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हम श्रीमद्भागवत गीता क्यों पढ़ें?????

मित्रो, जीव जिसका प्रतिनिधत्व अर्जुन श्रीमद्भागवत गीता में कर रहा है, उसका स्वरूप यह है कि वह परमेश्वर के आदेशानुसार कर्म करे, संतों का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्वर के नित्य दास के रुप में है, इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है, लेकिन परमेश्वर की सेवा करने से वह ईश्वर का मुक्त दास बनता है, जीव का स्वरूप सेवक के रुप में है, उसे माया या परमेश्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है, यदि वह परमेश्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है, लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसन्द करता है, तो वह निश्चित रुप से बन्धन में पड़ जाता है।

इस भौतिक जगत् में जीव मोहवश सेवा कर रहा है, वह काम तथा इच्छाओं से बँधा हुआ है, फिर भी वह अपने को जगत् का स्वामी मानता है, यही मोह कहलाता है, मुक्त होने पर पुरुष का मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान् की इच्छानुसार कर्म करने के लिये परमेश्वर की शरण ग्रहण करता है, जीव को फाँसने का माया का अन्तिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्वर है, जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्वर है, वह इतना मूर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता, वह इस पर विचार नहीं करता, इसलिये यही माया का अन्तिम पाश होता हैं।

सज्जनों! माया से मुक्त होना भगवान् श्रीकॄष्ण को समझना है और उनके आदेशानुसार कर्म करने के लिये सहमत होना है, गीता में मोह शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है, मोह ज्ञान का विरोधी होता है, वास्तविक ज्ञान तो यह समझना है कि प्रत्येक जीव भगवान् का शाश्वत सेवक है, लेकिन जीव अपने को इस स्थिति में न समझकर सोचता है कि वह सेवक नहीं, अपितु इस जगत् का स्वामी है, क्योंकि वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहता है, वह मोह भगवत्कृपा से या शुद्ध भक्त की कृपा से जीता जा सकता है, इस मोह के दूर होने पर मनुष्य भगवद्भक्ति में कर्म करने के लिये राजी हो जाता है।

भगवान् के आदेशानुसार कर्म करना भगवद्भक्ति है, बद्धजीव माया द्वारा मोहित होने के कारण यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर स्वामी है, जो ज्ञानमय है और सर्वसम्पत्तिवान हैं, वे अपने भक्तों को जो कुछ चाहे दे सकते है, वे सब के मित्र है और भक्तों पर विशेष कृपालु रहते है, वे प्रकृति तथा समस्त जीवों के अधीक्षक हैं, वे अक्षयकाल के नियन्त्रक है और समस्त ऐश्वर्यों एवम शक्तियों से पूर्ण हैं, भगवान् भक्त को आत्मसमर्पण भी कर सकते है, जो उन्हें नहीं जानता वह मोह के वश में है, वह भक्त नहीं बल्कि माया का सेवक बन जाता हैं।

लेकिन अर्जुन भगवान् से भगवद्गीता सुनकर समस्त मोह से मुक्त हो गया, वह यह समझ गया कि श्रीकॄष्ण उसके मित्र नहीं बल्कि भगवान् है और अर्जुन श्रीकॄष्ण को वास्तव में समझ गया, इसलिये भगवद्गीता का पाठ करने का अर्थ है श्रीकॄष्ण को वास्तविकता के साथ जानना, जब वयक्ति को पूर्ण ज्ञान होता है तो वह स्वभावत: श्रीकॄष्ण को आत्मसमर्पण करता है, जब अर्जुन समझ गया कि यह तो जनसंख्या की अनावश्यक वृद्धि को कम करने के लिये श्रीकॄष्ण की योजना थी, तो उसने श्रीकॄष्ण की इच्छानुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया, अर्जुन ने पुन: भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने के लिये अपना धनुष-बाण ग्रहण कर लिया।

भगवद्गीता संसार का आदर्श ग्रन्थ‌ है, जिसमें गृहस्थ और वानप्रस्थ दोनों के लिये मार्गदर्शन है, यदि हम गुणानुरागिता की दृष्टि से धर्म-महजब का आग्रह रखे बगैर गीता और भागवत् या अन्य आदर्श धर्मग्रन्थों तथा शास्त्रों का नित्य सवाध्याय और चिन्तन मनन करें, तो चित्त परिवर्तन का चमत्कार घटित हो सकता है तथा जीवन को नई दिशायें दी जा सकती हैं, हम सबको चाहिये कि हम अपने भीतर चल रहे महाभारत के आत्म-विजेता बनें, जितेन्द्रिय बने, वयक्ति और समाज के अभ्युत्थान के लिये हर वयक्ति को श्रमशील होना चाहिये, ज्ञान जीवन के अभ्युत्थान के लिये, अन्तर्मन में घर कर चुकी परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त होने के लिये हैं।

भाई-बहनों, वयक्ति कर्ता-भाव से मुक्त हो, आसक्तियों का छेदन करे और एक अप्रमत कर्मयोगी होकर जीवन में श्रम श्रामण्य का सर्वोदय होने का अवसर प्राप्त करे, सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता में यही भाव-भूमिका नि:सृत और विस्तृत हुई है, भगवद्गीता के रहस्यों को आत्मसात् करने के लिये भगवद्गीता के मार्गदर्शन को आत्मसात् कर लिया जाय, तो भगवद्गीता के मार्ग और गन्तव्य तक पहुँचने में बड़ी सुविधा रहेगी, भगवद्गीता को अगर आज के परिप्पेक्ष्य में समझना हो, तो भगवद्गीता के उपदेश प्रवेश-द्वार की तरह हैं, पहले हम इसे पढ़े फिर भगवद्गीता खुद ही आत्मसात् हो जायेगी और हम जीवन की मंजिल प्राप्त कर लेंगे।

जय श्री कॄष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

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