श्रीमद्भागवत का सार ” संक्षिप्त प्रस्तुति”
मित्रो, यह प्रसंग बहुत गौर से पढने योग्य है- भगवान् कपिल व्यास गद्दी पर विराजमान है, कपिल की नौ बहनें बैठी हैं, सबसे आगे देवहूति माता बैठी है, कपिल से प्रश्न करती है- हे प्रभु! मेरी परिस्थिति बड़ी खराब हो रही है, ये जो दस इन्द्रियां है, पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां सब मुझे अपनी-अपनी ओर खींच रही है, मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं?
निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रिय तर्षणात्।
येन् सम्भाव्यमानेन नप्रपन्नान्धं तमः प्रभोः।।
आँखे कहती है सुन्दर रूप देखो, कान कहते है मधुर संगीत सुनो, नासिका कहती है मीठी सुगन्ध को सूंघो, रसना जो खतरनाक इन्द्रिय है जो कहती है स्वादिष्ट पदार्थ का सेवन करो, इन्द्रियों को वश में कैसे करूँ? यह मेरा पहला प्रश्न है, मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि बंधन किसका होता है? बंधन मन का होता है, शरीर का होता है या आत्मा का होता है? मन को वश में करने का उपाय क्या है?
प्रभु कपिलदेव ने कहा- माँ, आप तो स्वयं ज्ञानी हैं, विदुषी है, परम साध्वी है, आपसे मैं क्या कहूँगा, फिर भी जो मैंने जाना हैं उसे जरूर कहुँगा, इन्द्रियों को तो वश में करना ही चाहिये, उन्हें वश में करने का तरीका है संयम, संयम साधन के द्वारा इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है, फिर भी यदि वश में नहीं होती हो तो, प्रत्येक इन्द्रिय का मुख परमात्मा की ओर मोड़ दो।
हमारे मन में स्वादिष्ट और ज्यादा पकवान खाने की इच्छा है, तो उन पकवानों को गोविन्द के भोग लगाकर पाओ, जीभ की वस्तु उसे मिली, पर परमात्मा से संबंध जोड़कर मिली, इसलिये उसका दोष नहीं रहा, दूसरी बात- माता! जहां तक बंधन का कारण है तो आत्मा का कभी बंधन नहीं होता, इसलिये आत्मा की मुक्ति का सोचना भी अपराध है, जिसका बंधन नहीं उसकी कैसी मुक्ति?
आत्मा की कोई मुक्ति नहीं होती, बंधन और मुक्ति तो केवल मन की होती है, मन ही बन्धन में डालता है, मन ही बंधन से मुक्त करता है, यदि विषयों के प्रति मन आसक्त है तो हम बँधे हुये है, और मन विषयों से हट गया तो समझो हमारी मुक्ति हो गयी, इसलिये मन को विषयों से अनासक्त बनाओ, मन से ही बंधन है और मन से ही मुक्ति।
आप समझिये जिस प्रकार जितना बड़ा प्लाॅट होता है उतना बड़ा मकान नहीं बनता, मकान प्लाॅट से छोटा होता है, और जितना बड़ा मकान होता है उतना बड़ा उसका दरवाजा नहीं होता, दरवाजा मकान से छोटा होता है, और जितना बड़ा दरवाजा होता है उतना बड़ा उसका ताला नहीं होता, ताला दरवाजे से छोटा होता है, और जितना बड़ा ताला होता है उतनी बड़ी उसकी चाबी नहीं होती।
चाबी बिल्कुल छोटी होती है पर उस पूरे मकान को बंद करना है और खोलना है तो वह छोटी सी चाबी ही काम आती है, उसे यूँ घुमा दीजिये तो मकान बन्द हो जायेगा, और यूँ घुमा दीजिये तो मकान खुल जायेगा, उसी प्रकार इस पूरे शरीर रूपी मकान की चाबी है हमारा ‘मन’ इस मन को अगर आप संसार में लगा देंगे, विषय-वासना में लगा देंगे तो बंधन हो जायेगा।
और इसी मन को अगर आप गोविन्द के चरणों में लगा देंगे तो आपकी मुक्ति हो जायेगी, इसी मन से बंधन है और इसी मन से मुक्ति, इस मन को वश में करना बहुत जरूरी है, अभी हम मन के वश में है इसलिये मन हमें बहुत भटकाता है, लेकिन मन जिस दिन आपके वश में हो जायेगा यह भटकना बंद कर देगा, आदरणीय संत श्री कबीरदासजी लिखते हैं!
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
मन ही लेजावे नर्क में, मन ही करावे फजीत।
मन के मारे बन गये, बन तज बस्ती माय
कहे कबीर क्या कीजिए, यह मन ठहरे नाय।
मन बड़ा है लालची, समझे नांहि गंवार
भजन करन में आलसी, खाने में होशियार।
यह तो गति है अटपटी, झटपट लखै न कोय
जब मन खट-पट मिटै तो, झटपट दरशन होय।
तो जब मन की खटपट मिटेगी तो झटपट प्रभु के दर्शन होंगे, इसलिये मन को अनासक्त बनाओ, मन को अनासक्त बनाने का पहला तरीका है सत्संग, महापुरुषों के सामने बैठकर सत्संग करें, परमात्मा की दिव्य लीलाओं का रसास्वादन करें, क्योंकि भगवान् के बारे में जब-तब जानकारी नहीं होगी तो मन उनमें लगेगा कैसे?
जाने बिनु होई परतीति।
बिन परतीति होइ नहीं प्रीति।।
बिना जानकारी के परमात्मा को समझेंगे कैसे? इसलिये सत्संग में जरूर जाना चाहिये, सत्संग का समय जरूर निकाले, सत् यानी अविनाशी परमात्मा, संग यानी साथ, जो परमात्मा का साथ करवा दे, या परमात्मा का संग करवा दे, उसी का नाम है सत्संग, आप सत्य संग बोलें, चाहे सत् संग बोलें, एक ही बात है, सत्संग करें धीरे-धीरे मन कृष्ण चरणों में लगेगा।
मन को वश में करने का दूसरा तरीका है, अष्टांग योग, योग के आठ अंग – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, मन को वश में करना है तो हम अहिंसक बनें, शाकाहारी बनें, सात्विक बने, हिंसा करने वाला, मांस भक्षण करने वाला व्यक्ति एकाग्र मन वाला नहीं हो सकता।
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिसग्रहः।
ब्रह्मचर्य तपः शौचं स्वाध्यायः पुरूषाच॔नम्।।
मौनं सदाऽऽसनजयः स्थैय॔ प्राणजयः शनेः।
प्रत्याहारश्चैन्द्रियाणां विषयान्मनसा ह्रदि।।
आपको जानकर आश्चर्य होगा- अमेरिका जैसा देश, जहां के लोग हर जीव का मांस भक्षण करते है, वहां अभी तीस प्रतिशत से ज्यादा व्यक्ति शुद्ध शाकाहारी बन गये हैं, दिनों-दिन वहाँ शाकाहार की प्रवृत्ति बढ़ रही है, लेकिन हम लोगों के यहां दिनों-दिन लोग गिरते जा रहे है, डाक्टरों ने अध्ययन करके जानकारी हासिल की है कि कैंसर के मरीज नब्बे प्रतिशत मांसाहारी होते है।
हमे किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये, हम अहिंसक बनें, जैन पंथ में तो अहिंसा मूल मंत्र है, कई जगह देवी के या भोमियाजी व भेरूजी के बली चढ़ाते लोग कहते है कि बली चढ़ाने से देव प्रसन्न हो जायेंगे, अरे भले आदमी हिंसा से कोई देव प्रसन्न नहीं होता, ये सब तो जीभ के स्वाद के कारण कितना पाप कर रहे हैं। मित्रो आगे का प्रसंग हम आपको सातवीं औऱ अंतिम पोस्ट में बतायेगें।
श्रीमद्भागवत का सार ” संक्षिप्त अंतिम प्रस्तुति”,,,
मित्रों आप , सत्य बोलने का संकल्प लिजिये, ज्यादा से ज्यादा सत्य बोलने का प्रयास करना चाहिये, ब्रह्मचर्य का पालन करें, संयमित जीवन जिये, प्रातः काल जल्दी उठने का प्रयास करें, उठते ही हाथ-पांव धोकर पलंग के पास बैठ जाइये, विचार करें कि मैं भगवान् का एक पार्षद हूँ, एक भक्त हूँ, ऐसा सोचकर परमात्मा का चिन्तन करें, परमात्मा के गुणों का नित्य चिन्तन करे।
चिन्तन कैसे करें? परमात्मा के चरणों में ब्रज अंकुश ध्वजा का चिह्न है, ये परमात्मा के चरण हैं, चरणों के चिन्तन की बात पहले क्यों कही कपिल ने? क्योंकि हमारा जो चित है ना सज्जनों, इसे चित क्यों कहते है? क्योंकि जन्म-जन्माँतरों की वासना की गठरी हमारे चित में चिपकी हुई है, कर्मों की गठरी चित में चिपकी हुई है, जब श्रीकृष्ण के चरणों का चिन्तन करेंगे तो कृष्ण पहले अपने चरणों को हमारे चित में स्थापित करेंगे।
उनके चरणों की ध्वजा, अंकुश, ब्रज आदि के द्वारा हमारे पाप की गठरी कट-कटकर हट जायेगी और हमारा चित निर्मल हो जायेगा, जब परमात्मा को हम ह्रदय रूपी घर में बिठाना चाहते हैं और उसमें काम, क्रोध, मत्स्य, वासना जैसी गंदगी भरी होगी तो क्या परमात्मा कभी आयेंगे? बिल्कुल नहीं आयेंगे, इसलिये पहले उनके चरणों का चिन्तन करें और चिन्तन के माध्यम से ह्रदय को शुद्ध करें।
तब उस ह्रदय में मेरे गोविन्द का प्राकट्य हो सकता है, पहले चरणों का चिन्तन करें, घुटनों का चिन्तन करें, भगवान् के कटि प्रदेश का चिन्तन करें, प्रभु के उदर का चिन्तन करें, नाभि का चिन्तन करें, कण्ठ का चिन्तन करें और धीरे-धीरे मेरे गोविन्द के मुखार विन्द का चिन्तन करें।
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र शोकाश्रुसागर विशोषणमत्युदारम्।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य भ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य।।
हंसी से परिपूर्ण प्रभु के मुखार विन्द का चिन्तन करें, क्योंकि शोकरूपी सागर में डूबा हुआ जो मनुष्य है, उसे शोक सागर से निकालकर आनन्द के महासागर में पहुंचाने की ताकत केवल परमात्मा की हंसी में हैं, हंसते हुए भगवान् के चिन्तन की बात क्यों कहीं? सज्जनों! श्रीकृष्ण के चरित्र में जितने संकट आये, जितने भी परमात्मा के चरित्र है, उनमें श्रीकृष्ण के चरित्र में जितना संकट आया, उतना संकट किसी भगवान् के जीवन में कभी नहीं आया,
आप भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र पर एक नजर डालकर देखे- इनका जन्म कहां हुआ? जहाँ डाकुओं को बंद किया जाता है, जेलखाने में तो कन्हैया पैदा हुये जेलखाने में, जन्म लेते ही गोकुल भागना पड़ा, वहाँ केवल सात दिन के थे तो पूतना मारने आ गयी, छः महीने के थे तब शंकटासुर राक्षस मारने आ गया, एक वर्ष के थे तो तृणावर्त मारने आया।
यमुना में कूद कर कालियादमन किया, उसके बाद गिरिराज को उठाया, अघासुर, बकासुर, व्योमासुर, धेनुकासुर, केशी आदि कई राक्षसों को मारा, ग्यारह वर्ष छप्पन दिन के कृष्ण ने सैंकड़ों राक्षसों से युद्ध किया, कंस का मर्दनकर उद्धार किया, मथुरा में भी शांति नहीं मिली, जरासंध ने मथुरा को घेर लिया तो उसका भी वध करवाया, द्वारिका नामक नगरी बसा कर द्वारिका चले गये।
द्वारिका में शान्ति से बैठे थे कि पांडव बोले हम संकट में हैं हमारी रक्षा करो, कौरव-पांडवों में छिड़े युद्ध में कन्हैया ने पांडवों को विजय श्री प्रदान कराई, अब थोड़ा शान्ति से बैठे थे, चलो सुख से जीवन व्यतीत होगा तो घर में ही झगड़ा शुरू हो गया, यदुवंशी एक-दूसरे पर वार करने लगे, घर में भी शान्ति नहीं मिली, कृष्ण की आँखों के सामने निन्यानवे लाख से भी ज्यादा संख्या वाले यदुवंशी ऐसे लड-लडकर, कट-कटकर मर गये।
एक भी दिन श्री कृष्ण का सुख और शांति से व्यतीत नहीं हुआ, संकट पर आए संकटों का निवारण करने में ही सम्पूर्ण जीवन बीत गया, इतने संकट आने पर भी कभी आपने श्रीकृष्ण को अपने सिर पर हाथ धर कर कभी चिन्ता करते नहीं सुना, भगवान् कभी चिन्ता में डूबे हो ऐसा शास्त्रों में कहीं पर नहीं लिखा, मुस्कुराते ही रहते थे हमेशा, इसका मतलब क्या है?
श्री गोविन्द कहना चाहते है कि हमेशा मुस्कुराते रहे, सदैव प्रसन्न रहना ही मेरी सर्वोपरि भक्ति है, आपने सुना होगा उल्लू को दिन में दिखायी नहीं देता और जो कौआ होता है, उसे रात में दिखायी नहीं देता, उल्लू चाहता है कि हमेशा रात बनी रहे तो अच्छा, कौआ चाहता है कि दिन बना रहे तो अच्छा है, लेकिन उल्लू और कौए के चाहने से दिन-रात कभी बदलेगा, ये कभी हो सकता है क्या?
रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि तो आती ही रहेगी, ये क्रम है संसार का, दुःख और सुख आते-जाते ही रहेंगे, अतः दोनो परिस्थतियों में एक से रहो, जैसी परिस्थितियां जीवन में आयें उनका डटकर मुकाबला करो, उनसे घबराओ नहीं, जो परिस्थितियों से घबरा जाता है, वो मानव जीवन में कभी प्रगति नहीं कर सकता, निराश न होइये सफलता अवश्य मिलेगी।
हर जलते दीप के तले अंधेरा होता है।
हर अंधेरी रात के पीछे सवेरा होता है।।
लोग घबरा जाते हैं मुसीबतों को देखकर।
हर मुसीबतों के बाद खुशी का तराना तो आता है।।
दुःख से घबराना नहीं है अपने आप दुःख शान्त हो जायेगा, केवल सामना किजिये, भगवान् कपिल कहते हैं- रोज चिन्तन करो, मुस्कुराते हुए प्रभु के चेहरे का चिन्तन करो, भगवान् कपिल कहते है- जो ऐसा मानसिक पूजन नियमित करते है, धीरे-धीरे उसका मन एकाग्र हो जाता है, जिसमें आप नजर डालोगे उसमें आपको परमात्मा दिखेगा, इसलिये मुस्कराते हुयें जीवन को भगवान् की अनुकम्पा के साथ जियों।
मित्रो! आप सभी ने भागवतजी के एक एक प्रसंग को अब तक भक्ति के साथ स्वाध्याय व चिन्तन और मनन किया, भगवान् श्रीकृष्णजी आप सभी को आरोग्य और सौभाग्य प्रदान करें, , इति श्री भागवत् सार सम्पूर्णम्।