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जरा मुस्कुराइये। हास्य में मन को हरण करने की और गर्व को जीत लेने की शक्ति होती है। भगवान के स्मित में बड़े बड़े देवों के गर्व को भी खण्डन करने की शक्ति है।
दुर्जनों और सज्जनों की नीति में यही भेद है। दुष्ट व्यक्ति क्रोध करके किसी के गर्व का खंडन करते हैं जबकि सज्जन स्मित के द्वारा गर्व खण्डित करते हैं। जिसे मन्द मन्द मुस्कुराना आ गया, उसे अपने आपको और सारे जगत को जीत लेना आ गया।
हास्य सारे संसार को जीतने का ईश्वरीय साधन है। कोई क्रोध करे, तब उसकी ओर थोड़ा हँस देना चाहिए उससे सामने वाले का क्रोध पिघल जायेगा। भगवान अपनी मन्द मन्द मुस्कनिया से भक्तों का मन चुरा लेते हैं।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।

त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् |
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः ||
दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे कर्म करो एवं सदैव ईश्वर का स्मरण करो | यही मानव का धर्म है |

आचारं कुलमाख्याति, वपुराख्याति भोजनम् ।
वचनं श्रुतिमाख्याति,स्नेहमाख्याति लोचनम् ।।

किसी भी व्यक्ति के आचरण से उसके कुल का, शरीर देखकर भोजन का, वाणी से उसकी योग्यता का ज्ञान होता है और उसी प्रकार आँखों से प्रेम का आभास होताहै।

तस्मै नम: परमकारणकारणाय दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय।।

   जो शिव कारणों के भी परम कारण हैं, अति दीप्तिमान उज्ज्वल एवं पिङ्गल नेत्रों वाले हैं, सर्पोंके हार-कुण्डल आदि से भूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि को भी वर देनेवालें हैं, उन शिवजी को मैं नमस्कार करता हूँ।

स्वयं को पहचानो मनुष्य सभी जीवो में श्रेष्ठ रचना है। दीन मत बनो सम्मान की भूख एक अंधकार है क्योंकि यह कहीं ना कहीं दुख का कारक है। अर्थात यह सत्य है कि भले आपका हृदय सम्मान प्रेम से भरा है पर मूढ के लिए व्यर्थ है।
वैसे भी मांगने से ना तो प्रेम मिलता है ना सम्मान क्योंकि दोनों ही प्राकृतिक है। परंतु अगर हमारा व्यवहार कुशल और हमारा हृदय निश्छल प्रेम से भरा है तो हमें प्राकृतिक रूप से अवश्य प्राकृतिक प्रेम और सम्मान की सुखद अनुभूति होती है।
इसलिए सम्मान पाने की इच्छा को त्याग दीजिए बस तटस्थता से व्यवहार करते रहो आप जिस योग्य हो वह प्रेम और सम्मान अवश्य ही मिलेगा।

यह मेरा अपना निजी अनुभव है”
जो लोग किसी भी प्रकार से ऐश्वर्य आदि भौतिक सुखों की, लोकोंको पाने की एवं धनआदि सुख-साधनों को इकट्ठे करनेकी कामना रखनेवाले लोग होते हैं, ऐसे लोग विषय-भोगोंको भोगनेवाले विषयी लोग ही माने जाते हैं। ऐसे विषयी लोगोंको वेदान्त, तत्त्वज्ञान अथवा अध्यात्मज्ञान समझमें ही नहीं आता है।
और जिन्हें ये वेदान्त, तत्त्वज्ञान अथवा अध्यात्मज्ञान समझमें ही नहीं आता है, वे धर्म को धारण कैसे कर सकते हैं? ऐसे विषयी लोग ईर्ष्या और डाहसे ही भरे हुए होते हैं।
विषयी लोगों की बातों में तो हाँ में हाँ कहना ही उनको अच्छा लगता और उनकी बातों में यदि कोई त्रुटि निकालता है तो उनके लिये जहर हो जाता है। यही अहंकार ही उन्हें तत्त्वज्ञान समझने से दूर रखता है और तत्त्वज्ञानको समझे बिना परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो सकता है। इसीलिये ही तत्त्वज्ञानको समझने के लिये भगवान् श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को भी तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाने को कहा है –
उस ज्ञानको तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञानका उपदेश करें।।

       

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