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नवदुर्गा-रहस्य

‘नवरात्र’ क्या है ? यह चैत्र और आश्विन माह में ही क्यों पड़ता है ? इस समय ऋतू- परिवर्तन होने का क्या कारण है ? उसका नवरात्र से क्या सम्बन्ध है ? इस अवधि में भौतिक जगत में हलचल क्यों मचने लगती है ? धरती, आकाश, वायुमंडल में परिवर्तन क्यों होने लगते हैं और इन परिवर्तनों के पीछे का रहस्य क्या है ? यह पर्व नौ दिन का क्यों होता ह ? इसका नाम ‘नवरात्र’ ही क्यों है नव दिवस क्यों नहीं ? इस अवसर को रात्रि के साथ जोड़ने की सार्थकता क्या है ?–आदि-आदि अनेकानेक ऐसे प्रश्न हैं जो अपने पीछे अनेक रहस्य समेटे हुए हैं और जिनकी वास्तविकता जानना हम-सभी लोगों को आवश्यक है।
हम भारत के सत्य सनातन धर्म के मानने वाले लोग प्राक्- काल से ही नवरात्र या नवदुर्गा- पर्व को बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाते आये हैं। लेकिन हममें से अधिसंख्य लोग ऐसे हैं जो बिना इसकी वास्तविकता जाने ‘मक्षिका स्थाने मक्षिका’ वाली कहावत चरितार्थ करते आ रहेे हैं। हम सब यही समझते हैं कि प्राचीन समय में जब अधर्म, पाप, अनाचार, अत्याचार बहुत बढ़ गया और असुरों के द्वारा देवों को सताया जाने लगा तो सारे देवों ने मिलकर अपने-अपने तेज से एक ऐसी दिव्य शक्ति का प्राकट्य किया जिसे ‘दुर्गा’ कहा गया। फिर इसी शक्ति स्वरूपा दुर्गा ने असुरों का विनाश किया। इस शक्ति के नौ विभिन्न रूपों को ही नवदुर्गा कहा गया।
दर असल इस पौराणिक आख्यान से थोडा हट कर एक अलग पहलू पर भी हमें विचार करना है जो वैज्ञानिक और खगोलीय तथ्यों को भी समेटे हुए है।
नवरात्र का पर्व वह पर्व है जिसमें नौ रात्रियों का समावेश है। नव+रात्रि=नवरात्रि। जहाँ नव रात्रियों की अवधि में जिस पर्व का आयोजन हो–उस पर्व का नाम–‘नवरात्र’ कहलाता है। यह समय एक विशिष्ट समय होता है। यह वह अवसर होता है जब ब्रह्माण्ड में असंख्य प्रकाश धाराएँ हमारे ‘सौर मण्डल’ पर झरती हैं। ये प्रकाश धाराएँ एक दूसरे को काटते हुए अनेकानेक त्रिकोणाकृतियां बनाती हैं और एक के बाद एक अंतरिक्ष में विलीन होती रहती हैं। ये त्रिकोण आकृतियां बड़ी ही रहस्यपूर्ण होती है। ये भिन्न-भिन्न वर्ण, गुण, धर्म की होती हैं।
हिरण्यगर्भ संहिता के अनुसार ये प्रकाश धाराएँ ‘ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएं’ हैं। ये हमारे सौर मण्डल में प्रवेश कर और विभिन्न ग्रहों, नक्षत्रों, तारों की ऊर्जाओं से घर्षण करने के बाद एक विशिष्ट प्रभा का स्वरुप धारण कर लेती हैं। वैदिक विज्ञान के अनुसार ये दैवीय ऊर्जाएं हैं जो ‘इदम्’ से निकल कर ‘ईशम’ तक आती हैं। अध्यात्म शास्त्र में ‘इदम्’ को ‘परमतत्व’ कहा गया है। ‘ईशम’ का अर्थ है–‘इदम’ का साकार रूप। अर्थात् इदम् निर्विकार, निर्गुण, निराकार अनन्त ब्रह्म स्वरुप है और ईशम है सगुण, साकार, ईश्वर रूप।
ये ऊर्जाएं ईशम से निकल कर अपने को तीन तत्वों में विभक्त कर लेती हैं। ये तत्व हैं–अग्नि, आप (जल) और आदित्य। आदित्य भी अपने को तीन तत्वों में विभक्त कर लेता है। ये तत्व है–आकाश, वायु और पृथ्वी। इस प्रकार पांच रूप (अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी)-ये पंचतत्व के रूप में जाने गए हैं। शोध और अनुसन्धान के द्वारा आज यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि ‘तत्व’ ही ऊर्जा रूप में बदल जाता है। तत्व ही ऊर्जा है और ऊर्जा ही तत्व है। इन ऊर्जाओं के गुण-धर्म अलग-अलग होते हैं। आज का विज्ञान इन्हें ही ‘इलेक्ट्रॉन’, ‘प्रोटॉन’ और न्यूट्रॉन के नाम से पुकारता है। ज्योतिष के हिसाब से ये ही ज्ञानशक्ति, बलशक्ति और क्रियाशक्ति हैं। कालांतर में उपासना पद्धति विकसित होने पर उपासना प्रसंग में ये ही महासरस्वस्ती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में स्वीकार की गयीं। इनके वाहक रूप में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कल्पना की गयी। इन्हें तंत्र में पंचमुंडी आसन कहा गया है।
हिरण्यगर्भ संहिता के अनुसार ये पांचों ऊर्जाएं सौर मण्डल में प्रवेश कर ‘सौरऊर्जा’ का रूप धारण कर लेती हैं तथा नौ भागों में विभाजित हो जाती हैं और नौ मंडलों का अलग-अलग निर्माण कर लेती हैं। ये नौ मंडल ही ज्योतिष के नवग्रह हैं। इन ग्रहों से विभिन्न वर्णों की रश्मियाँ झरती हैं जो समस्त चराचर जगत को अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन्हीं से जीवों की उत्पत्ति होती है, प्राणियों में जीवन का संचार होता है। पृथ्वी पर भी इन्हीं से जीवन, जल, वायु, वनस्पति, खनिज, रत्न, धातु तथा विभिन्न पदार्थो का निर्माण हुआ है। पञ्च तत्वों के संयोजन में विभिन्न क्रमों के बदलाव से विभिन्न पदार्थ की रचना हुई है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ये ऊर्जाएं पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव की ओर से क्षरित होती हैं और पृथ्वी को यथोचित पोषण देने के बाद दक्षिणी ध्रुव की ओर से होकर निकल जाती हैं। इसी को वैज्ञानिक लोग ‘मेरुप्रभा’
कहते हैं। इसी ‘मेरुप्रभा ‘के कारण पृथ्वी का चुम्बकत्व होता है। मनुष्य के अन्दर भी अपना चुम्बकत्व उसीके फलस्वरूप होता है। मनुष्य शरीर में रीढ़ की हड्डी के भीतर सुषुम्ना नाड़ी होती है। यहाँ पर परम शून्यता रहती है। इसीलिए इसे ‘शून्य नाड़ी’ भी कहा गया है। यहाँ स्थित वह परम शून्य उस परम तत्व का ही रूप है जो अनादि काल से मनुष्य के शरीर में सुप्तावस्था में रहता आया है। नवरात्र के दिनों में मनुष्य को अनायास ही एक अलौकिक अवसर हाथ लग जाता है जब उसकी चेतना में
आलोड़न होने लगता है। इस समय मनुष्य के अन्दर चुम्बकीय शक्ति में भी वृद्धि होने लगती है।
अन्तर्ग्रहीय ऊर्जा की दृष्टि से उत्तरी ध्रुव प्रदेश अत्यन्त रहस्यमय है। उस प्रदेश में ऊर्जाओं की छनने की क्रिया संघर्ष के रूप में देखी जा सकती है। टकराव के फलस्वरूप एक विलक्षण प्रकार की ऊर्जा-कम्पन उत्पन्न होता है जिसके प्रकाश की चमक प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है। उसी चमक को ‘मेरुप्रभा’ कहते हैं।
मेरुप्रभा का दृश्यमान रूप जितना विलक्षण और अद्भुत है, उससे कहीं अधिक विलक्षण और अद्भुत है उसका अदृश्य रूप। इस मेरुप्रभा का प्रभाव समस्त भूतल पर पड़ता है। इससे सम्पूर्ण भूगर्भ में, समुद्र तल में, वायुमंडल में, ईथर के महासागर में जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती रहती हैं, उनका बहुत कुछ सम्बन्ध इसी मेरुप्रभा से होता है। इतना ही नहीं, उसकी हलचलें जीवधारियों की शारीरिक, मानसिक स्थितियों को भी प्रभावित करती हैं। मनुष्यों पर तो उसका प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है।
उत्तरी ध्रुव पर धरती भीतर की ओर धंसी हुई है जिस कारण 14000 फ़ीट गहरा समुद्र बन गया है। इसके विपरीत दक्षिणी ध्रुव 19000 फ़ीट कूबड़ की तरह उभरा हुआ है। उत्तरी ध्रुव पर वर्फ बहती रहती है तथा दक्षिणी ध्रुव पर वर्फ जमी रहती है। दक्षिणी ध्रुव पर रात धीरे-धीरे आती है। सूर्यास्त का दृश्य काफी समय तक रहता है। सूर्यास्त हो जाने के बाद महीनो अन्धकार छाया रहता है। ध्रुवों पर सूर्य रश्मियों की विचित्रता के फलस्वरूप अनेक विचित्रताएं दिखाई देती हैं दूर की चीजें हवा में लटकती हुई जान पड़ती हैं।
पृथ्वी का जो चुम्बकत्व है और उसके कण-कण को प्रभावित करता है, वह ब्रह्माण्ड से आने वाले शक्ति-तत्व के प्रवाह के कारण है। वह शक्ति-प्रवाह अति रहस्यमय है। मेरुदण्ड में स्थित सुषुम्ना नाड़ी में यह शक्ति- प्रवाह कार्य करता है। दूसरे शब्दों में यही शक्ति-तत्व जीवन-तत्व है। यह शक्ति-तत्व-प्रवाह उत्तरी ध्रुव की ओर से आता है और दक्षिण की ओर से बाहर निकल जाता है। इसीलिए उत्तरी-दक्षिणी दोनों ध्रुव-क्षेत्र होने पर भी दोनों के गुण-धर्म में भिन्नता है। दोनों की विशेषताओं में काफी अन्तर है।
मार्च/अप्रैल और सितम्बर/ अक्टूबर अर्थात् चैत्र और आश्विन माह में जब पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है, तो उस समय पृथ्वी पर अधिक मात्रा में मेरुप्रभा झरती है जबकि अन्य समय पर गलत दिशा होने के कारण वह मेरुप्रभा लौट कर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वह मेरुप्रभा में नौ प्रकार के उर्जा-तत्व विद्यमान हैं। प्रत्येक ऊर्जा तत्व अलग-अलग विद्युत् धारा के रूप में परिवर्तित होते हैं। वे नौ प्रकार की विद्युत् धाराएँ जहाँ एक ओर प्राकृतिक वैभव का विस्तार करती हैं, वहीँ दूसरी ओर समस्त जीवधारियों, प्राणियों में जीवनी-शक्ति की वृद्धि और मनुष्यों में विशेष चेतना का विकास करती हैं। भारतीय संस्कृति और साहित्य में उन नौ प्रकार की विद्युत् धाराओँ की परिकल्पना नौ देवियों के रूप में की गयी है। प्रत्येक देवी एक विद्युत् धारा की साकार मूर्ति है। देवियों के आकार-प्रकार, रूप, आयुध, वाहन आदि का भी अपना रहस्य है जिनका सम्बन्ध इन्ही ऊर्जा तत्वों से समझना चाहिए। ऊर्जा तत्वों और विद्युत् धाराओं की गतविधि के अनुसार प्रत्येक देवी की पूजा-अर्चना का एक विधान है और इसके लिए ‘नवरात्र’ की योजना है। प्रत्येक देवी की एक रात्रि होती है। रात्रि में ही देवी की पूजा-अर्चना का विधान होता है क्योंकि मेरुप्रभा दिन की अपेक्षा रात्रि को अधिक सक्रिय रहती है।
समस्त ब्रह्माण्ड के मूल में, समस्त सृष्टि के मूल में और समस्त चराचर जगत के मूल में ‘आदिशक्ति’ है। आदिशक्ति एकमात्र परमात्म शक्ति है जो सर्वत्र व्याप्त और सर्वत्र क्रियाशील है अपने विभिन्न रूपों में।
शक्ति का अर्थ क्या है ?

   कोई भी शक्ति बिना आधार या आश्रय के प्रकट नहीं हो सकती। उसे कोई-न-कोई आधार चाहिए प्रकट होने के लिए । जिस आधार को लेकर वह प्रकट होती है, उसे वह चंचल अथवा चैतन्य कर देती है। यही शक्ति का स्वभाव या गुण है। तंत्र में आधार को 'शिव' की संज्ञा दी गयी है। शिव और शक्ति में एक जड़तत्व है और दूसरा है--चेतनतत्व। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के मूल में बस ये दो ही परम तत्व हैं जिनके संयोग से चराचर जगत की सृष्टि हुई है। लेकिन यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मूल शक्ति जिसे आदिशक्ति अथवा परमात्म शक्ति कहते हैं, वह निराकार है, अव्यक्त है। इसीलिए तंत्र ने उसे 'परमा' कहा है। उसकी परम अनुभूति योगिगण ही समाधि की अवस्था में कर पाते हैं। इसलिए उसे 'योगमाया' कहते हैं। परमशक्ति का जो व्यक्त रूप है, उसे 'परा' की संज्ञा दी गयी है। 'पराशक्ति' महामाया है। इसके गुण के आधार पर तीन रूप हैं--ब्राह्मी रूप, वैष्णवी रूप और रौद्री रूप। पहला सत्वगुण रूप है, दूसरा रजोगुण रूप है और तीसरा तमोगुण रूप है। तीनों गुणों के प्रतीक तीनों रूपों को क्रमशः परा, परा-परा और अपरा कहते हैं। पराशक्ति महामाया के गुणों और तीनों रूपों का समन्वय जिस रूप में होता है, उसे 'प्रकृति' की संज्ञा दी गयी है। प्रकृति त्रिगुणमयी है।
 प्रकृति रूप में पराशक्ति महामाया अपने सत्वगुण से सृष्टि करती है, अपने रजोगुण से पालन करती है और अपने तमोगुण से सृष्टि का संहार करती है। वास्तव में पराशक्ति महामाया के ये स्वभाव हैं जो प्रकृति त्रिगुणमयी व्यक्त होती है। तंत्र की सगुणोसना भूमि में आचार्यों ने महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूपों की ओर संकेत किया है और उसे माया शब्द से संबोधित किया है।
  महामाया पराशक्ति का ब्राह्मी रूप सत्वगुणी महासरस्वती है। वैष्णवी रूप रजोगुणी महालक्ष्मी है और रौद्री रूप तमोगुणी महाकाली है। मानव शरीर इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह प्रकृति प्रदत्त है और उसमे प्रकृति के तीनों गुण हैं, तीनों स्वभाव हैं और तीनों रूप हैं जिसके फलस्वरूप ब्रह्माण्ड में जितनी शक्तियां क्रियाशील हैं, वे सब भी किसी न किसी रूप में मानव शरीर में विद्यमान हैं। यही कारण है कि परब्रह्म परमेश्वर ने भी मानव शरीर का आश्रय लेकर भगवान् राम, कृष्ण, बुद्ध आदि के रूप में अपनी सर्वश्रेष्ठ लीलाएं संसार में प्रकट की। कितना महत्वपूर्ण है मानव शरीर, कितनी दुर्लभ है उसकी उपलब्धि !
   सभी शक्तियों के दो रूप हैं--समष्टि और व्यष्टि। समष्टि रूप ब्रह्माण्डीय है जबकि व्यष्टिरूप पिण्डीय है। परमात्म शक्ति ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में सब जगह व्याप्त है--'व्याप्तम येन चराचरम्'। उसी का व्यष्टि रूप 'आत्मा' है, आत्मशक्ति है जो मानव पिण्ड में चेतना के रूप में विद्यमान है। सत्वगुणी ब्राह्मी शक्ति महासरस्वती मानव पिण्ड में ज्ञान की देवी वाकदेवी--वाणी है। रजोगुणी वैष्णवी शक्ति मानव पिण्ड में महालक्ष्मी मनःशक्ति है और तमोगुणी  रौद्री शक्ति मानव पिण्ड में महाकाली प्राणशक्ति है। वैदिक भाषा में इन्हें ही वाक्, मन और प्राण कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में --'mind of matter' और कहते हैं--'power', 'energy' और 'force' । वाक्शक्ति power है। मनःशक्ति energy है। इसी प्रकार प्राणशक्ति force है। इन्हीं तीनों का अभिव्यक्त रूप इच्छा, ज्ञान और क्रिया है।
  मानव पिण्ड में चेतना (आत्मशक्ति) का केंद्र ह्रदय है--'चेतना हृदि संस्थिताम्'। ज्ञानशक्ति का केंद्र नाभिमंडल है। इसी स्थान पर विचार, विवेक, वैराग्य ज्ञान आदि जन्म लेते हैं।
   भारत का मध्ययुग वास्तव में तांत्रिक संस्कृति और साधना का स्वर्ण युग था। इसके कई महत्वपूर्ण कारण हैं। पहला यह है कि जहाँ एक ओर लौकिक, पारलौकिक कल्याण के निमित्त शक्ति के विभिन्न रूपों से सम्बंधित भिन्न-भिन्न साधना-उपासनाओं का आविर्भाव हो रहा था। वहीँ दूसरी ओर देवी को प्रसन्न करने के लिए और अभीष्ट सिद्धि के लिए 'कुमारी पूजा', 'कन्या पूजा', 'गौरी पूजा', 'भैरवी पूजा', 'योनि पूजा' आदि का आविर्भाव हुआ। साथ ही उनसे सम्बंधित अनुष्ठानों और नरबलि जैसे तमोगुणी वीभत्स कृत्यों का भी हो रहा था चलन। मांस, मदिरा आदि पंचमकारों पर आधारित कठोर, वीभत्स और तामसिक साधना-उपासना- पद्धतियों का भी आविर्भाव हो रहा था।
   ऐसे ही अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति में तांत्रिक साधना-उपासना के वास्तविक स्वरुप से अवगत कराने और उसके दार्शनिक तथा आध्यात्मिक पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए तंत्राचार्यों ने आदिशक्ति के निराकार और आध्यात्मिक स्वरुप की परिकल्पना 'दुर्गा' के रूप में की। उनकी इस परिकल्पना के आधार थे--पुराण ग्रन्थ। पुराणों का आश्रय लेकर तंत्राचार्यों ने दुर्गा को दो रूप दिए। एक चतुर्भज रूप और दूसरा अष्टभुजा रूप। चतुर्भुजा दुर्गा की चार भुजाएं--साम, दाम, दंड, भेद की प्रतीक हैं। ये चारों दुर्गा के व्यवहारिक रूप के परिचायक हैं और उन्हीं के अनुसार उनकी भुजाओं में अस्त्र-शस्त्र भी हैं। इसी प्रकार अष्टभुजा दुर्गा की आठ भुजाओं में चार भुजाएं साम, दाम, दंड, भेद की प्रतीक हैं और शेष चार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रतीक हैं। ये चारों दुर्गा के आध्यात्मिक  स्वरुप के परिचायक हैं। इसी प्रकार परमात्म शक्ति योगमाया को दुर्गा की प्रतिष्ठा मिली। उनके दोनों रूपों को लौकिक और पारलौकिक सुख-शान्ति, कल्याण के आलावा भवमुक्ति की भी प्रतिष्ठा मिली। कालान्तर में दुर्गा साधना-भूमि नौ रूपों में विभक्त होगयीं।                         
     तंत्राचार्यों ने दुर्गा से सम्बंधित स्तोत्र, पटल, पद्धति और कवच की रचना की। वे चाहते थे कि कोई ऐसी रचना हो जिसमें परमात्म शक्ति के आश्रय से तीनों शक्तियों--महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली का एक साथ समावेश हो। इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम 'रात्रिसूक्त' और 'देवीसूक्त' की रचना की। सात सौ श्लोकों की रचना की जिनके माध्यम से देवी चरित्रों का वर्णन किया गया। वे श्लोक दुर्गा से सम्बंधित थे। इसीलिए इसका नाम--"दुर्गा सप्तशती" रखा गया। इसे तीन भागों में विभक्त उन्हें प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र और उत्तम चरित्र के रूप में वर्णन किया गया  है। प्रथम चरित्र में महाकाली का, मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी का और उत्तम चरित्र में महासरस्वती का वर्णन है।
  सात सौ श्लोकों को 13 अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय है, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा और चौथा अध्याय है और उत्तम चरित्र में शेष अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में काली का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। मध्यम चरित्र में लक्ष्मी का बीजाक्षर रूप 'ह्रीं'  है और उत्तम चरित्र में सरस्वती का बीजाक्षर 'ऐं' है। इस तरह--'ऐं ह्रीँ क्लीं चामुण्डायै विच्चे'--यह मन्त्र नवार्ण मन्त्र है। इसमें तीनों बीजाक्षरों को मिलाकर कुल नौ अक्षर हैं जो नौ दुर्गा का प्रतिनिधित्व करते हैं। तात्पर्य यह है कि नौ दुर्गा सामूहिक शक्ति है--वही नवार्ण मन्त्र की शक्ति है। मन्त्र जपने से और यंत्र लिखने से सिद्ध होता है। नवार्ण मन्त्र को नवरात्र में 9000 बार जपने से वह सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार नवार्ण यंत्र को 9000 बार लिखने से भी वह सिद्ध हो जाता है।
  तंत्र का मूल स्रोत वेद हैं। ऋग्, यजु और साम से तीन तंत्रों का आविर्भाव हुआ। ऋग्वेद से शाक्त, यजुर्वेद से शैव और सामवेद से वैष्णव तंत्र निकले। ये तीनों मुख्य तंत्र हैं। कालान्तर में प्रत्येक तंत्र से 16-16 तंत्रों की शाखाएं निकलीं। इस प्रकार कुल 64 तंत्र हैं। प्रत्येक तंत्र की अधिष्ठात्री को 'योगिनी' कहते हैं। इस प्रकार 64 योगिनियां हैं। इस प्रकार देखा जाय तो दुर्गा सप्तशती के तीनों चरित्र (सरस्वती, लक्ष्मी और काली )एक प्रकार से तीनों वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका प्रत्येक श्लोक अपने आप में सिद्ध मन्त्र है।
  यदि तंत्रोपसना के चक्कर में न पड़ा जाय, केवल एक नवरात्र से दूसरे नवरात्र तक रोज़ रात के समय ध्यान व विनियोग के साथ दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाय तो सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

      पाठ रात में ही क्यों ?
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  उपासना का समय व दिशा निश्चित है। देव उपासना का समय प्रातः है। दिशा है उत्तरमुख। देवी उपासना का समय रात है। दिशा है पश्चिममुख। पितर उपासना का समय है दोपहर के बाद। दिशा है दक्षिणमुख।
 जगदम्बा से सम्बंधित जितनी भी साधनाएं हैं, उन्हें करने से पूर्व पीठ-स्थापना करना आवश्यक है। पीठ-स्थापना के समय 'ह्रीं श्रीं क्रीं हौं स्वाहा'--इस बीज मन्त्र का जप करना चाहिए। धूपबत्ती जलाना चाहिए। ब्रह्मचर्य, निराहार, एकान्त प्रवास-व्रत का पालन आवश्यक है। 11 दिन में 10000 जप पुरे कर लेने चाहिए। जप रात्रि में करना उत्तम है।

             रात्रिसूक्त
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 यह सबसे महत्वपूर्ण अंग है दुर्गा सप्तशती का। यह सिद्ध पाठ है। इस जगत के एक-एक अणु में कम्पन है। उसी कम्पन से यह जगत शब्दायमान हो रहा है। इसी को 'अनहद नाद' कहते हैं। जब तक साधक अनहद नाद सुन नहीं लेता तब तक उसकी साधना अधूरी है। इसके श्रवण के बाद ही साधक अंतर्जगत में प्रवेश कर सकता है।

    कुमारी पूजन का रहस्य
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शक्ति का सबसे अधिक सम्बन्ध शिव से है। शैव शक्तियां ही दुर्गा के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गा अनुष्ठान में दुर्गा का पूजन भी होता है। दो से नौ वर्ष तक की कुमारी कन्याओं के पूजन का विधान है। कन्या इस प्रकार से हैं–1- वर्ष की- संध्या, 2- वर्ष- सरस्वती, 3- वर्ष- त्रिधामूर्ति,4- वर्ष- कालिका, 5- वर्ष- सुभगा, 6- वर्ष- उमा, 7- वर्ष- मालिनी, 8- वर्ष- कलुजा, 9- वर्ष- काल संदभा, 10- वर्ष- अपराजिता, 11- वर्ष- रुद्राणी, 12- वर्ष- भैरवी, 13- वर्ष- महालक्ष्मी, 14- वर्ष- शाम्भवी, 15- वर्ष- क्षेत्रशा, 16- वर्ष- अम्बिका।
कुमारी पूजन में किसी प्रकार का जाति-भेद वर्जित है। कन्या पूजन करने से ग्रह-शान्ति होती है। भूत-प्रेत, राक्षस, यक्ष, गन्दर्भ, हाकिनी, डाकिनी, शाकिनी व अन्य देवगण प्रसन्न होते हैं। भू, भुवः स्वः तथा अन्य दिव्य लोकों के देव अनुग्रह करते हैं। दोनों नवरात्रों की अष्टमी तिथि को कन्या-पूजन श्रेष्ठ माना जाता है।
सर्वमंगल मांगल्ये
शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरी
नारायणि नमोस्तु ।।

   ----- प्रथम--'माँ शैलपुत्री----

     देवी भगवती का पहला स्वरुप 'शैलपुत्री' के नाम से विज्ञात है। इनका पूर्व का नाम सती है। दक्षपुत्री सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था। एक बार दक्ष ने एक यज्ञ किया। सभी देवों को बुलाया पर महादेव को नहीं बुलाया। सती ने महादेव से जाने की अनुमति मांगी। अनुमति न दिए जाने के बाद भी सती दक्षयज्ञ में सम्मिलित हो गयीं। वहां न सती को सम्मान मिला और न महादेव का यज्ञ-अंश निकाला गया। तिरस्कार देख कर सती ने अपने को यज्ञ-अग्नि में भस्म कर लिया। महादेव के आदेशों की अवहेलना के कारण ही सती को कठोर तप करना पड़ा। तभी पार्वती का जन्म प्राप्त हुआ। फिर महादेव को प्राप्त करने के लिए उन्होंने कठोर तप किया। यह देवी चरित प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए देवी पार्वती प्रथम शक्ति हैं। प्रकृति में जितने भी तत्व हैं--वे सब इनके अधीन हैं। पूजन-विधि इस प्रकार है--
 देवी दुर्गा की प्रतिमा मध्य में स्थापित करें। इनके दायीं ओर महालक्ष्मी, श्रीगणेश और विजया नामक योगिनी का स्थान है। बालकृष्ण को दुर्गाजी के आगे, विष्णु हों तो महालक्ष्मी के साथ स्थापित करें। दुर्गाजी के बायीं ओर महादेव का स्थान है। 
  पूजा सामग्री एकत्र कर, घट स्थापना करें। घट पर मौली बांधें। घट में जल भरकर गंगाजल मिलाएं। आम के 9 पत्ते लगाएं। जल में काले तिल, पीली सरसों, सुपारी, पीले चावल,  एक सिक्का भी अर्पित करें। चुनरी समेत घट स्थापना करें। सभी देवी देवताओं का आवाहन कर उनका ध्यान करें और भगवती से प्रार्थना करें--हे माँ ! आप हमारे घर में विराजमान हों। समस्त ग्रह-नक्षत्र, द्वारपाल के साथ हमें आशीर्वाद दें। हमारे व्रतों को पूर्ण करें।
  सर्वप्रथम गुरुपूजा, फिर गणेश पूजा, शिव पूजा करें। फिर दुर्गाजी का ध्यान करें। नारायण, भैरव और हनुमानजी का पूजन करें। 'ॐ दुर्गायै नमः' से भगवती की अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित करें।
 साधक सूक्ष्म में भी दुर्गा सप्तशती का पाठ कर सकते हैं। देवी कवच, अर्गला स्तोत्र और कीलक का पाठ। और उसके बाद सप्तशती का पाठ करें। श्री सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ भी सम्पूर्ण पाठ के समान माना गया है। माँ शैलपुत्री का ध्यान मन्त्र निम्न है--

वन्दे वांछितलाभाय
चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां
शैलपुत्रीं यशश्विनीम।।

जय गुरु देव ।। जय मां हिंगलाज भवानी💐💐💐🙏

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