अयोध्याकाण्ड का एक बहुत ही सुन्दर प्रसंग है -लक्ष्मण गीता !
यहाँ पहली बार रामायण में लक्ष्मणजी एक अलग से व्यक्तित्व में आते हैं -एक उपदेष्टा के रूप में ! तब हमें पता चलता है कि लक्ष्मणजी का ज्ञान, उनकी समझ कैसी थी ! लक्ष्मण गीता में जो उपदेश आरम्भ होता है, वह निषादराज के विषाद से ही होता है !
विषाद का मूल कारण, मूल प्रश्न क्या है ?
भ्रम यह है कि निषादराज के सामने एक परिस्थिति है ? -कुश की शैय्या पर जानकीजी और प्रभु श्रीराम सो रहे हैं !
इस दुखद परिस्थितिका कारण कौन है ? निषादराज की व्याख्या क्या है ?
कोई एक निश्चित व्याख्या नहीं है ! पहले वे ब्रह्माजी को दोषी ठहराते है ! फिर कर्म को दोष देते हैं और फिर कैकई को ! असल में देखें तो निषादराज हम लोगों के ही प्रतिनिधि हैं ! हमलोग भी मन:स्थिति के अनुसार कारण बदलते रहते हैं !
लक्ष्मणजी बोले कि यह भगवान का भक्त भ्रमित हो रहा है, इसे भ्रम में नहीं होना चाहिए ! भ्रम का निवारण के लिए-लक्ष्मण गीता लक्ष्मणजी के मुख से निकली है !
लक्ष्मणजी कहते हैं कि निषादराज, अपनी दृष्टि को सही करो और किसी को दोष मत दो ! कर्मवाद को स्वीकार करते हो तो किसी दूसरे को दोष नहीं दिया जा सकता !
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥
भावार्थ:- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥
पूरी कर्म मीमांसा इस एक चौपाई में लक्ष्मणजी ने बता दी ! इसे पूर्व मीमांसा भी कहते हैं ! अब आगे की पाँच चौपाइयों तथा दोहे में उत्तर मीमांसा की विवेचना करते हैं ! उत्तर मीमांसा ही वेदान्त है ! यदि आपने इसका अच्छी तरह से अध्ययन किया है तो अगली पाँच चौपाइयों तथा दोहे में वेदान्त का पूरा विवेचन आपको मिल जायगा !
श्री लक्ष्मणजी के उपदेश में पहली बात तो यह कही गई कि मनुष्य को व्यक्तिवाद या परिस्थितिवाद से उठकर कर्मवाद पर आना चाहिए ! परिस्थितिवाद, माने जब हम अपने सुख दुःख का कारण केवल व्यक्ति या वस्तु या परिस्थिति को मानें !
आप जब कर्मवादी हो जाते हैं, तो आपके मन में एक क्रन्तिकारी परिवर्त्तन आ जाता है ! फिर ऐसा व्यक्ति, परिस्थिति नहीं, अपना कर्म बदलता है ! अब उसके मन में यह दृढ़ धारणा बन जाती है कि यदि मैं अपना कर्म ठीक लूँ तो मेरी परिस्थिति अपने आप ठीक हो जाएगी, इसे होना ही है !
जब आपकी बुद्धि में ऐसा पक्की तरह बैठ जाय, तो फिर आप व्यक्ति या वस्तु या परिस्थिति बदलने में रुचि नहीं रखेंगे ! क्योकि आप जानते हैं कि इनके बदलने से कुछ विशेष परिवर्त्तन नहीं होने वाला है ! फिर आप उस व्यक्ति या वस्तु या परिस्थिति से विशेष राग नहीं करेंगे और जब राग नहीं तो फिर द्वेष भी नहीं ! इस तरह हमारा राग द्वेष शिथिल हो जाता है ! यह एक कर्मवादी का सच्चा लक्षण है !
कर्मवादी होने से जीवन में और भी कई लाभ होते हैं, जैसे कर्मवादी होने से जीवन में सदाचार आता है, दुष्कर्म से डरना शुरू करे तो दुष्कर्म छूटता है ! यदि हमारी धारणा बिलकुल पक्की है कि हमारे सत्कर्म हमें सुखी करेंगे और दुष्कर्म हमें दुःख अवश्य देंगे,तो फिर हम सत्कर्म करने का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे ! ऐसा व्यक्ति हर प्रकार से पुण्य की पूंजी कमाने का प्रयत्न करता है !
सत्कर्म—-.> शुभ परिस्थिति——> सुख
कर्म सुख दुख का हेतु है यह ठीक है, परन्तु इतने से ही काम चलता नहीं है क्योकि सत्कर्म निरन्तर नहीं होता है ! बीच-बीच में गड़बड़ भी होती रहती है ! पहली कठिनाई तो यही आती है कि हर समय सत्कर्म ही होए, ऐसा बहुत कठिन है ! कई बार अनजाने में गलत कर्म हो जाते हैं ! दूसरी कठिनाई यह है कि सत्कर्म करने से भी अभिमान तो नहीं जाता है, बल्कि कई बार सत्कर्म करने वाले का अभिमान बढ़ जाता है !
अभिमान से मद चढ़ता है और विवेक कुंठित होता है ! कई बार मद के प्रभाव में जो गलत है, वह भी सही लगने लगता है इसलिए यदि केवल कर्म हमारे जीवन का नियामक तत्त्व रहे तो बहुत सुरक्षित स्थान नहीं है ! परिस्थितिवाद से कर्मवाद बेहतर ज़रूर है, परन्तु उससे भी ऊँची सोच और समझ होना चाहिए, दर्शन होना चाहिए !
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥
दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥
लक्ष्मणजी निषादराज से कहते हैं कि हे निषादराज, जीवन में जो बहुत सारी घटनाएँ होती है, उसके बारे में एक दूसरी दृष्टि से भी सोचो ! क्या क्या हैं वे ?
जोग बियोग – यह जीवन में होता रहता है ! कभी संयोग होता है, कभी वियोग होता है ! और तीसरी घटना है भोग ! और ये तीनों कैसी होती है – भल मंदा, कभी अच्छी और कभी बुरी ! कभी जोग हो गया किसी अच्छे व्यक्ति से, कभी बुरे व्यक्ति से ! कभी अच्छे व्यक्ति से वियोग हुआ, कभी बुरे व्यक्ति से ! कभी अच्छा भोग आया, कभी बुरा भोग आया – जोग बियोग भोग भल मंदा।
लोग कैसे होते हैं ?-हित अनहित मध्यम – ये तीन तरह के लोग होते हैं जिनके साथ हम व्यवहार करते हैं ! कोई हमारा हितैषी है,कोई बुरा चाहने वाला है और कोई उदासीन है ! लक्ष्मणजी बोलते हैं कि ये छह के छह मनुष्य के लिए भ्रम के बड़े-बड़े फंदे हैं, जिनमे सारा संसार फँसा हुआ रहता है ! कैसे फँसते है ? ये हमें संलग्न करते है, जोड़ लेते हैं !
जोग, वियोग, भोग तो आता जाता रहता है, लेकिन इन सबमें हम लिप्त हो जाते हैं ! हित, अनहित, मध्यम के साथ संलग्न हो जाते हैं ! जो हम इनमें संलग्न हो जाते हैं, वही फंदा है, हमें फँसाने का,उलझाये रखने का ! यह एक बहुत बड़ा जाल है, जन्म से मरण होने तक ! जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू- जन्म से मरण होने तक फैला हुआ जाल है ! प्राणी बचकर कहाँ जायगा ! ये जाल में ये छह फन्दे घूमते रहते हैं – जोग, बियोग, भोग, हित, अनहित, मध्यम !
लक्ष्मणजी बोलते है, हे निषादराज, इस जाल से बचकर जाने की बात आप छोड़ दो! संपति बिपति करमु अरु कालू – इस जाल में अभी और भी कई फंदे हैं, रंगीन फंदे हैं ! संपत्ति है, विपत्ति है, काल है, कर्म है, ये सब आपको बांधने वाले फंदे हैं ! जगत के लिए जालू शब्द कहा ! और इस जगत का विस्तार कितना है ? बोले- स्वर्ग, नरक, संपत्ति, विपत्ति, काल, कर्म, जोग, बियोग, भोग, हित, अनहित, मध्यम ऐसा ये जाल फैला हुआ है और यही सब इसके फंदे हैं ! संपत्ति, विपत्ति, काल, कर्म, जोग, बियोग, भोग फँसा लेते हैं !
परन्तु फिर इससे निकलने का रास्ता क्या है ? लक्ष्मणजी कहते हैं कि निकलने का रास्ता यह है कि यह पूरा प्रपंच जिसे मैंने एक जाल के जैसा कहा, वास्तव में केवल मोह का परिणाम है ! अगर इस बात को समझ लिया जाय तो न तो कोई जाल है और न ही कोई फंदा है !
आप कर्म करते हो, तदनुसार परिस्थिति बनती है, उसे भोगना पड़ता है ! उस भोग से सुख दुःख निकलता है, यही हमारा रोज का जीवन है ! यह कार्यक्रम कब तक चलता रहेगा ? तब तक, जब तक आप परम-तत्त्व को जान नहीं लेते हैं ! यह दूसरी दृष्टि है-परमार्थ दृष्टि !
दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।
भावार्थ:-धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं !!
कितना बड़ा प्रपंच है ! प्रमाणत्रय से प्रतीयमान होता है ! देखिअ, सुनिअ, गुनिअ-प्रत्यक्ष,अनुमान और शब्द- यही तीन प्रमाण हैं, जिनसे प्रमेय का ज्ञान होता है ! इन तीनों प्रमाणों से उपलब्धमान जो यह प्रपंच है, यह मोह मूल है- सच नहीं है -परमारथ नाही !
आप कहेंगे कि यह भ्रम कैसे हुआ ? हमें यह सुख देता है, दुःख देता है ! तो बोले कि सुख -दुःख तो सपने में भी होता है ! तो क्या जो सपने में हम अनुभव करते हैं, वह यथार्थ है ? यह केवल प्रतीति है !
विचारक लोग इस जगत को इतना ठोस नहीं मानते हैं, जितना यह आपको लगता है ! हमारे विज्ञानिक बंधुओ ने तो वेदान्तियों की बड़ी मदद करी है ! उन्होंने प्रत्यक्ष प्रमाण की तो धज्जियां उड़ा है !
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥
भावार्थ:-ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं॥
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥
भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥
जगत की हमारी अनुभूति है, सुखात्मक या दुखात्मक ! उसका कारण बनती है परिस्थिति और परिस्थिति का कारण है कर्म ! कर्म होता है कर्ता भाव से ! कर्ता कौन है ?
बोले – मैं हूँ ! वेदान्त कहता है कि आप इस बात पर विचार करो कि क्या यह बात सच है कि आप कर्ता हो ? क्या कर्तृत्व आपका स्वरूप है ?
हमारे भीतर अपने को लेकर भावनाएँ उठती हैं ! एक है – भोक्तृत्व दूसरी है – कर्तृत्व, भोक्ताभाव और कर्ताभाव ! जब हम अपनी बुद्धि (ज्ञानेन्द्रियों) से तादात्म्य करते हैं, तब भोक्ताभाव उत्पन्न होता है और कर्मेन्द्रियों से तादात्म्य करते हैं, तब कर्ताभाव होता है !
यह कर्तृत्व और भोक्तृत्व ही मेरी पहचान है ! जिसे मैं ‘मैं’ बोल रहा हूँ, उसमे ये दो चीजे ही तो है ! इस भोक्ता में ही इच्छा उत्पन्न होती है और यह इच्छा ही हमें कर्म करने की प्रेरणा देती है ! यही पूरी समस्या का मूल कारण है !
भोक्तृत्व के कारण इच्छा पैदा होती है ! फिर उस इच्छा से कर्तृत्व प्रेरित होता है ! कर्तृत्व से कर्म होता है ! कर्म से कर्मफल बनता है ! वह फल परिस्थिति बनकर हमारे सामने आता है, सुख दुःख देने के लिए ! उस फल को हम भोगते हैं ! उस फल को भोगने से संस्कार बनता है ! उस संस्कार से भोक्ता में भोगने की इच्छा पैदा होती है ! इस तरह से यह चक्कर चालू रहता है ! इसी को भवसागर भी बोलते हैं !
लक्ष्मणजी कहते है कि यह कर्ता – भोक्ता भाव जो हमारे भीतर बना रहता है, वह अत्यन्त प्रबल है, परन्तु है बिलकुल मिथ्या ! कर्ताभाव हमारे मन बुद्धि में इतना दृढ़ इसलिए हो गया है क्योकि प्रबल अभ्यास पड़ा हुआ है ! कोई चीज अभ्यासवश प्रबल हो जाय तो ऐसा नहीं है कि वह सच है ! मैं इस कर्ता भोक्ता भाव को छोड़ नहीं पाता इसलिए वह मेरा अपना स्वरूप है, ऐसा नहीं है !
स्वरूप की परिभाषा क्या है ? अहेयम् अनुपादेयं यत तत स्वरूपम् -जिस चीज को आप छोड़ न सकें और जिसे बाहर से लाया न गया हो, वह आपका स्वरूप है ! इस परिभाषा के अनुसार आप विचार करके देखें कि क्या कर्तृत्व हमारा स्वरूप हो सकता है ?
एक बात तो आपको अनुभव में सिद्ध है कि कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व, मुझमे एक रस नहीं रहता, वह घटता बढ़ता रहता है, कभी तीव्र, कभी मध्यम और कभी मंद ! इसमें हमेशा विकार होता रहता है ! इसलिए कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व, अपना स्वरूप नहीं हो सकता !
असली सिद्धि तो यही है कि हमें अपना असली चिन्मय आनंद स्वरूप मालूम पड़े जो कर्ता और भोक्ता नहीं हैं ! इस स्वरूप के प्रति जो निरन्तर जाग्रत रहता है वह सिद्ध है और जो इस स्वरूप के प्रति जाग्रत नहीं है वह सो रहा है ! उसके लिए लक्ष्मणजी कहते है – मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। जो इस स्वरूप के प्रति अज्ञानी बना हुआ है, वह व्यक्ति – देखिअ सपन अनेक प्रकारा ॥ जो नाना प्रकार का प्रपंच हमारे सामने दिखाई देता है, वह सारा का सारा प्रपंच स्वप्नवत है ! हमने इस प्रपंच को इतना महत्व दे दिया है कि अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान को ही भूल गए हैं और भवसागर में फंसे हैं ! !
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥
भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥
मोहरूपी रात्रि में सब लोग सो रहे हैं ! अनेक प्रकार से स्वप्न माने प्रपंच को देख रहे हैं और भोग रहे हैं ! अपने स्वरूप का अविवेक ही रात्रि है ! क्या सभी लोग सोये रहते हैं ? तो बोले कि नहीं, जो योगी हैं, परम को चाहते हैं, तत्त्व के अनुसन्धानी हैं, स्वरूप ध्यानी हैं, वे ही जागते रहते हैं ! यह अपने आप खुलने वाली नींद नहीं है ! और स्वाभाविक है जिसे परम ही चाहिए, वह प्रपंच बियोगी होगा ! उसने परम का वरण कर लिया! वरण ही एक व्यक्ति को साधक बनता है !
जागने की निशानी क्या है ? बोले – जब सब बिषय बिलास बिरागा-जब सारे विषयों से, उनके विलास से वैराग्य हो जाय ! जब विषय से सुख लेने की पराधीनता छूट जाए !
आगे लक्ष्मणजी निषादराज से कहते हैं –
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥
भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है !!
जैसे ही यह ज्ञान होता है, मोह दूर हो जाता है और साथ ही सारा प्रपंच भी मिटता है ! मोह ही सारे उपद्रव की जड़ है और उसका निराकरण केवल विवेक से ही हो सकता है ! उसके फलस्वरूप भगवान राम में अनुराग सिद्ध हो जाता है ! मेरे भाई, परम परमार्थ क्या है जिसको आप चाहते हो ? रघुनाथजी तो हमारी अंतरात्मा ही है ! राम ही परम ब्रह्म हैं ! जीव जिसे सबसे ज्यादा चाहता है वही राम हैं ! स्वाधीन, अव्यय, आनन्द, निरूपद्रव,बस !
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥
भावार्थ:-श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं॥
भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥
भावार्थ:-वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥
तो रामजी कौन हैं ? बोले- राम ही ब्रह्म हैं ! जीव जिसे सबसे ज्यादा चाहता है, वही राम हैं ! श्रीराम प्रभु में कोई विकार नहीं है और कोई भेद नहीं है !
इसलिए राम तत्त्व का कोई निरूपण नहीं हो सकता – कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥
रामजी वहाँ सोये हुए हैं और लक्ष्मणजी कहते हैं -अबिगत, अलख !जिनको लखा नहीं जा सकता है ! तो वहाँ सोया हुआ कौन है ?- वह उनका लीला विग्रह है ! जो परमार्थ सत्ता है, वही अपेक्षा से देहधारी बनती है और वही इस समय हमारे सम्मुख अवतार लेकर उपस्थित है ! ये तो थोड़े समय के लिए चरित्र करने के लिए उसी परमार्थ तत्त्व ने मनुष्य का शरीर कर लिया है ! क्यों धारण किया है ?
एक कारण तो यह है कि धर्म की संस्थापन के लिए और दूसरा कारण बताते है कि जब मनुष्य का शरीर धारण करके भगवान एक आदर्श चरित्र स्थापित करते हैं ताकि प्रभु का चरित्र प्रगट हो !
चरित्र प्रगट होगा तभी तो गाया जायगा ! निष्प्रपंच ब्रह्म का कोई चरित्र ही नहीं होता तो गाओगे क्या ! अनुकरण करने के लिए कोई चरित्र तो चाहिए ही ! हर मनुष्य अपने को किसी आदर्श के सामने समर्पित करना चाहता है ! बस, आप भगवान का चरित्र खूब सुनिए, सुनने मात्र से आपके सारे बन्धन कट जाएंगे ! यहाँ लक्ष्मण गीता पूरी होती है !