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[फेंगशुई के चमत्कारी टोटके

  • फैंगशुई के उपाय

फैंगशुई चीन का वास्तु शास्त्र है। वस्तुत: फैंगशुई चीन की दार्शनिक जीवन शैली का प्रतीक है जो ताओवादी धर्म पर आधारित है। फैंग यानि वायु और शुई यानि जल अर्थात फैंगशुई शास्त्र जल व वायु पर आधारित है। अपनी सरलता, सटीकता और उपयोगिता के कारण आज फैंगशुई के सिद्दांत बहुत ही तेजी से पूरे विश्व में लोकप्रिय होते जा रहे है। आज विश्व के करोड़ो लोगों ने इस शास्त्र की सहायता से अपने जीवन में सुखद बदलाव को पाया है । हम यहाँ पर आपके लिए कुछ बहुत ही आसान फैंगशुई प्रोडक्ट की जानकारी दे रहे है हमें विश्वास है कि यह आपके लिए अवश्य ही फलदाई साबित होंगे ।

  1. लॉफिंग बुद्धा की मूर्ति:

लॉफिंग बुद्धा की मूर्ति फेंगशुई में बहुत शुभ मानी जाती है। उसे अपने ड्राइंग रूम में ठीक सामने की ओर रखें ताकि घर में प्रवेश करते ही आपकी नजर सबसे पहले उस मूर्ति पर पड़े। लाफिंग बुद्धा: हंसते हुए बुद्ध की मूर्ति धन दौलत के देवताओं में से एक मानी जाती है। इससे घर में संपन्नता, सफलता और समृद्धि आती है। यह मूर्ति शयन कक्ष तथा भोजन कक्ष में नहीं रखनी चाहिए।

  1. विंड चाईम:

विंड चाईम अर्थात् हवा से जिसमें झंकार हो, ऐसी पवन घंटी घर व व्यापार के वातावरण को मधुर बनाती है। वास्तु और फेंगशुई के पाँच तत्वों को दर्शाने वाली पाँच राड की विंड चाईम शुभ मानी जाती है। ब्रह्म स्थान पर लगाने से स्वास्थ्य लाभ व उत्तर पश्चिम में लगाने से जीवन में नये सुअवसर प्राप्त होते हैं।

  1. तीन टांग का मेंढक:

मुंह में सिक्का लिए तीन टांग का मेंढक धन प्राप्ति के लिए बहुत शुभ माना गया है। इसे इस प्रकार ही लगाना चाहिए जिससे यह लगे कि यह धन लेकर घर के अंदर आ रहा है। इसे रसोई या शौचालय में कभी नहीं रखना चाहिए।

  1. धातु का कछुआ:

धातु का कछुआ आयु को बढ़ाने वाला व धन समृद्धि देने वाला है। इसे भगवान विष्णु का कच्छप अवतार माना गया है।इसे घर में ऐसे रखते है की यह घर के अन्दर आता नज़र आए। इसकी स्थापना से घर के सदस्यों का रोगों से बचाव होता है ।

  1. क्रिस्टल बाल:

क्रिस्टल ऊर्जा वर्धक होते हैं। पूर्व दिशा में लगाने से स्वास्थ्य लाभ होता है। उत्तर पश्चिम दिशा में लगाने से परिवार में आपसी प्रेम बढ़ता है। पश्चिम में लगाने से संतान सुख व दक्षिण पश्चिम में लगाने से दाम्पत्य सम्बन्धों में सुधार होता है ।

  1. लव बर्ड्स:

लव बर्ड्स पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए शयन कक्ष में लगाया जाता है।

  1. मेनडेरियन डक:
    कुंवारे लड़के या लड़की की शादी के लिए मेनडेरियन डक का जोड़ा उस लड़के या लड़की के कमरे के दक्षिण पश्चिम भाग में लगाया जाता है,जिससे उनकी शादी जल्दी और अच्छी हो जाए ।
  2. एजुकेशन टावर:
    एजुकेशन टावर को विद्यार्थियों को सामने रख कर पढ़ने से उनका पढाई में ध्यान एकाग्रचित होता है। इससे इच्छा शक्ति व तर्क शक्ति में वृद्धि होती है और अधिक पढ़ने की प्रेरणा मिलती है।
  3. दोहरा खुशी संकेत:

इस चिन्ह को घर के दक्षिण पश्चिम में लगाने से घर में खुशियों के मौके बढ़ते हैं। इससे विवाह के योग्य लड़के लड़कियों की शीघ्र और अच्छी शादी होने की संभावना प्रबल होती है ।

  1. मिस्टिक नाट सिम्बलः

रहस्यमय गांठ अर्थात् जिसका न प्रारंभ पता है न अंत। इस चिन्ह को घर व आफिस की उत्तर दिशा में लगाने से धन व स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

  1. एनीमल सेटः

इसे ड्राईंग रूम की चारों दिशाओं में लगाया जाता है। ड्रैगन पूर्वी दीवार पर, टाईगर पश्चिमी दीवार पर, फिनिक्स दक्षिणी दीवार पर तथा कछुआ उत्तर की दीवार पर लगाया जाता है। इसे लगाने से व्यक्ति की चहुँमुखी उन्नति होती है।

  1. भाग्यशाली सिक्के:
    तीन भाग्यशाली चीनी सिक्के घर के मुख्य द्वार के अन्दर के हैंडल पर बाँधे जाते है। इसे लगाने से घर में धन की वृद्धि होती है। परिवार के सभी सदस्य इससे लाभान्वित होते है। इन्हें पर्स में रखने से जेब में धन की वृद्धि होती है।
  2. रत्नों का पेड़:
    घर में सुख, शांति व धन को बढ़ाने के लिए इसे घर में लगाया जाता है। हरे रंग का पेड़ उत्तर दिशा में तथा मिश्रित रंगों का पेड़ दक्षिण-पश्चिम दिशा में लगाना चाहिए।
  3. बांसुरी:
    बीम के प्रभाव को कम करने के लिए बाँसुरियों पर लाल रिबन लपेट कर बीम के साथ इस प्रकार लटकाते हैं कि बाँसुरी का मुँह नीचे की ओर रहे और आपस में त्रिकोण बनाएं।
  4. सुनहरी मछली:

सुनहरी मछली धन और समृद्धि की वृद्धि करती है। इनको घर की उत्तर दिशा में पूर्व की ओर मुँह करके लगाना चाहिए।

  1. ड्रैगन के मुँह वाली बोट:

क्रिस्टल ऊर्जा वर्धक होते हैं। पूर्व दिशा में लगाने से स्वास्थ्य लाभ होता है। उत्तर पश्चिम दिशा में लगाने से परिवार में आपसी प्रेम बढ़ता है। पश्चिम में लगाने से संतान सुख व दक्षिण पश्चिम में लगाने से दाम्पत्य सम्बन्धों में सुधार होता है |

  1. झाड़-फानूस:’ची’:

घर में दक्षिण-पश्चिम दिशा पृथ्वी तत्व से सम्बन्ध रखता है। यह विवाह एवं आपसी सम्बन्धों से जुड़ा है। प्रतिदिन दो घन्टे शाम के समय जला कर रखने से परिवार के सदस्यों में मेल-जोल की भावना बलवती होगी और साथ ही साथ अविवाहित व्यक्तियों के विवाह होने की सम्भावनाएं भी बढ़ेंगी।

  1. पवन घंटी:

यह मुख्य दरवाजे के पास लटकायी जाती है। बैठक, या कार्यालय में लगाने से यह समृद्धि प्रदान करती है। इसकी पवित्र ध्वनि नकारात्मक ऊर्जा को कम कर के सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ावा देती है। मंत्रों की ध्वनि और पवित्र धुन से वास्तु दोष नष्ट हो कर सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। पवन घंटी हर क्षेत्र में नहीं लटकानी चाहिए। इनके लटकाने का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है।

  1. फीनिक्स:
    फेंगशुई के अनुसार यह इच्छा पूरी होने वाले भाग्य का प्रतीक है। भाग्य को क्रियाशील करने के लिए फीनिक्स के प्रतीक के रूप में उसके चित्र या पेन्टिंग दक्षिण कोने में लगाएं।
  2. ड्रैगन:

ड्रैगन उत्तम यांग ऊर्जा का प्रतीक है। इसका सम्बन्ध पूर्व दिशा से जुड़ा हुआ है। इस दिशा का तत्व काष्ठ है। इसलिए लकड़ी की नक्काशी वाला ड्रैगन अच्छा रहता है। मिट्टी व स्फटिक से बना हुआ भी रख सकते हैं, परन्तु धातु का कभी मत रखें क्योंकि पूर्व दिशा में धातु काष्ठ को नष्ट कर देती है। ड्रैगन यांग ऊर्जा का प्रतीक होने के कारण रेस्टोरेन्ट, दुकानें, डिपार्टमेन्टल स्टोर्स जहां पर ऊर्जा की अधिक आवश्यकता होती है, लोगों का आना-जाना अधिक रहता है, वहां पर भी पूर्व दिशा में चित्र रखना बहुत अच्छा होता है। इसे शयनकक्ष में न लगाएं क्योंकि वहां यांग ऊर्जा की जरूरत नहीं होती है।

  1. डाल्फिन :

लोगों के बीच रिश्ते की गरमाहट बरकरार रखने के लिए 2 डाल्फिन का चित्र लगाएं। अगर आप बिजनेस पार्टनरशिप में हैं, तो भी डाल्फिन का चित्र लगा सकते हैं।

  1. धातु का सिक्कों से भरा कटोरा :
    घर या व्यापारिक स्थल के पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम दिशा में धातु से बने सिक्कों का कटोरा या पौधा रखने से मित्रों की संख्या बढ़ती है।
  2. बेम्बू का वृक्ष:
    यदि आपके घर-परिवार, व्यापारिक स्थल में खुशहाली नहीं है, धन की कमी रहती है तथा नकारात्मक ऊर्जा का प्रभुत्व है तो ऐसी दशा में आप चीनी बेम्बू का घर में प्रयोग करें। बेम्बू का वृक्ष सकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव में वृद्धि लाता है, इससे आय के स्रोतों में भी वृद्धि होती है ।
  3. चील:

चील सुरक्षा की प्रतीक है। इसकी मूर्ति घर में रखने से बीमारियों तथा दुश्मनों से रक्षा होती है।

  1. गोलाकार डाइनिंग टेबल:

गोलाकार डाइनिंग टेबल फेंगशुई में बहुत शुभ मानी जाती है। परंतु ध्यान रखें कि टेबल के साथ लगी कुर्सियों की संख्या सम 4-6-8 आदि होनी चाहिए।

26.हाथी का जोड़ा:

हाथी का जोड़ा संतान इच्छुक दम्पति के कमरे में रखना बहुत शुभ माना जाता है।इसे मुख्य द्वार के पास लगाना सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।

  1. फुक, लुक और साउ:

ये क्रमशः सम्रद्धि, उच्च श्रेणी एव दीघार्यु के देवता हैं। इनकी उपस्थिति केवल प्रतीकात्मक होती है, इनकी पूजा नहीं की जाती है। घर में इनकी उपस्थिति अत्यन्त भाग्यशाली मानी गई है। फुक समृद्धि के देवता हैं, वे अन्य दोनों देवताओं से कद में ऊँचे हैं। आम तौर पर उन्हें बीच में रखा जाता है। फुक, लुक, साउ तीनों मिलकर अत्यन्त महत्वपूर्ण सौभाग्य का प्रतिनिधित्व करते है । इनकी उपस्थिति समृद्धि, प्रभुत्व, सम्मान, दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य को सुनिश्चित करती है।

28.मानकी निको :

अपना हाथ हिलाती हुई बिल्ली को लकी कैट या मनी कैट भी कहा जाता है।फैंगशुई में मानकी निको को बहुत शुभ सम्रद्धि का प्रतीक माना जाता है।वैसे तो यह कई रंगों में मिलती है लेकिन सुख सम्रद्धि,उन्नति और सफलता के लिए घर और व्यापारिक स्थल में पीले रंग की कैट को रखना अति शुभ माना जाता है। इसे रखने की सबसे उपर्युक्त दिशा दक्षिण पूर्व की है जो फैंगशुई में धन की दिशा कही जाती है इसके अतिरिक्त इसे उत्तर पूर्व में भी रखा जा सकता है,लेकिन यह ध्यान रहे की किसी को भी घर या व्यापारिक स्थल में घुसते ही सबसे पहले यह अभिवादन करते हुए नज़र आये, अर्थात सबसे पहले लोगो की इस पर ही नज़र पड़े ।
: ग्रह दोष के पूर्व संकेत
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ग्रह अपना शुभाशुभ प्रभाव गोचर एवं दशा-अन्तर्दशा-प्रत्यन्तर्दशा में देते हैं।जिस ग्रह की दशा के प्रभाव में हम होते हैं, उसकी स्थिति के अनुसार शुभाशुभ फल हमें मिलता है ।जब भी कोई ग्रह अपना शुभ या अशुभ फल प्रबल रुप में देने वाला होता है, तो वह कुछ संकेत पहले से ही देने लगता है । ऐसे ही कुछ पूर्व संकेतों का विवरण यहाँ दृष्टव्य है।

सूर्य के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 सूर्य अशुभ फल देने वाला हो, तो घर में रोशनी देने वाली वस्तुएँ नष्ट होंगी या प्रकाश का स्रोत बंद होगा । जैसे – जलते हुए बल्ब का फ्यूज होना, तांबे की वस्तु खोना ।
👉 किसी ऐसे स्थान पर स्थित रोशनदान का बन्द होना, जिससे सूर्योदय से दोपहर तक सूर्य का प्रकाश प्रवेश करता हो । ऐसे रोशनदान के बन्द होने के अनेक कारण हो सकते हैं । जैसे – अनजाने में उसमें कोई सामान भर देना या किसी पक्षी के घोंसला बना लेने के कारण उसका बन्द हो जाना आदि ।
👉 सूर्य के कारकत्व से जुड़े विषयों के बारे में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है । सूर्य जन्म-कुण्डली में जिस भाव में होता है, उस भाव से जुड़े फलों की हानि करता है । यदि सूर्य पंचमेश, नवमेश हो तो पुत्र एवं पिता को कष्ट देता है । सूर्य लग्नेश हो,तो जातक को सिरदर्द, ज्वर एवं पित्त रोगों से पीड़ा मिलती है । मान-प्रतिष्ठा की हानि का सामना करना पड़ता है ।
👉 किसी अधिकारी वर्ग से तनाव, राज्य-पक्ष से परेशानी ।
👉 यदि न्यायालय में विवाद चल रहा हो, तो प्रतिकूल परिणाम ।
👉 शरीर के जोड़ों में अकड़न तथा दर्द ।
👉 किसी कारण से फसल का सूख जाना ।
👉 व्यक्ति के मुँह में अक्सर थूक आने लगता है तथा उसे बार-बार थूकना पड़ता है ।
👉 सिर किसी वस्तु से टकरा जाता है ।
👉 तेज धूप में चलना या खड़े रहना पड़ता है

चन्द्र के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 जातक की कोई चाँदी की अंगुठी या अन्य आभूषण खो जाता है या जातक मोती पहने हो, तो खो जाता है।
👉 जातक के पास एकदम सफेद तथा सुन्दर वस्त्र हो वह अचानक फट जाता है या खो जाता है या उस पर कोई गहरा धब्बा लगने से उसकी शोभा चली जाती है।
👉 व्यक्ति के घर में पानी की टंकी लीक होने लगती है या नल आदि जल स्रोत के खराब होने पर वहाँ से पानी व्यर्थ बहने लगता है । पानी का घड़ा अचानक टूट जाता है ।
👉 घर में कहीं न कहीं व्यर्थ जल एकत्रित हो जाता है तथा दुर्गन्ध देने लगता है ।

उक्त संकेतों से निम्नलिखित विषयों में अशुभ फल दे सकते हैं ।
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👉 माता को शारीरिक कष्ट हो सकता है या अन्य किसी प्रकार से परेशानी का सामना करना पड़ सकता है ।
👉 नवजात कन्या संतान को किसी प्रकार से पीड़ा हो सकती है ।
👉 मानसिक रुप से जातक बहुत परेशानी का अनुभव करता है ।
👉 किसी महिला से वाद-विवाद हो सकता है ।
👉 जल से जुड़े रोग एवं कफ रोगों से पीड़ा हो सकती है । जैसे – जलोदर, जुकाम, खाँसी, नजला, हेजा आदि ।
👉 प्रेम-प्रसंग में भावनात्मक आघात लगता है ।
👉 समाज में अपयश का सामना करना पड़ता है । मन में बहुत अशान्ति होती है ।
👉 घर का पालतु पशु मर सकता है ।
👉 घर में सफेद रंग वाली खाने-पीने की वस्तुओं की कमी हो जाती है या उनका नुकसान होता है । जैसे– दूध का उफन जाना ।
👉 मानसिक रुप से असामान्य स्थिति हो जाती है

मंगल के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 भूमि का कोई भाग या सम्पत्ति का कोई भाग टूट-फूट जाता है ।
👉 घर के किसी कोने में या स्थान में आग लग जाती है ।यह छोटे स्तर पर ही होती है ।
👉 किसी लाल रंग की वस्तु या अन्य किसी प्रकार से मंगल के कारकत्त्व वाली वस्तु खो जाती है या नष्ट हो जाती है।
👉 घर के किसी भाग का या ईंट का टूट जाना ।
👉 हवन की अग्नि का अचानक बन्द हो जाना ।
👉 अग्नि जलाने के अनेक प्रयास करने पर भी अग्नि का प्रज्वलित न होना या अचानक जलती हुई अग्नि का बन्द हो जाना ।
👉 वात-जन्य विकार अकारण ही शरीर में प्रकट होने लगना ।
👉 किसी प्रकार से छोटी-मोटी दुर्घटना हो सकती है ।

बुध के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 व्यक्ति की विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है अर्थात् वह अच्छे-बुरे का निर्णय करने में असमर्थ रहता है ।
👉 सूँघने की शक्ति कम हो जाती है ।
👉काम-भावना कम हो जाती है । त्वचा के संक्रमण रोग उत्पन्न होते हैं । पुस्तकें, परीक्षा ले कारण धन का अपव्यय होता है । शिक्षा में शिथिलता आती है ।

गुरु के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 अच्छे कार्य के बाद भी अपयश मिलता है ।
👉 किसी भी प्रकार का आभूषण खो जाता है ।
👉 व्यक्ति के द्वारा पूज्य व्यक्ति या धार्मिक क्रियाओं का अनजाने में ही अपमान हो जाता है या कोई धर्म ग्रन्थ नष्ट होता है ।
👉 सिर के बाल कम होने लगते हैं अर्थात् व्यक्ति गंजा होने लगता है ।
👉 दिया हुआ वचन पूरा नहीं होता है तथा असत्य बोलना पड़ता है ।

शुक्र के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 किसी प्रकार के त्वचा सम्बन्धी रोग जैसे – दाद,खुजली आदि उत्पन्न होते हैं ।
👉 स्वप्नदोष, धातुक्षीणता आदि रोग प्रकट होने लगते हैं ।
👉 कामुक विचार हो जाते हैं ।
👉 किसी महिला से विवाद होता है ।
👉 हाथ या पैर का अंगुठा सुन्न या निष्क्रिय होने लगता है ।

शनि के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 दिन में नींद सताने लगती है ।
👉 अकस्मात् ही किसी अपाहिज या अत्यन्त निर्धन और गन्दे व्यक्ति से वाद-विवाद हो जाता है ।
👉 मकान का कोई हिस्सा गिर जाता है ।
👉 लोहे से चोट आदि का आघात लगता है ।
👉 पालतू काला जानवर जैसे- काला कुत्ता, काली गाय, काली भैंस, काली बकरी या काला मुर्गा आदि मर जाता है ।
👉 निम्न-स्तरीय कार्य करने वाले व्यक्ति से झगड़ा या तनाव होता है ।
👉 व्यक्ति के हाथ से तेल फैल जाता है ।
👉 व्यक्ति के दाढ़ी-मूँछ एवं बाल बड़े हो जाते हैं ।
👉 कपड़ों पर कोई गन्दा पदार्थ गिरता है या धब्बा लगता है या साफ-सुथरे कपड़े पहनने की जगह गन्दे वस्त्र पहनने की स्थिति बनती है ।
👉 अँधेरे, गन्दे एवं घुटन भरी जगह में जाने का अवसर मिलता है ।

राहु के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 मरा हुआ सर्प या छिपकली दिखाई देती है ।
👉 धुएँ में जाने या उससे गुजरने का अवसर मिलता है या व्यक्ति के पास ऐसे अनेक लोग एकत्रित हो जाते हैं, जो कि निरन्तर धूम्रपान करते हैं ।
👉 किसी नदी या पवित्र कुण्ड के समीप जाकर भी व्यक्ति स्नान नहीं करता ।
👉 पाला हुआ जानवर खो जाता है या मर जाता है ।
👉 याददाश्त कमजोर होने लगती है ।
👉 अकारण ही अनेक व्यक्ति आपके विरोध में खड़े होने लगते हैं ।
👉 हाथ के नाखुन विकृत होने लगते हैं ।
👉 मरे हुए पक्षी देखने को मिलते हैं ।
👉 बँधी हुई रस्सी टूट जाती है । मार्ग भटकने की स्थिति भी सामने आती है । व्यक्ति से कोई आवश्यक चीज खो जाती है ।

केतु के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 मुँह से अनायास ही अपशब्द निकल जाते हैं ।
👉 कोई मरणासन्न या पागल कुत्ता दिखायी देता है।
👉 घर में आकर कोई पक्षी प्राण-त्याग देता है ।
👉 अचानक अच्छी या बुरी खबरें सुनने को मिलती है ।
👉 हड्डियों से जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है ।
👉 पैर का नाखून टूटता या खराब होने लगता है ।
👉 किसी स्थान पर गिरने एवं फिसलने की स्थिति बनती है ।
👉 भ्रम होने के कारण व्यक्ति से हास्यास्पद गलतियाँ होती।
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: योगो के प्रकार महत्त्व एवं इनके द्वारा जीवन विकास
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योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग। आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।

योग के मुख्य अंग:👉 यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।

योग के प्रकार:👉 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।

1.पांच यम:👉 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।

2.पांच नियम:👉 1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।

3.अंग संचालन:👉 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

4.प्रमुख बंध:👉 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।

5.प्रमुख आसन:👉 किसी भी आसन की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन, 10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन 33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन 37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन 42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन, 53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन, 59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन, 64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन, 69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन, 74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन, 79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।

6.जानिए प्राणायाम क्या है:-
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प्राणायाम के पंचक:👉 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:👉 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।

प्रमुख प्राणायाम:👉 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।

अन्य प्राणायाम:👉 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम, 14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम,
24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम, 30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।

7.योग क्रियाएं जानिएं:-
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प्रमुख 13 क्रियाएं:👉 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।

8.मुद्राएं कई हैं:-
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6 आसन मुद्राएं:👉 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं👉 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं:👉 उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :👉 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

9.प्रत्याहार:👉 इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

10.धारणा:👉 चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

11.ध्यान :👉 जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

ध्यान के रूढ़ प्रकार:👉 स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां:👉 श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।

12.समाधि:👉 यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियां हैं :👉 1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात।

सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं-👉 1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योगाभ्यास की बाधाएं:👉 आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

1.राजयोग:👉 यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है।

2.हठयोग:👉 षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

3.लययोग:👉 यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

4.ज्ञानयोग:👉 साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

5.कर्मयोग:👉 कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।

6.भक्तियोग :👉 भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

कुंडलिनी योग 👉 कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं

मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।

72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।

योग का संक्षिप्त इतिहास
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योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।

भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।

योग ग्रंथ योग सूत्र
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वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है-

योगसूत्र👉 योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।

व्यास भाष्य👉 व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी 👉 पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक👉 विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति👉 भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

अष्टांग योग👉 इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में… श्रेणीबद्ध कर दिया है। लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।

यह आठ अंग हैं👉 (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

योग सूत्र👉 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है👉 समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।

तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

‌दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-

‌ 1👉 यम: कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।

‌2👉 नियम: मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार के शुद्धि समाविष्ट है

3👉 आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।

4👉 प्राणायाम: योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

5👉 प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।

6👉 धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।

7👉 ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

8👉 समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं👉 सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।,

योग साधना द्वारा जीवन विकास
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योग का नाम सुनते ही कितने ही लोग चौंक उठते हैं उनकी निगाह में यह एक ऐसी चीज है जिसे लम्बी जटा वाला और मृग चर्मधारी साधु जंगलों या गुफाओं में किया करते हैं। इसलिये वे सोचते हैं कि ऐसी चीज से हमारा क्या सम्बन्ध? हम उसकी चर्चा ही क्यों करें?

पर ऐसे विचार इस विषय में उन्हीं लोगों के होते हैं जिन्होंने कभी इसे सोचने-विचारने का कष्ट नहीं किया। अन्यथा योग जीवन की एक सहज, स्वाभाविक अवस्था है जिसका उद्देश्य समस्त मानवीय इन्द्रियों और शक्तियों का उचित रूप से विकास करना और उनको एक नियम में चलाना है। इसीलिये योग शास्त्र में “चित्त वृत्तियों का निरोध” करना ही योग बतलाया गया है। गीता में ‘कर्म की कुशलता’ का नाम योग है तथा ‘सुख-दुख के विषय में समता की बुद्धि रखने’ को भी योग बतलाया गया है। इसलिये यह समझना कोरा भ्रम है कि समाधि चढ़ाकर, पृथ्वी में गड्ढा खोदकर बैठ जाना ही योग का लक्षण है। योग का उद्देश्य तो वही है जो योग शास्त्र में या गीता में बतलाया गया है। हाँ इस उद्देश्य को पूरा करने की विधियाँ अनेक हैं, उनमें से जिसको जो अपनी प्रकृति और रुचि के अनुकूल जान पड़े वह उसी को अपना सकता है। नीचे हम एक योग विद्या के ज्ञाता के लेख से कुछ ऐसा योगों का वर्णन करते हैं जिनका अभ्यास घर में रहते हुये और सब कामों को पूर्ववत् करते हुये अप्रत्यक्ष रीति से ही किया जा सकता है-

  1. कैवल्य योग👉 कैवल्य स्थिति को योग शास्त्र में सबसे बड़ा माना गया है। दूसरों का आश्रय छोड़कर पूर्ण रूप से अपने ही आधार पर रहना और प्रत्येक विषय में अपनी शक्ति का अनुभव करना इसका ध्येय हैं। साधारण स्थिति में मनुष्य अपने सभी सुखों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। यह एक प्रकार की पराधीनता है और पराधीनता में दुख होना आवश्यक है। इसलिये योगी सब दृष्टियों से पूर्ण स्वतंत्र होने की चेष्टा करते हैं। जो इस आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं वे ही कैवल्य की स्थिति में अथवा मुक्तात्मा समझे जा सकते हैं। पर कुछ अंशों में इसका अभ्यास सब कोई कर सकते हैं और उसके अनुसार स्वाधीनता का सुख भी भोग सकते हैं।
  2. सुषुप्ति योग👉 निद्रावस्था में भी मनुष्य एक प्रकार की समाधि का अनुभव कर सकता है। जिस समय निद्रा आने लगती है उस समय यदि पाठक अनुभव करने लगेंगे तो एक वर्ष के अभ्यास से उनको आत्मा के अस्तित्व को ज्ञान हो जायेगा। सोते समय जैसा विचार करके सोया जायगा उसका शरीर और मन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। जिस व्यक्ति को कोई बीमारी रहती है वह यदि सोने के समय पूर्ण आरोग्य का विचार मन में लायेगा और “मैं बीमार नहीं हूँ।” ऐसे श्रेष्ठ संकल्प के साथ सोयेगा तो आगामी दिन से बीमारी दूर होने का अनुभव होने लगेगा। सुषुप्ति योग की एक विधि यह भी है कि निद्रा आने के समय जिसको जागृति और निद्रा संधि समय कहा जाता है, किसी उत्तम मंत्र का जप अर्थ का ध्यान रखते हुए करना और वैसे करते ही सो जाना। तो जब आप जगेंगे तो वह मंत्र आपको अपने मन में उसी प्रकार खड़ा मिलेगा। जब ऐसा होने लगे तब आप यह समझ लीजिये कि आप रात भर जप करते रहें। यह जप बिस्तरे पर सोते-सोते ही करना चाहिये और उस समय अन्य किसी बात को ध्यान मन में नहीं लाना चाहिये।
  3. स्वप्न योग👉 स्वप्न मनुष्य को सदा ही आया करते हैं, उनमें से कुछ अच्छे होते हैं और कुछ खराब। इसका कारण हमारे शुभ और अशुभ विचार ही होते हैं। इसलिये आप सदैव श्रेष्ठ विचार और कार्य करके तथा सोते समय वैसा ही ध्यान करके उत्तम स्वप्न देख सकते हैं। इसके लिये जैसा आपका उद्देश्य हो वैसा ही विचार भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिये यदि आपकी इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो तो भीष्म पितामह का ध्यान कीजिये, दृढ़ व्रत और सत्य प्रेम होना हो तो श्रीराम चंद्र की कल्पना कीजिये, बलवान बनने का ध्येय हो तो भीमसेन का अथवा हनुमान जी का स्मरण कीजिये। आप सोते समय जिसकी कल्पना और ध्यान करेंगे स्वप्न में आपको उसी विषय का अनुभव होता रहेगा।
  4. बुद्धियोग👉 तर्क-वितर्क से परे और श्रद्धा-भक्ति से युक्त निश्चयात्मक ज्ञान धारक शक्ति का नाम ही बुद्धि है। ऐसी ही बुद्धि की साधना से योग की विलक्षण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि अपने को आस्तिक मानने से आप परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं, पर तर्क-युक्त बात ऐसे योग में काम नहीं देती। अपना अस्तित्व आप जिस प्रकार बिना किसी प्रमाण के मानते हैं, इसी प्रकार बिना किसी प्रमाण का ख्याल किये सर्व मंगलमय परमात्मा पर पूरा विश्वास रखने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। जो लोग बुद्धि योग में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको ऐसी ही तर्क रहित श्रद्धा उत्पन्न करनी चाहिए तभी आपको परमात्मा विषयक सच्चा आनन्द प्राप्त हो सकेगा।
  5. चित्त योग👉 चिन्तन करने वाली शक्ति को चित्त कहते हैं। योग-साधना में जो आपका अभीष्ट है उसकी चिन्ता सदैव करते रहिये। अथवा अभ्यास करने के लिए प्रतिमास कोई अच्छा विचार चुन लीजिये। जैसे “मैं आत्मा हूँ और मैं शरीर से भिन्न हूँ।” इसका सदा ध्यान अथवा चिन्तन करने से आपको धीरे-धीरे अपनी आत्मा और शरीर का भिन्नत्व स्पष्ट प्रतीत होने लगेगा। इस प्रकार अच्छे कल्याणकारी विचारों का चिन्तन करने से बुरे विचारों का आना सर्वथा बन्द हो जायगा और आपको अपना जीवन आनन्दपूर्ण जान पड़ने लगेगा।
  6. इच्छा योग👉 जिससे मनुष्य किसी बात की प्राप्ति अथवा निवृत्ति की इच्छा करता है उसको इच्छा शक्ति कहते हैं। मनो-विज्ञान की दृष्टि से इच्छा शक्ति का प्रभाव अपार है, जिसके द्वारा सब तरह का महान् कार्य सिद्ध किया जा सकता है। बुराई से बचने का मुख्य साधन इच्छा शक्ति है। आप अपनी प्रबल इच्छाशक्ति द्वारा रोगों के आक्रमण को रोक सकते हैं। मानसिक प्रेरणा देने से बड़ी-बड़ी बीमारियाँ दूर हो सकती हैं। चरित्र सम्बन्धी सब दोषों को भी इच्छा शक्ति द्वारा दूर किया जा सकता है ओर उत्तम आचरण ग्रहण किये जा सकते हैं। यह शक्ति प्रत्येक में होती है, प्रश्न केवल उसे बुराई की तरफ से भलाई की तरफ प्रेरित करने का है।
  7. मानस योग👉 मन का धर्म अच्छे और बुरे विचार करना है। मन को एकाग्र करने से उसकी शक्ति बहुत बढ़ सकती है और उसे उन्नति तथा कल्याण के कार्यों में लगाया जा सकता है। इसके लिये अभ्यास द्वारा मन को आज्ञाकारी बनाना चाहिये जिससे वह उन्हीं विचारों में लगे जिनको आप उत्तम समझते हैं।
  8. अहंकार-योग👉 अहंकार शब्द का अर्थ ‘घमंड” भी होता है पर यहाँ उस अर्थ से हमारा तात्पर्य नहीं है। यहाँ पर इसका भाव अपनी अन्तरात्मा से है। अहंकार योग का उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने को भौतिक शरीर से भिन्न समझे और आत्मा के अजर, अमर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली आदि गुणों का ध्यान करके उनको ग्रहण करने का प्रयत्न करे। जब मनुष्य के भीतर यह विचार जम जाता है तो वह जिस कार्य का या अनुष्ठान का निश्चय कर लेता है, उसे फिर पूरा करके ही रहता है, क्योंकि उसे यह दृढ़ विश्वास होता है कि मैं शक्तिशाली आत्मा का रूप हूँ जिसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं।
  9. ज्ञानेन्द्रिय-योग👉 ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच मानी गई हैं-आँख, कान, नाक, जीभ, चर्म। इनका सम्बन्ध क्रमशः अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल और वायु के साथ होता है। इनमें योग साधन के लिये सबसे प्रमुख इन्द्री आँख को माना गया है। मन की एकाग्रता प्राप्त करने के लिये आँखों की दृष्टि को किसी एक स्थान या केन्द्र पर जमाना होता है। इससे मन की शक्ति बढ़ जाती है और उसका दूसरों पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ने लगता है। इसके द्वारा फिर अन्य इन्द्रियों पर भी कल्याणकारी प्रभाव पड़ने लगता है।
  10. कर्मेन्द्रिय-योग👉 कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं👉 वाणी, हाथ, पाँव, गुदा और शिश्न। इनमें सबसे अधिक उपयोग वाणी का ही होता है और वह मानव-जीवन के विकास का सबसे बड़ा साधन है। वाणी द्वारा हम जो शब्द उच्चारण करते हैं उनमें बड़ी शक्ति होती है। योग साधन वाले को वाणी से सदैव उत्तम और हितकारी शब्द ही निकालने चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास करने से अंत में आपको वाक्सिद्धि की शक्ति प्राप्त हो सकेगी।
    वास्तव में मनुष्य का समस्त जीवन ही एक प्रकार का योग है। मनुष्य के रूप में आकर जीवात्मा, परमात्मा को पहिचान सकता है और उसे प्राप्त कर सकता है। इसलिये हमको अपनी प्रत्येक शक्ति को एक विशेष उद्देश्य और नियम के साथ विकसित करनी चाहिये जिससे वह उन्नत होती चली जाय। अगर मनुष्य इस प्रयत्न में सच्चे मन से बराबर लगा रहेगा तो उसे सब प्रकार की दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी और वह परमात्मा के निकट पहुँचता जायगा।
    [आज आपको मैं बच्चों के लिए उपाय बता रहा हूं उपाय को करने के बाद बच्चों में विशेष परिवर्तन देखा हैआप लोग भी इस उपाय को करने के बाद अपना अनुभव जरूर बताएं

अगर कोई बच्चा पढ़ाई में बार बार असफल होता हो तो वह गाय को रोटी में हल्दी चुपड़ कर गाय को खिलाये या कोई प्रतियोगी परीक्षा में असफल हो रहा हो तो वह यह प्रयोग करे सफल होगा, यह प्रयोग शुक्ल पक्षके प्रथम वीरवर माह से करना है इस उपाय को 90 दिन नियम से जारी रखें। मेरे यह प्रयोग अनुभूत प्रयोग है
बच्चो के पठन-पाठन के लिए सर्वथा दक्षिण पश्चिम की दिशा का चयन करे, अर्थात पढ़ाई करते समय चेहरा पूर्व -उत्तर की दिशा मे होना चाहिए ।

अगर सम्भव हो तो, उसकी पढ़ाई के कमरे की उत्तर – पूर्व की दिशा मे सरस्वती जी एक फोटो भी लगाये । पढ़ाई पलंग पर बैठकर न करे, पढने के टेबल पर हरे रंग का Towel या छोटी सी चादर बिछा दें ।

अगर बच्चा छोटा हो तो, यह प्रक्रिया उसकी माता भी कर सकती है, सिर्फ बच्चे का हाथ लगवाकर ,यह प्रक्रिया ।
[🥀मानसिक शक्ति बढ़ाने वाले आहार
🌻मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य

🌸आपका मस्तिष्‍क बेहतर काम करे इसके लिए जरूरी है आप उसे जरूरी पोषण दें। ये जरूरी पोषण आपको अपने आहार के जरिये ही मिल सकता है। इसलिए जरूरी है कि आप ऐसे खाद्य पदार्थ चुनें जो आपके मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य का खयाल रखें।

🍁आहार का मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य पर होता है गहरा असर।
🍃ओमेगा फैटी 3 एसिड देता है दिमाग को शक्ति।
🍂अखरोट, और बादाम है मस्तिष्‍क के लिए जरूरी।
🍂वसा युक्‍त आहार से दूर रहना है आपके लिए फायदेमंद।

🌻तनाव और थका देने वाला काम हमारी जिंदगी का हिस्‍सा बन गया है। इसका असर हमारी सेहत पर भी पड़ने लगा है। काम के अधिक बोझ के चलते चिंता और अवसाद जैसे रोजमर्रा की बात हो गई हो। इन परेशानियों को नियंत्रण में रखना जरूरी है, क्‍योंकि अगर ये समस्‍यायें बढ़ जाएं तो इसका असर किसी के भी शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य पर पड़ता है।

🍁कई अन्‍य कारणों की तरह आपके आहार का भी आपकी सेहत पर गहरा असर पड़ता है। आपको स्‍वस्‍थ अहार का सेवन करना चाहिये। संतुलित और पौष्टिक आहार ही स्‍वस्‍थ जीवन का आधार है। सप्‍लीमेंट्स पर जितना हो सके, कम निर्भर रहना चाहिये। जंक फूड और अधिक वसा युक्‍त खाना आपकी शारीरिक और मानसिक सेहत के लिए अच्‍छा नहीं होता। ऐसे में आपको इन खाद्य पदार्थों के सेवन से बचना चाहिये। इसके साथ ही तनावरहित और खुश रहने के लिए आपको नियमित व्‍यायाम भी करना चाहिये।

🌺अपनी आहार योजना में इन चीजों को शामिल कर आप अपने मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को दुरुस्‍त रख सकते हैं।

🍂1. ओमेगा फैटी 3 एसिड से भरपूर आहार

थकान, अवसाद और सिक्र‍िजोफ्रेनिया आदि जैसी परेशानियों को दूर करने के लिए आपको रोजाना ओमेगा फैटी-3 आधारित आहार का सेवन करना चाहिये। ओमेगा फैटी-3 एसिड हमारे शरीर में पर्याप्‍त मात्रा में नहीं बनता। इसलिए आपको आहार के माध्‍यम से ही इसकी पूर्ति करनी पड़ती है। इसके लिए आपको सालमन मछली, अखरोट, अंडे और कनोला ऑयल का सेवन करना चाहिये। ओमेगा 3 न्यूरोट्रांसमीटर सेरोटोनिन का स्राव करता है जो सीखने और संज्ञानात्‍मक कार्य करने की क्षमता में इजाफा करता है।

🌾2. प्रोटीन युक्‍त खाद्य पदार्थ

प्रोटीन हमारे शरीर को कॉम्‍प्‍लेक्‍स कार्बोहाइड्रेट मुहैया कराते हैं। जो हमारे शरीर के निर्माण में मदद करते हैं। इसके साथ ही ये न्‍यूरोट्रांसमीटर सेरोटोनिन का भी निर्माण करते हैं। इससे चिंता, अवसाद और इससे जुड़ी समस्‍यायें कम होती हैं। प्रोटीन के लिए आपको डेयरी उत्‍पाद, अंडे की सफेदी, चिकन, बीन्‍स, पनीर और सोयाबीन की फलियों का सेवन करना चाहिये।

🌺3. कार्बोहाइड्रेट

हमारे मस्तिष्‍क को ग्‍लूकोज की जरूरत होती है। यह तन-मन के लिए ईंधन के तौर पर काम करता है। ग्‍लूकोज की कम मात्रा आपके मूड में बदलाव ला सकती है। सामान्‍य कार्बोहाइड्रेट की तुलना में कॉम्‍प्‍लेक्‍स कार्बोहाइड्रेट ज्‍यादा उपयोगी होता है। यह ग्‍लूकोज को धीरे-धीरे से स्रावित करता है जिससे आपको लंबे समय तक पेट भरे होने का अहसास होता है। कॉम्‍प्‍लेक्‍स कार्बोहाइड्रेट आपको गेहूं उत्‍पादों, ओट्स, जौ, बीन्‍स आदि से मिल सकता है।

🌼4. फॉलिए एसिड और विटामिन बी

चिंता, अवसाद, अनिद्रा और थकान का संबंध फॉलिक एसिड और विटामिन बी से होता है। इन लक्षणों को दूर करने के लिए आपको हरे पत्‍तेदार सब्जियों जैसे, पालक, ब्रोकली आदि को अपने आहार में शामिल करना चाहिए। ब्रोकली में सेलेनियम भी भरपूर मात्रा में होता है, जो मानसिक सुकून पहुंचाने का काम करता है। सेलेनियम की कमी से मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य पर बुरा असर पड़ता है। इससे उबरने के लिए आपको चिकन, साबुत अनाज के उत्‍पाद और अखरोट आदि का सेवन करना चाहिए।

🌹स्नेहा आयुर्वेद ग्रुप
🥀5. तरल पदार्थ

मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के लिए पर्याप्‍त मात्रा में पानी पीना बहुत जरूरी है। निर्जलीकरण की अवस्‍था आने पर शरीर कोशिकाओं से पानी सोखने लगता है। इसके साथ ही आपको कैफीन युक्‍त पेय पदार्थों के अधिक सेवन से भी बचना चाहिए। इन पदार्थों का अधिक सेवन आपको उच्‍च रक्‍तचाप, अवसाद और कई अन्‍य समस्‍यायें भी दे सकता है। इसलिए आपको नारियल और नींबू पानी जैसे पेय पदार्थों का सेवन करना चाहिए। चाय और कॉफी जैसे पेय पदार्थों का सेवन सीमित मात्रा में ही करना चाहिये।

6🌺. विटामिन बी1 और जिंक

शरीर में यदि विटामिन बी1 और जिंक की कमी हो जाए तो इसका असर मूड परिवर्तन और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य पर पड़ता है। व्‍यक्ति को अवसाद, चिंता, थकान, क्रोध, उच्‍च रक्‍तचाप आदि परेशानियां हो सकती हैं। अल्‍कोहल युक्‍त पदार्थों का अधिक सेवन इस प्रकार की परेशानी का कारण बन सकता है। सी-फूड, मटर, अंडा, दूध और दही आदि में जिंक और विटामिन बी1 भरपूर मात्रा में होता है।

🍂तो, हमारे आहार का हमारे मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य पर गहरा असर पड़ता है। इसलिए इन खाद्य पदार्थों का सेवन कर आप अपने दिमाग को तंदुरुस्‍त रख सकते हैं।
[हमारे शास्त्रों के अनुसार तीन सुरक्षा चक्र पहली गौ माता दूसरी तुलसी तीसरी रसोईघर के मसाले (औषधि)

तुलसी

तुलसी मुख्य रूप से पांच प्रकार के पायी जाती है ! श्याम तुलसी, राम तुलसी, श्वेत/विश्नू तुलसी, वन तुलसी, और नींबू तुलसी ।

यह संसार की एक बेहतरीन एंटी-ऑक्सीडेंट , एंटी- बैक्टीरियल, एंटी- वायरल , एंटी- फ्लू, एंटी- बायोटिक , एंटी-इफ्लेमेन्ट्री व एंटी – डिजीज है ।

✔तुलसी अर्क के दो बून्द एक ग्लास पानी में या तीन बून्द एक लीटर पानी में डाल कर पांच मिनट के बाद उस जल को पीना चाहिए। इससे पेयजल विष् और रोगाणुओं से मुक्त होकर स्वास्थवर्धक पेय हो जाता है ।

✔तुलसी अर्क २०० से अधिक रोगो में लाभदायक है । जैसे के फ्लू , स्वाइन फ्लू, डेंगू , जुखाम , खासी , प्लेग, मलेरिया , जोड़ो का दर्द, मोटापा, ब्लड प्रेशर , शुगर, एलर्जी , पेट के कीड़ो , हेपेटाइटिस , जलन, मूत्र सम्बन्धी रोग, गठिया , दम, मरोड़, बवासीर , अतिसार, आँख का दर्द , दाद खाज खुजली, सर दर्द, पायरिया नकसीर, फेफड़ो सूजन, अल्सर , वीर्य की कमी, हार्ट ब्लोकेज आदि ।

✔तुलसी एक बेहतरीन विष नाशक तथा शरीर से हानिकारक विष (toxins ) को बाहर निकालती है ।

✔तुलसी स्मरण शक्ति को बढ़ाता है ।

✔तुलसी शरीर के लाल रक्त सेल्स (Haemoglobin) को बढ़ने में अत्यंत सहायक है ।

✔तुलसी भोजन के बाद एक बूँद सेवन करने से पेट सम्बन्धी बीमारिया बहोत काम लगाती है।

✔तुलसी के 4 – 5 बूँदे पीने से महिलाओ को गर्भावस्था में बार बार होने वाली उलटी के शिकायत ठीक हो जाती है ।

✔आग के जलने व किसी जहरीले कीड़े के कांटने से तुलसी को लगाने से विशेष रहत मिलती है।

✔दमा व खाँसी में तुलसी के दो बुँदे थोड़े से अदरक के रास तथा शहद के साथ मिलकर सुबह – दोपहर – शाम सेवन करे।

✔यदि मुँह में से किसी प्रकार की दुर्गन्ध आती हो तो तुलसी के एक बूँद मुँह में डाल ले दुर्गन्ध तुरंत दूर हो जाएगी।

✔दांत का दर्द, दांत में कीड़ा लगना , मसूड़ों में खून आना तुलसी के 4 – 5 बूँदे पानी में डालकर कुल्ला करना चाहिए।

✔कान का दर्द, कण का बहना, तुलसी हल्का गरम करके एक -एक बूंद कान में टपकाए।

✔नाक में पिनूस रोग हट जाता है, इसके अतिरिक्त फोड़े – फुंसिया भी निकल आती है, दोनों रोगो में बहुत तकलीफ होती है I तुलसी को हल्का सा गरम करके एक – एक बूंद नाक में टपकाएं।

✔गले में दर्द, गले व मुँह में छाले , आवाज़ बैठ जाना : तुलसी के 4 – 5 बूँदे गरम पानी में डालकर कुल्ला करना चाहिए।

✔सर दर्द, बाल क्हाड्णा, बाल सफ़ेद होना व सिकरी तुलसी की 8 – 10 मि.ली। हर्बल हेयर आयल के साथ मिलाकर सर, माथे तथा कनपटियो पर लगाये।

✔तुलसी के 8 – 10 बूँदे मिलकर शरीर में मलकर रात्रि में सोये , मच्छर नहीं काटेंगे।

✔कूलर के पानी में तुलसी के 8 – 10 बूँदे डालने से सारा घर विषाणु और रोगाणु से मुक्त हो जाता है, तथा मक्खी – मच्छर भी घर से भाग जाते है।

✔जूएं व लिखे तुलसी और नीबू का रस समान मात्रा में मिलाकर सर के बालो में अच्छे तरह से लगाये I 3 – 4 घंटे तक लगा रहने दे। और फिर धोये अथवा रात्रि को लगाकर सुबह सर धोए।। जुएं व लिखे मर जाएगी।

✔त्वचा की समस्या में निम्बू रास के साथ तुलसी के 4 – 5 बूँदे डालकर प्रयोग करे।

✔तुलसी में सुन्दर और निरोग बनाने की शक्ति है। यह त्वचा का कायाकल्प कर देती है I यह शरीर के खून को साफ करके शरीर को चमकीला बनती है।

✔तुलसी की दो बूँदे एलो जैल क्रीम में मिलाकर चेहरे पर सुबह व रात को सोते समय लगाने पर त्वचा सुन्दर व कोमल हो जाती है तथा चेहरे से प्रत्येक प्रकार के काले धेरे, छाइयां , कील मुँहासे व झुरिया नष्ट हो जाती है।

✔सफ़ेद दाग : 10 मि.लि. तेल व नारियल के तेल में 20 बूँदें तुलसी डालकर सुबह व रात सोने से पहले अच्छी तरह से मले।

✔तुलसी के नियमित उपयोग से कोलेस्ट्रोल का स्तर कम होने लगता है, रक्त के थक्के जमने कम हो जाते है, व हार्ट अटैक और कोलैस्ट्रोल की रोकथाम हो जाती है।

✔तुलसी को किसी भी अच्छी क्रीम में मिला कर लगाने से प्रसव के बाद पेट पर बनने वाले लाइने ( स्ट्रेच मार्क्स ) दूर हो जाते है।
🌱तुलसी एक,फायदे अनेक।
| क्या आपकी भी आंख फड़कती है? जानिए आंख फड़कने के 5 कारण

1 आंखों की समस्या – आंखों में मांस पेशियों से संबंधित समस्या होने पर भी आंख फड़क सकती है। अगर लंबे समय से आपकी आंख फड़क रही है, तो एक बार आंखों की जांच जरूर करवा लें। हो सकता है आपको चश्मा लगाने की जरूरत हो या आपके चश्मे का नंबर बलने वाला हो। 
2 तनाव – तनाव के कारण भी आपकी आंख फड़क सकती है। खास तौर से जब तनाव के कारण आप चैन से सो नहीं पाते और आपकी नींद पूरी नहीं होती, तब आंख फड़कने की समस्या हो सकती है। 
3 थकान – अत्यधिक थकान होने पर आंखों में भी समस्याएं होती हैं। इसके अलावा आंखों में थकान या कम्यूटर, लैपटॉप पर ज्यादा देर काम करते रहने से भी यह समस्या हो सकती है। इसके लिए आंखों को आराम देना जरूरी है।  
4 सूखापन – आंखों में सूखापन होने पर भी आंख फड़कने की समस्या होती है। इसके अलावा आंखों में एलर्जी, पानी आना, खुजली आदि समस्या होने पर भी ऐसा हो सकता है। 
5 पोषण – शरीर में मैग्नीशियम की कमी होने पर आंख फड़कने की समस्या पैदा सकती है। इसके अलवा अत्यधिक कैफीन का शराब का सेवन र्भी इस समस्या को जन्म देता है।
[बेलपत्र : औषधीय गुणों से मालामाल एक दिव्य वनस्पति |
परिचय

बेल का पेड़ बहुत प्राचीन है। इस पेड़ में पुराने पीले लगे हुए फल दुबारा हरे हो जाते हैं तथा इसको तोड़कर सुरक्षित रखे हुए पत्तों को 6 महीने तक ज्यों के त्यों बने रहते हैं और गुणहीन नहीं होते। इस पेड़ की छाया शीतल और आरोग्य कारक होती हैं। इसलिए इसे पवित्र माना जाता है।

बेलपत्र के 29 दिव्य औषधीय प्रयोग और फायदे :

  1. जब कभी आपको बुखार हो जाए तो बेल की पत्तियों (बेलपत्र )का काढ़ा बना लें और फिर उसे पी जाए। ऐसा करने से आपका बुखार तुरंत ठीक हो जाएगा। यही नहीं, मधुमक्खी, बर्र अथवा ततैया के काटने पर बहुत जलन होती है, यह हम सभी जानते हैं, ऐसी स्थिति में काटे गए स्थान पर बेलपत्र का रस लगाना बहुत उपयोगी साबित होगा।
  2. जान लें कि हृदय रोगियों के लिए भी बेलपत्र का प्रयोग बेहद असरदार है। बेलपत्र का काढ़ा रोजाना बनाकर पीने से आपका हृदय हमेशा मजबूत रहेगा और हार्ट अटैक का खतरा भी कम होगा। वहीं, श्वास रोगियों के लिए भी यह बेलपत्र किसी अमृत से कम नहीं है। इन पत्तियों का रस पीने से श्वास रोग में काफी लाभ होता है।
  3. शरीर में जब कभी गर्मी बहुत बढ़ जाए या मुंह में गर्मी के कारण छाले हो जाएं, तो बेल की पत्तियों(Bel patra) को मुंह में रखकर चबाते रहे। इससे लाभ जरूर मिलेगा और छाले समाप्त हो जाएंगे।
  4. इन दिनों बवासीर नामक बीमारी बहुत ही आम हो गई है। सबसे ज्यादा तकलीफ देह होती है खूनी बवासीर। बेल की जड़ का गूदा पीसकर बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर उसका चूर्ण बनाकर, इस चूर्ण को रोज़ सुबह-शाम ठंडे पानी के साथ खा लें। अगर बवासीर का दर्द बहुत अधिक है तो दिन में तीन से चार बार लें। इससे आपकी बवासीर की समस्या तुरंत ठीक हो जाएगी।
  5. वहीं अगर किसी कारण से बेल की जड़ उपलब्ध न हो सके तो बेस्ट ऑप्शन होगा कि आप कच्चे बेलफल का गूदा, सौंफ और सौंठ मिलाकर उसका काढ़ा बना कर सेवन कर लें। यह बेहद लाभदायक है।
  6. बरसात (monsoon) आता नहीं कि सर्दी, जुकाम और बुखार की समस्याएं तैयार रहती हैं लोगों पर अटैक करने के लिए। अगर आप बेलपत्र के रस में शहद मिलाकर पीएंगे तो बहुत फायदा पहुंचेगा। वहीं विषम ज्वर हो जाने पर इसके पेस्ट की गोलियां बनाकर गुड़ के साथ खाई जाती हैं।
  7. अकसर छोटे-छोटे बच्चों के पेट या आंतों में कीड़े हो जाते हैं या फिर बच्चें में दस्त लगने की समस्या हो जाती है तो आप बेलपत्र का रस पिलाए, इससे काफी फायदा होगा और यह समस्याएं समाप्त हो जाती हैं।
  8. एक चम्मच रस पिलाने से बच्चों के दस्त तुरंत रुक जाते हैं।
  9. संधिवात में पत्ते गर्म करके बाँधने से सूजन व दर्द में राहत मिलती है।
  10. बेलपत्र पानी में डालकर स्नान करने से वायु का शमन होता है, सात्त्विकता बढ़ती है।

11.बेलपत्र का रस लगाकर आधे घंटे बाद नहाने से शरीर की दुर्गन्ध दूर होती है।

  1. पत्तों के रस में मिश्री मिलाकर पीने से अम्लपित्त (Acidity) में आराम मिलता है।
  2. स्त्रियों के अधिक मासिक स्राव व श्वेतस्राव (Leucorrhoea) में बेलपत्र एवं जीरा पीसकर दूध में मिलाकर पीना खूब लाभदायी है। यह प्रयोग पुरुषों में होने वाले धातुस्राव को भी रोकता है।
  3. तीन बिल्वपत्र व एक काली मिर्च सुबह चबाकर खाने से और साथ में ताड़ासन व पुल-अप्स करने से कद बढ़ता है। नाटे ठिंगने बच्चों के लिए यह प्रयोग आशीर्वादरूप है।
  4. मधुमेह (डायबिटीज) में ताजे बिल्वपत्र अथवा सूखे पत्तों का चूर्ण खाने से मूत्रशर्करा व मूत्रवेग नियंत्रित होता है।
  5. बेल पत्र के सेवन से शरीर में आहार के पोषक तत्व अधिकाधिक रूप से अवशोषित होने लगते है |
  6. इसके सेवन से मन एकाग्र रहता है और ध्यान केन्द्रित करने में सहायता मिलती है |
  7. इसके सेवन से शारीरिक वृद्धि होती है |
  8. इसके पत्तों का काढा पीने से ह्रदय मज़बूत होता है |
  9. बारिश के दिनों में अक्सर आँख आ जाती है यानी कंजक्टिवाईटीस हो जाता है . बेल पत्रों का रस आँखों में डालने से ; लेप करने से लाभ होता है |
  10. इसके पत्तों के १० ग्राम रस में १ ग्रा. काली मिर्च और १ ग्रा. सेंधा नमक मिला कर सुबह दोपहर और शाम में लेने से अजीर्ण में लाभ होता है |

22.बेल पत्र , धनिया और सौंफ सामान मात्रा में ले कर कूटकर चूर्ण बना ले , शाम को १० -२० ग्रा. चूर्ण को १०० ग्रा. पानी में भिगो कर रखे , सुबह छानकर पिए | सुबह भिगोकर शाम को ले, इससे प्रमेह और प्रदर में लाभ होता है | शरीर की अत्याधिक गर्मी दूर होती है |

  1. बरसात के मौसम में होने वाले सर्दी , खांसी और बुखार के लिए बेल पत्र के रस में शहद मिलाकर ले |
  2. बेल के पत्तें पीसकर गुड मिलाकर गोलियां बनाकर रखे. इसे लेने से विषम ज्वर में लाभ होता है |
  3. दमा या अस्थमा के लिए बेल पत्तों का काढा लाभकारी है|
  4. सूखे हुए बेल पत्र धुप के साथ जलाने से वातावरण शुद्ध होता है|
  5. पेट के कीड़ें नष्ट करने के लिए बेल पत्र का रस लें|
  6. संधिवात में बेल पत्र गर्म कर बाँधने से लाभ मिलता है |
  7. महिलाओं में अधिक मासिक स्त्राव और श्वेत प्रदर के लिए और पुरुषों में धातुस्त्राव हो रोकने के लिए बेल पत्र और जीरा पीसकर दूध के साथ पीना चाहिए|

निरोगी मन्त्र

1. खाना खाने के 90 मिनट बाद पानी पिये व जरूर पियें
2. फ्रीज या बर्फ (ठंडा) का पानी न पिये
3. पानी को हमेशा घुट घुट कर पिये ( गर्म दूध की तरह)
4. सुबह उठते ही बिना कुल्ला किये गुनगुना पानी पिये
5.खाना खाने से 48 मिनट पहले पानी पिये
6. सुबह में खाना खाने के तुरंत बाद पीना हो तो जूस पिये
7. दोपहर में खाना खाने के तुरंत बाद पीना हो तो मठ्ठा पिये
8. रात्रि में खाना खाने के तुरंत बाद पीना हो तो दूध पिये
9. उरद की दाल के साथ दही न खाए (उरद की दाल का दही बडा )
10.हमेशा दक्षिण या पूर्व में सर करके सोये
11. खाना हमेशा जमीन पर सुखासन में बैठ कर खाये
12. अलमुनियम के बर्तन का बना खाना न खाए(प्रेशर कुकर का )
13.कभी भी मूत्र मल जम्हाई प्यास छिक नींद इस तरह के 13 वेग को न रोकें
14. दूध को खड़े हो कर पानी व अन्य तरल पेय को बैठ कर पिये
15. मैदा चीनी रिफाइंड तेल और सफेद नमक का प्रयोग न करे ( इसकी जगह पर गुड , काला या सेंधा नमक का प्रयोग करे)


[ *विटामिन के फायदे और नुकसान*

विटामिन ‘ए’ के फायदे :

सबसे पहले विटामिन ‘ए’ की चर्चा करते हैं। हमारे आहार में थोड़ी बहुत मात्रा में ये विटामिन मौजूद रहते हैं।

आहार के जो तत्व हमारी नेत्र की ज्योति और त्वचा को स्वस्थ रखते हैं उन तत्वों को विटामिन ‘ए’ कहा गया है।

विटामिन ‘ए’ की बनी बनाई टेबलेट, केपसूल आदि दवाइयां बाज़ार में सब जगह मिलती हैं पर प्राकृतिक रूप से हरी शाक-सब्ज़ी, फल आदि शाकाहारी भोजन से विटामिन प्राप्त करना सर्वश्रेष्ठ और अधिक गुणकारी है। हरी शाक सब्ज़ी में पाया जाने वाला तत्व ‘केरोटीन’ शरीर में पहुंच कर विटामिन ‘ए’ के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

आधुनिक चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि प्रति दिन 5000 यूनिट विटामिन ‘ए’ मिल जाना पर्याप्त है।

विटामिन ‘ए’ की कमी के लक्षण और रोग :

✦ विटामिन ‘ए’ की कमी या इसका बिल्कुल अभाव होने से हमारी नज़र कम या बिल्कुल खत्म हो सकती है और हम अन्धे हो सकते हैं।

✦ बाल्यकाल में बच्चों के आहार में इस विटामिन की कमी से उनकी नज़र कमज़ोर हो जाती है, वे अन्धे हो सकते हैं।

✦ रात में न दिखाई देना ‘रतौंधी‘ यानी रात का अन्धापन कहलाता है यह भी इसी विटामिन के अभाव के कारण होता है।

विटामिन ‘ए’ के स्रोत

इसके लिए आप शाक सब्ज़ी में चौलाई, मैथी, पत्ता गोभी आदि हरी पत्ती वाली शाक सब्ज़ी खाइए।

फलों में आम, पपीता, टमाटर, तरबूज, गाजर, सीताफल, नारंगी आदि तथा मख्खन व दूध का सेवन कीजिए। बासे, अधिक पके हुए और ज्यादा धूप खाए हुए पदार्थों में यह विटामिन नष्ट हो जाता है।

विटामिन-बी (समूह) :

विटामिन बी के तत्व बहुत व्यापक और विभिन्न गुण वाले पाये गये अतः वैज्ञानिकों ने इनके वर्ग तय करके एक ‘विटामिन बी’ समूह यानी विटामिन बी ग्रुप निर्धारित किया। इनमें विटामिन बी1, बी2, बी6, और बी 12 शामिल हैं।  मेडिकल भाषा में बी-वन को थायमिन, बी-टू को रिबोफ्लेविन कहते हैं।

विटामिन-बी (ग्रुप) की कमी के लक्षण और रोग

✦ बी-वन की कमी से ‘बेरी-बेरी’ नामक रोग होता है जिसमें मांस पेशियां कमज़ोर हो जाती हैं, पैरों में सूजन आती है सांस फूलती है और दिल की धड़कन बढ़ जाती है। मशीन से साफ़ किये हुए व पालिश किये हुए चावल के अधिक प्रयोग से भी यह रोग होता है।

✦ विटामिन बी-वन की कमी से हाथ पैर सुन्न होना सामान्य कमज़ोरी, भूख की कमी, लकवा होना, चक्कर आना व पेट की गड़बड़ी आदि व्याधियां होती हैं।

✦ हृदय पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

✦ विटामिन बी-टू की कमी से जीभ फटना, होंठों के कोने फटना, होठों पर सूखी पपड़ी जमना, जीभ की रंगत खराब होना, सारे शरीर में शिथिलता व थकावट आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

✦ सर्वाधिक प्रभाव बी-12 का यह होता है कि इसकी कमी से रक्त की कमी हो जाती है, एनेमिक हालत हो जाती है।

✦ बच्चों के शरीर का विकास रुक जाता है।

✦ नस नाड़ी व स्नायविक संस्थान कमज़ोर पड़ जाता है। त्वचा का रंग पीला पड़ने लगता है।

✦ कमज़ोरी, चक्कर, पाचन शक्ति में खराबी,दुबलापन, जीभ चिकनी, अन्दर पेट में दाह चिड़चिड़ापन आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

बी-12 में कोबाल्ट और सायनाइड दो तत्व पाये जाने से इसे सायनोकोबालमिन भी कहा जाता है।

विटामिन-बी (ग्रुप) के स्रोत :

यह विटामिन छिलके सहित सब्ज़ी, गेहूं की चोकर, साबुत अंकुरित अन्न, दाल, मूंगफली, खमीर आदि में पाया जाता है। अतः इनका यथोचित सेवन करना चाहिए।

विटामिन-सी के फायदे :

बच्चों के दांत निकलते समय और गर्भवती स्त्री के लिए विटामिन-सी बहुत ज़रूरी होता है।

विटामिन-सी की कमी के लक्षण और रोग

इस विटामिन की कमी से मसूढ़े फूलना, जोड़ों में सूजन व दर्द, त्वचा रोग और स्कर्वी रोग आदि उपद्रव होते हैं।

विटामिन-सी के स्रोत :

विटामिन-सी सबसे अधिक आंवला और अमरूद में तो होता ही है, नींबू, सन्तरे, टमाटर, पालक, हरी सब्ज़ियों, अंकुरित मूंग और कच्चे दूध में भी पाया जाता है।

विटामिन डी के फायदे :

यह हमारे शरीर की हड्डियों और दांतों को मज़बूत बनाता है। इसकी सहायता से कैल्शियम का पाचन होता है।

विटामिन डी के स्रोत :

विटामिन ‘डी’ सर्वाधिक रूप से सूर्य की किरणों से मिलता है। आहार में मख्खन, पनीर, दूध,हरी शाक सब्ज़ी और दही  से मिलता है।

विटामिन-ई के फायदे :

यह शरीर के विकास में उपयोगी है और प्रजनन शक्ति प्रदान करने वाला है

विशेष कर छोटे बच्चों के शरीर में समुचित विकास के लिए यह ज़रूरी होता है।

विटामिन-ई के स्रोत :

यह दूध, गेहूं की चोकर, दाल, तिल में पाया जाता है।

हमारे आहार वाले पदार्थों में विटामिन एवं अन्य पोषक तत्व बने रहें और नष्ट न हो जाएं इसके लिए हमें कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना चाहिए।

विशेष बातें :
*
✶ सभी पदार्थ सब्ज़ी फल आदि ताज़े ही खाना चाहिए।*

✶सब्ज़ी धोकर बिना छीले यानी छिलके सहित ही पकाएं और सब्ज़ी उबाल कर पानी फेंकें नहीं बल्कि इस पानी को आटे में डाल लें क्योंकि इस पानी में पोषक तत्व रहते हैं।

✶ कच्चे ही खाये जाने वाले फल या शाक, सलाद आदि को तभी काटें जब खाना हो।

✶ काट कर देर तक रखे हुए, बासे, फिर से गर्म किये हुए, ज्यादा पकाये हुए, अधिक तले हुए और तेज़ मिर्च मसालों से युक्त पदार्थों के तत्व नष्ट हो जाते हैं।

✶ सब्ज़ी आदि को जल्दी पकाने के लिए खाने का सोडा प्रयोग न करें।

✶ आटा मोटा पिसवाएं और चोकर सहित गूंधे।

✶ भोजन में अधिक से अधिक हरी शाक सब्ज़ी का सेवन करें।

✶ बिना पकाये हुए कच्ची और ताज़ी सब्ज़ी ही खाना और भी अधिक गुणकारी होता है।
[मौसम बदलने वाला है जिससे रोगप्रतिरोधक कम क्षमता वाले इंसान इस रोग से ग्रसित हो सकते हैं :- सर्दी नजला जुकाम

कारण

पेट की कब्जियत,उदर रोग,स्वसन क्रिया में कमी,टॉन्सिल का बढ़ना,नासा रोग व शारीरिक दुर्बलता , वातावरण का बदलाव

अपथ्य

वर्षा में भीगना, ठंड लगने,कड़ी धूप में घूमना,रात्रि में जागना दिन में सोना,पंखे कूलर आदि से एकाएक पसीने को सुखाना, धूल के माहौल में रहना

लक्षण

बेचैनी होना,सारे शरीर मे पीड़ा होना,नाक आँख से पानी बहना, छीके आना,सिर भारी होना,सिर दर्द होना,खुश्क खाँसी होना,आवाज बैठना,भोजन से अरुचि,नाक से दुर्गंध आना या दुर्गंध स्राव होना,मन्द बुखार का रहना

जुकाम एक संक्रामक रोग है

इलाज

अडूसे के पत्ते का स्वरस सेवन से

नारंगी के छिलके का काढ़ा बनाकर सेवन से

कायफल सूंघने से

गर्म पानी के सेवन से

तुलसी का रस या काढ़ा से

5 6 कालीमिर्च गर्म पानी के साथ सेवन से

अजवायन भून कर सूंघने व भाप लेने से

हल्दी का काढ़ा मस्तक पर लगाने व हल्दी युक्त गर्म दूध पीने से

गर्म दूध में काला या सेंधा नमक मिलाकर पीने से

सौठ को पानी मे उबालकर पीने से

बालू या उपले पर भुने गर्म चने को खा कर 3 घण्टे तक पानी न पीने से जुकाम एक बार मे ही ठीक हो जाता है

सरसो तेल नाक और तलवो में लगाने से

पान के पत्ते पर तेल लगाकर गर्म कर छाती पर बांधने से जुकाम व सीने के दर्द नष्ट होता है

किलौंजी या अजवायन का नस्य लेने से

सेंधा नमक हींग बच गूगल मैनसिल व बायबिड़ग के समान मात्रा के चूर्ण को सूंघने से

बड़ी हरड़ के छिलके के चूर्ण या दालचीनी या अदरक रस या तुलसी रस या त्रिफला 5 से 10 ग्राम इतनी ही मात्रा के शहद में मिलाकर चाटने से

तुलसी के रस को गुड़ की चाशनी में मिलाकर रख कर शर्बत बना कर पीने से

मुलेठी 5 ग्राम दालचीनी 2 ग्राम इलायची 5 नग को कूट कर 400 ग्राम में उबाले आधा रहने पर मिश्री या गुड़ मिलाकर सेवन करें

नियमित गौमूत्र सेवन से

नियमित पंचगव्य नासिक धृत या देशी गाय का पुराना घी नाक में डालने व छाती की मालिस कर सिकाई करने से

हींग सौठ मुलेठी एक एक ग्राम की बराबर मात्रा का चूर्ण को गुड़ या शहद के साथ गोली बनाकर सुबह शाम एक एक गोली सेवन से

फुला सुहागा एक ग्राम शहद के साथ चाट कर गरम पानी पीने से

3ग्राम कालीमिर्च 50 ग्राम दही में 20 ग्राम गुड़ मिलाकर सेवन करने से

गेहूँ के आटे के चोकर को एक गिलास पानी मे उबालकर छानकर दूध व गुड़ के साथ मिलाकर पीने से

एक कप दूध में आधा चम्मच हल्दी मिलाकर गर्म कर पीने से नजला जुकाम व गले की हर समस्या ठीक होती है

तुलसी लौंग अदरक कालीमिर्च का काढ़ा बनाकर गुड़ मिलाकर सेवन करने से

सुबह शाम लौंग का पानी बनाकर पीने से

सौठ कालीमिर्च पीपल समान मात्रा के चूर्ण में चौगुना गुड़ मिलाकर चने के बराबर गोलियां बनाकर सेवन करने से सुबह शाम

रीठे का छिलका चूर्ण व कायफल चूर्ण को बराबर मात्रा में सूंघने से

तेजपत्ता को जलाकर सूंघने से

20 ग्राम शहद आधा ग्राम सेंधा नमक आधा ग्राम हल्दी को 80 ml पानी मे गर्म कर रात को सोते समय पीने से

जिन्हें बार बार नजला जुकाम होने की शिकायत हो उन्हें परहेज का खास ख्याल रखना चाहिए साथ ही अपने शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु घरेलू में तुलसी गिलोय दलचीनि मेथी देशी घी गौमूत्र जैसे अमृततुल्य का सेवन करना चाहिए साथ ही विरुद्ध आहार के सेवन से बचना चाहिए जैसे गर्म के बाद ठंडे व ठंडे के बाद गर्म

वन्देमातरम
[ मौसम बदलने वाला है जिससे रोगप्रतिरोधक कम क्षमता वाले इंसान इस रोग से ग्रसित हो सकते हैं :- सर्दी नजला जुकाम

कारण

पेट की कब्जियत,उदर रोग,स्वसन क्रिया में कमी,टॉन्सिल का बढ़ना,नासा रोग व शारीरिक दुर्बलता , वातावरण का बदलाव

अपथ्य

वर्षा में भीगना, ठंड लगने,कड़ी धूप में घूमना,रात्रि में जागना दिन में सोना,पंखे कूलर आदि से एकाएक पसीने को सुखाना, धूल के माहौल में रहना

लक्षण

बेचैनी होना,सारे शरीर मे पीड़ा होना,नाक आँख से पानी बहना, छीके आना,सिर भारी होना,सिर दर्द होना,खुश्क खाँसी होना,आवाज बैठना,भोजन से अरुचि,नाक से दुर्गंध आना या दुर्गंध स्राव होना,मन्द बुखार का रहना

जुकाम एक संक्रामक रोग है

इलाज

अडूसे के पत्ते का स्वरस सेवन से

नारंगी के छिलके का काढ़ा बनाकर सेवन से

कायफल सूंघने से

गर्म पानी के सेवन से

तुलसी का रस या काढ़ा से

5 6 कालीमिर्च गर्म पानी के साथ सेवन से

अजवायन भून कर सूंघने व भाप लेने से

हल्दी का काढ़ा मस्तक पर लगाने व हल्दी युक्त गर्म दूध पीने से

गर्म दूध में काला या सेंधा नमक मिलाकर पीने से

सौठ को पानी मे उबालकर पीने से

बालू या उपले पर भुने गर्म चने को खा कर 3 घण्टे तक पानी न पीने से जुकाम एक बार मे ही ठीक हो जाता है

सरसो तेल नाक और तलवो में लगाने से

पान के पत्ते पर तेल लगाकर गर्म कर छाती पर बांधने से जुकाम व सीने के दर्द नष्ट होता है

किलौंजी या अजवायन का नस्य लेने से

सेंधा नमक हींग बच गूगल मैनसिल व बायबिड़ग के समान मात्रा के चूर्ण को सूंघने से

बड़ी हरड़ के छिलके के चूर्ण या दालचीनी या अदरक रस या तुलसी रस या त्रिफला 5 से 10 ग्राम इतनी ही मात्रा के शहद में मिलाकर चाटने से

तुलसी के रस को गुड़ की चाशनी में मिलाकर रख कर शर्बत बना कर पीने से

मुलेठी 5 ग्राम दालचीनी 2 ग्राम इलायची 5 नग को कूट कर 400 ग्राम में उबाले आधा रहने पर मिश्री या गुड़ मिलाकर सेवन करें

नियमित गौमूत्र सेवन से

नियमित पंचगव्य नासिक धृत या देशी गाय का पुराना घी नाक में डालने व छाती की मालिस कर सिकाई करने से

हींग सौठ मुलेठी एक एक ग्राम की बराबर मात्रा का चूर्ण को गुड़ या शहद के साथ गोली बनाकर सुबह शाम एक एक गोली सेवन से

फुला सुहागा एक ग्राम शहद के साथ चाट कर गरम पानी पीने से

3ग्राम कालीमिर्च 50 ग्राम दही में 20 ग्राम गुड़ मिलाकर सेवन करने से

गेहूँ के आटे के चोकर को एक गिलास पानी मे उबालकर छानकर दूध व गुड़ के साथ मिलाकर पीने से

एक कप दूध में आधा चम्मच हल्दी मिलाकर गर्म कर पीने से नजला जुकाम व गले की हर समस्या ठीक होती है

तुलसी लौंग अदरक कालीमिर्च का काढ़ा बनाकर गुड़ मिलाकर सेवन करने से

सुबह शाम लौंग का पानी बनाकर पीने से

सौठ कालीमिर्च पीपल समान मात्रा के चूर्ण में चौगुना गुड़ मिलाकर चने के बराबर गोलियां बनाकर सेवन करने से सुबह शाम

रीठे का छिलका चूर्ण व कायफल चूर्ण को बराबर मात्रा में सूंघने से

तेजपत्ता को जलाकर सूंघने से

20 ग्राम शहद आधा ग्राम सेंधा नमक आधा ग्राम हल्दी को 80 ml पानी मे गर्म कर रात को सोते समय पीने से

जिन्हें बार बार नजला जुकाम होने की शिकायत हो उन्हें परहेज का खास ख्याल रखना चाहिए साथ ही अपने शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु घरेलू में तुलसी गिलोय दलचीनि मेथी देशी घी गौमूत्र जैसे अमृततुल्य का सेवन करना चाहिए साथ ही विरुद्ध आहार के सेवन से बचना चाहिए जैसे गर्म के बाद ठंडे व ठंडे के बाद गर्म

वन्देमातरम

कालसर्प दोष के प्रभाव

राहु एवं केतु के एक ओर सभी ग्रह उपस्थित रहने पर बनता है ।
काल = मृत्यु अर्थात समय
सर्प = सांप
वैदिक रूप से राहु का अधिदेवता – ‘काल’ है। प्रति अधिदेवता ‘सर्प‘ है।
केतु का अधिदेवता ‘चित्रगुप्त ‘प्रति अधिदेवता‘ ब्रह्मा है।
सामान्यत : इसका प्रभाव जीवन भर होता है। लेकिन राहु अथवा केतु की दशा व अन्तर्दशा में इसके प्रभाव फलो का प्रादुर्भाव होते देखा जा सकता है ।
कालसर्प योग की गणना हमेशा राहु से लेकर केतु तक ही करना चाहिए, जो याद रखने योग्य है।
कालसर्प बारह प्रकार का होता है

अनन्त कालसर्प दोष (प्रथम से सप्तम भाव)
जीवन में प्रभाव : शारीरिक एवं मानसिक रूप से कष्ट, जीवन में संकट, वैवाहिक परेशानी, बाल्यकाल में या बड़े होने तक पेट में कीड़े होना, शौच संबंधी कष्ट।
कुलिका कालसर्प दोष (दिव्त्य से अटषम भाव)
जीवन में प्रभाव : राहु अशुभ होने पर कुटुम्ब, धन संबंधी परेशानियां, गुप्त रोग होने की संभावना, वाणी पर संयम न रख पाना, मुख, गले, साँस संबंधी रोग। शुभ होने पर अचानक धन की प्राप्ति, गढ़ा धन, लॉटरी, सट्टे इत्यादि से धन मिलने के योग, पारिवारिक खुशहाली, समाज में प्रतिष्ठा।
वासुकी कालसर्प दोष (तीसरे से नवम भाव)
जीवन में प्रभाव : भाई – बन्धुओं के कारण परेशानीयो का सामना, विदेश से लाभ, तीसरे भाव में उच्च का राहु होने पर भाग्य, बुद्धि और कर्म में अधिक लाभ, प्रतिष्ठा का बढ़ना, राजनीति में सफलता, भाई – बहिन का सहयोग। गुरु की युति अथवा द्रष्टि होने पर भाई बहिन का सुख प्राप्त होता है, साहस में वृद्धि, उच्च लोगो से संबंध। शुभ फल स्त्री राशियो में तथा अशुभ फल पुरुष राशियों में।
शंखपाल कालसर्प दोष (चतुर्थ से दशम भाव)
जीवन में प्रभाव : माता, स्थायी संपत्ति, वाहन सुख और पेट प्रभावित होते है चतुर्थ भाव का स्वामी निर्बल और राहु नीच राशि का होने पर जीवन में संघर्ष अधिक और आराम में कमी। मेहनत का फल नही मिलता गुर्दों व पथरी का रोग, माता – पिता व परिवार को परेशानी होती है । राहु उच्च का होने पर या कम होने पर मनुष्य अपने निवास स्थान की अपेक्षा विदेश में सुखी, कुण्डलीं में लग्न, दूसरा,, तृतीय, चतुर्थ व् कन्या राशि में शुभ फल देता है।
पदम् कालसर्प दोष (पंचम से ग्यारहवे भाव)
जीवन में प्रभाव : शिक्षा, संतान, मेहनत का फल, जनता से सम्मान तथा शारीर में लीवर व आंत पर प्रभाव। आर्थिक स्थिति असुन्तुलित, सन्तान का देरी से होना या कन्या संतान का अधिक होना। पंचमेश नीच, वक्री, अस्त या राहु नीच राशि वृश्चिक या शत्रु राशि में होने पर, शुभ ग्रह की द्रष्टि न होने पर जीवन के शुरू के आधे भाग तक दुख भोगना। शुभ होने पर गुप्त विद्याओं का ज्ञान तथा मंगल राहु का योग होने पर कुटनीति का प्रयोग।
महा पदम कालसर्प (छठे से बारहवे भाव)
जीवन में प्रभाव : रोग, शत्रु, मामा, मौसी पर प्रभाव, षष्ठेश निर्बल एवं पापग्रस्त या राहु के नीच होने पर गुप्त रोग या मामा अथवा मौसी की अकाल म्रत्यु, व्यर्थ खर्चे, गुप्त शत्रु भय तथा मातुल – पक्ष की हानि, दाँत एवं नेत्र संबंधी रोग, तरक्की में बाधा। उच्च का राहु होने पर शत्रु का स्वयं ही शत्रुता को मिटाना, दूर हट जाना, विदेश यात्रा, तर्क शक्ति प्रबल, बुद्धि को प्रयोग करने पर शत्रुओं का दमन अर्थात विजय प्राप्त करना।
तक्षक कालसर्प दोष (सप्तम से प्रथम भाव)
जीवन में प्रभाव : वैवाहिक जीवन, सांझेदारी व दादा पर प्रभाव, सप्तमेश का छठे, आठवे या अशुभ भाव में होने पर या राहु नीच होने पर विवाह सुख में कमी, सांझेदारी में कष्ट, अधिक परिश्रम करने पर ही धन प्राप्ति, वैवाहिक जीवन में कलह का वातावरण बनना। शुभ होने पर एक जगह से संबंध टूटने पर दूसरी जगह वैवाहिक सुख प्राप्त होना, विवाह जल्दी होना और स्त्री राशि का राहु शुभ फल देता है।
कर्कोटक कालसर्प दोष (अष्टम से द्वितीय)
जीवन में प्रभाव : मानसिक तनाव, आर्थिक तंगी, घरेलू उलझने अधिक होना। शुभ होने पर लम्बी आयु, जीवन के आधा बीतने पर भूमि, मकान, वाहन, सुयोग्य संतान सुख की प्राप्ति।
शंखनाद कालसर्प दोष (नवम से तृतीय भाव)
जीवन में प्रभाव : भाग्य उदय देरी से होना, लॉटरी, जुआ, सट्टेबाज़ी, शेयर, रिश्तेदारों से धोखा, धन का अपव्यय और नाश । उच्च का होने पर स्वाभिमानी, जादू, तंत्र – मंत्र – यंत्र ज्योतिष, लॉटरी, शेयर आदि में रूचि, धनवृद्धि जैसी योजनाओ के संचालक।
पातक कालसर्प दोष (दशम से चतुर्थ भाव)
जीवन में प्रभाव : आधा जीवन बीतने के बाद सफलता प्राप्ति, पिता सुख में कमी, झूठे आरोप झेलना। शुभ प्रभाव होने पर उच्च प्रतिष्ठित संस्थान में महत्वपूर्ण पद प्राप्त करना, योग्यता बल पर भूमि, स्त्री आदि सुखो को प्राप्त करना।
विषाक्त कालसर्प दोष (ग्यारहवे से पंचम)
जीवन में प्रभाव : पिता या संतान पक्ष के कारण चिंतित, गुप्त आर्थिक परेशानिया, प्रथम कन्या संतान की संभावना, पारिवारिक सुख व सहयोग में कमी, अधिक मेहनत करने पर भी धन लाभ में कमी। शुभ होने पर लॉटरी, सट्टा, शेयर आदि में और अनेक यात्राओं द्वारा धन लाभ एवं एश्वर्य की प्राप्ति।
शेषनाग कालसर्प दोष (बारहवे से छठा भाव)
जीवन में प्रभाव : सिर, नेत्र आदि अंगो में कष्ट, धन अत्यधिक खर्च होना, कुसंगति के कारण व्यसन आदि का शिकार हो जाना। शुभ होने पर व्ययशेष (बारहवे भाव का स्वामी) शुभ भाव में होने से जातक अपने जन्म स्थान से दूर भाग्योदय करता है। आध्यात्म, धार्मिक, लेखन, ज्योतिष आदि के क्षेत्र में विशेष रूचि।
[ जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!

नवधा भक्ति

“ नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥“

भक्ति के प्रधान दो भेद हैं —एक साधन रूप, जिसको वैध और नवधा के नाम से भी कहा गया है और दूसरा साध्यरूप, जिसको प्रेमा-प्रेमलक्षणा आदि नामों से कहा है | इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है |
अब यह विचार करा चाहिए कि वैध-भक्ति किसका नाम है | इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि स्वामी जिससे संतुष्ट हो उस प्रकार के भाव से भावित होकर उसकी आज्ञा के अनुसार आचरण करने का नाम वैध-भक्ति है | शास्त्रों में उसके अनेक प्रकार के लक्षण बताए गये हैं |

तुलसीकृत रामायण में शबरी के प्रति भगवान् श्रीरामचंद्र जी कहते हैं:—-

“ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥“

( पहली भक्ति है संतों का सत्संग । दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम ॥ तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥ मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझपर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है । छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना ॥ सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना । आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना ॥ नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना ) |

श्रीमद्भागवत में प्रह्लाद जी ने कहा है :-

“श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||… (७.५.२३)

( भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण और प्रभावादि का श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान् की चरणसेवा, पूजन और वंदन एवं भगवान् में दासभाव सखाभाव और अपने को समर्पण कर देना—यह नौ प्रकार की भक्ति है )|

इस प्रकार शास्त्रों में भक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार से अनेक लक्षण बतलाए गए हैं, किन्तु विचार करने पर सिद्धांत में कोई भेद नहीं है | तात्पर्य सबका प्राय: एक ही है कि स्वामी जिस भाव और आचरण से संतुष्ट हो,उसी प्रकार के भावों से भावित होकर उनकी आज्ञा के अनुकूल आचरण करना ही सेवा यानी भक्ति है ||

(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “नवधा भक्ति”–कोड:२९२, से उद्धृत)

॥ मन्त्रिकोपनिषद ॥

शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में, उपनिषदकार का कहना यह है कि ‘जीवात्मा’ स्वयं को परमात्मा का अंश अनुभव करता हुआ भी उसे सहज रूप से देख नहीं पाता। जब इस शरीर का मोह और अहंकार हटता है, तभी उसे अनुभव कर पाना सम्भव है। प्राय: सामान्य साधक अविनाशी और अविचल माया का ही ध्यान करते हैं। उसमें संव्याप्त परमात्मा का अनुभव करने का प्रयास नहीं करते, जबकि ध्यान उसी का किया जाना चाहिए। उपनिषदों में उसी को द्वैत-अद्वैत, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म और विराट रूपों में गाया गया है। सभी मन्त्रों का मर्म वही ‘ब्रह्म’ है। यहाँ उसे ब्रह्मचारी, स्तम्भ की भांति अडिग, संसार में समस्त श्रीवृद्धि को देने वाला और विश्व-रूपी छकड़े (गाड़ी) को खींचने वाला कहा गया है। इसमें कुल बीस मन्त्र हैं। ~~

यस्मिन्सर्वमिदं प्रोतं ब्रह्म स्थावरजंगमम्।
तस्मिन्नेव लयं यान्ति स्त्रवन्त्य: सागरे यथा॥17॥
यस्मिन्भावा: प्रलीयन्ते लीनाश्चाव्यक्ततां ययु:।
पश्यन्ति व्यक्ततां भूयो जायन्ते बुद्बुदा इव॥18॥

अर्थात् यह सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत् उस ‘ब्रह्म’ में ही समाया हुआ है जिस प्रकार बहती हुई नदियां समुद्र में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् भी उस ‘ब्रह्म’ में लय हो जाता है। जिस प्रकार पानी का बुलबुला पानी से उत्पन्न होता है और पानी में ही लय हो जाता है, उसी प्रकार जिससे सम्पूर्ण जीव-पदार्थ जन्म लेते हैं, उसी में लय होकर अदृश्य हो जाते हैं। ज्ञानीजन उसी को ‘ब्रह्म’ कहते हैं। जो विद्वान, अर्थात् ब्रह्मवेत्ता उस ब्रह्म को जानते हैं, वे उसी में लीन हो जाते हैं। उसमें लीन होकर वे अव्यक्त रूप से सुशोभित होते हैं।

राहु ग्रह शांति के उपाय :-

  1. अपने पास सफेद चन्दन अवश्य रखना चाहिए। सफेद चन्दन
    की माला भी धारण की जा
    सकती है। प्रतिदिन सुबह चन्दन का
    टीका भी लगाना चाहिए। अगर हो सके तो
    नहाने के पानी में चन्दन का इत्र डाल कर नहाएं।
  2. राहु की शांति के लिए श्रावण मास में रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करना सर्वोत्तम है।
  3. शनिवार को कोयला, तिल, नारियल, कच्चा दूध, हरी
    घास, जौ, तांबा बहती नदी में प्रवाहित
    करें।
  4. बहते पानी में शीशा अथवा नारियल
    प्रवाहित करें।
  5. नारियल में छेद करके उसके अन्दर ताम्बे का पैसा डालकर
    नदी में बहा दें |
  6. बहते पानी में तांबे के 43 टुकड़े प्रवाहित करें।
  7. नदी में लकड़ी का कोयला प्रवाहित
    करें।
  8. नदी में पैसा प्रवाहित करें।
  9. एक नारियल + 11 बादाम (साबुत) काले वस्त्र में बांधकर जल
    में प्रवाहित करें।
  10. हर बुधवार को चार सौ ग्राम धनियां पानी में
    बहाएं।
  11. कुष्ठ रोगी को मूली का दान दें।
  12. काले कुत्ते को मीठी रोटियां खिलाएं।
  13. मोर व सर्प में शत्रुता है अर्थात सर्प, शनि तथा राहू के
    संयोग से बनता है। यदि मोर का पंख घर के पूर्वी और
    उत्तर-पश्चिम दीवार में या अपनी जेब व
    डायरी में रखा हो तो राहू का दोष कभी
    भी नहीं परेशान करता है, मोरपंख
    की पूजा करें या हो सके तो उसे हमेशा अपने पास
    रखें।
  14. रात को सोते समय अपने सिरहाने में जौ रखें जिसे सुबह
    पंक्षियों को दें।
  15. सरसों तथा नीलम का दान किसी
    भंगी या कुष्ठ रोगी को दें।
  16. राहु ग्रह से पीडि़त व्यक्ति को रोजाना कबूतरों को
    बाजरे में काले तिल मिलाकर खिलाना चाहिए।
  17. गिलहरी को दाना डालें।
  18. दो रंग के फूलों को घर में लगाएं और गणेश जी को
    अर्पित भी करें।
  19. कुष्ठ रोगियों को दो रंग वाली वस्तुओं का दान करें।
  20. हर मंगलवार या शनिवार को चीटियों को
    मीठा खिलाएं।
  21. अगर राहू आपकी कुंडली में 12 वे
    घर में बैठा है तो भोजन रसोई घर में करें।
  22. अष्टधातु का कड़ा दाहिने हाथ में धारण करना चाहिए।
  23. जमादार को तम्बाकू का दान करना चाहिए।
  24. अपने पास ठोस चाँदी से बना वर्गाकार टुकड़ा रखें।
  25. श्री काल हस्ती मंदिर
    की यात्रा।
  26. चाय की कम से कम 200 ग्राम
    पत्ती 18 बुधवार दान करने से रोग कारक
    अनिष्टकारी राहु स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।
  27. नेत्रेत्य कोण में पीले फूल लगायें।
  28. अपने घर के वायु कोण (उत्तर-पश्चिम) में एक लाल झंडा
    लगाएं।
  29. यदि क्षय रोग से पीड़ित हों तो गोमूत्र से जौ को धो
    कर एक बोतल में रखें तथा गोमूत्र के साथ उस जौ से अपने दाँत
    साफ करें।
  30. शनिवार के दिन अपना उपयोग किया हुआ कंबल
    किसी गरीब को दान करें।
  31. अमावस्या को पीपल पर रात में 12 बजे
    दीपक जलाएं।
  32. शिवजी पर जल, धतुरा के बीज, चढ़ाएं
    और सोमवार का व्रत करें।
  33. यदि राहु चंद्रमा के साथ हो तो पूर्णिमा के दिन
    नदी की धारा में नारियल, दूध, जौ,
    लकड़ी का कोयला, हरी दूब, यव, तांबा,
    काला तिल प्रवाहित करें।
  34. यदि राहु सूर्य के साथ हो तो सूर्य ग्रहण के समय कोयला
    और सरसों नदी की धारा में प्रवाहित करना
    चाहिए।
  35. अगर आपकी कुंडली में
    भी राहु और शनि एक साथ बैठे है तो यह उपाय
    करे। हर रोज मजदूरों को तम्बाकु की पुडिया दान दे।
    ऐसा 43 दिन करे आपको कभी यह योग बुरा फल
    नहीं देगा।
  36. यदि राहु सूर्य के साथ हो तो जौ को दूध या गौ मूत्र से धोकर
    बहते पानी में बहायें।
  37. शुक्र राहु की युति होने पर दूध एवं हरे नारियल
    का दान करें : शरीर के विभिन्न अंगों पर तिलों का फल
    〰️〰️🔸〰️〰️🔸🔸〰️〰️🔸〰️〰️
    भारतीय ज्योतिष में सामुद्रिक शास्त्र में शरीर के विभिन्न अंगों पर पाए जाने वाले तिलों का सामान्य फल इस प्रकार है।

१- ललाट पर तिल – ललाट के मध्य भाग में तिल निर्मल प्रेम की निशानी है। ललाट के दाहिने तरफ का तिल किसी विषय विशेष में निपुणता, किंतु बायीं तरफ का तिल फिजूलखर्ची का प्रतीक होता है। ललाट या माथे के तिल के संबंध में एक मत यह भी है कि दायीं ओर का तिल धन वृद्धिकारक और बायीं तरफ का तिल घोर निराशापूर्ण जीवन का सूचक होता है।

२- भौंहों पर तिल – यदि दोनों भौहों पर तिल हो तो जातक अकसर यात्रा करता रहता है। दाहिनी पर तिल सुखमय और बायीं पर तिल दुखमय दांपत्य जीवन का संकेत देता है।

३- आंख की पुतली पर तिल – दायीं पुतली पर तिल हो तो व्यक्ति के विचार उच्च होते हैं। बायीं पुतली पर तिल वालों के विचार कुत्सित होते हैं। पुतली पर तिल वाले लोग सामान्यत: भावुक होते हैं।

४- पलकों पर तिल – आंख की पलकों पर तिल हो तो जातक संवेदनशील होता है। दायीं पलक पर तिल वाले बायीं वालों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होते हैं।

५- आंख पर तिल – दायीं आंख पर तिल स्त्री से मेल होने का एवं बायीं आंख पर तिल स्त्री से अनबन होने का आभास देता है।

६- कान पर तिल – कान पर तिल व्यक्ति के अल्पायु होने का संकेत देता है।

७- नाक पर तिल – नाक पर तिल हो तो व्यक्ति प्रतिभासंपन्न और सुखी होता है। महिलाओं की नाक पर तिल उनके सौभाग्यशाली होने का सूचक है।

८- होंठ पर तिल – होंठ पर तिल वाले व्यक्ति बहुत प्रेमी हृदय होते हैं। यदि तिल होंठ के नीचे हो तो गरीबी छाई रहती है।

९- मुंह पर तिल – मुखमंडल के आसपास का तिल स्त्री तथा पुरुष दोनों के सुखी संपन्न एवं सज्जन होने के सूचक होते हैं। मुंह पर तिल व्यक्ति को भाग्य का धनी बनाता है। उसका जीवनसाथी सज्जन होता है।

१०- गाल पर तिल – गाल पर लाल तिल शुभ फल देता है। बाएं गाल पर कृष्ण वर्ण तिल व्यक्ति को निर्धन, किंतु दाएं गाल पर धनी बनाता है।

११- जबड़े पर तिल – जबड़े पर तिल हो तो स्वास्थ्य की अनुकूलता और प्रतिकूलता निरंतर बनी रहती है।
ठोड़ी पर तिल – जिस स्त्री की ठोड़ी पर तिल होता है, उसमें मिलनसारिता की कमी होती है।

१२- कंधों पर तिल – दाएं कंधे पर तिल का होना दृढ़ता तथा बाएं कंधे पर तिल का होना तुनकमिजाजी का सूचक होता है।

१३- दाहिनी भुजा पर तिल – ऐसे तिल वाला जातक प्रतिष्ठित व बुद्धिमान होता है। लोग उसका आदर करते हैं।

१४- बायीं भुजा पर तिल – बायीं भुजा पर तिल हो तो व्यक्ति झगड़ालू होता है। उसका सर्वत्र निरादर होता है। उसकी बुद्धि कुत्सित होती है।

१५- कोहनी पर तिल – कोहनी पर तिल का पाया जाना विद्वता का सूचक है।

१६- हाथों पर तिल – जिसके हाथों पर तिल होते हैं वह चालाक होता है। गुरु क्षेत्र में तिल हो तो सन्मार्गी होता है। दायीं हथेली पर तिल हो तो बलवान और दायीं हथेली के पृष्ठ भाग में हो तो धनवान होता है। बायीं हथेली पर तिल हो तो जातक खर्चीला तथा बायीं हथेली के पृष्ठ भाग पर तिल हो तो कंजूस होता है।

१७- अंगूठे पर तिल – अंगूठे पर तिल हो तो व्यक्ति कार्यकुशल, व्यवहार कुशल तथा न्यायप्रिय होता है।

१८- तर्जनी पर तिल – जिसकी तर्जनी पर तिल हो, वह विद्यावान, गुणवान और धनवान किंतु शत्रुओं से पीड़ित होता है।

१९- मध्यमा पर तिल – मध्यमा पर तिल उत्तम फलदायी होता है। व्यक्ति सुखी होता है। उसका जीवन शांतिपूर्ण होता है।

२०- अनामिका पर तिल – जिसकी अनामिका पर तिल हो तो वह ज्ञानी, यशस्वी, धनी और पराक्रमी होता है।
कनिष्ठा पर तिल – कनिष्ठा पर तिल हो तो वह व्यक्ति संपत्तिवान होता है, किंतु उसका जीवन दुखमय होता है।

२१- जिसकी हथेली में तिल मुठ्ठी में बंद होता है वह बहुत भाग्यशाली होता है लेकिन यह सिर्फ एक भ्रांति है। हथेली में होने वाला हर तिल शुभ नहीं होता कुछ अशुभ फल देने वाले भी होते हैं।

२२- सूर्य पर्वत मतलब रिंग फिंगर के नीचे के क्षेत्र पर तिल हो तो व्यक्ति समाज में कलंकित होता है। किसी की गवाही की जमानत उल्टी अपने पर नुकसान देती है। नौकरी में पद से हटाया जाना और व्यापार में घाटा होता है। मान- सम्मान पर प्रभावित होता है और नेत्र संबंधित रोग तंग करते हैं।

२३- बुध पर्वत यानी लिटिल फिंगर के नीचे के क्षेत्र पर तिल हो तो व्यक्ति को व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। ऐसा व्यक्ति हिसाब-किताब व गणित में धोखा खाता है और दिमागी रूप से कमजोर होता है।

२४- लिटिल फिंगर के नीचे वाला क्षेत्र जो हथेली के अंतिम छोर पर यानी मणिबंध से ऊपर का क्षेत्र जो चंद्र क्षेत्र कहलाता है, इस क्षेत्र पर यदि तिल हो तो ऐसे व्यक्ति के विवाह में देरी होती है। प्रेम में लगातार असफलता मिलती है। माता का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है।

२५- गले पर तिल – गले पर तिल वाला जातक आरामतलब होता है। गले पर सामने की ओर तिल हो तो जातक के घर मित्रों का जमावड़ा लगा रहता है। मित्र सच्चे होते हैं। गले के पृष्ठ भाग पर तिल होने पर जातक कर्मठ होता है।

२६- छाती पर तिल – छाती पर दाहिनी ओर तिल का होना शुभ होता है। ऐसी स्त्री पूर्ण अनुरागिनी होती है। पुरुष भाग्यशाली होते हैं। शिथिलता छाई रहती है। छाती पर बायीं ओर तिल रहने से भार्या पक्ष की ओर से असहयोग की संभावना बनी रहती है। छाती के मध्य का तिल सुखी जीवन दर्शाता है। यदि किसी स्त्री के हृदय पर तिल हो तो वह सौभाग्यवती होती है।

२७- कमर पर तिल – यदि किसी व्यक्ति की कमर पर तिल होता है तो उस व्यक्ति की जिंदगी सदा परेशानियों से घिरी रहती है।

२८- पीठ पर तिल – पीठ पर तिल हो तो जातक भौतिकवादी, महत्वाकांक्षी एवं रोमांटिक हो सकता है। वह भ्रमणशील भी हो सकता है। ऐसे लोग धनोपार्जन भी खूब करते हैं और खर्च भी खुलकर करते हैं। वायु तत्व के होने के कारण ये धन संचय नहीं कर पाते।

२९- पेट पर तिल – पेट पर तिल हो तो व्यक्ति चटोरा होता है। ऐसा व्यक्ति भोजन का शौकीन व मिष्ठान्न प्रेमी होता है। उसे दूसरों को खिलाने की इच्छा कम रहती है।

३०- घुटनों पर तिल – दाहिने घुटने पर तिल होने से गृहस्थ जीवन सुखमय और बायें पर होने से दांपत्य जीवन दुखमय होता है।

३१- पैरों पर तिल – पैरों पर तिल हो तो जीवन में भटकाव रहता है। ऐसा व्यक्ति यात्राओं का शौकीन होता है। दाएं पैर पर तिल हो तो यात्राएं सोद्देश्य और बाएं पर हो तो निरुद्देश्य होती हैं।
समुद्र विज्ञान के अनुसार जिनके पांवों में तिल का चिन्ह होता है उन्हें अपने जीवन में अधिक यात्रा करनी पड़ती है। दाएं पांव की एड़ी अथवा अंगूठे पर तिल होने का एक शुभ फल यह माना जाता है कि व्यक्ति विदेश यात्रा करेगा। लेकिन तिल अगर बायें पांव में हो तो ऐसे व्यक्ति बिना उद्देश्य जहां-तहां भटकते रहते हैं।
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नमस्कार

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योग हेल्थ कैर
Dr. Yash Italia
MO: 9586349568
(अडाजन,सूरत,गुजरात)
[: विमारियां पर दो शब्द

 किसी भी चिकित्सा को करने के पूर्व विमारीयों के कारणों को जानना वेहद जरूरी होता है । चिकित्सा से श्रेष्ठ है कारण को जानना । आजकल नगरों शहरों में डॉक्टरों की लंबी कतारें हैं , अनगिनत हॉस्पिटल हैं , सोसल मीडिया पर भी सैकड़ो लेख हैं  लेकिन क्या उनसे रोगी स्वस्थय हो रहे हैं ..?

विमारियों के प्रकार : – विमारियां दो प्रकार की होती है । जबकि आयुर्वेद दृष्टिकोण से रोगियों को तीन श्रेणी में रखा गया है । जैसे –

(१) साध्य रोग :- जो रोग होते ही हमें पता चलती है और परहेज़ ओर सावधानी से जल्दी ठीक भी हो जाती हे
(२) कष्ट साध्य रोग :- वह होती है जो सह सह के ठीक करनी पड़ती बहुत यत्न करना पड़ता है ।
(३) असाध्य रोग :- जो कुछ भी कर लो ठीक ही नहीं होती अंत में प्राण चले जाते है ।

१. इलाज योग्य – जिन विमारियों पर अब तक शोध हो चुका है उन विमारीयों का इलाज संभव है । जिन वीमारीयों की उत्पत्ति जीवाणु , वैक्टीरिया , पैथोजन , वायरस , फंगस द्वारा होती है जैसे – टी बी , टायफाइड , टिटनेस , मलेरिया , न्यूमोनिया आदि । इन विमारीयों के कारणों का पता लगने के कारण इनकी दवाएं विकसित की जा चुकी हैं इसलिए इनका इलाज स्थायी रूप से संभव है ।

२. असाध्य विमारियां – इन विमारियों की उत्पत्ति किसी जीवाणु , बैक्टीरिया , पैथोजन , फंगस , वॉयरस आदि से नहीं होती इसलिए इनके कारणों का पता नहीं लग पाया है । जब इनके कारणों का ज्ञात नहीं हुआ तो इनकी दवायें भी विकसित नहीं हो पायी हैं । जैसे – अम्लपित्त ( Stomach Acidity ) , दमा ( Asthama ), गठिया , जोड़ों का दर्द (Arthritis ) , कर्क रोग ( Cancer ) , कब्ज , मधुमेह , बबासीर , भगन्दर , रक्तार्श ( Piles , Fistula ), आधाशीशी ( Migrain ), सिर -दर्द , प्रोस्टेट आदि ।

   इसे अनेक विमारियां है जिस दिन शुरू हो गयी मरने तक दवा खाते रहो तब भी ठीक नहीं होगी , कारण कोई जीवाणु व वायरस नहीं मिला जिससे दवा बन सके । इसीलिए यह आसध्य विमारियां (Chronic , Long term , Incurable Diseases ) की संज्ञा दी गयी ।

१. पेट की अम्लता – पाचन तंत्र की अम्लता पाचन तंत्र में किसी खास विकार के कारण के कारण उत्पन्न होता है । आधुनिक विज्ञान में इसको दूर करने के लिए क्षारीय गोलियां दी जाती है । यह गोलियां जाकर पेट में अम्ल को खत्म करता है, और हम सोचते हैं हम ठीक हो गए । इसे एक वैज्ञानिक Le Chatilier’s के एक सिद्धांत से समझा जा सकता है । In a system at equilibrium , if a constraint is brought, the equilibrium shift to a direction so as to annal the effect.
यानि जैसे -जैसे आप किसी दवाई द्वारा पेट की एसिडिटी मिटायेंगे वैसे – वैसे पेट एसिड बनाता जायेगा और वीमारी को दीर्घकालिक असाध्य रूप में बदलकर अल्सर का रूप ले लेगी ।

२. दमा / उच्च रक्तचाप : – ब्लडप्रेशर हो जाने पर इसमें जो भी दवायें दी जाती है उससे रक्तवाहनियां लचीली हो जाये या उनका व्यास बढ़ जाये । जैसे व्यास बढेगा वहाँ दूसरा सिद्धांत लागू हो जायेगा इससे रक्त का दबाव तो कम हो जायेगा क्योंकि फ्लो बढ़ गया , लेकिन इस दवा से रक्तवाहनियां जो की लचीली प्रवर्ति होती हैं वह फिर उसी अवस्था में आ जाती है लिहाजा फिर गोली लो , फिर धमनियां फैलाओ इस प्रकार यह क्रम दीर्घकालिक रोग रूप ले लेता है ।

हृदय रक्त वाहनियों के अवरोध ( Coronary Artery Blockin ) : – ऐसा होने पर डॉक्टर बलून एंजियोप्लास्टी करते हैं जिसमें जिस जगह ब्लॉक रहता है उस जगह स्टेंट डालकर रक्त के परिसंचरण के लिए खोला जाता है , अब रक्त उस स्टेंट यानि स्प्रिंग के भीतर से जाना शुरू करता है । यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि उस ब्लॉक को दूर करने के लिए कोई भी उपचार नही किया जाता है । लिहाजा 22% लोगों के रक्त नलिकाओं में फिर से ब्लॉक आ जाता है । जो कि Wound Healing व Foreign Body के कारण होता है । जब स्प्रिंग के आगे -पीछे पुनः ब्लॉक बन गए तो डॉक्टर के पास बायपास के अलावा कोई उपचार नहीं बचता है , लेकिन समस्या का स्थाई समाधान नहीं मिलता है ।

४. बबासीर / मूल व्याधि ( Piles ) :- यहां पर भी गुदा द्वार के बाहर आये हुए मस्सों को शल्य क्रिया द्वारा काट दिया जाता है जबकि गुदाद्वार के अंदर स्थति रक्तवाहनी के नर्व का कोई भी इलाज नहीं किया जाता जिससे यह समस्या पुनः आ जाती है ।

५. गठिया / जोड़ों का दर्द ( Arthritis ) :- आधुनिक विज्ञान के पास इस वीमारी के लिये या तो पेन किलर है या फिर पें किलर काम करना बंद कर दे तो डॉक्टर स्टेराइड देना शुरू कर देते हैं । स्टेराइड खुद 20 से 25 बीमारियों को जन्म देता है । ज्यादा घुटनो के दर्द में घुटना बदलकर कृतिम घुटना लगा दिया जाता है ।
इस प्रकार आप देखेंगे कि आसध्य विमारियों के इलाज में उत्पन्न कारणों को नजर-अंदाज करके वीमारी को आसध्य बना दिया जाता है ।

ऐसी स्थति क्यों ..?

जब जो शरीर भगवान ने मनुष्य को सतयुग में दिया था वही शरीर कलियुग में भी है वही श्वसन, वही रक्तपरिसंचरण, वही हँसना -रोना, मल-मूत्र विसर्जन उस समय भी था और आज के समय में भी है कहीं कोई अंतर नहीं है।

हम जब भी कोई भी मशीन लेते हैं बिना उसका मैनुअल पढ़े उसको ऑपरेट नहीं करते फिर यह कैसी विडम्बना है कि मानव जैसी जटिल मशीन को जो अपने जैसे मशीन को जन्म देने की क्षमता रखती हो उसको बिना किसी ऑपरेटिंग मैनुअल ( गीता, आयुर्वेद ) पढ़े चलाते हैं ।

ध्यान रहे किसी कुत्ते को, गाय को, बंदर को या अपने शिशु को कोई हानिकारक चीज खिलाइये वह तुरंत थूक देता है, या जबरदस्ती से खिलाया तो उल्टी कर देगा या फिर चमड़ी रोग, फोड़ा – फुंसी, मल -मूत्र , पसीने के रास्ते बाहर आ जायेगा। लेकिन जैसे – जैसे हम बड़े हो रहे हैं अपनी जीभ के सुख के लिये नित्य-प्रति हानिकारक पदार्थ को ग्रहण करते हुये प्रकृति के नियमो की उपेक्षा करते हुए दीर्घकालिक असाध्य विमारीयों के चक्रव्यूह में स्वतः फंसते जा रहे हैं [ संसार के लोग गणित विद्या को समझते हैं। भूगोल खगोल चिकित्सा वनस्पति विज्ञान आदि को समझते हैं । सारे संसार में एक जैसा गणित विज्ञान भूगोल खगोल आदि पढ़ाया जाता है , इसी कारण से इन विद्याओं के क्षेत्र में कभी संसार के लोग नहीं झगड़ते ।
परंतु आश्चर्य एवं विडम्बना की बात यह है कि जो जीवन का सबसे मुख्य विषय है धर्म और ईश्वर, इनके बारे में संसार के लोग ठीक प्रकार से नहीं समझते , और ना ही समझने का प्रयास करते। इसीलिए धर्म और ईश्वर के संबंध में संसार में सबसे अधिक झगड़े अन्याय अत्याचार शोषण इत्यादि होते हैं ।
जैसे गणित विज्ञान भूगोल आदि विषय तर्कपूर्ण हैं, ऐसे ही धर्म भी तर्कपूर्ण है ।
इसे भी तर्क की कसौटी पर कसें ।
तर्क के साथ साथ धर्म या सत्य को समझने के लिए एक और महत्वपूर्ण अंग है ; वह है अंतःकरण की शुद्धि । इसके बिना धर्म समझ में नहीं आता। इसलिये अपने अंतःकरण की शुद्धि भी अवश्य करें , तो आपको धर्म समझ में आ सकता है । कठिन अवश्य है , परंतु असंभव नहीं है ।
तर्क से विचार करें, अपने मन को शुद्ध करें , धर्म को जानने की इच्छा और प्रयत्न करें तो अवश्य ही धर्म समझ में आएगा । फिर उस सत्य धर्म का आचरण करें , जिसका फल होगा , आप स्वयं भी सुखी रहेंगे तथा दूसरों को भी सुख देंगे –
: The Amazing Power of Manasa Puja
Manasap Puja or Mental Worship

Internalization of Vedic rituals was a significant step in the history of Hinduism. It freed people from the constraints of time, place, and resources and contributed to the growth of devotional theism and spiritual practices. By internalizing the same processes that were hidden in the ritual model and mentally visualizing them in all details, the seers found a better way to communicate with gods and make their prayers heard.

One of the significant outcomes of it was the practice of mental worship or manasa puja. It elevated Vedic religion as the religion of both the body and the mind, and shifted its emphasis from outward, ritual practices (karmakanda) to internal, spiritual practices (jnanakanda). In turn, it led to the flowering of the Upanishadic philosophy and the emergence of transformative ascetic practices such as tapas, austerities, yoga, and meditation.

It also led to the realization that ritual knowledge constituted inferior knowledge (avidya), while the knowledge of Self gained through mental and spiritual practices was superior (vidya). Vedic people did not completely discard ritual knowledge, since they found it useful to perform their obligatory duties and pursue the triple goals of dharma, artha and kama to discharge their worldly obligations to gods, ancestors, seers, etc. For that they chose karma yoga and karma sanyasa yoga as the best means. At the same time, they also focused upon their most important goal, Moksha, or liberation and prepared themselves for it. Upon reaching old age, they retired from active life and practiced jnanayoga, sanyasayoga and jnana-karma-sanyasa yoga to liberate themselves from the cycle of births and deaths.

Significance of mental worship
The world offers numerous distractions, and the human mind is easily drawn to them. Desire-ridden actions do not pacify it. Neither the wealth obtained through the grace of the gods nor the appeasement of sensory pleasures leads to peace of mind, since your mind has a great appetite for desires, and is not easily satisfied. Rituals and sacrificial ceremonies by themselves may keep it distracted from the reality of life, but they cannot permanently cure the afflictions and modifications to which you are susceptible.

Hence, if you want to tame your mind and its numerous drives and desires, you need a better and more powerful approach. It is possible when your mind is directly engaged in divine worship with concentration and devotion. For that, the best technique has so far been the mental worship or manasa puja, also known as spiritual worship or mystic worship, which consists of worshipping God or gods with your mind (manas) and intellect (buddhi).

The Upanishads declare that internal worship (manasa puja) is far superior to external worship. Your prayers are more effective when they are uttered silently in your mind rather than chanted loudly. In imagination and visualization your mind has the power of God to manifest things and enjoy them. It is a creating and manifesting entity, without form and without spatial limits. You can create anything and accomplish any task in your imagination. The Vedas recognize this inherent power of humans, and therefore prescribe mental worship as the best means to develop a close affinity with your personal deity. The Vedic seers approved this practice. Modern masters such as Sri Ramakrishna Paramahansa, Yogananda, and Swami Vivekananda found it very useful to grow the divine presence in them.

You are the lord of your inner universe, just as Brahman is of the external. You can set the stage and create necessary conditions within your mind to perform any mental task. You can control that world and all the objects in it with your resolve. Hence, if you set your mind upon it, you would easily manifest your personal God in your inner world and awaken your own spirituality. As you continue the practice, your mind will manifest the same reality in the external world also, and show you the same God hidden in all manifestation. It is why manasa puja is considered a very effective method of internal worship.

Manasapuja is more than dhyana (contemplation) or mindfulness. It is an enhanced and enriched form of dhyana and mindfulness practice, in which you combine ritual worship with concentration, meditation, and devotion to form a personal bond with the deity of your choice. Its continued practice leads to mental purity, stability, concentration, tranquility, and self-absorption. Most importantly, it awakens the deity hidden in you and brings him into the center of your life. He also becomes the silent witness and partner of your thoughts and actions, and will keep you safe from the hazards of karma.

How to practice mental worship

Once you understand the basic approach, manasapuja is easy to practice. During the worship you visualize all the steps and processes that are involved in traditional methods of divine worship and replicate them in your mind faithfully. For example, in its practice your body becomes the temple, the sacrificial pit, or the place of worship. Your heart becomes the sanctum or the altar where the deity resides, your mind acts as the provider or the host of the sacrifice (yajamana) and you (aham) become the priest, who makes the offerings. While there is no fixed method to perform it, the following are a few important steps which you may find useful.

  1. Sit in a comfortable, clean place, and take a few deep breaths to relax your mind and body.
  2. Close your eyes and enter a meditative state. The calmer you are, the easier it will be for you to practice visualization.
  3. Mentally recite a few cleansing mantras or prayers, or continuously chant Aum, until your mind is stabilized.
  4. Visualize the deity of your choice in whatever form you may like and offer him a seat of gold either in front of you, or inside your heart.
  5. Let the deity radiate as much light as you can visualize and let his presence have a calming and soothing effect upon you.
  6. Profusely thank the deity for paying the visit and willing to be your guest for the duration of the worship.
  7. After that, you can add as many details to your method as possible to make it look real and reverential. You can visualize various offerings that you make in traditional worship (puja), starting with water, washing of feet, applying of sandal paste and perfume, gifting of robes of gold, and activities such as lighting the lamp, burning the incense, uttering prayers of praise, salutations, prostrations, and offerings of food. Since the offerings are made out of your mind, there is no end to what you can offer in the richness and abundance of your imagination.
  8. At the end of it, you may visualize spending quality time with the deity, and engage him in a mental conversation in which you may seek his advice, guidance, help, or protection.
  9. Before you bid him farewell, make sure that you express your gratitude for his visit, and seek his forgiveness for any mistakes or lapses you might have committed during the worship.

Thus, imagination and visualization play an important role in manasa puja. They also help you to concentrate and stabilize your mind upon the object of your veneration. If you regularly and sincerely practice it, it will have a beneficial effect upon you, your life, and circumstances. You will also develop a clear and sharp mind, intuition, devotion, and divine qualities such as sameness, tolerance, compassion, resolve, humility, nonviolence, patience, and so on.

The symbolism involved in manasa puja
In his book “Meditation and its Practices,” 1 Swami Adiswarananda, quoted the advice given by Sri Ramakrishna Paramahansa to his disciples, in which he explained how one should conduct the mental worship, which he called the mystic worship. The following are a few important points from his discourse that are worth mentioning.

  1. The deity should be offered the heart as his seat.
  2. Feelings and emotions of the mind should be used to wash his feet.
  3. The mind should be used to create the offerings, such as ritual water, sandal paste, perfume, incense, fragrant air, flowers, leaves, etc.
  4. The element space (akasa) should be offered as the clothing for the deity.
  5. The heart (devotion) should be offered as the flower.
  6. The breath (prana) should be offered as light, fire, and food offerings.
  7. All the positive and negative qualities such as deceit, anger, egoism, knowledge, compassion, etc., should also be placed before the deity as the offerings of flowers.

The practice of mental worship leads to another important spiritual practice. It will align you to the divinecentric way of life, which is popularly known as the Hindu way of life, and make your life an expression of devotion. It will also lead to the purification of your mind and body, and contribute to peace and inner stability. It consists of substituting the mental form of the deity that you worship with your own body. You make your body a temple as well as the object of worship because it houses the Self (atman), who is the inner lord (Isvara) and an aspect of Brahman.

Using the same analogy, you can take your worship a step still higher and deeper into yourself and cultivate a reverential attitude towards your body, extending to it the same honors that you give to the form or image of the deity in a temple or a place of worship. Whatever that your body enjoys, you can make it into an offering to God, and make your very living an act of worship. Whenever you eat, drink, breath, think, enjoy, sleep, wear clothes, take a bath, or perform any action, you can make each of them an offering to your inner Self, and thereby exonerate yourself from all the karmic consequences arising from them. This is indeed what we call the Hindu way of life, which the scriptures consider the highest form of divine worship and spiritual practice.
[01/07, 00:58] Daddy: It is beneficial to reflect every day on what we are really seeking, the conditions that we have been gathering, and the methods that we have been applying. There is no harm in taking a little time every day from our schedules to reflect. We can start by taking just five minutes a day – it’s not much – and the practice itself doesn’t need to involve intensive methods or rigorous procedures. All we need to do is sit, or stand in a place where we feel comfortable, quiet and peaceful. Then, simply meditate and reflect, with a calm state of mind and body. Reflect on the past 24 hours – nothing more – reflect on exactly what has happened. Do this in an unemotional way, without judgment. By doing so, there is so much benefit. You will understand more about yourself, the various interesting aspects of your life. Not only will this help your memory, gain clarity, but it can truly help you understand yourself, and the true nature of happiness.

Karmapa
[God is approachable. Talking to Him and listening to His words in the scriptures, thinking of Him, feeling His presence in mediation, you will see that gradually the Unreal becomes real, and this world which you think is real will be seen as unreal.
There is no joy like that realization.
Paramhansa Yogananda❤️
[ The Master said: ‘Everything that exists is God.’ The pupil understood it literally, but not in the true spirit. While he was passing through a street, he met with an elephant. The driver (mahut) shouted aloud from his high place, ‘Move away, move away!’ The pupil argued in his mind, ‘Why should I move away? I am God, so is the elephant also God. What fear has God of Himself?’ Thinking thus he did not move. At last the elephant took him up by his trunk, and dashed him aside. He was severely hurt, and going back to his Master, he related the whole adventure. The Master said, ‘All right, you are God. The elephant is God also, but God in the shape of the elephant-driver was warning you also from above. Why did you not pay heed to his warnings?’
: Magic of the Sun Mantra
Learning to Tolerate Great Heat

Many years later, when Jagadisha Sastri and I were walking down a street together in Bombay, it occurred to me that I had never seen him wear any kind of footwear. The black tar roads of the city got very hot in the summer and I found it hard to believe that anyone could walk comfortably without wearing sandals or shoes. I turned to him and asked, “Sastriji, your feet must have got burned a lot walking on these roads, isn’t that so?” “No, no,” he answered, “I have already got ravi raksha (protection from the sun) from Bhagavan. I may walk in any amount of heat but nothing ever happens to me.”

I naturally asked, “How did you get this ravi raksha?”

By way of an answer, Sastriji told me a long story. “One day, right in the middle of the afternoon, Bhagavan took his kamandalu, got up and told me, ‘Jagadisha, come with me to walk about on the mountain.’

“‘But it’s so hot,’ I protested. ‘How can we move about in such weather?’ I argued like this because I wanted to escape from the trip. “Bhagavan found my excuse unsatisfactory. ‘You can move about in just the same way that I move about,’ he said.

“‘But my feet will burn!’ I exclaimed. I didn’t have any footwear with me and I didn’t relish the idea of walking about over the burning rocks. “‘Will my feet not burn as well?’ replied Bhagavan, obviously feeling that this was not a serious obstacle. Bhagavan never wore any kind of footwear. He could walk on the toughest terrain in any weather without feeling the least discomfort. “‘But yours is a different case,’ I answered, alluding to the fact that Bhagavan never needed footwear.

“‘Why? Am I not a man with two feet, just like you?’ asked Bhagavan. ‘Why are you unnecessarily scared? Come on! Get up!’

“Having realized that it was useless to argue any more, I got up and started walking with Bhagavan. The exposed stones had become so hot because of the severe heat of the sun that walking on them made my feet burn. For some time I bore the suffering, but when it became unbearable I cried out, ‘Bhagavan, my feet are burning so much! I cannot walk one more step. Even standing here is difficult. On all sides it is raining fire!’ “Bhagavan was not impressed. ‘Why are you so scared?’ he asked. “‘If I remain in this terrible heat for any more time,’ I replied, ‘my head will crack open because of the heat and I will definitely die!’ I was not joking. I really was afraid of dying.

“Bhagavan smiled and said in a very quiet and deep voice, ‘Jagadisha, give up your fear and listen. You must have the bhavana (mental conviction and attitude) that you are the sun. Start doing japa (internal repetition) of the mantra Suryosmi (I am the sun) with the conviction that it is really true. You will soon see the effect of it. You yourself will become Surya Swarupa, that is, you will have the characteristics of the sun. Can the sun feel the heat of the sun?’

“I followed this instruction of Bhagavan and started doing japa of this sun mantra because there was no other way to be saved from the burning heat. In a short time I began to feel the effect of the japa. The severity of the heat lessened and eventually I began to experience, instead of the severe heat, a pleasing coolness. As the burning sensation diminished I found that I was able to walk quickly alongside Bhagavan. By the time we had both reached Skandashram I found that my feet were not at all burnt as I had continued the mantra japa right up till the end of the walk. “Later, I was astonished to discover that the effect of chanting this mantra was permanent. Though I no longer chant it, I have never again suffered from the heat of the sun. I can now walk in the summer on the tar roads of a city like Bombay with bare feet.”

Chhaganlal V. Yogi
: The mind does not exist apart from the Self, that is, it has no independent existence. ~ Sri Ramana Maharshi

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