बिहार उत्तर प्रदेश सीमा पर जमनिया (जमदग्नि) तथा सहस्रराम (सासाराम-परशुराम) हैं। झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में कई स्थानों का नाम टांगी है जहां के लोग परशुराम के समर्थन में सशत्र हुए थे। टांगी या परशु इनका मुख्य अस्त्र था।
Chaturmas

व्रत, भक्ति और शुभ कर्म के 4 महीने को हिन्दू धर्म में ‘चातुर्मास’ कहा गया है। ध्यान और साधना करने वाले लोगों के लिए ये माह महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी अच्छा रहता है। चातुर्मास 4 महीने की अवधि है, जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है।

जिन दिनों में भगवान् विष्णुजी शयन करते हैं उन चार महीनों को चातुर्मास एवं चौमासा भी कहते हैं, देवशयनी एकादशी से हरिप्रबोधनी एकादशी तक चातुर्मास हैं, इन चार महीनों की अवधि में विभिन्न धार्मिक कर्म करने पर मनुष्य को विशेष पुण्य लाभ की प्राप्ति होती है, क्योंकि इन दिनों में किसी भी जीव की ओर से किया गया कोई भी पुण्यकर्म खाली नहीं जाता।

वैसे तो चातुर्मास का व्रत देवशयनी एकादशी से शुरु होता है, परंतु जैन धर्म में चतुर्दशी से प्रारंभ माना जाता है, द्वादशी, पूर्णिमा से भी यह व्रत शुरु किया जा सकता है, भगवान् को पीले वस्त्रों से श्रृंगार करे तथा सफेद रंग की शैय्या पर सफेद रंग के ही वस्त्र द्वारा ढककर उन्हें शयन करायें।

पदमपुराण के अनुसार जो मनुष्य इन चार महीनों में मंदिर में झाडू लगाते हैं तथा मंदिर को धोकर साफ करते है, कच्चे स्थान को गोबर से लीपते हैं, उन्हें सात जन्म तक ब्राह्मण योनि मिलती है, जो भगवान को दूध, दही, घी, शहद, और मिश्री से स्नान कराते हैं, वह संसार में वैभवशाली होकर स्वर्ग में जाकर इन्द्र जैसा सुख भोगते हैं।

धूप, दीप, नैवेद्य और पुष्प आदि से पूजन करने वाला प्राणी अक्षय सुख भोगता है, तुलसीदल अथवा तुलसी मंजरियों से भगवान का पूजन करने, स्वर्ण की तुलसी ब्राह्मण को दान करने पर परमगति मिलती है, गूगल की धूप और दीप अर्पण करने वाला मनुष्य जन्म जन्मांतरों तक धनवान रहता है, पीपल का पेड़ लगाने, पीपल पर प्रति दिन जल चढ़ाने, पीपल की परिक्रमा करने, उत्तम ध्वनि वाला घंटा मंदिर में चढ़ाने, ब्राह्मणों का उचित सम्मान करने वाले व्यक्ति पर भगवान् श्री हरि की कृपा दृष्टि बनी रहती है।

किसी भी प्रकार का दान देने जैसे- कपिला गो का दान, शहद से भरा चांदी का बर्तन और तांबे के पात्र में गुड़ भरकर दान करने, नमक, सत्तू, हल्दी, लाल वस्त्र, तिल, जूते, और छाता आदि का यथाशक्ति दान करने वाले जीव को कभी भी किसी वस्तु की कमीं जीवन में नहीं आती तथा वह सदा ही साधन सम्पन्न रहता है।

जो व्रत की समाप्ति यानि उद्यापन करने पर अन्न, वस्त्र और शैय्या का दान करते हैं वह अक्षय सुख को प्राप्त करते हैं तथा सदा धनवान रहते हैं, वर्षा ऋतु में गोपीचंदन का दान करने वालों को सभी प्रकार के भोग एवं मोक्ष मिलते हैं, जो नियम से भगवान् श्री गणेशजी और सूर्य भगवान् का पूजन करते हैं वह उत्तम गति को प्राप्त करते हैं, तथा जो शक्कर का दान करते हैं उन्हें यशस्वी संतान की प्राप्ति होती है।

माता लक्ष्मी और पार्वती को प्रसन्न करने के लिए चांदी के पात्र में हल्दी भर कर दान करनी चाहिये तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बैल का दान करना श्रेयस्कर है, चातुर्मास में फलों का दान करने से नंदन वन का सुख मिलता है, जो लोग नियम से एक समय भोजन करते हैं, भूखों को भोजन खिलाते हैं, स्वयं भी नियमवद्घ होकर चावल अथवा जौं का भोजन करते हैं, भूमि पर शयन करते हैं उन्हें अक्षय कीर्ती प्राप्त होती है।

इन दिनों में आंवले से युक्त जल से स्नान करना तथा मौन रहकर भोजन करना श्रेयस्कर है, श्रावण यानि सावन के महीने में साग एवम् हरि सब्जियां, भादों में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दालें खाना वर्जित है, किसी की निंदा चुगली न करें तथा न ही किसी से धोखे से उसका कुछ हथियाना चाहियें, चातुर्मास में शरीर पर तेल नहीं लगाना चाहिये और कांसे के बर्तन में कभी भोजन नहीं करना चाहियें।

जो अपनी इन्द्रियों का दमन करता है वह अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त करता है, शास्त्रानुसार चातुर्मास एवं चौमासे के दिनों में देवकार्य अधिक होते हैं जबकि विवाह आदि उत्सव नहीं किये जाते, इन दिनों में मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा दिवस तो मनाए जाते हैं परंतु नवमूर्ति प्राण प्रतिष्ठा व नवनिर्माण कार्य नहीं किये जाते, जबकि धार्मिक अनुष्ठान, श्रीमद्भागवत ज्ञान यज्ञ, श्री रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ, हवन यज्ञ आदि कार्य अधिक होते हैं।

गायत्री मंत्र के पुरश्चरण व सभी व्रत सावन मास में सम्पन्न किए जाते हैं, सावन के महीने में मंदिरों में कीर्तन, भजन, जागरण आदि कार्यक्रम अधिक होते हैं, स्कन्दपुराण के अनुसार संसार में मनुष्य जन्म और विष्णु भक्ति दोनों ही दुर्लभ हैं, परंतु चार्तुमास में भगवान विष्णु का व्रत करने वाला मनुष्य ही उत्तम एवं श्रेष्ठ माना गया है।

चौमासे के इन चार मासों में सभी तीर्थ, दान, पुण्य, और देव स्थान भगवान् विष्णु जी की शरण लेकर स्थित होते हैं तथा चातुर्मास में भगवान विष्णु को नियम से प्रणाम करने वाले का जीवन भी शुभफलदायक बन जाता है, भाई-बहनों! चौमासे के इन चार महीनों में नियम से रहते हुयें, शुभ कार्य करते हुये, भगवान् श्री हरि विष्णुजी की भक्ति से जन्म जन्मांतरों के बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करें।

जय श्री हरि!
हरि ओऊम् तत्सत्
: 🌹कैसे हुई कांवड़ यात्रा आरम्भ? 🌹💫

भगवान को खुश करने के लिए इन्होंने सबसे पहले शुरू की थी कांवड़ यात्रा!

सावन का महीना शुरू हो गया है और इसके साथ ही केसरिया कपड़े पहने शिवभक्तों के जत्थे गंगा का पवित्र जल शिवलिंग पर चढ़ाने निकल पड़े हैं. ये जत्थे जिन्हें हम कांवड़ियों के नाम से जानते हैं उत्तर भारत में सावन का महीना शुरू होते ही सड़कों पर निकल पड़ते हैं।

पिछले दो दशकों से कांवड़ यात्रा की लोकप्रियता बढ़ी है और अब समाज का उच्च एवं शिक्षित वर्ग भी कांवड यात्रा में शामिल होने लगे हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इतिहास का सबसे पहला कांवडिया कौन था. इसे लेकर कई मान्यताएं हैं-

  1. परशुराम थे पहले कांवड़िया- कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का कांवड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। परशुराम, इस प्रचीन शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाए थे. आज भी इस परंपरा का अनुपालन करते हुए सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों लोग ‘पुरा महादेव’ का जलाभिषेक करते हैं। गढ़मुक्तेश्वर का वर्तमान नाम ब्रजघाट है।

2.श्रवण कुमार थे पहले कांवड़ियां- वहीं कुछ विद्वानों का कहना है कि सर्वप्रथम त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कांवड़ यात्रा की थी. माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के क्रम में श्रवण कुमार हिमाचल के ऊना क्षेत्र में थे जहां उनके अंंधे माता-पिता ने उनसे मायापुरी यानि हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की।

माता-पिता की इस इच्छा को पूरी करने के लिए श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठा कर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया. वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए. इसे ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।

3.भगवान राम ने किया था कांवड यात्रा की शुरुआत-

कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान राम पहले कांवडियां थे। उन्होंने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर, बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।

4.रावण ने की थी इस परंपरा की शुरुआत-
पुराणों के अनुसार कावंड यात्रा की परंपरा, समुद्र मंथन से जुड़ी है. समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए. परंतु विष के नकारात्मक प्रभावों ने शिव को घेर लिया।

शिव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त कराने के लिए उनके अनन्य भक्त रावण ने ध्यान किया. तत्पश्चात कांवड़ में जल भरकर रावण ने ‘पुरा महादेव’ स्थित शिवमंदिर में शिवजी का जल अभिषेक किया. इससे शिवजी विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए और यहीं से कांवड़ यात्रा की परंपरा का प्रारंभ हुआ।

5.देवताओं ने सर्वप्रथम शिव का किया था जलाभिषेक। कुछ मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकले हलाहल के नकारात्मक प्रभाव को कम करने के लिए शिवजी ने शीतल चंद्रमा को अपने माथे पर धारण कर लिया था. इसके बाद सभी देवता शिवजी पर गंगाजी से जल लाकर अर्पित करने लगे. सावन मास में कांवड़ यात्रा का प्रारंभ यहीं से हुआ।

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[ 🌹क्यो होते हैं जप की माला में एकसौ आठ दाने? क्या है एकसौ आठ का रहस्य? 🌹💫

हिन्दू सनातन धर्म में अधिकत्तर मन्त्र जापो के समय हमे जप माला की जरूरत होती है तथा इस माला में 108 दाने होते है। हिन्दू धर्म ग्रंथो और शास्त्रों में 108 का अत्यधिक महत्व बताया गया है। इसके पीछे कई धार्मिक, ज्योतिष तथा वैज्ञानिक मान्यताएं है।

आइये हम जानते है ऐसी ही चार मान्यताओं के बारे में और साथ ही जानते है की क्यों हमे मन्त्र जाप करते समय जरूरत पड़ती है इन 108 दाने वाली माला का?

हिन्दू धर्म के मान्यता अनुसार माला के 108 दाने और सूर्य की कलाओं का गहरा संबंध है। एक साल में सूर्य 216000 कलाएं बदलता है और साल में दो बार अपनी स्थित भी बदलता है। छः माह उत्तरायण होता है और छः माह दक्षिणायन अतः सूर्य छः माह की स्थिति में 108000 बार कलाये बदलता है।

इसी संख्या में से 108000 से अंतिम के तीन शून्य हटाकर माला में 108 होने का प्रचलन और प्रावधान है। माला के 108 दाने सूर्य के प्रत्येक कलाओं को प्रदर्शित करते है।

सूर्य देवता के आशीर्वाद से ही व्यक्ति तेजस्वी होता है तथा उसे समाज में मान-समान प्राप्त होता है. सूर्य को ही एकमात्र सक्षात दिखने वाला देवता माना गया है अतः सूर्य की कलाओं के आधार पर मन्त्र जपने वाली माला की मोतियों की संख्या 108 निर्धारित की गयी है।

जप की माला में 108 दाने होते है जिसके आधार पर शास्त्रों में कहा गया है की :-

षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकं विशांति.
एतत् संख्यान्तितं मंत्रं जीवो जपति सर्वदा.

इस श्लोक का अभिप्राय है की एक व्यक्ति जो पूर्ण रूप से स्वस्थ है वह एक दिन में जितनी बार सास लेता है उसी से माला के दानो की संख्या के 108 होने का संबंध है।समान्यतः 24 घंटे में मनुष्य 21600 बार साँस लेता है। दिन के 24 घंटो में से व्यक्ति के 12 घंटे व्यक्ति के दैनिक कार्यो में व्यतीत हो जाते है और शेष 12 घंटो में व्यक्ति 10800 बार।

इसी समय में देवी देवताओ का ध्यान करते हुए उन्हें स्मरण करना चाहिए।शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर यानि पूजन के लिए निर्धारित समय 12 घंटे में 10800 बार ईश्वर का ध्यान करना चाहिए, परन्तु ऐसा सम्भव नहीं हो सकता ।इसीलिए 10800 बार साँस लेने की संख्या में से अंतिम दो शून्य हटाकर जप के लिए 108 संख्या निर्धारित की गई है. इसी संख्या पर आधारित जप की माला 108 संख्या की होती है।

यह कारण है जप माला के उपयोग करनेका :-

जो भी व्यक्ति माला के साथ मन्त्र जप का उपयोग करता है, उसकी मनोकामनाए बहुत जल्द पूर्ण होती है।माला के साथ किये गए जप अक्षय पूण्य का फल प्रदान करते है। मंत्रो का जाप यदि निर्धारित संख्या के आधार पर किया जो तो श्रेष्ठ रहता है अतः मंत्रो के जाप के समय माला उपयोग में लायी जाती है।

किसे कहते है सुमेरु :- माला के दानो से हमे यहाँ ज्ञात हो जाता है की मंत्रो की संख्या कितनी हो गई है . जाप की माला में सबसे ऊपर एक बड़ा दाना होता है जो की सुमेरु कहलाता है. सुमेरु से ही जप की संख्या शुरू की जाती है तथा इसी पर आकर जप समाप्त होता है।

जब माला द्वारा मन्त्र जाप का एक चक्र पूर्ण हो जाता है तो माला को पलट दिया जाता है।जाप माला को कभी भी लांघना नहीं चाहिए। जब भी जप पूर्ण हो तो सुमेरु को माथे पर लगाकर नमन करना चाहिए इस से मंत्रो का पूर्ण फल प्राप्त होता है।

शास्त्रों में लिखा है कि-
बिना दमैश्चयकृत्यं सच्चदानं विनोदकम्।
असंख्यता तु यजप्तं तत्सर्व निष्फलं भवेत्।।

इस श्लोक का अर्थ है कि भगवान की पूजा के लिए कुश का आसन जरूरी है इसके पश्चात दान पूण्य जरूरी है. इसके अल्वा माला के बिना संख्याहीन किये गई जप का भी कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। अतः जब भी मन्त्र जप करें, तो माला का उपयोग अवश्य करना चाहिए।

मंत्रो के जाप के लिए उपयोग की जाने वाली माला रुद्राक्ष, तुलसी, स्फटिक, मोती या नगों से बनी होती है. यह माला बहुत ही प्रभावशाली होती है, ऐसी मान्यता है की कोई दुर्लभ कार्य भी इस माला के साथ मंत्रो के जाप करने से सिद्ध जो जाते है।

भगवान की पूजा के लिए मन्त्र सर्वश्रेष्ठ उपाय है तथा पुराने युग में भी साधु-संत तपस्वी इस उपाय को अपनाते रहे है. तथा मंत्रो के जाप के लिए माला का होना आवश्यक है , बिना माला के किये गए मंत्रो के जाप का प्रभाव शीघ्र नहीं होता।

रुद्राक्ष की माला मन्त्र जाप के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गई है क्योकि इसे भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है. रुद्राक्ष में सूक्ष्म कीटाणु को नाश करने की क्षमता भी होती है इसी के साथ ही रुद्राक्ष वातावरण से सकरात्मक ऊर्जा गर्हण करके साधक के शरीर तक पहुंचा देता है।
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[: ⚜⛳सत्य सनातन धर्म की जय⛳⚜
🚩⚜सनातन धर्मरक्षक समिति⚜🚩

🙏🏻🌹 पूजा में ध्यान रखने योग्य बाते🌹🙏🏻

🌹 पूजा में एक से अधिक दीपक जलाने हो तो कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए, जो ऐसा करते है उन्हें अनेक बार परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
अतः प्रत्येक दीपक माचिस की तीली से ही जलाए।

🌹 चन्दन को घिस कर कभी भी तांबे के पात्र में नहीं रखना चाहिए।

🌹यदि आप शंख की पूजा करते है और उसमे पानी भरना है तो कभी भी डुबाकर नहीं भरना चाहिए, ऐसा करने से पूजा का कार्य सिद्ध नहीं होता है।
शंख में आचमनी द्वारा ही जल डाले।
संकल्प के लिए जिस ताम्बे या चांदी के चम्मच का उपयोग किया जाता है उसे ही आचमनी कहते है।

🌹 शंख को कभी भी पृथ्वी पर नहीं रखना चाहिए।
पूजा में अगर शंख की पूजा करते है तो उसे अनाज की ढेरी पर रखना चाहिए, या आसन पर स्थान दे, तभी शंख की कृपा प्राप्त होगी।

🌹प्रसाद बाँटते समय धयान रखे
की प्रसाद जमीन पर ना गिरे, अगर गिरता है तो उसे तुरंत उठा ले और उसे किसी सुरक्षित स्थान पर रख दे।
प्रसाद को जूठे हाथ से नहीं बाटना चाहिए और ना ही ग्रहण करना चाहिए, हाथो को धोकर
ही प्रसाद बांटे एवं ग्रहण करे।

🌹 पूजा प्रारम्भ करने के पश्चात चाहे कैसी भी स्थिति हो, कभी भी जोर से नहीं बोले, किसी पर क्रोध करना अथवा अपशब्द कहना पूजा को खंडित कर देता है।
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जयश्रीराम जी🙏🏻🚩
जयश्रीकृष्णा जी🙏🏻🚩
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