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स्वस्तिक क्या है?

‘स्वास्तिक‘ केवल एक चिह्न नहीं बल्कि शक्ति और विश्वास का नाम है

हिंदू पूजा विधान में स्वास्तिक के महत्व से कौन परिचित नहीं है। पूजा का प्रारंभ ही पूजन स्थल पर स्वास्तिक बनाने के साथ होता है। हिंदू घरों में हर शुभ कार्य स्वस्ति, स्वास्तिक या सातिया बनाकर ही शुरू किया जाता है। साधारण पूजा-पाठ हो या कोई विशाल धार्मिक आयोजन, स्वास्तिक हर जगह अंकित किया ही जाता है।

कैसे बना स्वस्तिक ?

स्वास्तिक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के सु उपसर्ग और अस धातु को मिलाकर हुई है। सु का अर्थ है श्रेष्ठ या मंगल, वहीं अस का अर्थ है सत्ता या अस्तित्व है। इसके अनुरूप स्वास्तिक का अर्थ है कल्याण की सत्ता या मांगल्य का अस्तित्व। विस्तृत अर्थ में देखें तो इसका मतलब हुआ कि जहां स्वास्तिक है, वहां धन, प्रेम, कल्याण, उल्लास, सुख, सौभाग्य एवं संपन्नता सभी कुछ सहज ही उपलब्ध होता है। स्वास्तिक चिह्न मानव मात्र और विश्व कल्याण के विकास के लिए बनाया जाने वाला अतिप्राचीन धार्मिक चिन्ह है।

पतंजलि योगशास्त्र में कहा गया है कि यदि आप कोई भी कार्य निर्विघ्न रूप से संपन्न करना चाहते हैं तो कार्य का प्रारंभ मंगलाचरण लिखने के साथ होना चाहिए। यह सदियों पुरानी भारतीय परिपाटी है और हमारे मनीषी ऋषियों द्वारा सत्यापित की गई है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि कार्य प्रारंभ करने से पहले उस अनुष्ठान से संबद्ध मंगल श्लोकों की रचना कर मंगलाचरण लिखते थे। हमारे जैसे आम मनुष्यों के लिए ऐसी संस्कृत रचना कर पाना असंभव है, इसीलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिन्ह का निर्माण किया। कार्य के प्रारंभ में स्वास्तिक बनाने मात्र से कार्य निर्विघ्न संपन्न हो जाता है।

स्वास्तिक कार्य प्रारंभ करने के लिए निर्मित किया गया एक धार्मिक चिन्ह है, लेकिन अपनी महत्ता के कारण यह स्वयं पूज्य है। हमारे यहां चातुर्मास में हिंदू स्त्रियां स्वस्तिक का व्रत करती हैं। पद्यपुराण में इस व्रत का विधान है। इसमें सुहागिनें मंदिर में स्वस्तिक बनाकर अष्टदल से उसका पूजन करती हैं। माना जाता है कि इस पूजन से स्त्रियों को वैधव्य का भय नहीं रहता। हिंदू घरों में विवाह के बाद वर-वधु को स्वस्तिक के दर्शन कराए जाते हैं, ताकि वे सफल दांपत्य जीवन प्राप्त कर सकें। कई स्थानों पर नवजात शिशु को छठी यानी जन्म के छठवें दिन स्वस्तिक अंकित वस्त्र पर सुलाया जाता है। राजस्थान में नवविवाहिता की ओढ़नी पर स्वस्तिक चिन्ह बनाया जाता है। माना जाता है कि इससे वधु के सौभाग्य सुख में वृद्धि होती है। गुजरात में लगभग हर घर के दरवाजे पर सुंदर रंगों से स्वस्तिक बनाए जाने का चलन है। माना जाता है कि इससे घर में अन्न, वस्त्र, वैभव की कमी नहीं होती और अतिथि हमेशा शुभ समाचार लेकर आता है।

स्वस्तिक

पूरी दुनिया में स्वास्तिक का इस्तेमाल इन कारणों से फैला
किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना। अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’।

यही कारण है कि किसी भी शुभ कार्य के दौरान स्वास्तिक को पूजना अति आवश्यक माना गया है। लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है।

मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।

इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोड़ने के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।

मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।

अन्य धर्मों में स्वस्तिक का प्रचलन

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों और उनके चिह्न में स्वस्तिक को शामिल किया गया है। तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का शुभ चिह्न है। जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर भी यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है।
बौद्ध मान्यता के अनुसार स्वस्तिक वनस्पति संपदा की उत्पत्ति का कारण है। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक भी माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिह्नों को दिखाता है। यही नहीं, स्वस्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

यहूदी और ईसाई धर्म में भी स्वस्तिक का महत्व है। ईसाई धर्म में स्वस्तिक क्रॉस के रूप में चिह्नित है। एक ओर जहां ईसा मसीह को सूली यानी स्वस्तिक के साथ दिखाया जाता है तो दूसरी ओर यह ईसाई कब्रों पर लगाया जाता है। स्वस्तिक को ईसाई धर्म में कुछ लोग पुनर्जन्म का प्रतीक मानते हैं।

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