आत्मसाक्षात्कार क्या है ? इसका कुण्डलिनी जागरण से क्या सम्बन्ध है ?
आत्म-साक्षात्कार साध्य लक्ष्य है, जीवन का परम लक्ष्य है।आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है--आत्मा के शुद्ध-बुद्ध स्वरुप में, अपने निज स्वरुप में चैतन्य हो जाना। आत्मा जब प्रथम बार सृष्टिक्रम में संसार में आती है तो संसार के उपादान अहम् तत्व, मनस्तत्व, प्राणतत्व और प्रकृति के पंचभूत-जड़तत्व और उनकी तन्मात्राएँ आदि आत्मतत्व से जुड़ जाते हैं और शुद्ध-बुद्ध आत्मा #जीवभाव को प्राप्त हो जाता है। आत्मतत्व को अपने भीतर समेटने वाले स्थूल शरीर, वासना शरीर, सूक्ष्मशरीर और मनोमय शरीर आत्मशक्ति को सीमित कर देते हैं। मगर उसकी शक्ति और ऊर्जा के द्वार सदैव रहते हैं शरीर में उर्जा-केंद्र के रूप में। केवल उन्हें खोलना पड़ता है, क्रियाशील करना पड़ता है। ये ऊर्जा-केंद्र ही शरीरस्थ चक्र होते हैं जिनका सम्बन्ध जगत् के बिभिन्न आयामों से जुड़ा रहता है और जुड़ा रहता है लोक-लोकान्तरों के अस्तित्व के साथ-साथ परमब्रह्म तत्व से। उस परब्रह्म तत्व से सीधे जुड़ पाना संभव नहीं है। उसके लिए प्रकृति और उसके सारे उपादानों--शरीर, मन, प्राण, और अहम् से अपने #आत्मतत्व को पृथक करना पड़ेगा। #इसी #पृथक्करण #की #प्रक्रिया #को #ही #साधना #की #संज्ञा #दी #गयी #है। वह साधना चाहे--योग साधना हो या तंत्रसाधना। इन साधनाओं में से किसी एक को साधन बनाकर आत्मसाक्षात्कार का साध्य हासिल हो सकता है। इसके अलावा प्रेम और भक्ति की निर्मल धारा द्वारा अपनी आत्मा निर्मल बनाकर आत्मसाक्षात्कार सम्भव है। आत्मसाक्षात्कार में #स्व का बोध बना रहता है, #मैं का बोध रहता है। आत्मसाक्षात्कार के बाद अगली सीढ़ी है--परमात्म- साक्षात्कार जिसमें 'स्व' का बोध भी समाप्त हो जाता है। लेकिन इसमें उस परब्रह्म की अहेतु की कृपा का इंतज़ार करना जरुरी है।