बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
बिधि हरि हरमय बेद प्राण सो।
अगुन अनुपम गुन निधान सो।।
श्रीराम काल के वे लोग
जो मनुष्य नहीं थे!
भगवान राम का काल ऐसा
काल था जबकि धरती पर
विचित्र किस्म के लोग और
प्रजातियां रहती थीं,लेकिन
प्राकृतिक आपदा या अन्य
कारणों से ये प्रजातियां अब
लुप्त हो गई हैं।
आज यह समझ पाना
मुश्किल है कि कोई पक्षी
कैसे बोल सकता है,जबकि
वैज्ञानिक अब पक्षियों की
भाषा समझने में सक्षम हो
रहे हैं,तो यह तो कहा ही जा
सकता है कि पक्षी आज भी
बोलते हैं लेकिन उनकी भाषा
को समझने वाले अब कम ही
लोग हैं।
दूसरी ओर विमानों के
आवागमन को सुगम
बनाने के लिए मानव
ने पक्षियों के अस्तित्व
को लगभग समाप्त ही
कर दिया है।
रामायण काल में बंदर,
भालू आदि की आकृति
के मानव होते थे।
इसी तरह अन्य कई प्रजातियां
थी,जो मानवों के संपर्क में थीं।
यहां प्रस्तुत है मानवाकृति के
पशु और भगवान राम के संपर्क
में आए अन्य पशु-पक्षियों के
बारे में रहस्यमय जानकारी…
वानर;-सबसे पहला सवाल
यह कि क्या हनुमानजी वानर
जाति के थे ?
उनकी माता अंजनी तो वानर
जाति से थीं,लेकिन उनके पिता
‘पवन’ एक देवता थे।
तब दोनों के संयोग से कैसा
पुत्र जन्म लेगा ?
यह शोध का विषय हो सकता
है कि क्या रामायण काल में
वानर नाम की जाति बंदरों
के समान थी ?
रामायण या रामचरित मानस
सहित कोई सी भी रामायण पढ़ें
उसमें यह लिखा जरूर मिलेगा
कि हनुमानजी की पूंछ थी और
उससे उन्होंने लंका को जला
दिया था।
तब यह क्यों नहीं मानें कि
वे एक बंदरनुमा मनुष्य थे ?
उस काल में उन्हें वा-नर
कहा जाता था,बंदर नही।
कुछ लोग उनके बंदर नहीं
मनुष्य होने की बात करते हैं
लेकिन उनके पास इसके कोई
ठोस प्रमाण नहीं हैं।
यह बता दें कि आर्य नाम
की कोई जाति नहीं थी।
जो भी व्यक्ति,पशु या पक्षी वेदों
को मानता था उसे आर्य (श्रेष्ठ)
या आर्यपुत्र ही कहा जाता था।
आर्य का अर्थ सभी में श्रेष्ठ।
आर्यों में भी जो ब्रह्मवादी होता
था उसे ब्राह्मण कहा जाता था।
रामायण में इन वानरों का
विशेष उल्लेख मिलता है-
केसरी,हनुमान,सुग्रीव,बाली,
अंगद (बाली का पुत्र),सुषेण
वैद्य आदि।
वानर प्रजाति : आज यह
मानना थोड़ा अजीब है कि
बंदरों जैसे मानव होते थे।
ऐसे मानव जिनकी पूंछ होती
थी और जिनके मुंह बंदरों जैसे
होते थे।
वे मानव भी सामान्य मानवों के
साथ घुल-मिलकर ही रहते थे।
उन प्रजातियों में ‘कपि’ नामक
जाति सबसे प्रमुख थी।
वानर को बंदरों की श्रेणी में
नहीं रखा जाता था।
‘वानर’ का अर्थ होता था-
वन में रहने वाला नर।
जीवविज्ञान शास्त्रियों के
अनुसार ‘कपि’ मानवनुमा
एक ऐसी मुख्य जाति है
जिसके अंतर्गत छोटे आकार
के गिबन,सियामंग आदि आते
हैं और बड़े आकार में चिम्पांजी,
गोरिल्ला और ओरंगउटान आदि
वानर आते हैं।
इस कपि को साइंस में
होमिनोइडेया (hominoidea)
कहा जाता है।
हनुमानजी वानरों की कपि
जाति से थे।
भगवान राम ने इसी जाति
के लोगों को इकट्ठा करके
एक सेना बनाई थी जिसे
‘वानर सेना’ कहा जाता था
जिसके सेनापति सुग्रीव थे।
सुग्रीव का बड़ा भाई बाली
भी वानर था।
बाली बहुत ही शक्तिशाली था
जिसने रावण को अपनी कांख
में दबाकर धरती का पूरा एक
चक्कर लगा दिया था।
भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में
वानरों और असुरों का राज था।
हालांकि दक्षिण में मलय पर्वत
और ऋष्यमूक पर्वत के आस
पास भी वानरों का राज था।
इसके अलावा जावा,सुमात्रा,
इंडोनेशिया,मलेशिया,माली,
थाईलैंड जैसे द्वीपों के कुछ
हिस्सों पर भी वानर जाति
का राज था।
ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि
रामायण में वर्णित वानरों
की राजधानी किष्किंधा के
निकट स्थित था।
इसी पर्वत पर श्रीराम की
हनुमान से भेंट हुई थी।
बाद में हनुमान ने राम और
सुग्रीव की भेंट करवाई,जो
एक अटूट मित्रता बन गई।
जब महाबली बाली अपने भाई
सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से
भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत
पर ही आकर छिपकर रहने
लगा था।
ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा
नगर कर्नाटक के हम्पी,जिला
बेल्लारी में स्थित है।
विरुपाक्ष मंदिर के पास से
ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए
मार्ग जाता है।
यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा)
धनुष के आकार में बहती है।
तुंगभद्रा नदी में पौराणिक
चक्रतीर्थ माना गया है।
पास ही पहाड़ी के नीचे
श्रीराम मंदिर है।
पास की पहाड़ी को ‘मतंग
पर्वत’ माना जाता है।
इसी पर्वत पर मतंग ऋषि
का आश्रम था।
गरूड़ : माना जाता है कि
गिद्धों (गरूड़) की एक ऐसी
प्रजाति थी,जो बुद्धिमान मानी
जाती थी और उसका काम
संदेश को इधर से उधर ले
जाना होता था,जैसे कि
प्राचीनकाल से कबूतर
भी यह कार्य करते आए हैं।
भगवान विष्णु का वाहन
है गरूड़।
राम के काल में सम्पाती और
जटायु नाम के दो गरूड़ थे।
ये दोनों भी दंडकारण्य क्षेत्र
में रहते थे,खासकर मध्यप्रदेश
-छत्तीसगढ़ में इनकी जाति के
पक्षियों की संख्या अधिक थी।
छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य में
गिद्धराज जटायु का मंदिर है।
स्थानीय मान्यता के मुताबिक
दंडकारण्य के आकाश में ही
रावण और जटायु का युद्ध
हुआ था और जटायु के कुछ
अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे
इसीलिए यहां एक मंदिर है।
दूसरी ओर मध्यप्रदेश के देवास
जिले की तहसील बागली में
‘जटाशंकर’ नाम का एक स्थान
है जिसके बारे में कहा जाता है
कि गिद्धराज जटायु वहां तपस्या
करते थे।
जटायु पहला ऐसा पक्षी था,
जो राम के लिए बलिदान हो
गया था।
जटायु का जन्म कहां हुआ,
यह पता नहीं,लेकिन उनकी
मृत्यु दंडकारण्य में हुई।
देव पक्षी : प्रजापति कश्यप
की पत्नी विनता के दो पुत्र
हुए- गरूड़ और अरुण।
गरूड़जी विष्णु की शरण में
चले गए और अरुणजी सूर्य
के सारथी हुए।
सम्पाती और जटायु इन्हीं
अरुण के पुत्र थे।
बचपन में सम्पाती और जटायु
ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के
उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी।
सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल
होकर जटायु तो बीच से लौट
आए,किंतु सम्पाती उड़ते ही
गए।
सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य
के ताप से सम्पाती के पंख जल
गए और वे समुद्र तट पर गिरकर
चेतनाशून्य हो गए।
चन्द्रमा नामक मुनि ने उन
पर दया करके उनका उपचार
किया और त्रेता में श्री सीताजी
की खोज करने वाले वानरों के
दर्शन से पुन: उनके पंख जमने
का आशीर्वाद दिया।
जब जटायु नासिक के पंचवटी
में रहते थे तब एक दिन आखेट
के समय महाराज दशरथ से
उनकी मुलाकात हुई और तभी
से वे और दशरथ मित्र बन गए।
वनवास के समय जब भगवान
श्रीराम पंचवटी में पर्णकुटी
बनाकर रहने लगे,तब पहली
बार जटायु से उनका परिचय
हुआ।
पुराणों के अनुसार सम्पाती
और जटायु दो गिद्ध-बंधु थे।
सम्पाती बड़ा था और जटायु
छोटा।
ये दोनों विंध्याचल पर्वत की
तलहटी में रहने वाले निशाकर
ऋषि की सेवा करते थे।
जटायु के बाद रास्ते में सम्पाती
के पुत्र सुपार्श्व ने सीता को ले जा
रहे रावण को रोका और उससे
युद्ध के लिए तैयार हो गया।
किंतु रावण उसके सामने
गिड़गिड़ाने लगा और इस
तरह वहां से बचकर निकल
आया।
बाद में जब अंगद आदि सीता
की खोज करते हुए सम्पाती से
मिले तो उन्होंने जटायु की मृत्यु
का समाचार दिया।
सम्पाती ने तब अंगद को रावण
द्वारा सीताहरण की पुष्टि की
और अपनी दूरदृष्टि से देखकर
बताया कि वे अशोक वाटिका
में सुरक्षित बैठी हैं।
इस प्रकार रामकथा में अपनी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले
गिद्ध-बंधु सम्पाती और जटायु
अमर हो गए।
रीछ : रामायण काल में
रीछनुमा मानव भी होते थे।
जाम्बवंतजी इसका उदाहण हैं।
जाम्बवंत भी देवकुल से थे।
भालू या रीछ उरसीडे
(Ursidae) परिवार का
एक स्तनधारी जानवर है।
हालांकि इसकी अब सिर्फ
8 जातियां ही शेष बची हैं।
संस्कृत में भालू को ‘ऋक्ष’
कहते हैं जिससे ‘रीछ’ शब्द
उत्पन्न हुआ है।
निश्चित ही अब जाम्बवंत
की जाति लुप्त हो गई है।
हालांकि यह शोध का विषय है।
जाम्बवंत को आज रीछ की
संज्ञा दी जाती है,लेकिन वे
एक राजा होने के साथ-साथ
इंजीनियर भी थे।
समुद्र के तटों पर वे एक मचान
को निर्मित करने की तकनीक
जानते थे,जहां यंत्र लगाकर
समुद्री मार्गों और पदार्थों का
ज्ञान प्राप्त किया जा सकता था।
मान्यता है कि उन्होंने एक ऐसे
यंत्र का निर्माण किया था,जो
सभी तरह के विषैले परमाणुओं
को निगल जाता था।
रावण ने इस सभी रीछों के
राज्य को अपने अधीन
कर लिया था।
जाम्बवंत ने युद्ध में राम की
सहायता की थी और उन्होंने
ही हनुमानजी को उनकी शक्ति
का स्मरण कराया था।
जब युद्ध में राम-लक्ष्मण
मेघनाद के ब्रहमास्त्र से
घायल हो गए थे तब किसी को
भी उस संकट से बाहर निकलने
का उपाय नहीं सूझ रहा था।
तब विभीषण और हनुमान
जाम्बवंतजी के पास गए तब
उन्होंने हनुमान से हिमालय
जाकर ऋषभ और कैलाश
नामक पर्वत ‘संजीवनी’ नामक
औषधि लाने को कहा था।
माना जाता है कि रीछ या
भालू इन्हीं के वंशज हैं।
जाम्बवंत की उम्र बहुत
लंबी थी।
5 हजार वर्ष बाद उन्होंने
श्रीकृष्ण के साथ एक गुफा
में स्यामंतक मणि के लिए
युद्ध किया था।
भारत में जम्मू-कश्मीर में
जाम्बवंत गुफा मंदिर है।
जाम्बवंत की बेटी के साथ
कृष्ण ने विवाह किया था।
काकभुशुण्डि : लोमश ऋषि
के शाप के चलते काकभुशुण्डि
कौवा बन गए थे।
लोमश ऋषि ने शाप से मुक्त
होने के लिए उन्हें राम मंत्र और
इच्छामृत्यु का वरदान दिया।
कौवे के रूप में ही उन्होंने
अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत
किया।
वाल्मीकि से पहले ही
काकभुशुण्डि ने रामायण
गिद्धराज गरूड़ को सुना
दी थी।
इससे पूर्व हनुमानजी ने संपूर्ण
रामायण पाठ लिखकर समुद्र में
फेंक दी थी।
वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन
थे और उन्होंने रामायण तब
लिखी,जब रावण-वध के बाद
राम का राज्याभिषेक हो चुका था।
जब रावण के पुत्र मेघनाथ
ने श्रीराम से युद्ध करते हुए
श्रीराम को नागपाश से बांध
दिया था,तब देवर्षि नारद के
कहने पर गिद्धराज गरूड़ ने
नागपाश के समस्त नागों को
खाकर श्रीराम को नागपाश
के बंधन से मुक्त कर दिया था।
भगवान राम के इस तरह
नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम
के भगवान होने पर गरूड़ को
संदेह हो गया।
गरूड़ का संदेह दूर करने के
लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी
के पास भेज देते हैं।
ब्रह्माजी उनको शंकरजी
के पास भेज देते हैं।
भगवान शंकर ने भी गरूड़
को उनका संदेह मिटाने के
लिए काकभुशुण्डिजी के
पास भेज दिया।
अंत में काकभुशुण्डिजी ने
राम के चरित्र की पवित्र कथा
सुनाकर गरूड़ के संदेह को दूर
किया।
नन्ही गिलहरी : जब श्रीराम
अपनी पत्नी सीता व अनुज
लक्ष्मण के साथ वनवास पर थे,
तो रास्ते चलते हर तरह के धरातल
पर पैर पड़ते रहे।
कहीं नर्म घास भी होती,
कहीं कठोर धरती भी,
कहीं कांटे भी।
ऐसे ही चलते हुए श्रीराम का पैर
एक नन्ही-सी गिलहरी पर पड़ा।
उन्हें दुःख हुआ और उन्होंने उस
नन्ही गिलहरी को उठाकर प्यार
किया और बोले- अरे मेरा पांव
तुझ पर पड़ा,तुझे कितना दर्द
हुआ होगा न ?
गिलहरी ने कहा- प्रभु! आपके
चरण कमलों के दर्शन कितने
दुर्लभ हैं।
संत-महात्मा इन चरणों की
पूजा करते नहीं थकते।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे इन
चरणों की सेवा का एक पल
मिला।
इन्हें इस कठोर राह से एक
पल।का आराम मैं दे सकी।
प्रभु श्रीराम ने कहा कि फिर
भी दर्द तो हुआ होगा ना ?
तू चिल्लाई क्यों नहीं?
इस पर गिलहरी ने कहा-
प्रभु, कोई और मुझ पर पांव
रखता,तो मैं चीखती-
‘हे राम!! राम-राम!!! ‘,
किंतु, जब आपका ही पैर मुझ
पर पड़ा-तो मैं किसे पुकारती ?
श्रीराम ने गिलहरी की पीठ
पर बड़े प्यार से अंगुलियां फेरीं
जिससे कि उसे दर्द में आराम
मिले।
अब वह इतनी नन्ही है कि
तीन ही अंगुलियां फिर सकीं।
माना जाता है कि इसीलिए
गिलहरियों के शरीर पर श्रीराम
की अंगुलियों के निशान आज
भी होते हैं।
उल्लेखनीय है कि राम सेतु
बनाने में गिलहरियों का भी
महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
सभी गिलहरियां अपने मुंह में
मिट्टियां भरकर लाती थीं और
पत्थरों के बीच उनको भर देती थीं।
क्रौंच पक्षी : रामायण में सारस
जैसे एक क्रौंच पक्षी का वर्णन भी
आता है।
भारद्वाज मुनि और ऋषि
वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के वध
के समय तमसा नदी के तट पर थे।
भगवान श्रीराम के समकालीन
ऋषि थे वाल्मीकि।
उन्होंने रामायण तब लिखी,
जब रावण-वध के बाद राम
का राज्याभिषेक हो चुका था।
वे रामायण लिखने के लिए
सोच रहे थे और विचार-विमर्श
कर रहे थे लेकिन उनको कुछ
भी समझ में नहीं आ रहा था।
तब एक दिन सुबह गंगा के
पास बहने वाली तमसा नदी
के एक अत्यंत निर्मल जल
वाले तीर्थ पर मुनि वाल्मीकि
अपने शिष्य भारद्वाज के
साथ स्नान के लिए गए।
वहां नदी के किनारे पेड़ पर
क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा
अपने में मग्न था,तभी व्याध
ने इस जोड़े में से नर क्रौंच को
अपने बाण से मार गिराया।
रोती हुई मादा क्रौंच भयानक
विलाप करने लगी।
इस हृदयविदारक घटना को
देखकर वाल्मीकि का हृदय
इतना द्रवित हुआ कि उनके
मुख से अचानक श्लोक फूट
पड़ा:-
मा निषाद प्रतिष्ठां
त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी:
काममोहितम्।।
गुरु वाल्मीकि ने जब भारद्वाज
से कहा कि यह जो मेरे शोकाकुल
हृदय से फूट पड़ा है,उसमें चार
चरण हैं,हर चरण में अक्षर
बराबर संख्या में हैं और इनमें
मानो तंत्र की लय गूंज रही है
अत: यह श्लोक के अलावा
और कुछ हो ही नहीं सकता।
पादबद्धोक्षरसम:
तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे
श्लोको भवतु नान्यथा।।
करुणा में से काव्य का उदय
हो चुका था,जो वैदिक काव्य
की शैली,भाषा और भाव से
एकदम अलग था,नया था
और इसीलिए वाल्मीकि को
ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि
तुमने काव्य रचा है,
तुम आदिकवि हो,
अपनी इसी श्लोक शैली में
रामकथा लिखना,जो तब तक
दुनिया में रहेगी,जब तक पहाड़
और नदियां रहेंगे-
यावत् स्थास्यन्ति गिरय:
लरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा
सोकेषु प्रचरिष्यति।।
साभार….
बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
बिधि हरि हरमय बेद प्राण सो।
अगुन अनुपम गुन निधान सो।।
ॐ श्री रामाय नमः
नमामि भक्त-वत्सलं,कृपालु-शील-कोमलम्।
भजामि ते पदाम्बुजं,अकामिनां स्व-धामदम्।।
निकाम-श्याम-सुन्दरं,भवाम्बु-नाथ मन्दरम्।
प्रफुल्ल-कंज-लोचनं,मदादि-दोष-मोचनम्।।
प्रलम्ब-बाहु-विक्रमं,प्रभो·प्रमेय-वैभवम्।
निषंग-चाप-सायकं,धरं त्रिलोक-नायकम्।।
जयति पुण्य सनातन संस्कृति💐
जयति पुण्य भूमि भारत💐
जयतु जयतु हिन्दूराष्ट्रं💐
सदा सर्वदा सुमंगल💐
हर हर महादेव💐
ॐ हनुमते नम💐
जय भवानी💐
जयश्रीराम💐