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स्वामी रामानुजाचार्य की तिरुमला यात्रा

स्वामी रामानुजाचार्य ने श्रीरंगम् में श्रीकुरेश स्वामी जी, श्रीदाशरथी स्वामी जी, श्रीदेवराज मुनि स्वामी जी, आदि को शास्त्र (श्रीवैष्णव ग्रन्थों) की शिक्षा दे रहे थे। कई विद्वान श्रीरामानुज स्वामी जी के वैभव का गुणगान सुनकर उनकी शरण में श्रीरंगम् में पधारे। जब श्रीअनन्तालवान स्वामी जी, अच्चान तोण्डनूर और मरुधूर नम्बी श्रीरामानुज स्वामी जी को अपना आचार्य बनाने के लिये पधारे तब उन्होंने उन सभी को श्रीदेवराज मुनि स्वामी जी के पास जाकर उनका शिष्य बनने को कहा। सभी खुशी से यह बात मान लिये और श्रीदेवराज मुनि स्वामी जी ने श्रीरामानुज स्वामी जी के चरण-कमलों पर पूर्ण निर्भर रहने की आज्ञा दिये।

एक समय श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीसहस्रगीति पर कालक्षेप कर रहे थे। जब वें “ओझिविल कालम” पाशुर का अर्थ समझा रहे थे तो उन्होंने शिष्यों से पूछा कि “क्या कोई तिरुमला तिरुपति में रहकर वहाँ वेंकटेश भगवान के कैंकर्य हेतु एक बगीचे का निर्माण कर प्रतिदिन उन्हें पुष्पमाला बनाकर अर्पण करने का कार्य करना चाहेगा।” श्रीअनन्तालवान स्वामी जी एक क्षण में खड़े होकर इस कैंकर्य को स्वीकार किया। श्रीरामानुज स्वामी जी उन्हें इस कैंकर्य के लिये आशीर्वाद प्रदान करते हैं। श्रीअनन्तालवान स्वामी जी तिरुमला जाकर एक बगीचे व तालाब का निर्माण कर उस बगीचे का नाम “श्रीरामानुज वाटिका” रखते हैं और भगवान वेंकटेश की सेवा करते हैं।

श्रीरामानुज स्वामी जी भी तीर्थ यात्रा में जाना चाहते हैं जिसके लिये श्रीरंगनाथ भगवान से प्रार्थना करते हैं। आज्ञा प्राप्त होने के पश्चात तिरुक्कोवलूर और काञ्चीपुरम् में मंगलाशासन कर तिरुमला की ओर प्रस्थान करते हैं।

अपने शिष्यों के साथ श्रीरामानुज स्वामी जी तिरुमला तिरुपति की ओर प्रस्थान करते हैं लेकिन राह में एक जगह वे रास्ता भूल जाते हैं। वहाँ वे एक किसान को देख उससे रास्ता पूछते हैं। किसान द्वारा सही मार्ग का बता देने के बाद श्रीरामानुज स्वामी जी कृतज्ञता से अभिभूत होकर किसान को साष्टांग प्रणाम कर उसका अमानवन (वह जो श्रीवैकुण्ठ की राह बताता है) माना। अन्त में वें तिरुपति पहुँचते हैं और सप्तगिरि के चरणों में आलवारों की पूजा करते हैं। कुछ समय के लिये वे तिरुपति में रहकर वहाँ के राजा को अपना शिष्य रूप में स्वीकार करते हैं और अपने कई शिष्यों को वहीं निवास करने की आज्ञा देते हैं। यह समाचार पाकर श्रीअनन्तालवान स्वामी जी और अन्य शिष्य आकर स्वामी रामानुज का स्वागत कर उन्हें सप्तगिरि आकर भगवान वेंकटेश का मंगलाशासन करने की विनती करते हैं। सप्तगिरि की पवित्रता को देख पहले तो श्रीरामानुज स्वामी जी मना करते हैं क्योंकि आलवार भी वहाँ नहीं चढ़े थे परन्तु शिष्यों के मनाने पर श्रीरामानुज स्वामी जी पहाड़ के चरणों में जाकर स्वयं को शुद्ध कर पूरे दास भाव से चढ़ते हैं मानो परमपद में भगवान के सिंहासन पर चढ़ रहे हैं।

तिरुमला पहुँचने पर श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी उनका स्वागत श्रीवेंकटेश भगवान के मान सम्मान द्वारा करते हैं। यह देख श्रीरामानुज स्वामी जी लज्जित होते हैं कि श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी जो उनके आचार्य एवं मामा हैं वे स्वयं उनका स्वागत करने पधारे हैं और वे उनसे पूछते हैं कि “आपको कोई साधारण मानव नहीं मिला जो मेरा स्वागत कर सके। आप स्वयं क्यों चले आये?”

श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी विनम्रतापूर्वक उत्तर देते हैं– “मैंने यहाँ चारों तरफ ढूँढा, परन्तु मुझसे नीच कोई नहीं मिला।” इसीलिए मैं स्वयं आया। श्रीरामानुज स्वामी और उनके शिष्य यह उत्तर सुनकर आश्चर्यचकित रह गये। फिर सभी जीयर, एकांगी, मन्दिर के सेवक आदि आकर श्रीरामानुज स्वामी जी का स्वागत करते हैं। श्रीरामानुज स्वामी फिर मन्दिर की परिक्रमा लगाकर, पुष्करणी में स्नान कर, द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण कर, वराह भगवान की पूजा कर, मुख्य मन्दिर में प्रवेश कर, श्रीविष्वक्सेन की पूजा कर भगवान वेंकटेश का मंगलाशासन करते हैं। इसके बाद श्रीरामानुज स्वामी जी तिरुपति जाने का निश्चय करते है क्योंकि वे कहते है कि यह स्थान नित्यसूरियों का निवास स्थान है और यहाँ हम रात में निवास नहीं कर सकते हैं। परन्तु श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी व अन्य उन्हें तीन दिन तक रहने के लिये राजी करते हैं। श्रीरामानुज स्वामी जी उनकी आज्ञा पालन कर बिना प्रसाद पाये वहाँ निवास करते हैं और भगवान की दिव्य वैभवता का आनन्द लेते हैं। इसके बाद श्रीरामानुज स्वामी जी भगवान श्रीनिवास से वहाँ से जाने की आज्ञा माँगते हैं और उसी समय भगवान पुन: पुष्टि करते हैं कि आप दोनों लीला विभूति और नित्य विभूति के मालिक हैं और फिर उनसे विदाई लेते हैं।

तिरुमला से विदा लेकर एक वर्ष के लिये आप तिरुपति में निवास करते हैं। यहाँ पर श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी से आप श्री वाल्मीकि रामायण का अर्थानुसन्धान करते हैं। इस अध्ययन के प्रवचनों की समाप्ति के बाद श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी से श्रीरंगम् जाने की आज्ञा माँगते हैं। श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी श्रीरामानुज स्वामी जी को कुछ भेंट देना चाहते हैं। श्रीरामानुज स्वामी जी प्रार्थना करते हैं कि श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी (जो श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी की बहुत ही समर्पण भाव से सेवा करते हैं) को उनके साथ भेजें जो उन्हें सम्प्रदाय को प्रतिष्ठित करने में मदद कर सकेंगे। श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी खुशी से श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी को श्रीरामानुज स्वामी जी के साथ भेजते हैं और श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीरंगम् की ओर यात्रा प्रारम्भ करते हैं।

श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी के साथ गदिकाचलम् (शोलिंगुर) पहुँचते हैं और वहाँ श्रीअक्कारककणी भगवान का मंगलाशासन करते हैं। आगे तिरुप्पुत्कुझी पहुँच कर श्रीजटायु महाराज, मरगातवल्ली तायर और विजयराघवन भगवान का मंगलाशासन करते हैं। इसके बाद वें काञ्चीपुरम् के आस पास कई दिव्यदेशों के दर्शन कर श्रीकांचीपूर्ण स्वामी जी के सामने पहुँचते हैं। इस बीच श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी अपने आचार्य श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी से बिछुड़ने के कारण बहुत कांतिहीन हो गये। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी के दु:ख को समझकर श्रीरामानुज स्वामी जी उन्हें अपने आचार्य के दर्शन प्राप्त करने को कहकर उनके साथ दो श्रीवैष्णवों को भी तिरुमला भेजते हैं। वे कांचीपुरम् में रहकर श्रीकांचीपूर्ण स्वामी जी के साथ श्रीवरदराज भगवान की सेवा करते हैं। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी के पास तिरुमाली पहुँचकर प्रवेश द्वार के पास जो बन्द था, इंतजार करते हैं। जब देखनेवालों ने श्रीशैलपूर्ण स्वामी जी को श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी के विषय के बारें में बताया तो उन्होंने द्वार खोलने से इनकार कर दिया और वापिस श्रीरामानुज स्वामी जी के पास जाने को कहा और कहते हैं उनके चरण-कमलों को ही अपना शरण मानने को कहा। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी अपने आचार्य की दिव्य इच्छा को समझकर वापस श्रीरामानुज स्वामी जी के पास आते हैं। और उन के साथ गए दो श्रीवैष्णव यह पूरा वृतान्त श्रीरामानुज स्वामी जी को सुनाते हैं। शैलपूर्ण स्वामी जी की आज्ञा (गोविन्दाचार्य को वापस भेजने की आज्ञा) सुनकर श्रीरामानुज स्वामी जी को बहुत आनन्द हुआ।

स्वामी रामानुजाचार्य की कांचीपुरम् से श्रीरंगम् में वापसी एवं श्रीगोविन्दाचार्य को नैच्यानुसंधान का उपदेश

कुछ समय के बाद स्वामी रामानुजाचार्य जी कांचीपुरम् से श्रीरंगम् आते हैं। स्थानीय श्रीवैष्णव जन सभी का औपचारिक रूप से स्वागत करते हैं और श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीरंगनाथ भगवान की सन्निधि में जाते हैं। श्रीरंगनाथ भगवान बड़े प्रेम से श्रीरामानुज स्वामी जी का स्वागत कर, उनकी यात्रा के विषय में पूछ कर, तीर्थ, श्रीशठारि देकर सम्मान करते हैं। फिर स्वामी रामानुजाचार्य जी श्रीवैष्णवों पर कृपा कर अपनी नित्य दिनचर्या प्रारम्भ कर सभी को श्रीरंगम् में श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के सिद्धान्त को सिखना शुरू करते हैं।

श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी भी प्रसन्नता से कालक्षेप और कैंकर्य में भाग लेते हैं। एक बार कुछ श्रीवैष्णव श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी की प्रशंसा कर रहे थे तो श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी बहुत खुश हुए। यह देख श्रीरामानुज स्वामी जी उनसे कहते हैं– “जब कोई तुम्हारी तारीफ करे तो आप उसे सीधे से स्वीकार नहीं करे। बल्कि उनसे आपको कहना चाहिये कि मैं इस प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ।” यह सुनकर श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी कहते हैं– “जब मैं कालहस्ती में था तब मैं बहुत हीन दशा में था। अगर कोई मेरी प्रशंसा करता है तो वह केवल आपकी दया के कारण जिसके कारण मुझमें बदलाव हुआ और मैं इस योग्य बना। आज मैं जो भी हूँ आपकी कृपा से ही – इसलिये यह सभी प्रशंसा आप ही के लिये है।”

एम्पेरुमानार यह सुनकर श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी कि निष्ठा को स्वीकृति देते हैं। श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी को आलिंगन कर कहते हैं– “आप अपने अच्छे गुण मुझे भी प्रदान कर दीजिए।”

श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी इस सांसारिक सुखों से पूर्णत: पृथक् थे और एम्पेरुमानार ने अन्त में अपना विशेष अनुग्रह कर श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी को संन्यासाश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा प्रदान करते हैं। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामी जी संन्यासाश्रम को स्वीकार करते हैं और एम्पेरुमानार ने उनका नाम ‘एम्बार’ रखा।

इसके अतिरिक्त श्रीदेवराज स्वामी जी ने ज्ञानसारम् व प्रमेयसारम् की रचना की जिसमें अपने सम्प्रदाय के तत्त्वों का वर्णन किया गया है।

 

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