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मित्रों! कुछ प्रश्नों के साथ इस प्रस्तुति को आप लोगों के साथ साझा कर रहा हूँ, जरा मन से पढ़े, आपको अच्छा लगेगा !

जीव अपना स्वरुप शरीर क्यों मानता है? क्यों हम शान्ति सौहाद्र की अपेक्षा काम क्रोध लोभ में आसक्त होते हैं? आखिर ऐसा क्यों होता है की हम अच्छा सोचते-सोचते ग़लत सोचने लगते हैं? समाज में शुरू से ही अच्छाई की अपेक्षा बुराई ज्यादा क्यों रहती है? आखिर क्यों आदमी बुराई के प्रति जल्दी आकृष्ट होता है? क्यों हम अच्छाई के पथ पर चलने को बहुत कठिन मानते हैं?

क्योंहमे लगता है की दंभ, घमंड, अहम् ही जीवन के सार तत्त्व हैं? क्या हमे ऐसा लगता है की चालाकी, धूर्तता, दुष्टता, क्रोध, हिंसा व दूसरों को कष्ट देने के लिए ही ये जीवन मिला है? क्या हमे ऐसा लगता है की ऐसा बहादुर व्यक्ति ही कर सकता है? क्यूँ हमे लगता है की सहिष्णुता, शान्ति, प्रेम, सौहाद्र, सरलता, दम्भ रहित होना कायरता और भीरूपन के परिचायक हैं?

क्यों हमे कई बार ऐसा भी लगता है की भगवान् है ही नहीं? क्या हम जाने अनजाने अपने अवचेतन मन में भी ये नहीं सोच पाते की ये जीवन क्षणभंगुर है? क्या हम सदैव ये विवेक जाग्रत रखते हैं की संसार असत है, और हम हमारे मिलने वाले एक न एक दिन काल में समा जायेंगे? कोई भी व्यक्ति अमर नहीं है?

क्या हमे मालूम है कि सारे कार्य तीन गुणों अथार्त सत्व, रज और तम गुणों के द्वारा होते हैं, और हमारा स्वरुप वास्तव में निर्लिप्त रहता है? क्या हमे ये अनुभव है, अथवा क्या हम ये जानते हैं की इन गुणों को ही कर्ता देखना चाहिए स्वयं (आत्मा) को नहीं? आखिर क्यूँ खराब सोचना अथवा विषय विषयों के प्रति वैराग्य जगाना कष्टदायी प्रतीत होता है?

क्या हमे ये मालूम है, की विषय भोग का आनंद शुरू में आनंददायी अंत में विषदायी है, व अनासक्त होना शुरू में कष्टकारी परन्तु परिणाम में अमृततुल्य है? क्या हम प्रशंसा के अभिलाषी हैं, और दूसरे के प्रमाणपत्र को पाना ही सार तत्त्व मानते हैं? क्या प्रशंसा की लालसा के कारण हम आत्मिक रूप से अपना आत्म कल्याण नहीं कर पाते?

क्या ग्यानी होने के बाद भी प्रशंसा पाने की उत्कंठा हमे वही परिणाम अथार्त गति दे सकती है, जो अज्ञानी को मिलती है? क्या स्वयं को शरीर मानने के कारण ही हम विषय-भोग, इन्द्रिय-सुख, धन, बल मान आदि को ही जीवन की प्राथमिकता मान लेते है? क्या हम स्वयं से भी बात करते हैं? क्या स्वयं का अध्ययन अथार्त आत्म अध्ययन के लिए ही हमे ये जीवन मिला है?

क्या स्वयं का स्वरुप शरीर मानने के कारण हम नित अविद्धा और अज्ञान को जाने अनजाने बढाते जाते हैं? जिन रक्त, मेद मज्जा इत्यादि से बने हुए अपने ही तरह के इंसानों में, सुख ढूंढते हुए जीव बन्दर की तरह अथार्त मनाने, रुसने, दुखी होने खुश होने या नाच आदि में लगा रहता है, उनका व स्वयं का सबसे बड़ा हित आत्मज्ञान अथार्त आत्मिक हित ही होता है, क्या हमे ऐसा लगता है?

ये सभी प्रश्न और इसी तरह के असंख्य प्रश्न जो प्राय अज्ञान, अविद्धा, संशय आदि से उत्पन्न होते हैं, और इन्हें ही बढाते रहते हैं, इस तरह से जीव को मोहित रखते हैं, जिससे पूरा जीवन अज्ञान में ही निकल जाता है, और सत्संग,आत्मिकज्ञान की चर्चा में कभी रूचि नहीं लगती।

बल्कि व्यक्ति मोह माया के तम रूप अन्धकार में नित काम क्रोध को बढाता हुए, वास्तविकता में उनका ही ग्रास बनता हुआ बहुमूल्य जीवन गँवा देता है, बहरहाल क्या ऐसा कोई उत्तर है, जो इन सब प्रश्नों का बिल्कुल ऐसा उत्तर है, और यदि हम गंभीरता से विचार करें तो इन्ही प्रश्नों को सार प्रश्न बनाते हुए अर्जुन ने तीसरे अध्याय के छत्तिसवें श्लोक में भगवान् से पूछा था।

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है, और भगवान् श्रीकृष्ण के उत्तर ने सभी अज्ञान व अज्ञानजनित प्रश्नों को मात्र चंद शब्दों में सारे अज्ञान को समाप्त कर दिया, जैसे रात के वक़्त सारा विश्व अन्धकार में डूबा रहता है, परन्तु इतनी बड़ी धरा के अँधेरे को सूर्य देवता छोटे से होते हुए भी प्रात होते ही अपने प्रकाश से दूर कर देते है।

अज्ञान रुपी अँधेरा जितना भी बढ़ जाए उसके लिए थोडा सा उजाला ही काफी है और यहाँ तो परमात्मा परमेश्वर जगताधार स्वयं श्रीकृष्ण की मुख से ये तेज को भी तेज प्रदान करने वाले शब्द प्रस्फुटित हुये।

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌।।
3/37

श्री भगवान् बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला, अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान।

दूसरे अध्याय में भगवान् ने यही बात दूसरे ढंग से भी कही थी, बस अंतर ये है की यहाँ तीसरे अध्याय में उन्होंने प्रमाणित रूप से कहा जिससे मनुष्य को बिलकुल भी संदेह न हो, दूसरे अध्याय में भगवान् कहते है।

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है, और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है, और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।

यहाँ यदि हम सिलसिलेवार देखें तो पायेंगे की कुछ प्रक्रियाएं है, जिनसे व्यक्ति अज्ञान अथवा अधोगति के उन्मुख होता है, विषयों का चिंतन, आसक्ति, विषयों की कामना, कामना में विघ्न, विघ्न से क्रोध, मूढ़ भाव, स्मृति में भ्रम, बुद्धि अथार्त ज्ञान शक्ति का नाश, आत्मिक पतन।

यहाँ जैसा की भगवान् ने बताया, एवम् हम स्वयं भी ऐसा अनुभव करते हैं, सबसे पहले हमसे विषय चिंतन ही होता है, और उसके बाद विषयों में आसक्ति उत्पन्न होती है, उसके बाद विषयों में कामना बढती है, परन्तु हर कामना पूरी नहीं होती, और विषयों की कामना अतृप्ति पर ही अथार्त और विषय सुख मिले इसी पर ख़त्म होती है।

इसलिए जीव क्रोध करने लगता है, और इस तरह से अंततोगत्वा स्वयं पतन की तरफ अग्रसर होने लगता है, परन्तु यदि शुरू से अथार्त विषयों का चिंतन करने से पहले ही जीव अपना विवेक जागृत रखे, व विषयों में न रमे, संयमशील रहे तो वो आत्मिक स्तर पर सदैव कायम रहेगा, व स्वयं को निर्लिप्त रखते हुए सारे कार्य करेगा।

यदि जीव आत्मा को ही सबसे शक्तिशाली व मन बुद्धि का प्रकाशक जानते हुए, आत्मा को आप्तकाम नित्यतृप्त जानेगा, व मन बुद्धि आत्मा के द्वारा ही संचालित होते हैं, ऐसा समझ कर मन बुद्धि के वश में होने के बजाय उनपर नियंत्रण रखेगा, तो आसानी से अपने आत्मिक हित के साथ लौकिक,भौतिक व सामाजिक जीवन में भी मोह माया रुपी दुःख के हेतु को जीत लेगा, व सदैव प्रसन्न रहते हुए प्रसन्नता ही बांटेगा।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।

परन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक, अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ, अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।

अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है, और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर, एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌।।

भाई-बहनों, न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती, और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती, तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती, और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

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