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मनुस्मृति – वर्ण व्यवस्था

      " ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्य: कृत:। "
       ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥

श्लोक का अनुवाद है – ब्राह्मण ब्रह्मः के मुख से जन्मे हैं, क्षत्रिय ब्रह्मा के भुजा से जन्मे हैं,वैश्य जंघा से, जबकि शूद्र पांव से जन्मे हैं | [1]”जन्मना जायते शूद्र:-मनुस्मृति।” जन्म से सब शूद्र होते हैं, अतः जो व्यक्ति बुद्धि, विवेक के कार्यों में निपुड़ होता है वो ब्राह्मण वर्ण में जा सकता है और उसकी तुलना ही ब्रह्म के मुख से की जा सकती है। इसके सामान ही जो व्यक्ति युद्ध एवं राजनीती में निपुड़ होता है वो क्षत्रिय हो सकता है, व्यापार में निपुण(बढ़ई, लोहार, सोनार आदि)व्यक्ति वैश्य तथा अन्य सभी कार्य करने वाला व्यक्ति शूद्र हो सकता है।

  चारो वेदोंमें पुरुषसूक्त के 16 श्लोक वर्ण व्यवस्था के अर्थमे है । वेद अध्यन के अधिकार हरेक जीव को हे । निराकार ब्रह्म शिवजी के अंशसे ही समग्र सृष्टि का निर्माण हुवा है , सब उनकी ही संतान है फिर कोई उच्च नीच कैसे हो सकते है ? तो फिर ऐसा भ्रामक प्रचार क्यों हुवा उस विषय की कुछ बाते समझते है । 70 - 80 साल पहले देश आजाद हुवा तब चोककस क्या घटना घटी थी ये विषय भी आज अनेक अलग अलग बाते की जा रही है । हरकोई अपनी अपनी सोच समझ के अनुसार कहता है कि ऐसा हुवा था वैसा हुवा था । मतलब सिर्फ 70 साल पहले की घटना भी हमे सही क्या था वो ज्ञात नही है , तो हजारो साल पहेले ऋषि मुनियों ने दिया वेदों का ज्ञान मूलरूप से कैसे ज्ञात हो सकता है । मंत्र और वेदों की ऋचाओ का अपनी अपनी सोच समझ मुजब अर्थघटन किया जाता है । 

   सतयुग में भी कोई कोई ऐसे ऋषि थे जिन्होंने वेद मत से अलग अपनी अपनी फिलसूफ़ी दी जो स्वीकार नही की गई तो उन्होंने अपने अलग चौके जमाये ओर उनके ग्रंथो का अनुवाद भी आज वैदिक ज्ञानमे गिन लिया जो वेद मत से विपरीत है । पिछले 2500 सालमे प्रकट हुवे विभिन्न संप्रदायों ने भी वेद मत को निर्मूल करने केलिए हिन्दू धर्म के मूल ग्रंथो में कही नए आयाम घुसा दिए जिनसे आज वेद बदनाम हो जाय । 

सबसे पहले बौद्धकाल में वेदों के विरुद्ध आंदोलन चला। जब संपूर्ण भारत पर बौद्धों का शासन था तब वैदिक ग्रंथों के कई मूलपाठों को परिवर्तित कर समाज में भ्रम फैलाकर हिन्दू समाज को तोड़ा गया। इसके बाद मुगलकाल में हिन्दुओं में कई तरह की जातियों का विकास किया गया और संपूर्ण भारत के हिन्दुओं को हजारों जातियों में बांट दिया गया। फिर आए अंग्रेज तो उनके लिए यह फायदेमंद साबित हुआ कि यहां का हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी कई जातियों में बंटा हुआ है।

अंग्रेज काल में पाश्चात्य विद्वानों जैसे मेक्समूलर, ग्रिफ्फिथ, ब्लूमफिल्ड आदि का वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास था कि किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दिया जाए कि फिर हिन्दू समाज का वेदों से विश्वास ही उठ जाए और वे खुद भी वेदों का विरोध करने लगे ताकि इससे ईसाई मत के प्रचार-प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आए। बौद्ध, मुगल और अंग्रेज तीनों ही अपने इस कार्य में 100 प्रतिशत सफल भी हुए और आज हम देखते हैं कि हिन्दू अब बौद्ध भी हैं, बड़ी संख्या में मुसलमान हैं और ईसाई भी।

वेदों के शत्रु विशेष रूप से पुरुष सूक्त को जातिवाद की उत्पत्ति का समर्थक मानते हैं। पुरुष सूक्त 16 मंत्रों का सूक्त है, जो चारों वेदों में मामूली अंतर में मिलता है।

पुरुष सूक्त जातिवाद के नहीं, अपितु वर्ण व्यवस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमें ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीत’ ऋग्वेद 10.90 में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गई है। इस उपमा से यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं।

जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए।

यदि पैर में कांटा लग जाए तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती है और हाथ सहायता के लिए पहुंचते हैं, उसी प्रकार समाज में जब शूद्र को कोई कठिनाई पहुंचती है तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आएं। सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम-प्रीति का बर्ताव होना चाहिए। इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेदभाव की बात नहीं कही गई है।

इस सूक्त का एक और अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि जब कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति का हो यदि वह समाज में धर्म ज्ञान का संदेश प्रचार-प्रसार करने में योगदान दे रहा है तो वह ब्राह्मण अर्थात समाज का शीश है। यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व कर रहा है तो वह क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजा है। यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध कर रहा है तो वह वैश्य अर्थात समाज की जंघा है और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित है अर्थात तीनों तरह के कार्य करने में अक्षम है तो वह इन तीनों वर्णों को अपने-अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों के लिए मजबूत आधार बने।

लेकिन आज के आधुनिक युग में इन विशेषणों की कोई आवश्‍यकता नहीं है। फिर भी अपने राजनीतिक हित के लिए जातिवाद को कभी समाप्त किए जाने की दिशा में आजादी के बाद भी कोई काम नहीं हुआ बल्कि हमारे राजनीतिज्ञों ने भी मुगलों और अंग्रेजों के कार्य को आगे ही बढ़ाया है। आज यदि स्कूल, कॉलेज या मूल निवासी का फॉर्म भरते हैं तो विशेष रूप से जाति का उल्लेख करना होता है। इस तरह अब धीरे-धीरे जातियों में भी उपजातियां ढूंढ ली गई हैं और अब तो दलितों में भी अगड़े-पिछड़े ढूंढे जाने लगे हैं।

चतुर्वर्ण की उत्पत्ति के बारे में प्राचीनतम अनुमान ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में वर्णित सृष्टि सम्बन्धी पुराकथा में पाया जाता है। समझा जाता है कि इस संहिता के दशम मंडल में यह विषय बाद में अंतर्वेशित किया गया है। लेकिन उत्तर वैदिक साहित्य[5] में और गाथाकाव्य[6] पुराण[7] तथा धर्मशास्त्र[8] की अनुश्रुतियों में भी इसे कुछ हेरफेर के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति आदिमानव (ब्रह्मा) के मुख से, क्षत्रिय की उत्पत्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य की उनकी जाँघों से और शूद्र की उनके पैरों से हुई थी।[9] इससे या तो यह स्पष्ट होता है कि शूद्र और अन्य तीन वर्ण एक ही वंश के थे और इसके फलस्वरूप वे आर्य समुदाय के अंग थे, अथवा इसके द्वारा विभिन्न जातियों को ब्राह्मणीय समाज में उत्पत्ति की कहानी के द्वारा मिलाने का प्रयास किया गया। पुरुषसूक्त अथर्ववेद के अन्तिम अंश में है[10] और इसे कालक्रम की दृष्टि से अथर्ववैदिक युग के अन्त का माना जा सकता है।[11] यह जनजातियों के सामाजिक वर्गों में विघटित होने का सैद्धान्तिक औचित्य प्रस्तुत करता है। श्रम का विभाजन ऋग्वैदिक काल में ही काफ़ी विकसित हो चुका था। किन्तु, यद्यपि एक ही परिवार के विभिन्न सदस्य कवि, भिषक और पाठक (पिसाई करने वाले) का काम करते थे, [12] इससे कोई सामाजिक भेदभाव उत्पन्न नहीं होता था। पर अथर्ववैदिक काल के अन्त में कार्यों की भिन्नता के आधार पर सामाजिक हैसियत में भी अन्तर किया जाने लगा और इस प्रकार जनजातियों तथा कुनबों का सामाजिक वर्गों में विघटन शुरू हुआ।

 हमारा तात्पर्य है की हरेक मनुष्य शिव का ही अंश है । सदविचार , सद्कर्म , सदाचार ही है ईश्वर को पाने का मार्ग । बड़े बड़े ग्रंथो के ज्ञान  मुक्ति नही दिला सकते । वो केवल माहिती है । आप जिस कुल गोत्रसे है वो आपके पूर्वजोने जो परम्परा दी हो वो कुलदेवी देवताओ का यजन पूजन करना और सदविचार , सदाचार , सद्कर्म करना ही सत्य मार्ग है । 

        

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