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जीवन का एक अति गूढ रहस्य ……
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जब हम साँस लेते हैं तब यह सारी सृष्टि …. ये सारे प्राणी हमारे साथ ही साँस लेते हैं| सत्य तो यह है कि स्वयं सृष्टिकर्ता परमात्मा ही ये सांसें ले रहे हैं| उनसे पृथकता का आभास एक भ्रम है| वास्तव में हम यह मनुष्य देह नहीं, परमात्मा की अनंत सर्वव्यापकता हैं| वे ही सर्वस्व हैं| यह देह तो उनका उपकरण मात्र एक वाहन है जो इस जीवात्मा को अपनी लोकयात्रा के लिए दिया हुआ है| यह सारी सृष्टि, परमात्मा का ही एक संकल्प है| उन्हीं से इस सृष्टि का उद्भव है, वे ही जीवनाधार हैं, और उन्हीं में यह सृष्टि बापस विलीन हो जाएगी|
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इस सूक्ष्म देह के ब्रह्मरंध्र से परे जो अनंत महाकाश है, जिसमें समस्त सृष्टि समाहित है और जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है, उस परम चैतन्य को मैं परमशिव कहता हूँ| वे ही वासुदेव हैं, वे ही विष्णु हैं, वे ही नारायण, और वे ही पारब्रह्म परमात्मा हैं| उन परमशिव की जिस शक्ति ने, इस ब्रह्मांड, यानि इस सारी सृष्टि को धारण कर रखा है, और जो इस सारी सृष्टि को संचालित कर रही हैं, वे पराशक्ति भगवती जगन्माता हैं| यह सारा अनंताकाश परम ज्योतिर्मय है, उसमें कहीं कोई अंधकार नहीं है| वह अनंत प्रकाश और उसकी शाश्वत अनंतता ही हम हैं, यह नश्वर देह नहीं|
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प्राण-तत्व यानि प्राण-ऊर्जा के रूप में जगन्माता ब्रह्मरंध्र से सहस्त्रार होते हुए सुषुम्ना पथ से सब चक्रों को जीवंत करते हुए नीचे उतरती है| उनके स्पर्श से सब चक्र मंत्रमय हो जाते हैं, और उन चक्रों में जागृत ऊर्जा ही इस देह को जीवंत रखती है| मूलाधार को स्पर्श करते हुए वे बापस इसी पथ से बापस लौट जाती हैं| मेरी अनुभूति यह है कि मूलाधार के त्रिकोण पर एक शिवलिंग भी है जिसका स्पर्श कर और भी अधिक घनीभूत होकर यह प्राणऊर्जा ऊपर उठती है| इसका घनीभूत रूप ही कुंडलिनी महाशक्ति है|
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इस प्राणऊर्जा के विचरण और स्पंदन की प्रतिक्रिया से ही हमारी साँसे चल रही हैं| यह अपने आप में एक बहुत बड़ा विज्ञान है जो एक न एक दिन भारत की पाठ्य पुस्तकों में भी पढ़ाया जाएगा|
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जो मुमुक्षु जीवन में परमात्मा को पाना चाहते हैं, उन्हें जब यह बात समझ में आ जाये तभी से अपना अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही बिताना चाहिए| संसार में अधिकांश परिवारों में आध्यात्मिक रूप से अच्छा वातावरण नहीं होता| घर-परिवार के सदस्यों के नकारात्मक विचार अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहते| मेरी सलाह तो यह है कि विवाह और घर-गृहस्थी के बंधन में तभी पड़ना चाहिए जब होने वाले जीवन साथी के विचारों और सोच में साम्यता हो| विपरीत सेक्स का आकर्षण सबसे अधिक भटकाने वाला होता है| जिसने राग-द्वेष, लोभ व अहंकार को जीत लिया है वह वीतराग व्यक्ति ही विश्व-विजयी है| लोभ और अहंकार ही मनुष्य को हिंसक बनाते हैं| लोभ और अहंकार पर विजय ही अहिंसा है जो ‘परमधर्म’ कहलाती है| गीता में तो भगवान श्रीकृष्ण ने वीतरागता से भी आगे स्थितप्रज्ञता की बात कही है|

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