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मन का सूक्ष्म विज्ञान –

ऐसा अनेक बार होता है जब व्यक्ति कर्म करने की इच्छा करता है तो कर्तव्य और अकर्तव्य का भेद भूलकर संशयग्रस्त हो जाता है। जब भी इस प्रकार के संशय की स्थिति आती है कि व्यक्ति को कर्म अकर्म का कोई ज्ञान नहीं रहता तब तब श्रीकृष्ण जैसे मन के चिकित्सक (Psychologist) की आवश्यकता होती है। (कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम्!)
१. रामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जामवंत, हनुमान, अंगद आदि वानर सेना के साथ माता सीता का पता लगाने जाते हैं। बहुत समय व्यतीत हो जाता है किन्तु वे अपने कार्य में सफल नही हो पाते। सब सोचते हैं कि कार्य पूर्ण किये बिना यदि वापस गए तो सुग्रीव हमें जीवित नहीं छोड़ेंगे, और यदि यहाँ पड़े रहे तो वैसे ही भूख प्यास से हम सब मारे जाएँगे। वही किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति। तभी जटायु का भाई सम्पाति वहाँ आता है और बताता है कि माता सीता को रावण ने अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा हुआ है। वानर शत योजन सागर पार करके लंका जाने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहे थे | जामवन्त को लगता था कि वे बूढ़े हो चुके हैं। अंगद और हनुमान भी सशंकित थे कि वे लोग सम्भवतः लंका नहीं जा पाएँगे। अपना बल ही वे भूल चुके थे। तब जामवन्त ने कहा :
“पवन तनय, बल पवन समाना, बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना।
कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होत तात तुम्ह पाहीं।
राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयऊ पर्वताकारा।।” – (किष्किन्धाकाण्ड)
अर्थात ,,,“हनुमान तुम चुप क्यों बैठे हो ? तुम्हारा बल तो पवन के समान है। बुद्धि, विवेक और विज्ञान के तुम निधान हो | संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जो तुम कर न सको। तुम्हारा तो जन्म ही भगवान के कार्य के लिये हुआ है।
इतना सुनकर हनुमान को अपनी “शक्ति का स्मरण” हुआ और बोले “यदि ऐसा है तो मैं अभी जाता हूँ और कार्य पूर्ण होने पर मुझे भी हर्ष होगा – जब लगि आवौं सीतहि देखी, होहहि काजु मोहि हरष विसेषी – सुन्दरकाण्ड…” और वे तुरंत पर्वताकार होकर लंका की ओर चल दिये। इस प्रकार हनुमान के संशय को जामवंत ने दूर किया।
२. अर्जुन के साथ भी यही स्थिति थी। उन्हें भी “मोहवश” अपने लक्ष्य का भान नहीं रहा। श्री कृष्ण ने यही बताना था। इसीलिये उन्होंने कहा कि समस्त ” कामनाओं” का त्याग करके कर्तव्य कर्म करो। ज्ञानी व्यक्ति का यही लक्षण है। अर्जुन ने फिर संशय किया कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर आप मुझे हिंसा जैसे क्रूर कर्म में क्यों लगाते हैं ? भगवान ने उत्तर दिया कि तुम्हारा कर्तव्य कर्म ही युद्ध है। तीनों लोकों में मेरा तो कोई कर्तव्य कर्म नहीं है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ।यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा तो लोक मर्यादा का उल्लंघन होगा।
संशय अभी ही दूर नहीं हुआ था। अतः ” बहिर्मुखी” से “अंतर्मुखी” होने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। अर्थात् सूक्ष्म मनोविज्ञान। सर्वप्रथम अर्जुन को भगवान ने विराट स्वरूप के दर्शन कराए। युद्ध में मरने वाले लोगों का समूह दिखाया। ताकि अर्जुन सोचने को विवश हो जाएँ कि यह युद्ध तथा यह जनहानि अवश्यम्भावी है। अतः “धर्म की रक्षा” हेतु युद्ध के लिये तत्पर होना ही पड़ेगा। प्रश्न था कि कायरतापूर्वक अन्याय तथा अत्याचार होते देखते रहना क्या उचित है ? अर्जुन सोचने को विवश तो हुए, किन्तु ऊहापोह की स्थिति फिर भी बनी ही रही। अतः भगवान ने एक लीला रची।
एक दिन जब अर्जुन का रथ लेकर कहीं दूर गए हुए थे तो उनके पीछे कौरवों ने चक्रव्यूह का निर्माण कर दिया। उनकी योजना युधिष्ठिर को बन्दी बनाने की थी। क्योंकि अर्जुन के अतिरिक्त उनके किसी भाई अथवा उनकी सेना के किसी व्यक्ति को चक्रव्यूह का भेदन नहीं आता था। अर्जुन के सोलह वर्ष के पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदन तो आता था, किन्तु उससे बाहर निकलना नहीं आता था। अभिमन्यु जब सुभद्रा के गर्भ में थे तब अर्जुन ने सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदन की विधि बताई थी, किन्तु सुनते सुनते सुभद्रा को नींद आ गई थी और उससे बाहर निकलने की विधि वे नहीं सुन पाई थीं। इसलिये अभिमन्यु बस चक्रव्यूह भेदना ही जानते थे। किन्तु उस समय उन्हें युद्ध में भेजने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था।
अभिमन्यु बड़ी वीरता से लड़े। उनका सारथि मारा गया। रथ टूट गया। सारे अस्त्र समाप्त हो गए तो उन्होंने टूटे हुए रथ के पहिये को ही अपना अस्त्र बना लिया। किन्तु अन्त में वह भी टूट गया और निहत्थे अभिमन्यु को कौरव सेना ने घेर कर मार डाला। सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजन – जिन पर अर्जुन को अगाध श्रद्धा थी और जिन्हें वे धर्म तथा मर्यादा के रक्षक समझते थे तथा जिनके कारण ही वे युद्ध से विमुख हो रहे थे – बिना विरोध किये ( धर्म का पक्ष लिए बिना) ये सब अनाचार होते देखते रहे। अन्ततः अर्जुन का इन दोनों गुरुजनों पर से भी विश्वास उठ गया और वे युद्ध के लिये तत्पर हो गए और उन्होंने सूर्यास्त से पूर्व ही चक्रव्यूह का निर्माण करने वाले जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा कर ली और वे सफल भी हुए।
इस प्रकार अर्जुन के मन का संशय तथा परिजनों की मृत्यु का भय दूर करके उन्हें युद्ध के लिये कटिबद्ध किया। जयद्रथ वध के समान ही महाभारत युद्ध में अनेक बार कृष्ण ने छल का सहारा लिया। जैसे “अश्वत्थामा मृतः” के शोर से शत्रुसेना में भगदड़ मचवा दी। भीष्म के सामने शिखण्डी को खड़ा कर दिया ! मनोचिकित्सक भी सम्मोहन आदि की क्रिया करते हैं। श्री कृष्ण को भी अपने मनोरोगी अर्जुन के मन का विभ्रम दूर करके उसे युद्ध के लिये प्रेरित करना था। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अर्जुन को “समत्व बुद्धि” अपनानी थी। उसे शत्रु मित्र छोटे बड़े सबके लिये समान भाव रखते हुए युद्ध में प्रवृत्त होना था। तभी जिस प्रकार उसे कौरवों से युद्ध करना था वहीं भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजनों के साथ युद्ध करने में संकोच समाप्त करना था। इसीलिये कृष्ण ने उसे योग का उपदेश दिया ! यही थी अन्तर्मुखी होने की प्रक्रिया– सूक्ष्म मनोविज्ञान, और जिससे समझ में आ सकता था– जीवन का मूल्य।
विशेष ,,,मन एक जड़ तत्व है , इसको शास्त्रों में महतत्व कहा है ! इसका निर्माण आहार से होता है !ईश्वर ने मनुष्य जाती को तीन दिव्य कोष दिए है ,वे है बुद्धि , मन एवं अहंकार ! मन से विचारों का उत्पादन होता है ! सुविचारों के लिए सात्विक आहार खाना चाहिए ! ये विचार ही हमारा आचरण / कर्म बनते है ! कर्मों से पाप एवं पुण्यों का उदय होता है ! पाप एवं पुण्य ही हमें परलोक में योनि ( तामसिक योनि , देव योनि एवं मनुष्य योनि ) का निर्धारण करते है ! अतः ” आहार ” हमारे जीवन में एक प्रमुख भूमिका निभाता है ! भ्र्ष्ट एवं दुराचारी इस अपनी तामसिक प्रवृतियों के कारण इस सत्य को नहीं समझ पाते है ! श्री कृष्ण की तरह दिव्य गुणों से सम्पन्न होना है तो गौ माता की शरण में जाओ उसके दूध , मखन्न ,दही एवं घृत का सेवन करो ! इस में ३३ कोटि (१२ आदित्य + ११ रूद्र + ८ वसु एवं २ अश्वनी कुमार औषधीय गुणों एवं दिव्य गुणों) कोटि यानि प्रकार के देवता विध्यमान है ! श्री कृष्ण को दिव्य गुण उनके मखन्न खाने की प्रवृति से ही प्राप्त हुए थे ! जय गौ माता अतः गाय का दूध आपकी प्रवृतियों को देविक बनाने में सक्षम है !
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