गांगं वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतम्।
त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु माम्॥
💐#पिंडदानकरनेकीपरंपराक्यों ?
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हिंदू धर्म में पिंडदान की परंपरा वेदकाल
से ही प्रचलित है।
पितरों के मोक्ष के लिए यह एक अनिवार्य
परंपरा है इसका बहुत ज्यादा धार्मिक महत्व है।
योगवशिष्ठ में बताया गया है-
आदौ मृता वयमिति बुध्यन्ते तदनुक्रमात्।
बंधु पिंडदादिदानेन प्रोत्पन्ना इवा वेदिन:।।
प्रेत अपनी स्थिति को इस प्रकार अनुभव
करते हैं कि हम मर गए हैं और परिवार वालों
के पिंडदान से हमारा नया शरीर बना है।
यह अनुभूति भावनात्मक ही होती है।
इसलिए पिंडदान का महत्व उससे जुड़ी
भावनाओं की बदौलत ही होता है।
ये भावनाएं प्रेतों-पितरों को स्पर्श करती हैं।
पिंडदानादि पाकर पितृगण प्रसन्न होकर सुख,
समृद्धि का अशीर्वाद देते हैं और पितृलोक को
लौट जाते हैं।
जो पुत्र इसे नहीं करते,
उनके पितर उन्हें शाप देते हैं।
भारत में गया वह स्थान है,जहां दुनिया भर
के हिंदू पितरों का पिंडदान करके उन्हें मोक्ष
की प्राप्ति कराते हैं।
कहा जाता है कि सबसे पहले पितृपक्ष में
पिंडदान का विशेष धार्मिक महत्व बताया
जाता है।
पिंडदान के लिए जौ या गेहूं के आटे में
तिल या चावल का आटा मिलाकर इसे
दूध में पकाते हैं और शहद व घी मिलाकर
लगभग 100 ग्राम के 7 गोल पिंड बनाते हैं।
एक पिंड मृतात्मा के लिए और छह जिन्हें
तर्पण किए जाते हैं,उनके लिए समर्पित
करने का विधान है।
वायु पुराण् में दी गई गया महात्म्य कथा के
अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि रचते समय गयासुर
नामक एक दैव्य को पैदा किया।
उसने कोलाहर पर्वत पर घोर तपस्या की
जिससे प्रसन्न होकर विष्णु ने वर मांगने
को कहा।
इस पर गयासुर ने वर मांगा मेरे स्पर्श सभी
जीव मुक्ति प्राप्त कर बैकुंठ जाने लगे।
मान्यता है कि तभी से गया पितरों के
मोक्ष का केंद्र बन गया।
आखिर कहाँ जाती हैं गंगा जी में
विसर्जित की जाने वाली अस्थियां ???
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आज गंगा भले ही प्रदूषित हो चूकी है
परन्तु लोगों का विश्वास गंगा के प्रति
अब भी कामय है।
मां गंगा के प्रति श्रद्धालुओं की अटूट
आस्था का अंदाजा आप इस बात से
लगा सकते हैं कि अमूमन हर हिन्दू के
घर गंगा जल मिलता है।
मृत्युशैया पर पड़े हर इंसान को दो बूंद गंगा
जल पिलाना गंगा के प्रति लोगों की आस्था
और हिन्दू परंपरा को दर्शाता है।
इतना ही नहीं, मृत्यु के बाद अस्थिकलश
को गंगा में विसर्जित करना धार्मिक मान्यता है।
अस्थि कलश को गंगा में प्रवाहित करने के
पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण को जानिये।
शास्त्रों के अनुसार गंगाजी को
देव नदी कहा गया है।
गंगा स्वर्ग से धरती पर आई थी इसलिए
गंगाजी को देव नदी कहा जाता है।
धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि गंगा श्री हरि
विष्णु के चरणों से निकली है और भगवान
शिव की जटाओं में आकर बसी हैं।
श्री हरि और भगवान शिव से घनिष्ठ संबंध
होने के कारण गंगा को पतित पाविनी कहा
जाता है।
मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य
के सभी पापों का नाश हो जाता है।
यह सोचकर एक दिन देवी गंगा श्री हरि से
मिलने बैकुण्ठ धाम गई और बोली,हे देव !
मेरे जल में स्नान करने से सभी के पाप
नष्ट हो जाते हैं।
हे देव मैं कैसे इतने पापों का बोझ उठाऊंगी ?
यह सुनकर श्री हरि बोले,”हे देवी गंगा !
जब साधु,संत,वैष्णव आकर आप में स्नान
करेंगे तो ये सभी पाप धुल जाएंगे,और आप
सदैव पवित्र रहेंगी।”
क्या आपने सोचा है ?
प्रत्येक हिंदू की अंतिम इच्छा होती है कि
उसकी अस्थियों का विसर्जन गंगा में ही
किया जाए लेकिन यह अस्थियां जाती
कहां हैं ?
बेशक यह शोध का विषय है पर इसका
उत्तर वैज्ञानिक भी नहीं दे पाए क्योंकि गंगा
सागर तक खोज करने के बाद भी इस प्रश्न
का उत्तर नहीं मिला।
असंख्य मात्रा में अस्थियों का विसर्जन करने
के बाद भी गंगा जल पवित्र एवं पावन है।
मान्यता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा
की शांति के लिए मृत व्यक्ति की अस्थियां
को गंगा में विसर्जन किया जाता है।
ऐसा करने से व्यक्ति के प्राण श्री हरि के
चरणों में बैकुण्ठ जाती हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से गंगा जल में पारा अर्थात
(मर्करी) विद्यमान होता है जिससे हड्डियों
में कैल्सियम और फास्फोरस पानी में घुल
जाता है जो जलजन्तुओं के लिए एक पौष्टिक
आहार है।
वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर)
विद्यमान होता है जो पारे के साथ मिलकर
पारद का निर्माण होता है।
इसके साथ-साथ यह दोनों मिलकर मर्करी
सल्फाइड साल्ट का निर्माण करते हैं।
हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम,पानी को स्वच्छ
रखने का काम करता है।
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ll श्रीमच्छनकराचार्य रचित गंगा स्तोत्र ll
देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलिविहारिणि विमले मम मति रास्तां तव पद कमले॥१॥
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम्॥२॥
हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम्॥३॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम्।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः॥४॥
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये॥५॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे॥६॥
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे॥७॥
पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये॥८॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम्।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे॥९॥
अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः॥१०॥
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः॥११॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम्॥१२॥
येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः॥१३॥
गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम्।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः त्व॥१४॥
॥इति श्रीमच्छनकराचार्य विरचितं
गङ्गास्तोत्रं सम्पूर्णम्॥
समस्त पतितों का उद्धार करो माते💐