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स्‍वामी विवेकानंद के 10 प्रेरणादायक विचार (Swami Vivekananda Quotes in Hindi)

  1. ”खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है.”
  2. ”ब्रह्मांड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं. वो हमी हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है.”
  3. ”जब तक जीना, तब तक सीखना, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है.”
  4. ”किसी की निंदा न करें. अगर आप मदद के लिए हाथ बढ़ा सकते हैं, तो जरूर बढाएं. अगर नहीं बढ़ा सकते तो अपने हाथ जोड़िए, अपने भाइयों को आशीर्वाद दीजिये और उन्हें उनके मार्ग पे जाने दीजिए.”
  5. ”जब लोग तुम्हे गाली दें तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो. सोचो, तुम्हारे झूठे दंभ को बाहर निकालकर वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहे हैं.”
  6. ”ज्ञान स्वयं में वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है.”
  7. ”जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते.”
  8. ”हम जितना ज्यादा बाहर जाएं और दूसरों का भला करें, हमारा ह्रदय उतना ही शुद्ध होगा और परमात्मा उसमे बसेंगे.”
  9. ”तुम्हें अंदर से बाहर की तरफ विकसित होना है. कोई तुम्‍हें पढ़ा नहीं सकता, कोई तुम्‍हें आध्यात्मिक नहीं बना सकता. तुम्हारी आत्मा के आलावा कोई और गुरू नहीं है.”
  10. ”दिल और दिमाग के टकराव में दिल की सुनो.”
    : जगन्नाथ मन्दिर, पुरी

नाम: श्री जगन्नाथ मंदिर
निर्माता: कलिंग राजा अनंतवर्मन् चोडगंग देव
जीर्णोद्धारक: 1174 ई. में ओडिआ शासक अनंग भीम देव
निर्माण
काल :
देवता: भगवान जगन्नाथ
वास्तु
कला: कलिंग वास्तु
स्थान: पुरी, ओडिशा
पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है।
इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है।
यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है।
इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है।
यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है।
इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।

पूर्व भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।

पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।

यहाँ की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क का अद्भुत सूर्य मन्दिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौल-गिरि और उदय-गिरि की गुफाएँ, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफाएँ, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मन्दिर दर्शनीय है। पुरी और चन्द्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चन्दन तालाब, जनकपुर और नन्दनकानन अभ्यारण् बड़ा ही मनोरम और दर्शनीय है। शास्त्रों और पुराणों में भी रथ-यात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है। स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता 7 बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं। सब मनिसा मोर परजा (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार है। भगवान जगन्नाथ तो पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महायान का शून्य और अद्वैत का ब्रह्म समाहित है। उनके अनेक नाम है, वे पतित पावन हैं।

महाप्रसाद का गौरव
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रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है।

जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। विभिन्न धर्मो और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है। यह स्थान जगन्नाथ जी की मौसी का है। मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मन्दिर है, वहाँ लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैताधिपति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है। लोगों की अपार भीड़ इस मान-मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठती हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ के नारों से गूँज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को विजयादशमी और वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।

श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है – द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।

माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।

अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्व वत हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।

रथ यात्रा का प्रारंभ
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कहते हैं कि राजा इन्द्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मन्दिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली।

महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, ‘व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।’ आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मन्दिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है।

कल्पना और किंवदंतियों में जगन्नाथ पुरी का इतिहास अनूठा है। आज भी रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और बुद्ध भी। अनेक कथाओं और विश्वासों और अनुमानों से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भुत समन्वय है। जगन्नाथ मन्दिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मन्दिर में अशोक स्तम्भ को शिव लिंग का रूप देने की कोशिश की गई है। इसी प्रकार भुवनेश्वर के ही मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मन्दिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। यहाँ जैन और बुद्ध की भी मूर्तियाँ हैं पुरी का जगन्नाथ मन्दिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है। मन्दिर कि पीछे विमला देवी की मूर्ति है जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है, वहीं मन्दिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियों चौंकाने वाली है। यहाँ तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत साक्ष्य भी हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के २४ तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इन्द्रियों और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।

सम्पूर्ण भारत में वर्षभर होने वाले प्रमुख पर्वों होली, दीपावली, दशहरा, रक्षा बंधन, ईद, क्रिसमस, वैशाखी की ही तरह पुरी का रथयात्रा का पर्व भी महत्त्वपूर्ण है। पुरी का प्रधान पर्व होते हुए भी यह रथयात्रा पर्व पूरे भारतवर्ष में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो लोग पुरी की रथयात्रा में नहीं सम्मिलित हो पाते वे अपने नगर की रथयात्रा में अवश्य शामिल होते हैं। रथयात्रा के इस महोत्सव में जो सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य उपस्थित होता है उसे प्राय: सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम का महत्व स्वत: परिलक्षित होता है। उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं। श्री जगन्नाथपुरी की यह रथयात्रा सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखी जाती
: 🌱

स्कन्द पुराण में एक अद्भुत श्लोक है:

अश्वत्थमेकम् पिचुमन्दमेकम्
न्यग्रोधमेकम् दश चिञ्चिणीकान् ।

कपित्थबिल्वाऽऽमलकत्रयञ्च
पञ्चाऽऽम्रमुप्त्वा नरकन्न पश्येत्।।

अश्वत्थः = पीपल
पिचुमन्दः = नीम
न्यग्रोधः = वट वृक्ष
चिञ्चिणी = इमली
कपित्थः = कैंथा
बिल्वः = बेल
आमलकः = आंवला
आम्रः = आम
उप्ति = पेड़/पौधे लगाना

जो भी इन सारे वृक्षों का वृक्षारोपण करता है उसे कभी भी नर्क का दर्शन नहीं होता है। अर्थात उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

जय श्री राधेश्याम जी
#शालीग्राम भगवान विष्णु..🎇🎇

शालीग्राम एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है, जिसका प्रयोग परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में भगवान #विष्णु जी का आह्वान करने के लिए किया जाता है। शालीग्राम आमतौर पर पवित्र नदी की तली या किनारों से एकत्र किया जाता है। शिव भक्त पूजा करने के लिए शिव लिंग के रूप में लगभग गोल या अंडाकार शालिग्राम का उपयोग करते हैं।

वैष्णव (हिन्दू) पवित्र नदी गंडकी में पाया जाने वाला एक गोलाकार, आमतौर पर काले रंग के एमोनोइड जीवाश्म को भगवान विष्णु के प्रतिनिधि के रूप में उपयोग करते हैं। शालीग्राम को प्रायः ‘शिला’ कहा जाता है। शिला शालिग्राम का छोटा नाम है जिसका अर्थ “#पत्थर” होता है। शालीग्राम भगवान विष्णु का ही एक प्रसिद्ध नाम है। इस नाम की उत्पत्ति के सबूत #नेपाल के एक दूरदराज़ के गाँव से मिलते है जहां विष्णु को #शालीग्रामम् के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में शालीग्राम को सालग्राम के रूप में जाना जाता है। शालीग्राम का सम्बन्ध सालग्राम नामक गाँव से भी है जो #गंडक नामक नदी के किनारे पर स्थित है तथा यहां से ये पवित्र पत्थर भी मिलता है।

पद्मपुराण के अनुसार – गण्डकी अर्थात #नारायणी नदी के एक प्रदेश में शालिग्राम स्थल नाम का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँ से निकलनेवाले पत्थर को शालिग्राम कहते हैं। शालिग्राम शिला के स्पर्शमात्र से करोड़ों जन्मों के पाप का नाश हो जाता है। फिर यदि उसका पूजन किया जाय, तब तो उसके फल के विषय में कहना ही क्या है; वह भगवान के समीप पहुँचाने वाला है।

★बहुत जन्मों के पुण्य से यदि कभी गोष्पद के चिह्न से युक्त श्रीकृष्ण शिला प्राप्त हो जाय तो उसी के पूजन से मनुष्य के पुनर्जन्म की समाप्ति हो जाती है। ★पहले शालिग्राम-शिला की परीक्षा करनी चाहिये; यदि वह काली और चिकनी हो तो उत्तम है। यदि उसकी कालिमा कुछ कम हो तो वह मध्यम श्रेणी की मानी गयी है। और यदि उसमें दूसरे किसी रंग का सम्मिश्रण हो तो वह मिश्रित फल प्रदान करने वाली होती है। जैसे सदा काठ के भीतर छिपी हुई आग मन्थन करने से प्रकट होती है, उसी प्रकार भगवान विष्णु सर्वत्र व्याप्त होने पर भी शालिग्राम शिला में विशेष रूप से अभिव्यक्त होते हैं। ★जो प्रतिदिन द्वारका की शिला-गोमती चक्र से युक्त बारह शालिग्राम मूर्तियों का पूजन करता है, वह वैकुण्ठ लोक में प्रतिष्ठित होता है। ★जो मनुष्य शालिग्राम-शिला के भीतर गुफ़ा का दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्प के अन्ततक स्वर्ग में निवास करते हैं। ★जहाँ द्वारकापुरी की शिला- अर्थात गोमती चक्र रहता है, वह स्थान वैकुण्ठ लोक माना जाता है; वहाँ मृत्यु को प्राप्त हुआ मनुष्य विष्णुधाम में जाता है। ★जो शालग्राम-शिला की क़ीमत लगाता है, जो बेचता है, जो विक्रय का अनुमोदन करता है तथा जो उसकी परीक्षा करके मूल्य का समर्थन करता है, वे सब नरक में पड़ते हैं। इसलिये शालिग्राम शिला और गोमती चक्र की ख़रीद-बिक्री छोड़ देनी चाहिये। ★शालिग्राम-स्थल से प्रकट हुए भगवान शालिग्राम और द्वारका से प्रकट हुए गोमती चक्र- इन दोनों देवताओं का जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष मिलने में तनिक भी सन्देह नहीं है। ★द्वारका से प्रकट हुए गोमती चक्र से युक्त, अनेकों चक्रों से चिह्नित तथा चक्रासन-शिला के समान आकार वाले भगवान शालिग्राम साक्षात चित्स्वरूप निरंजन परमात्मा ही हैं। ओंकार रूप तथा नित्यानन्द स्वरूप शालिग्राम को नमस्कार है।

शालिग्राम स्वरूप:: ★जिस शालिग्राम-शिला में द्वार-स्थान पर परस्पर सटे हुए दो चक्र हों, जो शुक्ल वर्ण की रेखा से अंकित और शोभा सम्पन्न दिखायी देती हों, उसे भगवान श्री गदाधर का स्वरूप समझना चाहिये। ★संकर्षण मूर्ति में दो सटे हुए चक्र होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ मोटा होता है। ★प्रद्युम्न के स्वरूप में कुछ-कुछ पीलापन होता है और उसमें चक्र का चिह्न सूक्ष्म रहता है। ★अनिरुद्ध की मूर्ति गोल होती है और उसके भीतरी भाग में गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह द्वार भाग में नील वर्ण और तीन रेखाओं से युक्त भी होती है। ★भगवान नारायण श्याम वर्ण के होते हैं, उनके मध्य भाग में गदा के आकार की रेखा होती है और उनका नाभि-कमल बहुत ऊँचा होता है। ★भगवान नृसिंह की मूर्ति में चक्र का स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल होता है तथा वे तीन या पाँच बिन्दुओं से युक्त होते हैं। ब्रह्मचारी के लिये उन्हीं का पूजन विहित है। वे भक्तों की रक्षा करनेवाले हैं। ★जिस शालिग्राम-शिला में दो चक्र के चिह्न विषम भाव से स्थित हों, तीन लिंग हों तथा तीन रेखाएँ दिखायी देती हों; वह वाराह भगवान का स्वरूप है, उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है। भगवान वाराह भी सबकी रक्षा करने वाले हैं। ★कच्छप की मूर्ति श्याम वर्ण की होती है। उसका आकार पानी की भँवर के समान गोल होता है। उसमें यत्र-तत्र बिन्दुओं के चिह्न देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठ-भाग श्वेत रंग का होता है। ★श्रीधर की मूर्ति में पाँच रेखाएँ होती हैं, वनमाली के स्वरूप में गदा का चिह्न होता है। ★गोल आकृति, मध्यभाग में चक्र का चिह्न तथा नीलवर्ण, यह वामन मूर्ति की पहचान है। ★जिसमें नाना प्रकार की अनेकों मूर्तियों तथा सर्प-शरीर के चिह्न होते हैं, वह भगवान अनन्त की प्रतिमा है। ★दामोदर की मूर्ति स्थूलकाय एवं नीलवर्ण की होती है। उसके मध्य भाग में चक्र का चिह्न होता है। भगवान दामोदर नील चिह्न से युक्त होकर संकर्षण के द्वारा जगत की रक्षा करते हैं।
★जिसका वर्ण लाल है, तथा जो लम्बी-लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र और कमल आदि से युक्त एवं स्थूल है, उस शालिग्राम को ब्रह्मा की मूर्ति समझनी चाहिये। ★जिसमें बृहत छिद्र, स्थूल चक्र का चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह श्रीकृष्ण का स्वरूप है। वह बिन्दुयुक्त और बिन्दुशून्य दोनों ही प्रकार का देखा जाता है। ★हयग्रीव मूर्ति अंकुश के समान आकार वाली और पाँच रेखाओं से युक्त होती है। ★भगवान वैकुण्ठ कौस्तुभ मणि धारण किये रहते हैं। उनकी मूर्ति बड़ी निर्मल दिखायी देती है। वह एक चक्र से चिह्नित और श्याम वर्ण की होती है। ★मत्स्य भगवान की मूर्ति बृहत कमल के आकार की होती है। उसका रंग श्वेत होता है तथा उसमें हार की रेखा देखी जाती है। ★जिस शालिग्राम का वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भाग में एक रेखा दिखायी देती हो तथा जो तीन चक्रों के चिह्न से युक्त हो, वह भगवान श्री रामचन्द्रजी का स्वरूप है, वे भगवान सबकी रक्षा करनेवाले हैं। ★द्वारकापुरी में स्थित शालिग्राम स्वरूप भगवान गदाधर। भगवान गदाधर एक चक्र से चिह्नित देखे जाते हैं। ★लक्ष्मीनारायण दो चक्रों से, त्रिविक्रम तीन से, चतुर्व्यूह चार से, वासुदेव पाँच से, प्रद्युम्न छ: से, संकर्षण सात से, पुरुषोत्तम आठ से, नवव्यूह नव से, दशावतार दस से, अनिरुद्ध ग्यारह से और द्वादशात्मा बारह चक्रों से युक्त होकर जगत की रक्षा करते हैं। इससे अधिक चक्र चिह्न धारण करने वाले भगवान का नाम अनन्त है।

शिवपुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने खुद ही गंडकी नदी में अपना वास बताया था और कहा था कि गंडकी नदी के तट पर मेरा (भगवान विष्णु का) वास होगा। नदी में रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दांतों से काट-काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न बनाएंगे और इसी कारण इस पत्थर को मेरा रूप मान कर उसकी पूजा की जाएगी।

पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार शालिग्राम शिला में विष्‍णु का निवास होता है। इस संबंध में अनेक पौराणिक कथाएं आज भी प्रचलित हैं। इन्‍हीं कथाओं में से एक के अनुसार जब भगवान शिव जालंधर नामक असुर से युद्ध नहीं जीत पा रहे थे तो भगवान विष्‍णु ने उनकी मदद की थी। कथाओं में कहा गया है कि जब तक असुर जालंधर की पत्‍नी वृंदा ‘तुलसी’ अपने सतीत्‍व को बचाए रखती तब तक जालंधर को कोई पराजीत नहीं कर सकता था। ऐसे में भगवान विष्‍णु ने जालंधर का रूप धारण करके वृंदा के सतीत्‍व को नष्‍ट करने में सफल हो गए। जब वृंदा को इस बात का अहसास हुआ तबतक काफी देर हो चुकी थी। इससे दुखी वृंदा ने भगवान विष्‍णु को कीड़े-मकोड़े बनकर जीवन व्‍यतीत करने का शाप दे डाला। फलस्‍वरूप कालांतर में शालिग्राम पत्‍थर का निर्माण हुआ, जो हिंदू धर्म में आराध्‍य हैं। पुरानी दंतकथाओं के अनुसार मुक्तिक्षेत्र वह स्‍थान है जहां पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहीं पर भगवान विष्‍णु शालिग्राम पत्‍थर में निवास करते हैं।

अन्य कथाओं में #वृंदा, #शंखचूड़ राक्षस की पत्नी थी लेकिन भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए उपासना तन मन से किया करती थी। भगवान विष्णु उसके मन की बात जानते थे, इसलिये छल से उसके पति शंखचूड़ रुप में बनने का अभिनय किया तो वृन्दा रुष्ट हो गई और उन्होंने विष्णु को शाप दिया कि वे पत्थर बन जाएं क्योंकि आपने छल से मेरे पति का रूप धरा है। भगवान विष्णु ने तुलसी का श्राप स्वीकार कर लिया और कहा कि तुम धरती पर गंडकी नदी तथा तुलसी के पौधे के रूप में रहोगी। तदनोपरांत वृंदा उस शरीर को त्याग स्वयं गंडकी नदी में बदल गई तथा पत्थर बने भगवान विष्णु को अपने हृदय में धारण कर लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार, एक समय पर #तुलसी ने भगवान विष्णों को अपने पति के रूप में पाने के लिए कई सालों तक तपस्या की थीं, जिसके फलस्वरूप भगवान ने उसे विवाह का वरदान दिया था। जिसे देवप्रबोधिनी एकादशी पर पूरा किया जाता है। देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन शालिग्राम शिला तथा तुलसी के पौधा का विवाह करवाने की परंपरा है।
[ नवार्ण मंत्र साधना एवं महत्व
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माता भगवती जगत् जननी दुर्गा जी की साधना-उपासना के क्रम में, नवार्ण मंत्र एक ऐसा महत्त्वपूर्ण महामंत्र है | नवार्ण अर्थात नौ अक्षरों का इस नौ अक्षर के महामंत्र में नौ ग्रहों को नियंत्रित करने की शक्ति है, जिसके माध्यम से सभी क्षेत्रों में पूर्ण सफलता प्राप्त की जा सकती है और भगवती दुर्गा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है यह महामंत्र शक्ति साधना में सर्वोपरि तथा सभी मंत्रों-स्तोत्रों में से एक महत्त्वपूर्ण महामंत्र है। यह माता भगवती
दुर्गा जी के तीनों स्वरूपों माता महासरस्वती, माता महालक्ष्मी व माता महाकाली की एक साथ साधना का पूर्ण प्रभावक बीज मंत्र है और साथ ही माता दुर्गा के नौ रूपों का संयुक्त मंत्र है और इसी महामंत्र से नौ ग्रहों को भी शांत किया जा सकता है |

नवार्ण मंत्र-
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|| ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ||

नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की नौ शक्तियां समायी हुई है | जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है |

ऐं = सरस्वती का बीज मन्त्र है ।
ह्रीं = महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है ।
क्लीं = महाकाली का बीज मन्त्र है ।

इसके साथ नवार्ण मंत्र के प्रथम बीज ” ऐं “ से माता दुर्गा की प्रथम शक्ति माता शैलपुत्री की उपासना की जाती है, जिस में सूर्य ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |

नवार्ण मंत्र के द्वितीय बीज ” ह्रीं “ से माता दुर्गा की द्वितीय शक्ति माता ब्रह्मचारिणी
की उपासना की जाती है, जिस में चन्द्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|

नवार्ण मंत्र के तृतीय बीज ” क्लीं “ से माता दुर्गा की तृतीय शक्ति माता चंद्रघंटा की उपासना की जाती है, जिस में मंगल ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|

नवार्ण मंत्र के चतुर्थ बीज ” चा “ से माता दुर्गा की चतुर्थ शक्ति माता कुष्मांडा की
उपासना की जाती है, जिस में बुध ग्रह
को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई
है।

नवार्ण मंत्र के पंचम बीज ” मुं “ से माता दुर्गा की पंचम शक्ति माँ स्कंदमाता की उपासना की जाती है, जिस में बृहस्पति ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के षष्ठ बीज ” डा “ से माता दुर्गा की षष्ठ शक्ति माता कात्यायनी की उपासना की जाती है, जिस में शुक्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के सप्तम बीज ” यै “ से माता दुर्गा की सप्तम शक्ति माता कालरात्रि की
उपासना की जाती है, जिस में शनि ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के अष्टम बीज ” वि “ से माता दुर्गा की अष्टम शक्ति माता महागौरी की उपासना की जाती है, जिस में राहु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र के नवम बीज ” चै “ से माता दुर्गा की नवम शक्ति माता सिद्धीदात्री की उपासना की जाती है, जिस में केतु ग्रह को
नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।

नवार्ण मंत्र साधना विधी
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विनियोग:
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ll ॐ अस्य श्रीनवार्णमंत्रस्य
ब्रम्हाविष्णुरुद्राऋषय:गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसी,श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर
स्वत्यो देवता: , ऐं बीजम , ह्रीं शक्ति: ,क्लीं कीलकम श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर स्वत्यो प्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ll

विलोम बीज न्यास:-
🔸🔸🔹🔸🔸
ॐ च्चै नम: गूदे ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ यै नम: वाम नासा पूटे ।
ॐ डां नम: दक्ष नासा पुटे ।
ॐ मुं नम: वाम कर्णे ।
ॐ चां नम: दक्ष कर्णे ।
ॐ क्लीं नम: वाम नेत्रे ।
ॐ ह्रीं नम: दक्ष नेत्रे ।
ॐ ऐं ह्रीं नम: शिखायाम ॥

(विलोम न्यास से सर्व दुखोकी नाश होता
है,संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ दहीने
हाथ की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये)

ब्रम्हारूप न्यास:-
🔸🔸🔹🔸🔸
ॐ ब्रम्हा सनातन: पादादी नाभि पर्यन्तं मां
पातु ॥
ॐ जनार्दन: नाभेर्विशुद्धी पर्यन्तं नित्यं मां
पातु ॥
ॐ रुद्र स्त्रीलोचन: विशुद्धेर्वम्हरंध्रातं मां
पातु ॥
ॐ हं स: पादद्वयं मे पातु ॥
ॐ वैनतेय: कर इयं मे पातु ॥
ॐ वृषभश्चक्षुषी मे पातु ॥
ॐ गजानन: सर्वाड्गानी मे पातु ॥
ॐ सर्वानंन्द मयोहरी: परपरौ देहभागौ मे पातु ॥

( ब्रम्हारूपन्यास से सभी मनोकामनाये पूर्ण
होती है, संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ
दोनों हाथो की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये )

ध्यान मंत्र:-
🔸🔹🔸
खड्गमं चक्रगदेशुषुचापपरिघात्र्छुलं भूशुण्डीम शिर: शड्ख संदधतीं करैस्त्रीनयना
सर्वाड्ग भूषावृताम ।
नीलाश्मद्दुतीमास्यपाददशकां सेवे
महाकालीकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम ॥

माला पूजन:-
🔸🔹🔸
जाप आरंभ करनेसे पूर्व ही इस मंत्र से माला का पुजा कीजिये,इस विधि से आपकी माला भी चैतन्य हो जाती है.

“ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नंम:’’

ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिनी ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृहनामी दक्षिणे
करे । जपकाले च सिद्ध्यर्थ प्रसीद मम सिद्धये ॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देही देही सर्वमन्त्रार्थसाधिनी साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।

अब आप येसे चैतन्य माला से नवार्ण मंत्र का जाप करे-

नवार्ण मंत्र :-
🔸🔹🔸
ll ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ll

नवार्ण मंत्र की सिद्धि 9 दिनो मे 1,25,000 मंत्र जाप से होती है,परंतु आप येसे नहीं कर सकते है तो रोज 1,3,5,7,11,21….इत्यादि माला मंत्र जाप भी कर सकते है,इस विधि से सारी इच्छाये पूर्ण होती है,सारइ दुख समाप्त होते है और धन की वसूली भी सहज ही हो जाती है।
हमे शास्त्र के हिसाब से यह सोलह प्रकार
के न्यास देखने मिलती है जैसे ऋष्यादी,कर ,हृदयादी ,अक्षर ,दिड्ग,सारस्वत,प्रथम मातृका ,द्वितीय मातृका,तृतीय मातृका ,षडदेवी ,ब्रम्हरूप,बीज मंत्र ,विलोम बीज ,षड,सप्तशती ,शक्ति जाग्रण न्यास और
बाकी के 8 न्यास गुप्त न्यास नाम से
जाने जाते है,इन सारे न्यासो का अपना एक अलग ही महत्व होता है,उदाहरण के लिये शक्ति जाग्रण न्यास से माँ सुष्म रूप से साधकोके सामने शीघ्र ही आ जाती है और मंत्र जाप की प्रभाव से प्रत्यक्ष होती
है और जब माँ चाहे कसी भी रूप मे क्यू न आये हमारी कल्याण तो निच्छित ही कर देती है।
आप नवरात्री एवं अन्य दिनो मे इस मंत्र के जाप जो कर सकते है.मंत्र जाप रुद्राक्ष अथवा काली हकीक माला से ही किया करे।
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वेद_परिज्ञान

असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतं गमय।’ (बृहदारण्यक १।३।२८)
हे प्रभो! आप मुझे असत् से सत् की ओर ले चलें। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलें, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलें।
वेद सृष्टिक्रम की प्रथम वाणी व साक्षात् अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान के वांग्मय-स्वरूप हैं। वेद शब्दमय ईश्वरीय आदेश हैं। वेद शुद्ध ज्ञान का नाम है, जो परमात्मा से प्रकट हुआ है। जैसे माता-पिता अपनी संतान को शिक्षा देते हैं, वैसे ही जगत् के माता-पिता परमात्मा सृष्टि के आदि में मनुष्यों को वैदिक शिक्षा प्रदान करते हैं, जिससे वे भली-भांति अपनी जीवन-यात्रा पूर्ण कर सकें। सृष्टि के आदि में कोई भाषा नहीं थी। इसलिए परमात्मा ने अपनी वाणी में शिक्षा दी, जो परमात्मा की भाषा देववाणी कहलाती है।

वेद स्वयं भगवान की निज वाणी हैं। तुलसीदासजी ने (राचमा ६।१५।४) में वेद के लिए कहा है–’निगम निज बानी’ और ‘जाकी सहज स्वास श्रुति चारी’ (राचमा १।२०४।५)। अत: वेद भगवान के स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं। जिस प्रकार साधारण प्राणों को भी श्वास-प्रश्वास क्रिया में किसी विशेष प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, निद्रा के समय में भी यह क्रिया सहज सम्पन्न होती है; वैसे ही ‘ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद–ये चारों उस महान परमेश्वर के श्वास से ही प्रकट हुए हैं।’ (बृहदारण्यक श्रुति )।
ब्रह्मस्वरूप वेद–ब्रह्म सत्, चित् व आनन्दरूप होता है। ‘सत्’ का अर्थ है–ब्रह्म सदा वर्तमान रहता है, इसका कभी विनाश नहीं होता। ‘आनन्द’ का अर्थ है–जो प्राकृतिक सुख-दुख से ऊपर उठा हो, व ‘चित्’ का अर्थ है ज्ञान। इस तरह ब्रह्म जैसे नित्य सत्तास्वरूप व आनन्दस्वरूप है वैसे ही उसका ज्ञान (वेद) भी नित्य हैं।

वेद व अन्य ग्रन्थों में अन्तर

अन्य ग्रन्थों की भांति वेद भी अपने विषय का प्रतिपादन करने वाले वाक्य-समूह हैं। परन्तु वेद और अन्य ग्रन्थों में वही अंतर है जो साधारण मनुष्यों और श्रीराम व श्रीकृष्ण में होता है। जब ब्रह्म श्रीराम व श्रीकृष्ण के रूप में अवतार धारण करते हैं, तब साधारण मनुष्यों की भांति उन्हें हाड़-मांस व चर्म का बना समझा जाता है पर उनका शरीर सत्-चित्-आनन्दस्वरूप होता है। जैसे श्रीराम व श्रीकृष्ण मनुष्य दीखते हुए भी मनुष्यों से भिन्न ब्रह्मस्वरूप होते हैं, वैसे ही स्वयं वेद ने अपने को ‘ब्रह्मस्वरूप’ व ‘स्वयंभू’ कहा है। व्यासजी ने कहा है–’वेदो नारायण: साक्षात्।’ (बृ.नारदपुराण)

सृष्टि-निर्माण के लिए सर्वज्ञ ईश्वर को भी ज्ञान (विचार), इच्छा एवं कर्म का अवलम्बन करना पड़ता है। जिस भाषा में ईश्वर सृष्टि के अनुकूल ज्ञान या विचार करता है, वही भाषा वैदिक भाषा है। ईश्वर एवं उसका ज्ञान अनादि होता है, अत: उसके ज्ञान के साथ होने वाली भाषा और शब्द भी अनादि ही होते हैं। वे ही अनादि वाक्य-समूह ‘वेद’ कहलाते हैं। अनादिकाल से जीव एवं जगत पर शासन करने वाले शासक-परमेश्वर का शासन-संविधान ही ‘वेद’ है।

ऋग्वेद (१।१६४।४५) के अनुसार–’वेद’ परमेश्वर के मुख से निकला हुआ ‘परावाक्’ है, वह ‘अनादि’ एवं ‘नित्य’ व ‘अपौरुषेय’ है। वेद के महापंडित सायणाचार्य ने भी अपने ‘वेदभाष्य’ में वेद को परमेश्वर का नि:श्वास बताया है।

बृहदारण्यकोपनिषद् (२।४।१०) में उल्लेख है–’उन महान परमेश्वर के द्वारा (सृष्टि-प्राकट्य होने के साथ ही) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद नि:श्वास की तरह सहज ही बाहर प्रकट हुए। अत: वेद परमेश्वर के नि:श्वास रूप में सहज ही प्रकट हुए हैं, ये मानव द्वारा रचे गए नहीं हैं।’

वेदों का प्रादुर्भाव

वेदों के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में कहा गया है–वेदवाणी अनादि, अनन्त और सनातन है। महाप्रलय के बाद ईश्वर की इच्छा जब सृष्टि रचने की होती है, तब वे अपनी बहिरंगा शक्ति प्रकृति पर एक दृष्टि डाल देते हैं। जिससे प्रकृति में गति आ जाती है और वह चौबीस तत्त्वों के रूप में परिणत होने लगती है। इसमें ईश्वर का उद्देश्य होता है कि इन तत्वों से विश्व का सबसे प्रथम प्राणी बन जाए। इस प्रकार ईश्वर ने सृष्टि कर सबसे पहले हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) को बनाया। फिर उनसे तपस्या कराई, इसके बाद योग्यता आने पर उनके पास वेदों को भेजा। वे वेद पहले ब्रह्मा के हृदय में आविर्भूत हो गए। हृदय में फलित होने पर ब्रह्माजी के मुखों से उच्चरित करा दिया। ये वेद उनके चारों मुखों में सर्वदा विद्यमान रहते हैं। इस तरह ईश्वर ने ब्रह्माजी को वेद प्रदान किए। वेदों की प्राप्ति के पश्चात् इन्हीं की सहायता से ब्रह्माजी भौतिक सृष्टि-रचना में समर्थ हुए।

मत्स्यपुराण (३।२, ४) में भी इसी तथ्य को इस प्रकार कहा गया है–’ब्रह्माजी ने सबसे पहले तप किया। तब ईश्वर के द्वारा भेजे गए वेदों का उनमें आविर्भाव हो पाया। बाद में ब्रह्माजी के चारों मुखों से वेद निकले।’

युग के आरम्भ में विधाता (ब्रह्मा) जब नूतन सृष्टि-रचना की प्रक्रिया के विचार में उलझे रहते हैं, तब नारायण अपने वेदस्वरूप से ही उनकी समस्या का समाधान करते हैं और विधाता वेद के निर्देशानुसार पूर्वकल्प की तरह वस्तु-जगत के नाम, कर्म, स्वरूप आदि की रचना करते हैं। स्पष्ट है कि सृष्टिकर्ता ने सृष्टि के प्रारम्भ में सृष्टि की सुव्यवस्था के लिए धर्मबोध की आवश्यकता समझी और इसीलिए उन्होंने सबसे पहले ब्रह्मा को वेद धारण कराया।

श्रीमद्भागवत (३।९।४३) में भगवान ब्रह्माजी से कहते हैं–‘ब्रह्माजी! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्ववेदमय स्वरूप से स्वयं ही रचो।’

ब्रह्माजी ने वेदों को पाकर सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ाया। ब्रह्माजी की ऋषिसंतानों (सनक, सनन्दन, वशिष्ठ आदि) ने आगे चलकर तपस्या द्वारा इसी शब्द-ज्ञानराशि का अपने हृदय में साक्षात्कार किया। वेद को ईश्वरीय ज्ञान के रूप में ऋषि-महर्षियों ने अपने अंत:चक्षुओं से प्रत्यक्ष दर्शन किए और फिर उसे प्रकट किया। वे ही ऋषि वेदमन्त्रों के द्रष्टा बने।
इन महर्षियों द्वारा मन्त्रों को प्रत्यक्ष देखे जाने के कारण इनमें कहीं भी असत्य या अविश्वास के लिए स्थान नही है। मन्त्रद्रष्टा ऋषि भी एक-दो नहीं, अपितु अनेक हुए हैं। जैसे–गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, वशिष्ठ तथा भारद्वाज आदि। कुछ ऋषिकाएं भी थीं; जैसे–ब्रह्मवादिनी घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्ववारा, सूर्या तथा जुहू आदि।

वेद अनन्त होने के साथ-साथ अनादि भी हैं। इसलिए कहा जाता है कि ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण किसी भी काल में वेद का नाश नहीं होता; क्योंकि नित्य-अनादि परमेश्वर का ज्ञान अनित्य (नाशवान) नहीं हो सकता। प्रलयकाल में भी वेद का लोप नहीं होता, वरन् वेदों की ज्ञानराशि परमात्मा में सूक्ष्मरूप से पहले भी विद्यमान थी, अब भी है और आगे भी रहेगी।

‘प्रलयकालेऽपि सूक्ष्मरूपेण परमात्मनि वेदराशि: स्थित:।’ (कुल्लूकभट्ट)

वेदों का एक-एक अक्षर, एक-एक मात्रा अपरिवर्तनीय है। सृष्टि के आरम्भ में इनका जो रूप था, वेद के जैसे उच्चारण थे, जैसे पद-क्रम थे, वे आज भी वैसे ही सुने जा सकते हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि इनके संरक्षण के लिए महर्षियों ने पाठ-प्रकारों के आधार पर आठ उपाय किए गए हैं, जिन्हें ‘विकृति’ कहते हैं ताकि इसमें एक भी स्वर-वर्ण अथवा मात्रा की त्रुटि न हो। हजार वर्षों की गुलामी से गुरु-शिष्य परम्परा को हानि पहुंची, अत: वेदों की अधिकांश शाखाएं लुप्त हो गईं। किन्तु जो बची हैं, उन्हें इन आठ विकृतियों ने सुरक्षित रखा है। इन पाठों के कारण ही आज भी विश्व को ईश्वरीय धरोहर के रूप में वेद शुद्ध रूप से प्राप्त हो रहे हैं।

वेदों की अनन्तता

‘अनन्ता वै वेदा:’ के अनुसार वेदज्ञान अपरिमित व अनन्त हैं। भगवत्स्वरूप श्रीशंकराचार्यजी के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति अपने जीवनकाल में समस्त वेदों का अध्ययन पूर्णरूप से नहीं कर सका। इस सम्बन्ध में एक कथा है–महर्षि भरद्वाज ने समस्त वेदों का अध्ययन करना चाहा। उन्होंने वेदाध्ययन प्रारम्भ किया। दृढ़ इच्छाशक्ति और कठोर तपस्या से उन्होंने इन्द्र को प्रसन्न कर वेदाध्ययन के लिए सौ वर्ष की आयु मांगी। यद्यपि वे निरन्तर सौ वर्ष तक अध्ययन करते रहे, तथापि अध्ययन पूरा नहीं हुआ। उनके अध्ययन की लगन देखकर इन्द्र ने प्रसन्न होकर दुबारा वर मांगने को कहा। भरद्वाज ने अध्ययन के लिए सौ वर्ष और मांगे। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भरद्वाज ने तीन सौ वर्षों तक अध्ययन किया। वृद्धावस्था के कारण बैठ न पाने पर वह लेटकर ही अध्ययन करने लगे। ऐसी स्थिति में एक दिन इन्द्र ने प्रकट होकर महर्षि से पूछा–’यदि तुमको सौ वर्ष और दे दूँ, तो तुम उनसे क्या करोगे? मुनि ने कहा–’तब मैं शेष वेदाध्ययन पूरा करूंगा।’ इन्द्र ने कहा–यह तुमसे पूर्ण हो सकने वाला कार्य नहीं है। जब मुनि ने पूछा–क्यों? तब इन्द्र ने उनके सामने बालू के तीन पहाड़ दिखाए, जिनका कहीं ओर-छोर नहीं था। इन्द्र ने कहा–’ये ही तीन वेद हैं, इनका अंत तुम कैसे प्राप्त कर सकते हो?’ इन्द्र ने तीनों में से एक-एक मुट्ठी भर मिट्टी उनके सामने रखी और कहा–’तीनों जन्मों में तुमने जो वेदाध्ययन किया है, वह इतनी-सी मिट्टी के बराबर है, अब शेष हैं इन तीन पहाड़ों के बराबर का अध्ययन। इन्द्र की बात सुनकर मुनि अवाक् रह गए। उन्होंने इन्द्र से कहा–’तब मैं क्या करूँ?’ इन्द्र ने तीनों में से एक-एक मुट्ठी बालू भरद्वाज को देकर कहा–’मानव समाज के लिए इतना ही पर्याप्त है, वेद तो अनन्त हैं। इन्द्र के द्वारा प्रदत्त यह तीन मुट्ठी बालू ही वेदत्रयी (ऋक्, यजु:, साम) के रूप में प्रकट हुई।

इन्द्र ने भरद्वाज ऋषि से कहा–सम्पूर्ण ज्ञानप्राप्ति के लिए तुम्हें सवितृदेव की आराधना करनी चाहिए। वे ही वेदमूर्ति हैं। मुनि दूने उत्साह से सविता की आराधना में लग गए।

ऊँ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव।।’

‘हे सवितादेव! आप हमारे सम्पूर्ण दुरितों का विनाश करके हमारे लिए मंगल का विस्तार करें।’
सवितादेव प्रसन्न होकर प्रकट हो गए और उन्होंने ऋषि को वर देते हुए कहा–’मेरे अनुग्रह से तुम्हें समग्र वेदज्ञान प्राप्त होगा। सप्तर्षि-मण्डल में तुम्हें स्थान प्राप्त होगा। तुम यशस्वी बनोगे।’ उन्होंने ऋषियों में सबसे अधिक आयु प्राप्त की थी।

वेद-मन्त्रों की महिमा

‘वेद: शिव: शिवो वेद: वेदाध्यायी सदाशिव:।’
वेद-मन्त्रों का दिव्य प्रभाव होता है। कहा जाता है कि जो वेदज्ञ ब्राह्मण हैं उनमें देवता निवास करते हैं। इस सम्बन्ध में एक कथा है–एक राजकुमार ने शिकार खेलते समय भूलवश एक ऋषि के आश्रम के समीप मृगचर्म ओढ़े हुए एक ब्राह्मण को विषैला बाण मार दिया। ‘हा हा’ की आवाज सुनकर उसने समझा ब्रह्महत्या हो गई है। शाप के भय से वह भयभीत होकर राजमहल में पहुंचा। राजा को जब सब बात मालूम हुई तो उन्होंने राजकुमार से कहा–’तुमने ठीक नहीं किया, हमें चलकर मुनि से क्षमा मांगनी चाहिए।’ राजा सपरिवार मुनि के आश्रम पहुंचे और मुनि से क्षमा मांगकर प्रायश्चित का विधान जानना चाहा। मुनि ने कहा–’प्रायश्चित की आवश्यकता नहीं है, यहां कोई ब्रह्महत्या नहीं हुई है।’ यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने विषैले बाण से कोई जीवित कैसे बच गया? तब मुनि ने कहा–’यदि मैं आश्रम में रहने वाले सभी ब्रह्मचारियों को बुलाऊँ तो क्या राजकुमार उस ब्रह्मचारी को पहचान लेंगे?’ राजकुमार के हां कहने पर आश्रम के सारे ब्रह्मचारी बुलाए गए। जिस ब्रह्मचारी को बाण लगा था उसे राजकुमार ने पहचान लिया। किन्तु आश्चर्य कि उसके शरीर पर घाव का चिह्न तक नहीं था। तब मुनि ने राजा से कहा–’हम लोग पूर्णत: वैदिक धर्म के मार्ग पर चलने वाले हैं। वेद द्वारा बताए गए धर्मानुष्ठानों का पालन करते हैं। अत: मृत्युदेवता यहां से कोसों दूर रहते हैं।’ यह है वैदिक मन्त्रों की महिमा।

वेद और वेदव्यास

कहा जाता है कि वेद पहले एक ही था, भगवान वेदव्यास ने वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया था, जिसके कारण उनका नाम ‘वेदव्यास’ पड़ा और वेद ने ऋक्, यजु:, साम एवं अथर्व के रूप में चार स्वरूप धारण किया। महाभारत में इसे इस प्रकार बताया गया है–’जिन्होंने निज तप के बल से वेद का चार भागों में विस्तार कर लोक में ‘व्यास’ की संज्ञा पायी और शरीर के कृष्ण वर्ण होने के कारण कृष्ण कहलाए।’ उन्होंने वेद को चार भाग में विभक्त कर अपने चार प्रमुख शिष्यों को वैदिक संहिताओं का अध्ययन कराया। वेदव्यासजी ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्पायन को यजुर्वेद, जैमिनि को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद का सर्वप्रथम अध्ययन कराया था। महाभारत-युद्ध के पश्चात् वेदव्यासजी ने तीन वर्ष के परिश्रम के बाद पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की जिसे उन्होंने अपने पांचवे शिष्य लोमहर्षण को पढ़ाया था। उन ऋषियों ने भी अपने-अपने शिष्यों को वेद पढ़ाकर गुरु-शिष्य परम्परा से वेदज्ञान को फैलाया है। इस तरह वेदों के पठन-पाठन की परम्परा चल पड़ी, जो आज भी चलती आ रही है।
भगवान वेदव्यास ने वेद को चार भागों में विभक्त क्यों किया? इसका उत्तर श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दिया गया है–महर्षि पाराशर व सत्यवती से उत्पन्न वेदव्यासजी ने कलियुग में मानव की अल्पबुद्धि, कम आयु व शक्तिहीनता देखकर (अर्थ की सुगमता के लिए) वेद-रूपी वृक्ष की चार शाखाएं कर दीं जिससे दुर्बल स्मरणशक्ति वाले भी वेदों को धारण कर सकें। स्त्री, शूद्र तथा पतित वेद-श्रवण के अनाधिकारी हैं; अत: उनके हित की दृष्टि से ‘महाभारत’ की रचना की।

चार वेद

ऋग्वेद में स्तुति, यजुर्वेद में यज्ञ, सामवेद में संगीत तथा अथर्ववेद में आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, राष्ट्रीय संगठन तथा देशप्रेम का चिन्तन मिलता है। जिसमें नियताक्षर वाले मन्त्रों की ऋचाएं हैं, वह ‘ऋग्वेद’ कहलाता है। जिसमें स्वरों सहित गाने में आने वाले मन्त्र हैं, वह ‘सामवेद’ कहलाता है। जिसमें अनियताक्षर वाले मन्त्र हैं, वह ‘यजुर्वेद’ कहलाता है। जिसमें अस्त्र-शस्त्र, भवन-निर्माण आदि लौकिक विद्याओं का वर्णन करने वाले मन्त्र हैं, वह ‘अथर्ववेद’ कहलाता है।

इन वेदों के चार उपवेद हैं–

ऋग्वेद का उपवेद स्थापत्यवेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद है। आयुर्वेद के कर्ता धन्वन्तरि, धनुर्वेद के कर्ता विश्वामित्र, गान्धर्ववेद के कर्ता नारदमुनि और स्थापत्यवेद के कर्ता विश्वकर्मा हैं।

वेद गद्य, पद्य और गीति के रूप में विद्यमान हैं। ऋग्वेद पद्य में, यजुर्वेद गद्य में और सामवेद गीति (गान) रूप में है। वेदों में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड विशेष रूप से होने के कारण इनको ‘वेदत्रयी’ या ‘त्रयीविद्या’ के नाम से भी जाना जाता है।

वेद में एक लाख मन्त्र हैं। अस्सी हजार मन्त्र केवल कर्मकाण्ड का व सोलह हजार मन्त्र ज्ञान का निरुपण करते हैं। केवल चार हजार मन्त्र उपासनाकाण्ड के हैं। गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त सोलह प्रकार के संस्कारों का भी वेद निरुपण करता है। आरम्भ में शिष्यगण गुरुमुख से सुन-सुनकर वेदों का पाठ किया करते थे, इसलिए वेदों का एक नाम ‘श्रुति’ भी है। ‘श्रुति’ माने ‘सुना हुआ ज्ञान’। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने समाधि में जो महाज्ञान प्राप्त किया और जिसे जगत के कल्याण के लिए प्रकट किया, उस महाज्ञान को श्रुति कहते हैं। आज भी गुरुमुख से श्रवण किए बिना केवल पुस्तक के आधार पर ही मन्त्राभ्यास करना निष्फल माना जाता है।

वेदों की शाखाएं

कूर्मपुराण में बताया गया है कि ऋग्वेद की इक्कीस (21) शाखाएं, यजुर्वेद की एक सौ एक (101) शाखाएं, सामवेद की एक हजार एक (1001) शाखाएं और अथर्ववेद की नौ (9) शाखाएं हैं। इस प्रकार इन 1131 शाखाओं में से केवल 12 शाखाएं ही मूलग्रन्थ में उपलब्ध हैं। इन शाखाओं का अधिकांश भाग लुप्त है।

इन शाखाओं की वैदिक शब्दराशि चार भागों में प्राप्त है–(१) ‘संहिता’–इसमें वेद के मन्त्र हैं, (२) ‘ब्राह्मण’–इसमें यज्ञ-अनुष्ठान की पद्धति और उनके फलप्राप्ति का वर्णन है, (३) ‘आरण्यक’–वानप्रस्थ आश्रम में अरण्य (जंगल) में इसका अध्ययन कर मनुष्य को सांसारिक बंधनों से ऊपर उठाकर आध्यात्मिक बोध कराने की विधि का निरुपण है इसलिए इसे ‘आरण्यक’ कहते हैं। वास्तव में इनका आरण्यक नाम इसीलिए पड़ा कि ये ग्रन्थ अरण्य (वन) में ही पढ़ने योग्य हैं; गांवों और नगरों के कोलाहलयुक्त स्थान में नहीं। गहन वन में ब्रह्मचर्य-व्रत धारणकर जिस ब्रह्मविद्या का ऋषिगण पाठन करते थे, वही ग्रन्थ आरण्यक के नाम से प्रसिद्ध हुए। (४) ‘उपनिषद्’–इसमें अध्यात्म चिन्तन की प्रधानता है।

वेद के प्राचीन विभाग मुख्य रूप से दो ही हैं–मन्त्र और ब्राह्मण। आरण्यक और उपनिषद् ब्राह्मण के अन्तर्गत आ जाते हैं।

वेदों की अति विशालता, गहनता को ध्यान में रखकर मनु, गौतम, याज्ञवल्क्य और पाराशर आदि ऋषि-मुनियों ने धर्म की व्याख्या करने वाले जिन ग्रन्थों की रचना की उन्हें ‘स्मृति’ कहते हैं।

वैदिक देवता

वेदों में अनेक देवताओं का वर्णन किया गया है। उन देवताओं को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है–(१) द्यु-स्थानीय (आकाशवासी) देवता–वरुण, मित्र, सूर्य, (२) अन्तरिक्ष (मध्य)-स्थानीय देवता–इन्द्र, रुद्र, वायु तथा (३) पृथ्वी-स्थानीय देवता–अग्नि, सोम, पृथ्वी। इन देवताओं में ऋग्वेद के सूक्तों में ‘इन्द्र’ सर्वाधिक चर्चित देवता है। ‘अग्नि’ दूसरे व ‘सोम’ तीसरे स्थान पर आते हैं। वेदों ने ‘वरुण’ को शान्तिप्रिय देवता माना है वह प्राकृतिक व नैतिक नियमों का संरक्षक है। इन्द्र ऋग्वेद का योद्धा देवता है। वह बलिष्ठ व पराक्रमी देवता है। इसके भय से पृथ्वी व आकाश कांपते दिखाई देते है। बिना इन्द्र की सहायता के कोई भी शक्ति युद्ध नहीं जीत सकती। ऋग्वेद में ‘अग्नि’ को यज्ञ का पुरोहित कहा गया है। वह देवताओं को यज्ञ में समर्पित हवि सुलभ कराता है। यजुर्वेद में सर्वाधिक प्रतिष्ठित देवता है ‘रुद्र’ जिसे अत्यन्त उग्र स्वभाव का माना गया है। यजुर्वेद में रुद्र की महत्ता इसी बात से सिद्ध होती है कि इस वेद का सोलहवां काण्ड इन्हीं पर केन्द्रित है। वेदों में आयुर्वेद के अधिष्ठाता अश्विनीकुमार की स्तुति भी कई जगह की गई है। श्रीगणेश भी वैदिक देवता हैं। प्रणवरूप ‘ऊँ’ में गणेशजी की मूर्ति सदा स्थित रहती है। इसलिए ‘ऊँ’ को गणेश की साक्षात् मूर्ति मानकर वेदों के पढ़ने वाले सर्वप्रथम ‘ऊँ’ का उच्चारण करके ही वेद का स्वाध्याय करते हैं। ऋग्वेद (२।२३।१) के ‘गणानां त्वा गणपतिं हवामहे’ आदि मन्त्र गणेशजी की वैदिकता व महत्ता सिद्ध करते हैं। भगवान वासुदेव से ब्रह्मा और ब्रह्मा से रूद्र की अभिव्यक्ति होने के कारण देवों में सर्पोपरि महत्व भगवान वासुदेव का है। तत्वज्ञानी वेदान्त रीति से उन्हें ब्रह्म, स्मृतियों में परमात्मा, पुराणों में भगवान व सर्वव्यापकता के कारण ‘विष्णु, ब्रह्म, नारायण, वासुदेव’ आदि नामों से जाने जाते हैं।

वेदों के विषय

मनुष्य को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त प्रति क्षण कब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, साथ ही प्रात:काल जागरण से रात्रिशयन तक सम्पूर्ण क्रिया-कलाप ही वेदों के विषय हैं। मनीषियों ने वेद को अक्षय ज्ञान का खजाना कहा है। सृष्टि-रचना जैसा गूढ़ रहस्य भी हमें वेद के नासदीयसूक्त में देखने को मिलता है। इसके अलावा धर्म के साथ-साथ मनुष्य जाति के प्राचीनतम इतिहास, अध्यात्म, मर्यादा, ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक नियम, राष्ट्रधर्म, सदाचार, त्याग, सत्य, कला-कौशल, शिल्प-उद्योग आदि ऐसा कौन-सा विषय है जिसका प्रतिपादन वेदों में न किया गया हो? कर्मफल की प्राप्ति के लिए पुनर्जन्म का प्रतिपादन, आत्मोन्नति के लिए संस्कारों की व्यवस्था, समुचित जीवनयापन के लिए वर्णाश्रम की व्यवस्था व जीवन की पवित्रता के लिए क्या खाएं क्या न खाएं आदि–सभी का वेदों में वर्णन किया गया है। वेदों में भोजन की स्तुति की गई है तथा बैठकर भोजन करने का निर्देश दिया गया है। भोजन में अन्न को देवता मानकर अन्न की ब्रह्मरूप से उपासना करनी चाहिए।

मनु ने कहा है–’वेद से ही चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र), तीनों लोक (भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक), चारों आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम) की व्यवस्था की गयी है। केवल यही नहीं अपितु भूत, भविष्य तथा वर्तमान के धर्म-कर्मों की व्यवस्था भी वेद के अनुसार की गई है। किन्तु वेद का अंतिम लक्ष्य मोक्षप्राप्ति ही है।
ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में कहा गया है–‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्’ अर्थात् वह विराट् पुरुष सहस्त्र सिरों, सहस्त्र आंखों और सहस्त्र चरणों वाला है। इसी विराट् रूप का दर्शन मां कौसल्या को हुआ–

ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।।
अर्थात् वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेक ब्रह्माण्डों के समूह हैं। वे ही तुम मेरे गर्भ में रहे। इस हंसी की बात को सुनकर विवेकी पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती।

श्रीरामचरितमानस (१।३२३) में वर्णित है कि वेदभगवान श्रीसीताराम के विवाह के अवसर पर विप्र (ब्राह्मण) के वेष में जनकपुर में आकर विवाह की विधियां बताते हैं–’बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देंहि।’

श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं कि जब श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक सम्पन्न हो गया तो वेदों ने सोचा कि भगवान का दर्शन करना चाहिए। किन्तु दरबार में इतनी भीड़ है कि प्रभु तक पहुँच पाना कठिन कार्य है। अत: वे वन्दी (भाट) का वेष धारणकर आए।

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।।
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।। (राचमा ७।१२ ख-ग)
वन्दी का काम राजा का यशोगान करना है, उन्हें राजा के समीप जाने की छूट होती है। इसलिए वेदों को भगवान का भाट कहा गया है। भगवान श्रीराम के अतिरिक्त और कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। चारों वेदों द्वारा की गई भगवान श्रीराम की स्तुति का एक अंश इस प्रकार है–

जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने।।
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।। (राचमा ७।१३ छं १)
वेदों ने भगवान श्रीराम को व्यापक ब्रह्म होने के कारण सगुण, निर्गुण एवं अपूर्व दिव्यरूप वाला कहा है। रावण आदि पापियों का वध कर पृथ्वी को भारमुक्त करने वाले दयालु परमात्मा को वेद संयुक्तरूप से नमस्कार कर रहे हैं।

अथर्ववेद के अन्तर्गत ‘श्रीदेव्यथर्वशीर्ष’ में वाग्देवी की स्तुति है व वेदों में ‘गणानां त्वा गणपतिँ हवामहे’ से गणपति की वन्दना है। उसी परम्परा का पालन तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में ‘वन्दे वाणीविनायकौ’ कहकर किया है। वेदों की अतुलित महिमा बताते हुए गोस्वामीजी ने दोहावली (४६४) में कहा है–अतुलित महिमा बेद की तुलसी किएँ बिचार।

वेद का आध्यात्मिक संदेश

भारत वेदों का देश है, महर्षियों का देश है। वेदों के कारण ही सनातन धर्म सारे विश्व का सिरमौर धर्म और भारतवर्ष जगद्गुरु माना जाता है। संसार में शायद ही कोई ऐसा देश हो जो यह कहता हो कि हमारी सभी विद्याओं का, सभी संस्कृतियों का, सभ्यताओं का, हमारे संगीत और कलाओं का मूल हमारे धार्मिक ग्रन्थ हैं। केवल भारत में सनातनधर्म के मूल वेद को ऐसा अद्वितीय गौरव प्राप्त है–’वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।’ सम्पूर्ण मानव जाति की परम्परागत अमूल्य सम्पत्ति हैं ये वेद। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्त्व वेद ही हैं। भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, दर्शन, आचार-विचार, विज्ञान-कला, साहित्य–सभी के बीज वेद में ही हैं। मनु की दृष्टि में वेद सनातन चक्षु हैं। उसमें जो कुछ भी कहा गया है, वही धर्म है। उसके विपरीत आचरण करना अधर्म है। वेदों के आख्यान (कथाएं) हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। हमें कर्त्तव्य-कर्मों का बोध कराकर शाश्वत कल्याण का मार्ग दिखाती हैं। वेदों की भावना है कि हम ईश्वर की अनन्य भाव से उपासना करें और वे हमारे योग-क्षेम को वहन करें।

‘प्रभो! जो आपका आनन्दमय भक्तिरस है, आप हमें वही प्रदान करें। जैसे शुभकामनामयी माता अपनी संतान को संतुष्ट एवं पुष्ट करती है, वैसे ही आप मुझपर कृपा करें।’ (अथर्ववेद १।५।२)
ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। (यजुर्वेद ३।६०) अर्थात् हम लोग भगवान शिव की उपासना करते हैं, वे हमारे जीवन में सुगन्धि (यश, सदाशयता) एवं पुष्टि (शक्ति, समर्थता) का प्रत्यक्ष बोध कराने वाले हैं। जिस प्रकार पका हुआ फल ककड़ी, खरबूजा आदि स्वयं डंठल से अलग हो जाता है, उसी प्रकार हम मृत्यु-भय से सहज मुक्त हों, किन्तु अमृतत्व से दूर न हों।
वेद भगवान का संविधान है। इसमें अनेक ऐसे मन्त्र हैं जिनमें आध्यात्मिक साधना में बाधक अनेक निन्दित कर्मों से दूर रहने का निर्देश दिया गया है–

’जूआ मत खेलो।’ (ऋग्वेद १०।३४।१३)
‘पराये धन का लालच मत करो।’ (यदुर्वेद ४०।१)
‘मनुष्य और पशुओं को मन, कर्म एवं वाणी से कष्ट न दो।’ (अथर्ववेद ६।२)
‘सत्य के मार्ग पर चलो।’ (यजुर्वेद ७।४५)
‘हे परमेश्वर! आप हम सबको कल्याणकारक मन, कल्याणकारक बल और कल्याणकारक कर्म प्रदान करें।’ (ऋग्वेद १०।२५।१)
धर्मात्मा को सत्य की नाव पार लगाती है। (ऋग्वेद ९।७३।१)
हम कानों से सदा भद्र–मंगलकारी वचन ही सुनें। (यजुर्वेद २५।२१)
हल खेत की जुताई में लगे रहने पर ही किसान को भोजन देता है, घर में रखे रहने पर नहीं। सच्चरित्रता से चलते रहने पर ही प्रगति होती है और अपने लक्ष्य–धन की प्राप्ति होती है, घर में बैठे रहने पर नहीं। शास्त्र का अभिप्राय न बताने वाले की अपेक्षा बताने वाला विद्वान श्रेष्ठ एवं प्रियकारी होता है। न देने वाला किसी का मित्र नहीं होता। दान करने वाला उससे आगे बढ़कर सबका मित्र हो जाता है। (ऋग्वेद १०।११७।७)

वेद और राष्ट्रप्रेम की भावना

वेदों में राष्ट्रीयता की भावना का भरपूर समावेश है। अथर्ववेद के भूमि-सूक्त में ईश्वर ने यह उपदेश दिया है कि मातृभूमि के प्रति मनुष्यों को किस प्रकार के भाव रखने चाहिए। राष्ट्र की रक्षा व उसकी महत्ता बताने वाली अनेक ऋचाएं वेदों में हैं। उदाहरण के लिए यहां कुछ का उल्लेख किया जा रहा है–

मातृभूमि की सेवा करो। (ऋग्वेद १०।१८।१०)
मातृभूमि को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है। (यजुर्वेद ९।२२)
हे मातृभूमि! तेरी सेवा करने वाले हम नीरोग और आरोग्यपूर्ण हों। तुमसे उत्पन्न हुए समस्त भोग हमें प्राप्त हों, हम ज्ञानी बनकर दीर्घायु हों तथा तेरी सुरक्षा हेतु अपना आत्मोत्सर्ग करने के लिए भी सदा संनद्ध रहें। (अथर्ववेद १२।१।६२)
हे जगदीश्वर! आप हमें ऐसी बुद्धि दें कि हम सब परस्पर हिलमिल कर एक साथ चलें; एक-समान मीठी वाणी बोलें और एक समान हृदय वाले होकर स्वराष्ट्र में उत्पन्न धन-धान्य और सम्पत्ति को परस्पर समान रूप से बाँटकर भोगें। हमारी हर प्रवृत्ति राग-द्वेष रहित परस्पर प्रीति बढ़ाने वाली हो। (ऋग्वेद १०।१९१।२)
वेद को सरल व संक्षिप्त शब्दों में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं–‘जिसकी सदैव सत्ता हो, जो अपूर्व ज्ञानप्रद हो, जो उत्कृष्ट विचारों का कोश हो और जो लौकिक और पारलौकिक रूप से लाभप्रद हो, ऐसे ग्रन्थ को ‘वेद’ कहते हैं। वेद ज्ञान का अगाध समुद्र है, उसकी थाह पाना किसके लिए संभव है? वेद ज्ञान के अंतिम प्रमाण हैं; परन्तु चारों वेदों का यही मत है कि भगवान के चरणकमलों में अनुराग के बिना सारा ज्ञान-विज्ञान, जप-तप आदि सारे साधन अधूरे हैं।
कुंडली में वक्री ग्रहों की महादशा, शुभ-अशुभ प्रभाव तथा उनके भाव स्थिति अनुसार उपाय –
वक्री ग्रह की दशा में नित्य देशाटन, व्यसन तथा शत्रुओं का विरोध होता है। पापग्रहों की दशा में ही पाप फल का भोग होता है किन्तु शुभ ग्रह यदि वक्री हों तो उसका शुभफल नहीं होता है।
वक्री ग्रह की दशा-

जन्मांग में जो ग्रह वक्री पड़ा हो वह अपनी दशा अंतर्दशा में अदभुत प्रभावशाली फल दिया करता है। वक्री ग्रह अपने से बारहवें पर भी प्रभावी होने से दो भावों से संबंधित हो जाता है। अतः नवमस्थ ग्रह वक्री होने पर अष्टम भाव संबंधी फल भी देता है।
वक्री ग्रह की दशा में स्थान्च्युति, धन व सुख की कमी व विदेश/परदेश गमन होता है। वक्री ग्रह यदि शुभ भावोन्मुख हों (केंद्र, त्रिकोण, लाभ व धन भाव) तो सम्मान, सुख, धन व यश की वृद्धि करता है।
ध्यान रहे मार्गी ग्रह त्रिक भाव में स्थित हो तो अपनी दशा अंतर्दशा में अभीष्ट सिद्धि में बाधा, व्यवधान व कठिनाई देता है। प्रत्येक ग्रह की एक निश्चित सामान्य चाल है पर कभी ये चाल अनिश्चित हो जाती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो ग्रह की गति धीमी पड़ गई है।
वह स्तंभित (स्थिर) सा जान पड़ता है फिर वह ग्रह वक्री हो जाता है। पाप ग्रह (मंगल, शनि) वक्री होने पर अधिक पापी हो जाते हैं तो शुभ ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र) भी वक्री होने पर अपनी शुभता में कमी महसूस करते हैं। सूर्य व चंद्र सदा ही मार्गी रहते हैं वे कभी वक्री नहीं होते राहू केतु सदा वक्री रहते हैं वे कभी भी मार्गी नहीं होते।

उदहारण के लिये यदि किसी जन्मांग से गुरु व शनि वक्री होकर लग्न में स्थित हों तो, वक्री गुरु की पाँचवीं दृष्टि कभी चौथे तो कभी कभी पंचम भाव का फल देगी। इसी प्रकार शनि की तीसरी दृष्टि द्वितीय भाव पर पड़ने से वाद-विवाद, परनिंदा में रूचि तो कभी आलस्य, अकर्मण्यता व श्रम विमुखता देगी।
विभिन्न वक्री ग्रहों का प्रभाव-
वक्री मंगल-
उत्साह, साहस, परिश्रम, पराक्रम व संघर्ष शक्ति का दाता है। वक्री मंगल जातक को असहिष्णु, अति क्रोधी तथा आतंकवादी बना सकता है।
जातक की कार्यक्षमता सृजनात्मक न होकर, विनाशकारी हो जाती है। ऐसा लगता है मानो विधाता ने भूल से विकास की बजाए ललाट पर विनाश ही लिख दिया हो।
अपनी दशा अंतर्दशा में वक्री मंगल वैर विरोध तथा आपसी मतभेद बढ़ाकर शत्रुता व मुकद्दमे बाजी भी दे सकता है।
ऐसा वक्री मंगल यदि जनमंग में दुस्थान (त्रिक भाव ६, ८, १२) में हो तो जातक हठी, जिद्दी व अड़ियल प्रकृति का होता है। भूमि भवन व शौर्य पराक्रम संबंधी उसके कार्य प्रायः आधे अधूरे छूट जाते हैं।
जातक किसी से भी सहयोग करना अपना अपमान समझता है। वह देह बल का अपव्यय कर मानो आत्म पीड़न में सुख पाता है।
मंगल एक उग्र ग्रह है जो जातक को स्वार्थी व पशुवत् बना सकता है। ऐसा जातक आत्मतुष्टि व स्वार्थ सिद्धि के लिये अनुचित व अनिष्ट कार्य करने में तनिक भी संकोच नहीं करता वक्री मंगल की दशा/अंतर्दशा में अग्रिम घटनाएं हो सकती हैं।
वक्री मंगल में सावधानियाँ
वक्री मंगल की दशा अंतर्दशा में अस्त्र-शस्त्र न खरीदें, न ही घर में घातक हथियार रखें। वाहन व नयी संपत्ति भी न खरीदें तो अच्छा है नये घर में गृह प्रवेश भी, वक्री मंगल की दशा में, अशुभ व अमंगलकारी माना गया है। यथासंभव ऑपरेशन (सर्जरी) से बचें, क्योंकि ऐसी सर्जरी प्राण घातक हो सकती है। नया मुकद्दमा शुरू करना भी उचित नहीं, कारण ये धन नाश व मानसिक अशांति देगा। नया नौकर/कर्मचारी न रखें कोई नया अनुबंध भी न करें। वक्री मंगल के गोचर में विवाह से बचें। ध्यान रहे, मंगल वायदा व वचन बद्धता का प्रतीक है। इसका वक्री होना बात से मुकर जाना, छल कपट या धोखे द्वारा हानिप्रद हो सकता है।
वक्री बुध-
साधारणतया बुध बुद्धि, वाणी, अभिव्यक्ति, शिक्षा व साहित्य के प्रति लगाव का प्रतीक है। प्रायः बुध अपनी दशा अंतर्दशा में मौलिक चिंतन तथा सृजनात्मक शक्ति बढ़ाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना करता है।
बुध वक्री होने पर अपनी दशा-अंतर्दशा में आंकड़े व तथ्यों पर आधारित लेख व पुस्तक लिखाएगा। जातक अपनी रचना में अंतर्विरोध व परिवर्तन पर अधिक बल देगा कभी तो वह त्रुटिपूर्ण व ग़लत निर्णयों को भी तर्क द्वारा उचित ठहराएगा।
वक्री बुध विचार, भावनाओं व मानसिक प्रवृतियों को प्रभावित कर उनमें क्रांतिकारी मोड़ (बदलाव) देने में सक्षम है। तर्क संगत विश्लेषण से प्रचलित मान्यताओं को ध्वस्त कर जातक मौलिक चिंतन को नयी दिशा दे सकता है।
वक्री गुरु-
साधारणतया गुरु ज्ञान, विवेक, प्रसन्नता व दैवीय ज्ञान का प्रतीक है।
जन्मांग में गुरु का वक्री होना, अदभुत दैवी शक्ति या दैवी बल का प्रतीक है। जिस कार्य को दूसरे लोग असंभव जान कर अधूरा छोड़ देते हैं वक्री गुरु वाला जातक ऐसे ही कार्यों को पूरा कर यश व प्रतिष्ठा पाता है।
अन्य शब्दों में दूसरों की असफलता को सफलता में बदल देना उसके लिये सहज संभव होता है। किसी भी योजना के गुण, दोष, शक्ति व दुर्बलताएं पहचानने की उसमे अदभुत शक्ति होती है।
चतुर्थ भावस्थ वक्री गुरु, साथियों का मनोबल बढ़ा कर, रुके या अटके हुए कार्यों को सफलतापूर्वक सिरे चढ़ाने में दक्षता देता है। जातक की दूरदृष्टि व दूरगामी प्रभावों के आंकलन की शक्ति बढ़ जाती है।
वह जोखिम उठाकर भी प्रायः सफलता प्राप्त करता है। उसकी प्रबंध क्षमता विशेषकर संकटकालीन व्यवस्था चमत्कारी हुआ करती है।
वक्री शुक्र-
शुक्र, मान-सम्मान, सुख-वैभव, वाहन, मनोरंजन, पत्नी या दाम्पत्य सुख व मैत्री पूर्ण सहयोग का प्रतीक है। साधारणतया, शुक्र यदि पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट न हो तो, जातक हंसमुख, हास्य-विनोद प्रिय, मिलनसार व पार्टी की जान होता है। उसको देखने भर से ही उदासी भाग जाती है व हँसी-खुशी का वातावरण सहज बन जाता है।
किन्तु शुक्र जब वक्री होता है तो जातक समाज में घुल मिल नहीं पाता। वह एकाकी रहना पसंद करता है।
जातक की अलगाववादी प्रवृति अपने परिवार व परिवेश में अरुचि तथा अनासक्ति बढ़ाती है। कभी गैर पारंपरिक ढंग से भी ऐसा जातक अपना प्यार वात्सल्य दर्शाता है।
यदि किसी जन्मांग में शुक्र वक्री होकर द्वादश भाव (भोग स्थान) में हो तो जातक में भोगों से पृथक रहने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। वह सुख वैभव से विमुख हो कर संन्यासी भी बन सकता है।
वक्री शनि-
शनि को काल पुरुष का दुःख माना जाता है। ये प्रायः दुःख-दारिद्र्य, कष्ट, रोग व मनस्ताप देता है।
वक्री शनि जातक को नैराश्य व अवसाद की स्थिति से उबारता है। जातक निराशा के गहन अन्धकार में भी आशा की किरण खोज लेता है।
वक्री शनि अपनी दशा या अंतर्दशा में आत्मरक्षण व अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये, जातक से सभी उचित, अनुचित कार्य करा लेता है कभी तो जातक स्वार्थ सिद्धि के लिये निम्न स्तर तक गिर सकता है।
ऐसा व्यक्ति सभा गोष्ठी में आना जाना या लोगों से अधिक मेल जोल रखना भी पसंद नहीं करता।
अपने अधिकारों के प्रति भी उदासीन रहता है। कोई व्यक्ति अपने कार्यों को गुप्त रख कर सफलता जनित सुख पाता है।

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कुण्डली में नवमांश का महत्व

कुंडली के बारे में जानते -पढ़ते -सुनते समय नवमांश कुंडली का जिक्र आप लोगों ने कई बार सुना होगा। तब मन में ये प्रश्न आता होगा कि ये नवमांश कुंडली आखिर है क्या ? कई जिज्ञासु पाठक व कई मित्र जो ज्योतिष में रूचि रखते हैं वे कई बार आग्रह कर चुके हैं कि आप नवमांश कुंडली पर भी कुछ कहें। क्या होती है ?कैसे बनती है आदि-:

सामान्यतः आप सभी को ज्ञात है कि कुंडली में नवें भाव को भाग्य का भाव कहा गया है। यानि आपका भाग्य नवां भाव है। इसी प्रकार भाग्य का भी भाग्य देखा जाता है ,जिसके लिए नवमांश कुंडली की आवश्यकता होती है। जागरूक ज्योतिषी कुंडली सम्बन्धी किसी भी कथन से पहले एक तिरछी दृष्टि नवमांश पर भी अवश्य डाल चुका होता है।बिना नवमांश का अध्य्यन किये बिना भविष्यकथन में चूक की संभावनाएं अधिक होती हैं। ग्रह का बलाबल व उसके फलित होने की संभावनाएं नवमांश से ही ज्ञात होती हैं। लग्न कुंडली में बलवान ग्रह यदि नवमांश कुंडली में कमजोर हो जाता है तो उसके द्वारा दिए जाने वाले लाभ में संशय हो जाता है। इसी प्रकार लग्न कुंडली में कमजोर दिख रहा ग्रह यदि नवमांश में बली हो रहा है तो भविष्य में उस ओर से बेफिक्र रहा जा सकता है ,क्योंकि बहुत हद तक वो स्वयं कवर कर ही लेता है।अतः भविष्यकथन में नवमांश आवश्यक हो जाता है .नवमांश कुंडली(डी-9)

षोडश वर्ग में सभी वर्ग महत्वपूर्ण होते है लेकिन लग्न कुंडली के बाद नवमांश कुंडली का विशेष महत्व है।नवमांश एक राशि के नवम भाव को कहते है जो अंश 20 कला का होता है।नो नवमांश इस प्रकार होते है जैसे, मेष में पहला नवमांश मेष का, दूसरा नवमांश वृष का, तीसरा नवमांश मिथुन का, चौथा नवमांश कर्क का, पाचवां नवमांश सिंह का, छठा कन्या का, सातवाँ तुला का, आठवाँ वृश्चिक का और नवा नवमांश धनु का होता है।नवम नवमांश में मेष राशि की समाप्ति होती है और वृष राशि का प्रारम्भ होता है।वृष राशि में पहला नवांश मेष राशि के आखरी नवांश से आगे होता है।इसी तरह वृष में पहला नवमांश मकर का, दूसरा कुंभ का, तीसरा मीन का, चौथा मेष का, पाचवा वृष का, छठा मिथुन का, सातवाँ कर्क का, आठवाँ सिंह का और नवम नवांश कन्या का होता है। इसी तरह आगे राशियों के नवमांश ज्ञात किए जाते है। नवमांश कुंडली से मुख्य रूप से वैवाहिक जीवन का विचार किया जाता है।इसके अतिरिक्त भी नवमांश कुंडली का परिक्षण लग्न कुंडली के साथ-साथ किया जाता है।यदि बिना नवमांश कुंडली देखे केवल लग्न कुंडली के आधार पर ही फल कथन किया जाए तो फल कथन में त्रुटिया रह सकती है या फल कथन गलत भी हो सकता है।क्योंकि ग्रहो की नवमांश कुंडली में स्थिति क्या है?नवमांश कुंडली में ग्रह कैसे योग बना रहे है यह देखना अत्यंत आवश्यक है तभी ग्रहो के बल आदि की ठीक जानकारी प्राप्त होती है।इसके अतिरिक्त अन्य वर्ग कुण्डलिया भी अपना विशेष महत्व रखते है।लेकिन नवमांश इन वर्गों में अति महत्वपूर्ण वर्ग है। लग्न और नवमांश कुंडली परीक्षण-:

यदि लग्न और नवमांश लग्न वर्गोत्तम हो तो ऐसे जातक मानसिक और शारीरिक रूप से बलबान होते है।वर्गोत्तम लग्न का अर्थ है।लग्न और नवमांश दोनों कुंडलियो का लग्न एक ही होना अर्थात् जो राशि लग्न कुंडली के लग्न में हो वही राशि नवमांश कुंडली के लग्न में हो तो यह स्थिति वर्गोत्तम लग्न कहलाती है।इसी तरह जब कोई ग्रह लग्न कुंडली और नवमांश कुंडली में एक ही राशि में हो तो वह ग्रह वर्गोत्तम होता है वर्गोत्तम ग्रह अति शुभ और बलबान होता है।जैसे सूर्य लग्न कुंडली में धनु राशि में हो और नवमांश कुंडली में भी धनु राशि में हो तो सूर्य वर्गोत्तम होगा।वर्गोत्तम होने के कारण ऐसी स्थिति में सूर्य अति शुभ फल देगा।वर्गोत्तम ग्रह भाव स्वामी की स्थिति के अनुसार भी अपने अनुकूल भाव में बेठा हो तो अधिक श्रेष्ठ फल करता है। शुभ राशियों में वर्गोत्तम ग्रह आसानी से शुभ परिणाम देता है और क्रूर राशियों में वर्गोत्तम ग्रह कुछ संघर्ष भी करा सकता है। जब कोई ग्रह लग्न कुण्डली में अशुभ स्थिति में हो पीड़ित हो, निर्बल हो या अन्य प्रकार से उसकी स्थिति ख़राब हो लेकिन नवमांश कुंडली में वह ग्रह शुभ ग्रहो के प्रभाव में हो, शुभ और बलबान हो गया हो तब वह ग्रह शुभ फल ही देता है अशुभ फल नही देता।इसी तरह जब कोई ग्रह लग्न कुंडली में अपनी नीच राशि में हो और नवमांश कुंडली में वह ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो उसे बल प्राप्त हो जाता है जिस कारण वह शुभ फल देने में सक्षम होता है।ग्रह की उस स्थिति को नीचभंग भी कहते है।चंद्र और चंद्र राशि से जातक का स्वभाव का अध्ययन किया जाता है।लग्न कुंडली और नवमांश कुंडली में चंद्र जिस राशि में हो तथा यदि नवमांश कुंडली के चंद्रराशि का स्वामी लग्न कुंडली के चंद्रराशि से अधिक बली हो और चंद्रमा भी लग्न कुंडली से ज्यादा नवमांश कुंडली में बली हो तो जातक का स्वभाव नवमांश कुंडली के अनुसार होगा।ऐसे में जातक के मन पर नवमांश कुंडली के चंद्र की स्थिति का प्रभाव अधिक पड़ेगा।यदि नवमांश कुंडली का लग्न, लग्नेश बली हो और नवमांश कुंडली में राजयोग बन रहा हो और ग्रह बली हो तो जातक को राजयोग प्राप्त होता है। नवमांश कुंडली मुख्यरूप से विवाह और वैवाहिक जीवन केलिए देखी जाती है यदि लग्न कुंडली में विवाह होने की या वैवाहिक जीवन की स्थिति ठीक न हो अर्थात् योग न हो लेकिन नवमांश कुंडली में विवाह और वैवाहिक जीवन की स्थिति शुभ और अनुकूल हो, विवाह के योग हो तो वैवाहिक जीवन का सुख प्राप्त होता है।

पाठक अब देखें की नवमांश कुंडली का निर्माण कैसे होता है व नवमांश में ग्रहों को कैसे रखा जाता है। हम जानते हैं कि एक राशि अथवा एक भाव 30 डिग्री का विस्तार लिए हुए होता है। अतः एक राशि का नवमांश अर्थात 30 का नवां हिस्सा यानी 3. 2 डिग्री। इस प्रकार एक राशि में नौ राशियों नवमांश होते हैं। अब 30 डिग्री को नौ भागों में विभाजित कीजिये-:

पहला नवमांश ०० से 3.२०

दूसरा नवमांश 3. २० से ६.४०

तीसरा नवमांश ६. ४० से १०. ०

चौथा नवमांश १० से १३. २०

पांचवां नवमांश १३.२० से १६. ४०

छठा नवमांश १६. ४० से २०. ००

सातवां नवमांश २०. ०० से २३. २०

आठवां नवमांश २३. २० से २६. ४०

नवां नवमांश २६. ४० से ३०. ००

मेष -सिंह -धनु (अग्निकारक राशि) के नवमांश का आरम्भ मेष से होता है।

वृष -कन्या -मकर (पृथ्वी तत्वीय राशि ) के नवमांश का आरम्भ मकर से होता है।

मिथुन -तुला -कुम्भ (वायु कारक राशि ) के नवमांश का आरम्भ तुला से होता है।

कर्क -वृश्चिक -मीन (जल तत्वीय राशि ) के नवमांश आरम्भ कर्क से होता है।

मेष -सिंह -धनु (अग्निकारक राशि) के नवमांश का आरम्भ मेष से होता है।

वृष -कन्या -मकर (पृथ्वी तत्वीय राशि ) के नवमांश का आरम्भ मकर से होता है।

मिथुन -तुला -कुम्भ (वायु कारक राशि ) के नवमांश का आरम्भ तुला से होता है।

कर्क -वृश्चिक -मीन (जल तत्वीय राशि ) के नवमांश आरम्भ कर्क से होता है।

इस प्रकार आपने देखा कि राशि के नवमांश का आरम्भ अपने ही तत्व स्वभाव की राशि से हो रहा है। अब नवमांश राशि स्पष्ट करने के लिए सबसे पहले लग्न व अन्य ग्रहादि का स्पष्ट होना आवश्यक है।

उदाहरण के लिए मानिए कि किसी कुंडली में लग्न ७:०३:१५:१४ है ,अर्थात लग्न सातवीं राशि को पार कर तीन अंश ,पंद्रह कला और चौदह विकला था (यानी वृश्चिक लग्न था ),अब हम जानते हैं कि वृश्चिक जल तत्वीय राशि है जिसके नवमांश का आरम्भ अन्य जलतत्वीय राशि कर्क से होता है। ०३ :१५ :१४ मतलब ऊपर दिए नवमांश चार्ट को देखने से ज्ञात हुआ कि ०३ :२० तक पहला नवमांश माना जाता है। अब कर्क से आगे एक गिनने पर (क्योंकि पहला नवमांश ही प्राप्त हुआ है ) कर्क ही आता है ,अतः नवमांश कुंडली का लग्न कर्क होगा। यहीं अगर लग्न कुंडली का लग्न ०७ :१८ :१२ :१२ होता तो हमें ज्ञात होता कि १६. ४० से २०. ०० के मध्य यह डिग्री हमें छठे नवमांश के रूप में प्राप्त होती। अतः ऐसी अवस्था में कर्क से आगे छठा नवमांश धनु राशि में आता ,इस प्रकार इस कुंडली का नवमांश धनु लग्न से बनाया जाता।

अन्य उदाहरण से समझें ……. मान लीजिये किसी कुंडली का जन्म लग्न सिंह राशि में ११ :१५ :१२ है (अर्थात लग्न स्पष्ट ०४ :११:१५ :१२ है )ऐसी अवस्था में चार्ट से हमें ज्ञात होता है कि ११ :१५ :१२ का मान हमें १०.०० से १३. २० वाले चतुर्थ नवमांश में प्राप्त हुआ। यानी ये लग्न का चौथा नवमांश है। अब हम जानते हैं कि सिंह का नवमांश मेष से आरम्भ होता है। चौथा नवमांश अर्थात मेष से चौथा ,तो मेष से चौथी राशि कर्क होती है ,इस प्रकार इस लग्न कुंडली की नवमांश कुंडली कर्क लग्न से बनती। इसी प्रकार अन्य लग्नो की गणना की जा सकती है।

इसी प्रकार नवमांश कुंडली में ग्रहों को भी स्थान दिया जाता है। मान लीजिये किसी कुंडली में सूर्य तुला राशि में २६ :१३ :०७ पर है (अर्थात सूर्य स्पष्ट ०६ :२६ :१३ :०७ है ) चार्ट देखने से ज्ञात कि २६ :१३ :०७ आठवें नवमांश जो कि २३. २० से २६. ४० के मध्य विस्तार लिए हुए है के अंतर्गत आ रहा है। इस प्रकार तुला से आगे (क्योंकि सूर्य तुला में है और हम जानते हैं कि तुला का नवमांश तुला से ही आरम्भ होता है ) आठ गिनती करनी है। तुला से आठवीं राशि वृष होती है ,इस प्रकार इस कुंडली की नवमांश कुंडली में सूर्य वृष राशि पर लिखा जाएगा। इसी प्रकार गणना करके अन्य ग्रहों को भी नवमांश में स्थापित किया जाना चाहिये।

ज्योतिष के विद्यार्थियों अथवा शौकिया इस शाश्त्र से जुड़ने वालों के लिए भी नवमांश का ज्ञान होना उन्हें अपने सहयोगी ज्योतिषी से एक कदम आगे रखने में बहुत मददगार साबित होगा ऐसा मेरा विश्वास है। बहुत सरल शब्दों में नवमांश का दिया गया ये उदाहरण आशा है आप सब जिज्ञासुओं को सहायक होगा।
[जानिए क्या होता है मारकेश ?? मारकेश के प्रभाव ??

मारकेश का कारण ??

कैसे करें कुण्डली में मारकेश का अध्ययन ??

प्रिय पाठकों/मित्रों, भारतीय ज्योतिष में ऐसे अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा मृत्यु का पता लगाया जा सकता है | फिर भी मृत्यु के बारे में जानते हुए भी नहीं बताना चाहिए क्योंकि शास्त्रों में यह वर्जित है | किसी व्यक्ति को इस बारे में जानने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए परन्तु फिर भी कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो उत्सुकतावश जानने के लिए अक्सर पूछते हैं की मेरी मृत्यु कब होगी, मेरी मृत्यु कैसे होगी, मेरी मृत्यु कहाँ होगी अस्तु |

मारकेश अर्थात-मरणतुल्य कष्ट या मृत्यु देने वाला वह ग्रह जिसे आपकी जन्मकुंडली में ‘मारक’ होने का अधिकार प्राप्त हैं। अलग-अलग लग्न के ‘मारक’ अधिपति भी अलग-अलग होते हैं। मारकेश की दशा जातक को अनेक प्रकार की बीमारी, मानसिक परेशानी, वाहन दुर्घटना, दिल का दौरा, नई बीमारी का जन्म लेना, व्यापार में हानि, मित्रों और संबंध‌ियों से धोखा तथा अपयश जैसी परेशानियां आती हैं।

जन्मकुण्डली का सामयिक विशलेषण करने के पश्चात ही यह ज्ञात हो सकता है कि व्यक्ति विशेष की जीवन अवधि अल्प, मध्यम अथवा दीर्घ है। जन्मांग में अष्टम भाव, जीवन-अवधि के साथ-साथ जीवन के अन्त के कारण को भी प्रदर्शित करता है। अष्टम भाव एंव लग्न का बली होना अथवा लग्न या अष्टम भाव में प्रबल ग्रहों की स्थिति अथवा शुभ या योगकारक ग्रहों की दृष्टि अथवा लग्नेश का लग्नगत होना या अष्टमेश का अष्टम भावगत होना दीर्घायु का द्योतक है।

मारकेश की दशा में व्यक्ति को सावधान रहना जरूरी होता है क्योंकि इस समय जातक को अनेक प्रकार की मानसिक, शारीरिक परेशनियां हो सकती हैं. इस दशा समय में दुर्घटना, बीमारी, तनाव, अपयश जैसी दिक्कतें परेशान कर सकती हैं. जातक के जीवन में मारक ग्रहों की दशा, अंतर्दशा या प्रत्यत्तर दशा आती ही हैं. लेकिन इससे डरने की आवश्यकता नहीं बल्कि स्वयं पर नियंत्रण व सहनशक्ति तथा ध्यान से कार्य को करने की ओर उन्मुख रहना चाहिए||

मारकेश-निर्णय के प्रसंग में यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि पापी शनि का मारक ग्रहों के साथ संबंध हो तो वह सभी मारक ग्रहों का अतिक्रमण कर स्वयं मारक हो जाता है। इसमें संदेह नहीं है। (1) पापी या पापकृत का अर्थ है पापफलदायक। कोई भी ग्रह तृतीय, षष्ठ, एकादश या अष्टम का स्वामी हो तो वह पापफलदायक होता है। ऐसे ग्रह को लघुपाराशरी में पापी कहा जाता है। मिथुन एवं कर्क लग्न में शनि अष्टमेश, मीन एवं मेष लग्न में वह एकादशेश, सिंह एवं कन्या लग्न में वह षष्ठेश तथा वृश्चिक एवं धनु लग्न में शनि तृतीयेश होता है। इस प्रकार मेष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, वृश्चिक, धनु एवं मीन इन आठ लग्नों में उत्पन्न व्यक्ति की कुंडली में शनि पापी होता है। इस पापी शनि का अनुच्छेद 45 में बतलाये गये मारक ग्रहों से संबंध हो तो वह मुख्य मारक बन जाता है। तात्पर्य यह है कि शनि मुख्य मारक बन कर अन्य मारक ग्रहों को अमारक बना देता है और अपनी दशा में मृत्यु देता है।

मारकेश ग्रह का निर्णय करने से पूर्व योगों के द्वारा अल्पायु, मध्यायु या दीर्घायु है, यह निश्चित कर लेना चाहिए क्योंकि योगों द्वारा निर्णीत आयु का समय ही मृत्यु का संभावना-काल है और इसी संभावना काल में पूर्ववर्णित मारक ग्रहों की दशा में मनुष्य की मृत्यु होती है। इसलिए संभावना-काल में जिस मारक ग्रह की दशा आती है वह मारकेश कहलाता है। इस ग्रंथ में आयु निर्णय के लिए ग्रहों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-

  1. मारक लक्षण 2. मारक एवं 3. मारकेश।

जो ग्रह कभी-कभी मृत्युदायक होता है उसे मारक लक्षण कहते हैं। जिन ग्रहों में से कोई एक परिस्थितिवश मारकेश बन जाता है वह मारक ग्रह कहलाता है और योगों के द्वारा निर्णीत आयु के सम्भावना काल में जिस मारक ग्रह की दशा-अंतर्दशा में जातक की मृत्यु हो सकती है वह मारकेश कहलाता है।

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किस ग्रह को आपकी जन्मकुंडली में ‘मारक’ होने का अधिकार प्राप्त हैं ??

मेष लग्न के लिए मारकेश शुक्र, वृषभ लग्न के लिये मंगल, मिथुन लगन वाले जातकों के लिए गुरु, कर्क और सिंह राशि वाले जातकों के लिए शनि मारकेश हैं कन्या लग्न के लिए गुरु, तुला के लिए मंगल, और वृश्चिक लग्न के लिए शुक्र मारकेश होते हैं, जबकि धनु लग्न के लिए बुध, मकर के लिए चंद्र, कुंभ के लिए सूर्य, और मीन लग्न के लिए बुध मारकेश नियुक्त किये गये हैं।सूर्य जगत की आत्मा तथा चंद्रमा अमृत और मन हैं इसलिए इन्हें मारकेश होने का दोष नहीं लगता इसलिए ये दोनों अपनी दशा-अंतर्दशा में अशुभता में कमी लाते हैं। मारकेश का विचार करते समय कुण्डली के सातवें भाव के अतिरिक्त, दूसरे, आठवें, और बारहवें भाव के स्वामियों और उनकी शुभता-अशुभता का भी विचार करना आवश्यक रहता है, सातवें भाव से आठवां द्वितीय भाव होता है जो धन-कुटुंब का भी होता हैं, इसलिए सूक्ष्म विवेचन करके ही फलादेश क‌िया जाता है।

शास्त्र में शनि को मृत्यु एवं यम का सूचक माना गया है। उसके त्रिषडायाधीय या अष्टमेश होने से उसमें पापत्व तथा मारक ग्रहों से संबंध होने से उसकी मारक शक्ति चरम बिंदु पर पहुंच जाती है। तात्पर्य यह है कि शनि स्वभावतः मृत्यु का सूचक है। फिर उसका पापी होना और मारक ग्रहों से संबंध होना- वह परिस्थिति है जो उसके मारक प्रभाव को अधिकतम कर देती है।

इसीलिए मारक ग्रहों के संबंध से पापी शनि अन्य मारक ग्रहों को हटाकर स्वयं मुख्य मारक हो जाता है। इस स्थिति में उसकी दशा-अंतर्दशा मारक ग्रहों से पहले आती हो तो पहले और बाद में आती हो तो बाद में मृत्यु होती है। इस प्रकार पापी शनि अन्य मारक ग्रहों से संबंध होने पर उन मारक ग्रहों को अपना मारकफल देने का अवसर नहीं देता और जब भी उन मारक ग्रहों से आगे या पहले उसकी दशा आती है उस समय में जातक को काल के गाल में पहुंचा देता है।

बृहद्पाराशर होराशास्त्र के अनुसार आयु के तीन प्रमुख योग होते हैं-

  1. अल्पायु, 2. मध्यमायु एवं 3. दीर्घायु। 13 वर्ष से 32 वर्ष तक अल्पायु, 33 से 64 वर्ष तक मध्यमायु तथा 65 से 100 वर्ष तक दीर्घायु मानी जाती है। सौ वर्ष से अधिक की आयु को उत्तमायु भी कह सकते हैं।

2 महर्षि पराशर का मत है कि बीस वर्ष तक आयु विचार नहीं करना चाहिए

3 क्योंकि इस समय में कुछ बालक पिता के, कुछ बालक माता के और कुछ अपने अनुचित कर्मों के प्रभाववश मर जाते हैं।

4 अपने अनुचित कर्मों का विचार करने के लिए अरिष्ट योगों का प्रतिपादन किया गया है। यद्यपि माता-पिता के अनुचित कर्मों का विचार भी अरिष्ट योगों द्वारा किया जा सकता है किंतु यह विचार बहुधा आनुमानिक होता है, पूर्ण प्रामाणिक नहीं। अतः बीस वर्ष की उम्र तक आयु का विचार नहीं करना चाहिए। बीस वर्ष की आयु हो जाने के बाद आयु का विचार किया जाता है जो इस प्रकार है- सर्वप्रथम अल्पायु, मध्यायु या दीर्घायु योगों के द्वारा जातक की आयु अल्प, मध्य या दीर्घ होगी, यह निर्धारित कर लेना चाहिए।

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बृहस्पति, शुक्र, पक्षबली चंद्रमा और शुभ प्रभावी बुध शुभ ग्रह माने गये हैं और शनि, मंगल, राहु व केतु अशुभ माने गये हैं। सूर्य ग्रहों का राजा है और उसे क्रूर ग्रह की संज्ञा दी गई है। बुध, चंद्रमा, शुक्र और बृहस्पति क्रमशः उत्तरोत्तर शुभकारी हैं, जबकि सूर्य, मंगल, शनि और राहु अधिकाधिक अशुभ फलदायी हैं। कुंडली के द्वादश भावों में षष्ठ, अष्टम और द्वादश भाव अशुभ (त्रिक) भाव हैं, जिनमें अष्टम भाव सबसे अशुभ है। षष्ठ से षष्ठ – एकादश भाव, तथा अष्टम से अष्टम तृतीय भाव, कुछ कम अशुभ माने गये हैं।

अष्टम से द्वादश सप्तम भाव और तृतीय से द्वादश – द्वितीय भाव को मारक भाव और भावेशों को मारकेश कहे हैं। केंद्र के स्वामी निष्फल होते हैं परंतु त्रिकोणेश सदैव शुभ होते हैं। नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्र के साथ ही 3, 6 या 11 भाव का स्वामी होकर अशुभ फलदायी होते हैं। ऐसी स्थिति में अशुभ ग्रह सामान्य फल देते हैं। अधिकांश शुभ बलवान ग्रहों की 1, 2, 4, 5, 7, 9 और 10 भाव में स्थिति जातक को भाग्यशाली बनाते हैं। 2 और 12 भाव में स्थित ग्रह अपनी दूसरी राशि का फल देते हैं।

शुभ ग्रह वक्री होकर अधिक शुभ और अशुभ ग्रह अधिक बुरा फल देते हैं राहु व केतु यदि किसी भाव में अकेले हों तो उस भावेश का फल देते हैं। परंतु वह केंद्र या त्रिकोण भाव में स्थित होकर त्रिकोण या केंद्र के स्वामी से युति करें तो योगकारक जैसा शुभ फल देते हैं। लग्न कुंडली में उच्च ग्रह शुभ फल देते हैं, और नवांश कुंडली में भी उसी राशि में होने पर ‘वर्गोत्तम’ होकर उत्तम फल देते हैं। बली ग्रह शुभ भाव में स्थित होकर अधिक शुभ फल देते हैं। पक्षबलहीन चंद्रमा मंगल की राशियों, विशेषकर वृश्चिक राशि में (नीच होकर) अधिक पापी हो जाता है। चंद्रमा के पक्षबली होने पर उसकी अशुभता में कमी आती है। स्थानबल हीन ग्रह और पक्षबल हीन चंद्रमा अच्छा फल नहीं देते।

विभिन्न लग्नों के भिन्न भिन्न मारकेश होते हैं यहां एक बात और समझने की है कि सूर्य व चंद्रमा को मारकेश का दोष नहीं लगता है. मेष लग्न के लिये शुक्र मारकेश होकर भी मारकेश का कार्य नहीं करता किंतु शनि और शुक्र मिलकर उसके साथ घातक हो जाते हैं. वृष लगन के लिये गुरु , मिथुन लगन वाले जातकों के लिये मंगल और गुरु अशुभ है, कर्क लगन के लिये शुक्र, सिंह लगन के लिये शनि और बुध, कन्या लगन के लिये मंगल, तुला लगन के लिए मंगल, गुरु और सूर्य, वृश्चिक लगन के लिए बुध, धनु लग्न का मारक शनि, शुक्र, मकर लगन के लिये मंगल, कुंभ लगन के लिये गुरु, मंगल, मीन लगन के लिये मंगल, शनि मारकेश का काम करता है. छठे आठवें बारहवें भाव मे स्थित राहु केतु भी मारक ग्रह का काम करते है.

यह आवश्यक नहीं की मारकेश ही मृत्यु का कारण बनेगा अपितु वह मृत्यु तुल्य कष्ट देने वाला हो सकता है अन्यथ और इसके साथ स्थित ग्रह जातक की मृत्यु का कारण बन सकता है. मारकेश ग्रह के बलाबल का भी विचार कर लेना चाहिए. कभी-कभी मारकेश न होने पर भी अन्य ग्रहों की दशाएं भी मारक हो जाती हैं. इसी प्रकार से मारकेश के संदर्भ चंद्र लग्न से भी विचार करना आवश्यक होता है. यह विचार राशि अर्थात जहां चंद्रमा स्थित हो उस भाव को भी लग्न मानकर किया जाता है. उपर्युक्त मारक स्थानों के स्वामी अर्थात उन स्थानों में पड़े हुए क्रमांक वाली राशियों के अधिपति ग्रह मारकेश कहे जाते हैं ||

सामान्य मान्यता के विपरीत यहां आपने देखा कि नैसर्गिक शुभ ग्रह तो प्रबल मारकेश की स्थिति पैदा करने में सक्षम हैं, जबकि वहीं क्रूर व पापी ग्रहों में मारकेशत्व की क्षमता कम होती है।

जबकि कथित ज्योतिर्विदों ने राहु, केतु, मंगल तथा शनि को प्रबल मारकेश बताते हुए जनता को हमेशा ही ठगने का काम किया है।

उपरोक्त सिद्धांत अनुसार मारक की स्थिति :—

१)२,७,१२ मारक स्थान हे (बहुत से ज्योतिषी 12वें भाव को मारक नहीं मानते, पर कई अन्य मानते हैं)

२)मारक स्थान के अधिपति मारक बनते हे ||

३)मारक स्थान स्थित ग्रह मारक बनते हे ||

४)द्वितीयेश ,सप्तमेश युक्त ग्रह मारक बनते हे ||

५)पाप ग्रह मारक ग्रह से द्रष्ट या युक्त हो तो मारक बनते हे ||

६)द्वितीयेश /सप्तमेश चन्द्र या सूर्य हो तो मारक नही बनते..||

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स्‍त्री पुरूष मारकेश की दशा में क्‍या करें :=

इसके अशुभ प्रभाव से बचने के लिए सरल और आसान तरीका है कि कुंडली के सप्तम भाव में यदि पुरुष राशि हो तो शिव की तथा स्त्री हों तो शक्ति की आराधना करें। संबंधित ग्रह का चार गुना मंत्र, महामृत्युंजय जाप, एवं रुद्राभिषेक करना इस दशा शांति के सरल उपाय हैं।

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आयु निर्णय का एक महत्वपूर्ण सूत्र—-

महर्षि पाराशन ने प्रत्येक ग्रह को निश्चित आयु पिंड दिये है,सूर्य को १८ चन्द्रमा को २५ मंगल को १५ बुध को १२ गुरु को १५ शुक्र को २१ शनि को २० पिंड दिये गये है उन्होने राहु केतु को स्थान नही दिया है। जन्म कुंडली मे जो ग्रह उच्च व स्वग्रही हो तो उनके उपरोक्त वर्ष सीमा से गणना की जाती है। जो ग्रह नीच के होते है तो उन्हे आधी संख्या दी जाती है,सूर्य के पास जो भी ग्रह जाता है अस्त हो जाता है उस ग्रह की जो आयु होती है वह आधी रह जाती है,परन्तु शुक्र शनि की पिंडायु का ह्रास नही होता है,शत्रु राशि में ग्रह हो तो उसके तृतीयांश का ह्रास हो जाता है।

इस प्रकार आयु ग्रहों को आयु संख्या देनी चाहिये। पिंडायु वारायु एवं अल्पायु आदि योगों के मिश्रण से आनुपातिक आयु वर्ष का निर्णय करके दशा क्रम को भी देखना चाहिये। मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा प्रत्यंतर दशा में जातक का निश्चित मरण होता है। उस समय यदि मारकेश ग्रह की दशा न हो तो मारकेश ग्रह के साथ जो पापी ग्रह उसकी दशा में जातक की मृत्यु होगी। ध्यान रहे अष्टमेश की दशा स्वत: उसकी ही अन्तर्द्शा मारक होती है। व्ययेश की दशा में धनेश मारक होता है,तथा धनेश की दशा में व्ययेश मारक होता है। इसी प्रकार छठे भाव के मालिक की दशा में अष्टम भाव के ग्रह की अन्तर्दशा मारक होती है। मारकेश के बारे अलग अलग लगनो के सर्वमान्य मानक इस प्रकार से है।

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ज्योतिष शास्त्र में आयु के विभिन्न मानदंड—-

आयुष्य निर्णय पर ज्योतिष शास्त्र के सर्वमान्य सूत्रों के संकलन उदाहरण जैमिनी सूत्र की तत्वादर्शन नामक टीका में मिलता है।

महर्षि मैत्रेय ने ऋषि पाराशर से जिज्ञासा वश प्रश्न किया कि हे मुन्हे आयुर्दाय के बहुत भेद शास्त्र में बतलाये गये है कृपाकर यह बतलायें कि आयु कितने प्रकार की होती है और उसे कैसे जाना जाता है,इस ज्योतिष के मूर्तिमंत स्वरूप ऋषि पराशन बोले –

बालारिष्ट योगारिष्ट्मल्पमध्यंच दीर्घकम।

दिव्यं चैवामितं चैवं सत्पाधायु: प्रकीर्तितम॥

हे विप्र आयुर्दाय का वस्तुत: ज्ञान होना तो देवों के लिये भी दुर्लभ है फ़िर भी बालारिष्ट योगारिष्ट अल्प मध्य दीर्घ दिव्य और अस्मित ये सात प्रकार की आयु संसार में प्रसिद्ध है।

बालारिष्ट—-

ज्योतिष शास्त्र में जन्म से आठ वर्ष की आयुपर्यंत होने वाली मृत्यु को बालारिष्ट कहा गया है। यथा लग्न से ६ ८ १२ में स्थान में चन्द्रमा यदि पाप ग्रहों से द्र्ष्ट हो तो जातक का शीघ्र मरण होता है। सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण का समय हो सूर्य चन्द्रमा राहु एक ही राशि में हों तथा लग्न पर शनि मंगल की द्रिष्टि हो तो जातक पन्द्रह दिन से अधिक जीवित नही रहता है,यदि दसवें स्थान में शनि चन्द्रमा छठे एवं सातवें स्थान में मंगल हो तो जातक माता सहित मर जाता है। उच्च का का या नीच का सूर्य सातवें स्थान में हो चन्द्रमा पापपीडित हो तो उस जातक को माता का दूध नही मिलता है वह बकरी के दूध से जीता है या कृत्रिम दूध पर ही जिन्दा रहत है। इसी प्रकार लग्न से छठे भाव में चन्द्रमा लग्न में शनि और सप्तम में मंगल हो तो सद्य जात बालक के पिता की मृत्यु हो जाती है।

इस प्रकार अनेक बालारिष्ट योगिं का वर्णन शास्त्र में मिलता है। गुणीजन बालारिष्ट से बचने का उपाय चांदी का चन्द्रमा मोती डालकर प्राण प्रतिष्ठा करके बालक के गले में पहनाते है क्योंकि चन्द्रमा सभी चराचर जीव की माता माना गया है। जिस प्रकार मां सभी अरिष्टों से अपनी संतान की रक्षा करती है उसी प्रकार से चन्द्रमा बालारिष्ट के कुयोगों से जातक की रक्षा करता है।

पित्रोर्दोषैर्मृता: केचित्केचिद बालग्रहैरपि।

अपरे रिष्ट योगाच्च त्रिविधा बालमृत्यव:॥

शास्त्रकारों ने यह स्पष्ट घोषणा की है कि जन्म से चार वर्षों के भीतर जो बालक मरता है उसकी मृत्यु माता के कुकर्मों व पापों के कारण होती है। चार से आठ वर्ष के भीतर की मौत पिता के कुकर्मों व पाप के कारण होती है,नौ से बारह वर्ष के भीतर की मृत्यु जातक के स्वंय के पूर्वजन्म कृत पाप के कारण होती है,और आठ वर्ष बाद जातक का स्वतंत्र भाग्योदय माना जाता है। इसलिये कई सज्जन बालक की सांगोपांग जन्म पत्रिका आठ वर्ष बाद ही बनाते है।

योगारिष्ट—–

आठ के बाद बीस वर्ष के पहले की मृत्यु को योगारिष्ट कहा जाता है चूंकि विशेष योग के कारण अरिष्ट होती है अत: इसे योगारिष्ट कहा जाता है।

अल्पायु योग—

बीस से बत्तिस साल की आयु को अल्पायु कहा है। मोटे तौर पर वृष तुला मकर व कुंभ लगन वाले जातक यदि अन्य शुभ योग न हो तो अल्पायु होते है। यदि लग्नेश चर मेष कर्क तुला मकर राशि में हो तो अष्टमेश द्विस्वभाव मिथुन कन्या धनु मीन राशि में हो तो अल्पायु समझना चाहिये। लगनेश पापग्रह के साथ यदि ६ ८ १२ भाव में हो तो जातक अल्पायु होता है। यदि लगनेश व अष्टमेश दोनो नीच राशिगत अस्त निर्बल यो तो अल्पायु योग होता है। दूसरे और बारहवे भाव में पापग्रह हो केन्द्र में पापग्रह हो लगनेश निर्बल हो उन पर शुभ ग्रहों की द्रिष्टि नही हो तो जातक को अल्पायु समझना चाहिये। इसी प्रकार यदि जन्म लगनेश सूर्य का शत्रु हो जातक अल्पायु माना जाता है।

यदि लग्नेश तथा अष्टमेश दोनो ही स्थिर राशि में हो तो जातक अल्पायु होता है। इसी प्रकार शनि और चन्द्रमा दोनो स्थिर राशि में हो अथवा एक चर और दूसरा द्विस्वभाव राशि में हो तो जातक अल्पायु होता है। यदि जन्म लगन तथा होरा लगन दोनो ही स्थिर राशि की हों अथवा एक चर व दूसरे द्विस्वभाव राशि की हो तो जातक अल्पायु होता है। यदि चन्द्रमा लग्न द्रिष्काण दोनो ही स्थिर राशि हो तो जातक अल्पायु होता है। यदि चन्द्रमा लगन द्रिषकाण में एक की चर और दूसरे की द्विस्वभाव राशि तो भी जातक अल्पायु होता है। शुभ ग्रह तथा लग्नेश यदि आपोक्लिम ३ ६ ८ १२ में हो तो जातक अल्पायु होता है। जिस जातक की अल्पायु हो वह विपत तारा में मृत्यु को पाता है।

मध्यायु योग—

बत्तिस वर्ष के बाद एवं ६४ वर्ष की आयु सीमा को मध्यायु के भीतर लिया गया है। यदि लग्नेश सूर्य का सम ग्रह बुध हो अर्थात मिथुन व कन्या लग्न वालों की प्राय: मध्यम आयु होती है। यदि लग्नेश तथा अष्टमेश में से एक चर मेष कर्क तुला मकर तथा दोसोअरा स्थिर यानी वृष सिंह वृश्चिक कुंभ राशि में हो तो जातक मध्यायु होता है। यदि लगनेश व अष्टमेश दोनो ही द्विस्वभाव राशि में हो तो जातक की मध्यम आयु होती है। यदि चन्द्रमा तथा द्रेषकाण में एक की चर राशि तथा दूसरे की स्थिर राशि हो तो जातक मध्यामायु होता है। यदि शुभ ग्रह पणफ़र यानी २ ५ ८ ११ में हो तो जातक की मध्यमायु होती है। मध्यायु प्रमाण वाले जातक की मृत्यु प्रत्यरि तारा में होती है।

दीर्घायु योग—-

६४ से १२० साल के मध्य को दीर्घायु कहा जाता है। यदि जन्म लगनेश सूर्य का मित्र होता है तो जातक की दीर्घायु मानी जाती है। लगनेश और अष्टमेश दोनो ही चर राशि में हो तो दीर्घायु योग माआ जाता है।यदि लगनेश और अष्टमेश दोनो में एक स्थिर और एक द्विस्वभाव राशि में हो तो भी दीर्घायु योग का होना माना जाता है। यदि शनि और चन्द्रमा दोनो ही चर राशि में हो अथवा एक चर राशि में और दूसरा द्विस्वभाव राशि में हो तो दीर्घायु होग होता है। यदि जन्म लगन तथा होरा लग्न दोनो ही चर राशि की हो अथवा एक स्थिर व दूसरी द्वस्वभाव राशि की हो तो जातक दीर्घायु होता है। यदि चन्द्रमा तथा द्रेषकाण दोनो की चर राशि हो तो जातक दीर्घायु होता है यदि शुभ ग्रह तथा लगनेश केंद्र में हो तो जातक दीर्घायु होता है। लगनेश केन्द्र में गुरु शुक्र से युत या द्र्ष्ट हो तो भी पूर्णायु कारक योग होता है,लगनेश अष्टमेश सहित तीन ग्रह उच्च स्थान में हो तथा आठवां भाव पापग्रह रहित हो तो जातक का पूर्णायु का योग होता है। लगनेश पूर्ण बली हो तथा कोई भी तीन ग्रह उच्च स्वग्रही तथा मित्र राशिस्थ होकर आठवें में हो तो जातक की पूर्णायु होती है।

दिव्यायु—

सब शुभ ग्रह केन्द्र और त्रिकोण में हो और पाप ग्रह ३ ६ ११ में हो तथा अष्टम भाव में शुभ ग्रह की राशि हो तो दिव्य आयु का योग होता है। ऐसा जातक यज्ञ अनुष्ठान योग और कायाकल्प क्रिया से हजार वर्ष तक जी सकता है।

अमित आयु योग—

यदि गुरु गोपुरांश यानी अपने चतुर्वर्ग में होकर केन्द्र में हो शुक्र पारावतांश यानी अपने षडवर्ग में एवं कर्क लगन हो तो ऐसा जातक मानव नही होकर देवता होता है,उसकी आयु की कोई सीमा नही होती है वह इच्छा मृत्यु का कवच पहिने होता है।

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वार से आयु की गणना करना—

मानसागरी व अन्य प्राचीन जातक ग्रंथो मे वारायु की गणना दी गयी है। उनके अनुसार रविवार का जन्म हो तो जातक ६० साल जियेगा परन्तु जन्म से पहला छठा और बाइसवां महिने में घात होगा,सोमवार का जन्म हो तो जातक ८४ साल जिन्दा रहेगा लेकिन ग्यारहवे सोलहवे और सत्ताइसवे साल में पीडा होगी मंगलवार को जन्म लेने वाला जातक चौहत्तर साल जियेगा,लेकिन जन्म से दूसरे व बाइसवें वर्ष में पीडा होगी,बुधवार को जन्म लेने वाला जातक चौसठ साल जियेगा,लेकिन आठवें महिने और साल में घात होगी,गुरुवार को जन्म लेने वाले जातक की उम्र चौरासी साल होती है लेकिन सात तेरह और सोलह साल में कष्ट होता है,शुक्रवार को जन्म लेकर जातक ६० साल जिन्दा रहता है,शनिवार का जन्म हो तो तेरहवे साल में कष्ट पाकर सौ साल के लिये उसकी उम्र मानी जाती है

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जन्मकुंडली में जन्म लग्न आपके शरीर का परिचायक है और अष्टम भाव से मृत्यु के बारे में जाना जा सकता है | अष्टम से अष्टम भाव यानी तीसरा भाव मारकेश का होता है | यदि व्यक्ति की मृत्यु अस्वाभाविक होती है तो मारकेश का योगदान निश्चित है | मारकेश का पता दुसरे भाव से भी लगाया जा सकता है क्योंकि दूसरा घर भी मारकेश का होता है और साथ ही सातवां भाव भी मारकेश की स्थिति दर्शाता है |

सूर्य और चन्द्र लग्न से भी देखना चाहिए कि अष्टम भाव कैसा है | उसकी क्या दशा है | दूसरा, तीसरा, सातवाँ और ग्यारहवां भाव भी ध्यान से देखना चाहिए | केवल जन्म लग्न से की गई गणना गलत साबित हो सकती है | जन्म लग्न, चन्द्र लग्न और सूर्य लग्न तीनों कमजोर हों तो व्यक्ति अल्पायु होता है | इसके अतिरिक्त यदि अष्टमेश भी कमजोर हो तो निस्संदेह व्यक्ति अल्पायु होता है | यदि किसी शुभ ग्रह की दृष्टि लग्न और लग्नेश पर हो तो आयु में कुछ इजाफा तो होता है परन्तु व्यक्ति अल्पायु ही रहता है | अब यह सब व्यक्ति के ग्रहों के बलाबल पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की आयु क्या होगी |

हस्तरेखा शास्त्र के अनुसार भी आयुनिर्णय किया जा सकता है | मेरे विचार में मणिबंध इसमें विशेष भूमिका निभाता है | यदि जीवनरेखा कमजोर हो छोटी हो तो भी व्यक्ति ७० वर्ष की उम्र को पार कर सकता है यदि मंगल रेखा बलवान हो | मेरे विचार में जीवन रेखा से अधिक महत्वपूर्ण मंगल रेखा होती है जो आपको जीवन में कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है | स्वास्थ्य में गिरावट नहीं आने देती और व्यक्ति बीमार कम पढता है | यदि बीमार होता भी है तो कुछ समय के बाद ठीक हो जाता है | मंगल रेखा बलवान हो तो व्यक्ति जीवनपर्यंत निरोगी रहता है और जब मरता है तब मृत्यु स्वाभाविक होती है | सब मणिबंध और मंगल रेखा पर निर्भर है | हाँ यदि हार्ट अटैक की बात करें तो हृदय रेखा का आंकलन अनिवार्य है |

मृत्यु तो एक सच्चाई है जो एक शाश्वत सत्य है | मरने से डरने वाले लोग अक्सर मरने की तारीख जानकार जल्दी न मर जाएँ इसलिए इस तरह के सवालों के जवाब नहीं दिए जाते | कम से कम पाठक मुझसे यह अपेक्षा मत करें कि पूछने पर मैं आयु बता दूंगा | इस सन्दर्भ में और अधिक जानकारी के लिए यदि पाठकों के पत्र या ईमेल आयेंगे तो और संक्षेप में बताने की चेष्टा करूंगा | फिलहाल इस लेख के द्वारा मेरा पाठकों से निवेदन है कि यदि किसी बंधू को लगता हो की वह अल्पायु है तो उपायों द्वारा समाधान करके एक प्रयास किया जा सकता है | मृत्यु को नहीं हराया जा सकता परन्तु अकाल मृत्यु से बचा अवश्य जा सकता है |

मारक ग्रहों की दशा, अंतर्दशा या प्रत्यत्तर दशा में उपाय :—

—शिव आराधना से लाभ मिलना है.

—मारक ग्रहों की दशा मे उनके उपाय करना चाहिए.

—महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। महामृत्युंजय मंत्र इस प्रकार है:–

ॐ हौं ॐ जूं ॐ स: भूर्भुव: स्वःत्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्।

उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतातॐ भूर्भुव: स्वः ॐ जूं स: हौं ॐ।।

—-इस विषय में राम रक्षा स्त्रोत, महामृत्युंजय मन्त्र, लग्नेश और राशीश के मन्त्रों का अनुष्ठान और गायत्री मन्त्रों द्वारा आयु में कुछ वृद्धि की जा सकती है ऐसा मेरा मानना है |

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किसी किसी की पत्रिका में षष्ठ भाव व अष्टमेश का स्वामी भी अशुभ ग्रहों के साथ हो तो ऐसे योग बनते हैं।

वाहन से दुर्घटना के योग के लिए शुक्र जिम्मेदार होगा। लोहा या मशीनरी से दुर्घटना के योग का जिम्मेदार शनि होगा। आग या विस्फोटक सामग्री से दुर्घटना के योग के लिए मंगल जिम्मेदार होगा। चौपायों से दुर्घटनाग्रस्त होने पर शनि प्रभावी होगा। वहीं अकस्मात दुर्घटना के लिए राहु जिम्मेदार होगा। अब दुर्घटना कहाँ होगी? इसके लिए ग्रहों के तत्व व उनका संबंध देखना होगा।

· षष्ठ भाव में शनि शत्रु राशि या नीच का होकर केतु के साथ हो तो पशु द्वारा चोट लगती है।

· षष्ठ भाव में मंगल हो व शनि की दृष्टि पड़े तो मशीनरी से चोट लग सकती है।

· अष्टम भाव में मंगल शनि के साथ हो या शत्रु राशि का होकर सूर्य के साथ हो तो आग से खतरा हो सकता है।

· चंद्रमा नीच का हो व मंगल भी साथ हो तो जल से सावधानी बरतना चाहिए।

· केतु नीच का हो या शत्रु राशि का होकर गुरु मंगल के साथ हो तो हार्ट से संबंधित ऑपरेशन हो सकता है।

· ‍शनि-मंगल-केतु अष्टम भाव में हों तो वाहनादि से दुर्घटना के कारण चोट लगती है।

· वायु तत्व की राशि में चंद्र राहु हो व मंगल देखता हो तो हवा में जलने से मृत्यु भय रहता है।

· अष्टमेश के साथ द्वादश भाव में राहु होकर लग्नेश के साथ हो तो हवाई दुर्घटना की आशंका रहती है।

· द्वादशेश चंद्र लग्न के साथ हो व द्वादश में कर्क का राहु हो तो अकस्मात मृत्यु योग देता है।

· मंगल-शनि-केतु सप्तम भाव में हों तो उस जातक का जीवनसाथी ऑपरेशन के कारण या आत्महत्या के कारण या किसी घातक हथियार से मृत्यु हो सकती है।

· अष्टम में मंगल-शनि वायु तत्व में हों तो जलने से मृत्यु संभव है।

· सप्तमेश के साथ मंगल-शनि हों तो दुर्घटना के योग बनते हैं।

इस प्रकार हम अपनी पत्रिका देखकर दुर्घटना के योग को जान सकते हैं। यह घटना द्वितीयेश मारकेश की महादशा में सप्तमेश की अंतरदशा में अष्टमेश या षष्ठेश के प्रत्यंतर में घट सकती है।

उसी प्रकार सप्तमेश की दशा में द्वितीयेश के अंतर में अष्टमेश या षष्ठेश के प्रत्यंतर में हो सकती है। जिस ग्रह की मारक दशा में प्रत्यंतर हो उससे संबंधित वस्तुओं को अपने ऊपर से नौ बार विधिपूर्वक उतारकर जमीन में गाड़ दें यानी पानी में बहा दें तो दुर्घटना योग टल सकता है।

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लग्नों के मारकेश :—

मेष लग्न मारकेश :शनि और शुक्र।

वृष लग्न :गुरु।

मिथुन लग्न :मंगल और गुरु।

कर्क लग्न : शुक्र।

सिंह लग्न : शनि और बुध.

कन्या लग्न :मंगल।

तुला लग्न : मंगल।

वृश्चिक लग्न : बुध.

धनु लग्न: शनि, शुक्र।

मकर लगन :मंगल।

कुंभ लग्न :गुरु, मंगल।

मीन लगन : मंगल, शनि।

मारक ग्रहों की दशा, अंतर्दशा या प्रत्यत्तर दशा में : मानसिक, शारीरिक , दुर्घटना, बीमारी, तनाव, अपयश जैसी परेशानी आ सकती हैं. मृत्यु तुल्य कष्ट हो सकता है

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मारकेश विचार—-

मनुष्य का जन्मांग चक्र बारह खानों में विभाजित है, जिन्हें स्थान कहते हैं। जन्मांग चक्र के अष्टम स्थान से आयु का विचार किया जाता है और उस अष्टम स्थान से जो अष्टम स्थान अर्थात लग्न से तृतीय स्थान भी आयु स्थान होता है। इस प्रकार प्रत्येक कुंडली में लग्न से अष्टम स्थान और तृतीय स्थान आयु के स्थान होते हैं। इन स्थानों के व्यय स्थान अर्थात सप्तम और द्वितीय स्थान मृत्यु स्थान या मारक स्थान कहलाता है। यह विचार राशि अर्थात जहां चंद्रमा स्थित हो उस भाव को भी लग्न मानकर किया जाना चाहिए। उपर्युक्त मारक स्थानों के स्वामी अर्थात उन स्थानों में पड़े हुए क्रमांक वाली राशियों के अधिपति ग्रह मारकेश कहे जाते हैं। लग्न स्थान शरीर का विचार करता है।

इस दृष्टि से लग्न के भी व्यय स्थान अर्थात बारहवें भाव को भी मारक कहा गया है। जातक के जन्म समय में पूर्वी क्षितिज में स्थित राशि के आधार पर लग्न का तथा उस समय उपस्थित नक्षत्र के आधार पर जन्म राशि का निर्धारण किया जाता है। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन राशियों के स्वामी क्रमश: मंगल, शुक्र, बुध, चंद्र, सूर्य, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, शनि, गुरु होते हैं, जिनमें सूर्य, मंगल, शनि पाप ग्रह और गुरु तथा शुक्र शुभ माने जाते हैं, जबकि बुध पाप ग्रहों का सहचारी होने से या पापयुक्त होने से पापग्रह और बिना पापग्रहों के साथ-साथ के शुभ ग्रह होता है। इसी प्रकार चंद्रमा भी क्षीण होने पर पाप ग्रह और बलवान या पूर्व होने पर शुभ ग्रह है।

दशा विचार की दृष्टि से बिना पापयुक्त शुभ ग्रह और पूर्ण चंद्र केंद्राधिपति (कुंडली के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम स्थानों के स्वामी) होने पर पापप्रद हो जाते हैं। इसी प्रकार पापग्रह केंद्राधिपति होने पर शुभ हो जाते हैं। त्रिकोण स्थानों पंचम, नवम स्थानों के स्वामी सदैव शुभ ग्रह तीन, छह, ग्यारह स्थानों के स्वामी पाप ग्रह होते हैं। सूर्य और चंद्रमा को छोड़कर अष्टमेश पाप ग्रह होता है, किंतु यदि वह लग्नेश भी हो तो पाप ग्रह नहीं होता है। त्रिकोणेशों में पंचमेश विशेष बलवान होता है और केंद्रेशों में लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम के स्वामी क्रमश: बलवान होते हैं। इस प्रकार मंगल और शुक्र अष्टमेश होने पर भी पाप ग्रह नहीं होते, सप्तम स्थान मारक, केंद्र स्थान है। अत: गुरु या शुक्र आदि सप्तम स्थान के स्वामी हों तो वह प्रबल मारक हो जाते हैं। इनसे कम बुध और चंद्र सबसे कम मारक होता है। शनि के मारक से संबद्ध मात्र होने से ही मारकत्व में प्रबलता आ जाती है।

तीनों मारक स्थानों में द्वितीयेश के साथ वाला पाप ग्रह सप्तमेशके साथ वाले पाप ग्रह से अधिक द्वितीय भाव में स्थित पाप ग्रह सप्तम भाव में स्थित पाप ग्रह से अधिक, किंतु सप्तमेश के साथ रहने वाले पाप ग्रह से कम इसी प्रकार द्वितीयेश सप्तमेश से अधिक किंतु सप्तमस्थ पाप ग्रह से कम होता है। इसके अतिरिक्त द्वादशेश और उसके साथ वाले पापग्रह षष्ठेश एवं एकादशेश भी कभी-कभी मारकेश होते हैं। इस प्रकार पाप ग्रह का मारकत्व सबसे कम तदनंतर षष्ठेश एवं एकदाशेश, तृतीयेश, अष्टमेश द्वादशस्य पाप ग्रह द्वादशेश, सप्तमेश द्वितीयेश सप्तमस्थ पाप ग्रह और द्वितीयस्थ पाप ग्रह फिर सप्तमेश के साथी पाप ग्रह तथा अंत में द्वितीयेश के साथ वाले पाप ग्रह क्रमश: बलवान होते हैं।

मारकेश के द्वितीय भाव सप्तम भाव की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हैं और इसके स्वामी से भी ज्यादा उसके साथ रहने वाला पापग्रह। स्वामी तो महत्वपूर्ण है ही, किंतु उसके साथी पाप ग्रहों का भी निर्णय विचार पूर्वक करना चाहिए। सामान्यतया यह समझा जाता है कि मारकेश जातक की मृत्यु के कारण होते हैं, किंतु मारकेश द्वारा सूचित मृत्यु यदि जातक की आयु हो तो मृत्यु तुल्य कष्ट के भी परिचायक होते हैं। चाहें तो शारीरिक या भयानक अपमान आदि के द्वारा मानसिक ही क्यों न हों। इसलिए मारकेश विचार के साथ-साथ जातक की आयु के संबंध में भी विचार कर लेना चाहिए। जैमिनीय मतानुसार चक्र का प्रयोग किया जा सकता है। यदि आयु विचार से आयु है तो मारकेश मारक नहीं होगा साथ ही जातक से संबद्ध पुत्र- पत्नी पिता आदि के जन्मांगों से भी जातक के संबंधानुसार उसकी आयु का विचार कर लेना चाहिए। इतना ही नहीं मारकेश ग्रह के बलाबल का भी विचार कर लेना चाहिए कि कौन सा ग्रह मारकेश के दोष का शमन कर सकता है जैसा कि कहा गया है कि राहु के दोष को बुध इन दोनों के दोष को शनि तथा राहु, बुध, शनि तीनों के दोषों का मंगल, मंगल समेत चारों के दोष को शुक्र, पांचों के दोष को गुरू, गुरू समेत छहों के दोष को चंद्रमा और सभी के दोष को उत्तरायण का सूर्य दूर करने में सहायक होता है। इस संदर्भ में ग्रहों की विफलता भी विचारणीय है। सूर्य के सहित चंद्र चतुर्थ भाव में बुध, पंचम में बृहस्पति, षष्ठ में शुक्र और द्वितीय में मंगल, सप्तम भाव में स्थित चंद्रमा विफल होता है।

कभी-कभी मारकेश न रहने पर भी अन्य ग्रहों की दशाएं भी मारक हो जाती हैं जैसे – केतु, शुक्र, मंगल, बुध की महादशा में जन्म लेने वालों के लिए क्रमश: मंगल,वृहस्पति और राहु की दशाएं मृत्यु कारक होती हैं। मारकेश के निवारण हेतु मारक ग्रह का दान, जप एवं आयुष्य कारक ग्रह के रत्न धारण महामृत्युंजय एवं चंडी के प्रयोग बताए गए हैं। ज्योतिष शास्त्र में कथितु आयु औसत आयु होती है जो सत्कर्म से बढ़ती है और दुष्कर्म से ह्रास को प्राप्त होती है। कृपा चाहे वह गुरु की हो या इष्ट की, ज्योतिषी और जातक दोनों को ही प्रभावित करने वाली होती है, इसलिए वह शास्त्रीय विचार से भी सर्वोपरि है।

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मारकेश की दशा आने से पहले बरतें सावधानी—-

फलित ज्योतिष के अनुसार किसी भी जातक के जीवन में ‘मारकेश’ ग्रह की दशा के मध्य घटने वाली घटनाओं की सर्वाधिक सटीक एवं सत्य भविष्यवाणी की जा सकती है, क्योंकि मारकेश वह ग्रह होता है जिसका प्रभाव मनुष्य के जीवन में शत-प्रतिशत घटित होता है | यह दशा जीवन में कभी भी आये चाहे जीतनी बार आये, व्यक्ति के जीवन में अपनी घटनाओं से अमिट छाप छोड़ ही जाती हैं |

मैंने ऐसे हज़ारों जातकों की जन्मकुंडलिओं का विवेचन किया है, और पाया कि जिन-जिन लोंगों को मारकेश की दशा लगी वै कहीं न कहीं अधिक परेशानी में दिखें | मारकेश अर्थात- मरणतुल्य कष्ट देने वाला वह ग्रह जिसे आपकी जन्मकुंडली में ‘मारक’ होने का अधिकार प्राप्त है, आपको सन्मार्ग से भटकने से रोकने के लिए सत्य एवं निष्पक्ष कार्य करवाने और न करने पर प्रताड़ित करने का अधिकार प्राप्त है |

कुंडली में अलग-अलग लग्न में जन्म लेने वाले जातकों के ‘मारक’ अधिपति भी अलग-अलग होते हैं ! इनमे मेष लग्न के लिये मारकेश शुक्र, वृषभ लग्न के लिये मंगल, मिथुन लगन वाले जातकों के लिए गुरु, कर्क और सिंह राशि वाले जातकों के लिए शनि मारकेश हैं, कन्या लग्न के लिए गुरु, तुला के लिए मंगल, और बृश्चिक लग्न के लिए शुक्र मारकेश होते हैं, जबकि धनु लग्न के लिए बुध, मकर के लिए चंद्र, कुंभ के लिए सूर्य, और मीन लग्न के लिए बुध मारकेश नियुक्त किये गये हैं |

सूर्य जगत की आत्मा तथा चंद्रमा अमृत और मन हैं इसलिए इन्हें मारकेश होने का दोष लगता इसलिए ये दोनों अपनी दशा-अंतर्दशा में अशुभता में कमी लाते हैं | मारकेश का विचार करते समय कुण्डली के सातवें भाव के अतिरिक्त, दूसरे, आठवें, और बारहवें भाव के स्वामियों और उनकी शुभता-अशुभता का भी विचार करना आवश्यक रहता है, सातवें भाव से आठवाँ द्वितीय भाव होता है जो धन-कुटुंब का भी होता है इसलिए सूक्ष्म विवेचन करके ही फलादेश कहना चाहिए |

मारकेश की दशा जातक को अनेक प्रकार की बीमारी, मानसिक परेशानी, वाहन दुर्घटना, दिल का दौरा, नई बीमारी का जन्म लेना, व्यापार में हानि, मित्रों और सम्बन्धियों से धोखा तथा अपयश जैसी परेशानियाँ आती हैं |

इसके के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए सरल और आसान तरीका है, कि कुंडली के सप्तम भाव में यदि पुरुष राशि हो तो शिव की तथा स्त्री हों तो शक्ति की आराधना करें | सम्बंधित ग्रह का चौगुना मंत्र, महामृत्युंजय जाप, एवं रुद्राभिषेक करना इस दशा शांति के सरल उपाय हैं ! इसके अतिरिक्त जो भी ग्रह मारकेश हो उसी का ‘कवच’ पाठ करें, ध्यान रहे दशा आने से एक माह पहले ही आचरण में सुधार लायें और अपनी सुबिधा अनुसार स्वयं उपाय करें |

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अपनी राशियों के हिसाब से जानें आप अपना मारकेश–

मेष लग्न- मेष लग्न के लिए शुक्र दूसरे एंव सातवें भाव का मालिक है, किन्तु फिर भी जातक के जीवन को समाप्त नहीं करेगा। यह गम्भीर व्याधियों को जन्म दे सकता है। मेष लग्न में शनि दशवें और ग्यारहवें भाव का अधिपति होकर भी अपनी दशा में मृत्यु तुल्य कष्ट देगा।

वृष-वृष लग्न के लिए मंगल सातवें एंव बारहवें भाव का मालिक होता है जबकि बुध दूसरे एंव पांचवें भाव का अधिपति होता है। वृष लग्न में शुक्र, गुरू व चन्द्र मारक ग्रह माने जाते है।

मिथुन-इस लग्न में चन्द्र व गुरू दूसरे एंव सातवें भाव के अधिपति है। चन्द्रमा प्रतिकूल स्थिति में होने पर भी जातक का जीवन नष्ट नहीं करता है। मिथुन लग्न में बृहस्पति और सूर्य मारक बन जाते है।

कर्क-शनि सातवें भाव का मालिक होकर भी कर्क के लिए कष्टकारी नहीं होता है। सूर्य भी दूसरे भाव का होकर जीवन समाप्त नहीं करता है। लेकिन कर्क लग्न में शुक्र ग्रह मारकेश होता है।

सिंह-इस लग्न में शनि सप्तमाधिपति होकर भी मारकेश नहीं होता है जबकि बुध दूसरे एंव ग्यारहवें भाव अधिपति होकर जीवन समाप्त करने की क्षमता रखता है।

कन्या-कन्या लग्न के लिए सूर्य बारहवें भाव का मालिक होकर भी मृत्यु नहीं देता है। यदि द्वितीयेश शुक्र , सप्तमाधिपति गुरू तथा एकादश भाव का स्वामी पापक्रान्त हो तो मारक बनते है किन्तु इन तीनों में कौन सा ग्रह मृत्यु दे सकता है। इसका स्क्षूम विश्लेषण करना होगा।

तुला-दूसरे और सातवें भाव का मालिक मंगल मारकेश नहीं होता है, परन्तु कष्टकारी पीड़ा जरूर देता है। इस लग्न में शुक्र और गुरू यदि पीडि़त हो तो मारकेश बन जाते है।

वृश्चिक-गुरू दूसरे भाव का मालिक होकर भी मारकेश नहीं होता है। यदि बुध निर्बल, पापक्रान्त हो अथवा अष्टम, द्वादश, या तृतीय भावगत होकर पापग्रहों से युक्त हो जाये तो मारकेश का रूप ले लेगा।

धनु-शनि द्वितीयेश होने के उपरान्त भी मारकेश नहीं होता है। बुध भी सप्तमेश होकर भी मारकेश नहीं होता है। शुक्र निर्बल, पापक्रान्त एंव क्रूर ग्रहों के साथ स्थिति हो तो वह मारकेश अवश्य बन जायेगा।

मकर-मकर लग्न में शनि द्वितीयेश होकर भी मारकेश नहीं होता है क्योंकि शनि लग्नेश भी है। सप्तमेश चन्द्रमा भी मारकेश नहीं होता है। मंगल एंव गुरू यदि पापी या अशुभ स्थिति में है तो मारकेश का फल देंगे।

कुम्भ-बृहस्पति द्वितीयेश होकर मारकेश है किन्तु शनि द्वादशेश होकर भी मारकेश नहीं है। मंगल और चन्द्रमा भी यदि पीडि़त है तो मृत्यु तुल्य कष्ट दे सकते है।

मीन-मंगल द्वितीयेश होकर भी मारकेश नहीं होता है। मीन लग्न में शनि और बुध दोनों मारकेश सिद्ध होंगे। अष्टमेश सूर्य एंव षष्ठेश शुक्र यदि पापी है और अशुभ है तो मृत्यु तुल्य कष्ट दे सकते है।

शुभम भवतु ..

कल्याण हो …..
: अंगो के फड़कने का रहस्य

अन्य प्राणियों की तुलना में हमारा शरीर काफी संवेदनशील होता है। यही कारण है कि भविष्य में होने वाली घटना के प्रति हमारा शरीर पहले ही आशंका व्यक्त कर देता है। शरीर के विभिन्न अंगों का फड़कना भी भविष्य में होने वाली घटनाओं से हमें अवगत कराने का एक माध्यम है। अंगों के फड़कने से भी शुभ-अशुभ की सूचना मिलती है. प्रत्येक अंग की एक अलग ही महत्ता है, एक अलग ही विशेषता है और उनकी फडकने का एक अलग ही अर्थ होता है।

सिर के हिस्सों के फड़कने का फल

सिर के अलग-अलग हिस्सों के फड़कने का भिन्न-भिन्न अर्थ होता है जैसे- मस्तक फड़कने से भौतिक सुखों की aप्राप्ति होती है। कनपटी फड़के तो इच्छाएं पूर्ण होती है। सिर के बाँयी ओर के हिस्से में फडकन हो तो इसे बहुत ही शुभ माना गया है। आने वाले दिनों में यात्रा करनी पड सकती है. यदि आपकी यात्रा बिजनेस से सम्बंधित है तो ज्यादा नहीं तो थोडा बहुत लाभ अवश्य होगा. आपके सिर के दांयी ओर के हिस्से में फडकन है तो यह शुभ फलदायक स्थिति है आपको धन, किसी राज सम्मान, नौकरी में पदोंन्नती, किसी प्रतियोगिता में पुरस्कार, लाटरी में जीत, भूमि लाभ आदि की प्राप्ति हो सकती है।
आपके सिर का पिछला हिस्सा फडकता है तो समझ लीजिए आपका विदेश जाने का योग बन रहा है और वहाँ आपको धन की प्राप्ति भी होने वाली है. लेकिन अपने देश में लाभ की कोई संभवना नहीं है आपके सिर के अगले हिस्से में फडकन हो रही है तो यह स्थिति स्वदेश या परदेश दोनों में ही धन मान प्राप्ति का कारण बन सकती है।
आपका सम्पूर्ण सिर फडक रहा है तो यह सबसे अधिक शुभ स्थिति है आपको दुसरे का धन मिल सकता है, मुकद्दमे में जीत हो सकती है. राजसम्मान मिल सकता है. या फिर भूमि की प्राप्ति हो सकती है।
कंठ आदि का फड़कना
कंठ गला तेज गति से फडकता है तो स्वादिष्ट और मनपसंद भोजन मिलता है. किसी स्त्री का कंठ फडकता है तो उसे गले का आभूषण प्राप्त होता है।
कंठ का बांया भाग फड़कता है तो धन की उपलब्धि कराता है. किसी स्त्री के कंठ के निचले हिस्से का फडकना कम मूल्य के आभूषणों की प्राप्ति की सूचना देता है । कंठ का उपरी भाग फडकता है तो सोने की माला मिलने की संभावना बड जाति है। कंठ की घाटी के नीचे फडकन होती है तो किसी हथियार से घायल होने की संभावना रहती है।
सम्पूर्ण मूँछो में फडकन है तो इसका फल बहुत ही शुभ माना गया है इससे दूध, दही, घी, धन धान्य का योग बनता है। अगर आपकी मूंछ का दांया हिस्सा फडकता है तो इसे शुभ समझना चाहिए। आपकी बाँयी मूंछ फडकती है तो आपका किसी से बहस या झगडा हो सकता है।
आपके तालू में फडकन है तो यह आर्थिक लाभ का शुभ संकेत है. दाया तालू में फडकन है तो यह बिमारी की सूचना दे रहा है। बाये तालू में फडकन है तो आप किसी अपराध में जेल जा सकते है।

आँख के फड़कने का फल

दाहिनी आंख व भौंह फड़के तो समस्त अभिलाषा पूर्ण होती है। बांई आंख व भौंह फड़के तो शुभ समाचार मिलता है। दायीं आँख ऊपर की ओर के फलक में फडकती है तो धन कीर्ति आदि की वृद्धि होती है। नौकरी में पदोन्नति होती है नीचे का फलक फडकता है तो अशुभ होने की संभवना रहती है।
बाँयी आँख का उपरी फलक फडकता है तो दुश्मन से और अधिक दुश्मनी हो सकती है. नीचे का फलक फडकता है तो किसी से बेवजह बहस हो सकती है और अपमानित होना पड सकता है।
बाँयी आँख की नाक की ओर का कोना फडकता है जिसका फल शुभ होता है. पुत्र प्राप्ति की सूचना मिल सकती है या किसी प्रिय व्यक्ति से मुलाकात हो सकती है।

दांयी आँख फडकती है तो यह शुभ फलदायक होता है. लेकिन अगर किसी स्त्री की दांयी आँख फडकती है तो उसे अशुभ माना जाता है।

दोनों आँखे एक साथ फडकती हो तो चाहे वह स्त्री की हो या पुरुष की उनका फल एक जैसा ही होता है। किसी बिछुडे हुए अच्छे मित्र से मुलाकात हो सकती है।

दांयी आँख पीछे की ओर फडकती है तो इसका फल अशुभ होता है। बाँयी आँख ऊपर की और फडकती हो तो इसका फल शुभ होता है. स्त्री की बाँयी आँख फडकती हो तो शुभ फल होता है।

दोनों गाल यदि फड़के तो अतुल धन की प्राप्ति होती है। यदि होंठ फडफ़ड़ाएं तो हितैषी का आगमन होता है। मुंह का फड़कना पुत्र की ओर से शुभ समाचार का सूचक होता है। यदि लगातार दाहिनी पलक फडफ़ड़ाए तो शारीरिक कष्ट होता है।

शरीर के मध्य भागों के फड़कने का फल

पीठ फड़के तो विपदा में फंसने की संभावना रहती है। दाहिनी ओर की बगल फड़के तो नेत्रों का रोग हो जाता है। पसलियां फड़के तो विपदा आती है। छाती में फडफ़ड़ाहट मित्र से मिलने का सूचक होती है। ह्रदय का ऊपरी भाग फड़के तो झगड़ा होने की संभावना होती है। नितंबों के फड़कने पर प्रसिद्धि व सुख मिलता है। आपके पेट में फडकन है तो यह अन्न की समृद्धि की सूचना देता है। यदि पेट का दांया हिस्सा फडक रहा है तो घर में धन दौलत की वृद्धि होगी सुख और खुशहाली बडती है.अगर आपके पेट का बांया हिस्सा फडकता है तो धन समृद्धि धीमी गति से बडती है वैसे यह शुभ नहीं है. पेट का उपरी भाग फडकता है तो यह अशुभ होता है। लेकिन पेट के नीचे का भाग फडकता है तो स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति होती है।

पीठ दांयी ओर से फडक रही है तो धन धान्य की वृद्धि हो सकती है लेकिन पीठ के बांये भाग का फडकना ठीक नहीं होता है। मुकद्दमे में हार या किसी से झगडा हो सकता है। बायी पीठ में फडकन धीमी हो तो परिवार में कन्या का जन्म होना संभव है और फडकन तेज हो तो अपरिपक्व यानि समय से पहले ही प्रसव हो सकता है। पीठ का उपरी हिस्सा फडक रहा हो तो धन की प्राप्ति होती है और पीठ का निचला हिस्सा फडकता है तो बहुत से मनुष्यों की प्रशंसा मिलने की संभावना रहती है।

हाथ के विभिन्न हिस्सों के फड़कने का फल

दाहिनी ओर का कंधा फड़के तो धन-संपदा मिलती है। बांई ओर का फड़के तो सफलता मिलती है या रक्त विकार या वात सम्बन्धी विकार उत्पन्न हो सकते हैं और यदि दोनों कंधे फड़कें तो झगड़े की संभावना रहती है। हथेली में यदि फडफ़ड़ाहत हो तो व्यक्ति किसी विपदा में फंस जाता है। हाथों की अंगुलियां फड़के तो मित्र से मिलना होता है। दाईं ओर की बाजू फड़के तो धन व यश लाभ तथा बाईं ओर की बाजू फड़के तो खोई वस्तु मिल जाती है। दाईं ओर की कोहनी फड़के तो झगड़ा होता है, बाईं ओर की कोहनी फड़के तो धन की प्राप्ति होती है।

पैर के विभिन्न हिस्सों के फड़कने का फल

दाहिनी ओर की जांघ फड़के तो अपमान होता है, बाईं ओर की फड़के तो धन लाभ होता है। आपके दांये घुटने में फड़कन है तो आपको सोने की प्राप्ति हो सकती है और यदि दांये घुटने का निचला हिस्सा फडक रहा है तो यह शत्रु पर विजय हासिल करने का संकेत है। आपके बांये घुटने का निचला हिस्सा फडक रहा है तो आपके कार्य पूरा होने की संभावना बड जाती है. बाये घुटने का उपरी हिस्सा फडक रहा है तो इसका फल कुछ नहीं होता है।

गुप्तांग फड़के तो दूर की यात्रा पर जाना होता है। दाईं ओर का अंडकोष फड़के तो खोई वस्तु की प्राप्ति होती है, बाईं ओर का फड़के तो पुत्र से सुख और विदेश यात्रा का योग बनता है। दाहिनें पैर का तलवा फड़के तो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, बाईं ओर का फड़के तो निश्चित रूप से यात्रा पर जाना होता है।
इसी प्रकार अलग-अलग अंग के फड़कने के अलग-अलग फल मिलते हैं।

• कण्ठ के फड़कने से ऐश्वर्यलाभ होता है।

• ऐसे ही मुख के फड़कने से मित्र लाभ होता है और होठों का फड़कना प्रिय वस्तु की प्राप्ति का संकेत देता है।

• यदि मस्तक फड़के तो भू-लाभ मिलता है।

• ललाट का फड़कना स्नान लाभ दिलाता है।

• यदि कंधे फड़के तो भोग-विलास में वृद्धि होती है।

• हाथों का फड़कना उत्तम कार्य से धन मिलने का सूचक है।

• वक्षःस्थल का फड़कना विजय दिलाने वाला होता है।

• हृदय फड़के तो इष्टसिद्धि दिलाती है।

• नाभि का फड़कना स्त्री को हानि पहुँचाता है।

• उदर का फड़कना कोषवृद्धि होती है।

• गुदा का फड़कना वाहन सुख देता है।

• दोनों भौंहों के मध्य फड़कन सुख देने वाली होती है।

• कपोल फड़के तो शुभ कार्य होते हैं।

• नेत्र का फड़कना धन लाभ दिलाता है।

• नेत्रकोण फड़के तो आर्थिक उन्नति होती है।

• आँखों के पास फड़कन हो तो प्रिय का मिलन होता है।
🙏🏻💐ज्योतिष उपयोगी बाते💐🙏🏻

  1. पूजा में एक से अधिक दीपक जलाने
    हो तो कभी भी दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए | जो ऐसा करते है उन्हें अनेक बार परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है |
    अतः प्रत्येक दीपक माचिस की तीली से ही जलाए |
  2. चन्दन को घिस कर कभी भी तांबे के पात्र
    में नहीं रखना चाहिए |
  3. यदि आप शंख की पूजा करते है और उसमे
    पानी भरना है तो कभी भी डुबाकर
    नहीं भरना चाहिए | ऐसा करने से पूजा का कार्य
    सिद्ध नहीं हो पाता है |
    शंख में आचमनी द्वारा ही जल डाले |
    संकल्प के लिए जिस ताम्बे या चांदी के चम्मच का उपयोग किया जाता है
    उसे ही आचमनी कहते है |
  4. शंख को पृथ्वी पर नहीं रखना चाहिए |
    पूजा में अगर शंख की पूजा करते है तो उसे अनाज
    की ढेरी पर रखना चाहिए |घर के पूजा स्थान
    पर रखना हो तो आसन पर स्थान दे |तभी शंख
    की कृपा प्राप्त होगी |
  5. प्रसाद बाँटते समय धयान रखे
    की प्रसादजमीन पर ना गिरे | अगर गिरता है
    तो उसे तुरंत उठा ले और उसे किसी सुरक्षित स्थान पर
    रख दे |प्रसाद को जूठे हाथ से नहीं बाटना चाहिए और
    ना ही ग्रहण करना चाहिए | हाथो को धोकर
    ही प्रसाद बांटे एवं ग्रहण करे |
  6. पूजा प्रारम्भ करने के पश्चात चाहे
    कैसी भी स्थिति हो ,
    कभी भी जोर से नहीं बोले ,
    किसी पर क्रोध करना अथवा अपशब्द
    कहना पूजा को खंडित कर देता है |
    ध्यान रखने योग्य बाते
    : शिवलिंग को गुप्तांग की संज्ञा कैसे दी और अब हम हिन्दू खुद शिवलिंग को शिव् भगवान का गुप्तांग समझने लगे हे और दूसरे हिन्दुओ को भी ये गलत जानकारी देने लगे हे।

प्रकृति से शिवलिंग का क्या संबंध है ..?
जाने शिवलिंग का वास्तविक अर्थ क्या है और कैसे इसका गलत अर्थ निकालकर हिन्दुओं को भ्रमित किया…??

कुछ लोग शिवलिंग की पूजा
की आलोचना करते हैं..।
छोटे छोटे बच्चों को बताते हैं कि हिन्दू लोग लिंग और योनी की पूजा करते हैं । मूर्खों को संस्कृत का ज्ञान नहीं होता है..और अपने छोटे’छोटे बच्चों को हिन्दुओं के प्रति नफ़रत पैदा करके उनको आतंकी बना देते हैं।संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है । इसे देववाणी भी कहा जाता है।

लिंग
लिंग का अर्थ संस्कृत में चिन्ह, प्रतीक होता है…
जबकी जनर्नेद्रीय को संस्कृत मे शिशिन कहा जाता है।

शिवलिंग

शिवलिंग का अर्थ हुआ शिव का प्रतीक….
पुरुषलिंग का अर्थ हुआ पुरुष का प्रतीक इसी प्रकार स्त्रीलिंग का अर्थ हुआ स्त्री का प्रतीक और नपुंसकलिंग का अर्थ हुआ नपुंसक का प्रतीक। अब यदि जो लोग पुरुष लिंग को मनुष्य की जनेन्द्रिय समझ कर आलोचना करते है..तो वे बताये ”स्त्री लिंग ”’के अर्थ के अनुसार स्त्री का लिंग होना चाहिए ।

शिवलिंग”’क्या है ?
शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है । स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है।शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।
शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है और ना ही शुरुआत।

शिवलिंग का अर्थ लिंग या योनी नहीं होता ।
..दरअसल यह गलतफहमी भाषा के रूपांतरण और मलेच्छों यवनों के द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने पर तथा बाद में षडयंत्रकारी अंग्रेजों के द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ है ।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं ।
उदाहरण के लिए
यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो
सूत्र का मतलब डोरी/धागा गणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है। जैसे कि नासदीय सूत्र ब्रह्म सूत्र इत्यादि ।
उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ : सम्पति भी हो सकता है और मतलब (मीनिंग) भी ।
ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है । धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है।तथा कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है। जैसे : प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam)

ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे हैं: ऊर्जा और प्रदार्थ। हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है।
इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं।
ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा ऊर्जा शिवलिंग में निहित है। वास्तव में शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है.

The universe is a sign of Shiva Lingam

शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-आनादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतिक भी है। अर्थात इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान हैं।

अब बात करते है योनि शब्द पर-
मनुष्ययोनि ”पशुयोनी”पेड़-पौधों की योनी’जीव-जंतु योनि
योनि का संस्कृत में प्रादुर्भाव ,प्रकटीकरण अर्थ होता है….जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। किन्तु कुछ धर्मों में पुर्जन्म की मान्यता नहीं है नासमझ बेचारे। इसीलिए योनि शब्द के संस्कृत अर्थ को नहीं जानते हैं। जबकी हिंदू धर्म मे 84 लाख योनि बताई जाती है।यानी 84 लाख प्रकार के जन्म हैं। अब तो वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि धरती में 84 लाख प्रकार के जीव (पेड़, कीट,जानवर,मनुष्य आदि) है।

मनुष्य योनि
पुरुष और स्त्री दोनों को मिलाकर मनुष्य योनि होता है।अकेले स्त्री या अकेले पुरुष के लिए मनुष्य योनि शब्द का प्रयोग संस्कृत में नहीं होता है। तो कुल मिलकर अर्थ यह है:-

लिंग का तात्पर्य प्रतीक से है शिवलिंग का मतलब है पवित्रता का प्रतीक ।
दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई , बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं । हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है। इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया। ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके । लेकिन कुछ विकृत मुग़ल काल व गंदी मानसिकता बाले गोरे अंग्रेजों के गंदे दिमागों ने इस में गुप्तांगो की कल्पना कर ली और झूठी कुत्सित कहानियां बना ली और इसके पीछे के रहस्य की जानकारी न होने के कारण अनभिज्ञ भोले हिन्दुओं को भ्रमित किया गया ।
आज भी बहुतायत हिन्दू इस दिव्य ज्ञान से अनभिज्ञ है।
हिन्दू सनातन धर्म व उसके त्यौहार विज्ञान पर आधारित है।जोकि हमारे पूर्वजों ,संतों ,ऋषियों-मुनियों तपस्वीयों की देन है।आज विज्ञान भी हमारी हिन्दू संस्कृति की अदभुत हिन्दू संस्कृति व इसके रहस्यों को सराहनीय दृष्टि से देखता है व उसके ऊपर रिसर्च कर रहा है।

नोट÷ सभी शिव-भक्तों हिन्दू सनातन प्रेमीयों से प्रार्थना है, यह जानकारी सभी को भरपूर मात्रा में इस पोस्ट के द्वारा शेयर करें ताकि सभी को यह जानकारी मिल सके जिन्होंने षड्यंत्र के तहत फैला दी थी।

🙏🙏 ओम् नमः शिवाय🙏🙏

वेदों का परिमाण तथा स्वरूप

वैदिक सनातन धर्म का मूल स्रोत वेद है। इस वैदिक सनातन धर्म से समस्त जगत् के अनेक सम्प्रदाय (मत-मतान्तर) हुए हैं अर्थात् वर्तमान काल में जितने सम्प्रदाय हैं वह सनातन धर्म रूपी वृक्ष की शाखाएं-प्रशाखाएँ हैं।
सनातन धर्म का लक्षण आचार्यों ने इस प्रकार किया है~~ “श्रुति स्मृति पुराणप्रतिपादित: धर्म: सनातनधर्म:” श्रुति-स्मृति तथा पुराण प्रतिपादित धर्म सनातन धर्म है। सनातन धर्म को जन्म देने वाले निर्गुण, निराकार ब्रह्म है। ब्रह्म अनादि, जन्म रहित है, सनातन धर्म भी अनादि है।
सनातन धर्म तथा वेदों का प्रादुर्भाव परमात्मा से हुआ। वेद ब्रह्म का श्वास रूप है।
ईश्वर रचित वेद में मनुष्य रचित ग्रन्थों के समान भ्रम-प्रमाद-संशय-भय-विप्रलिप्सा (लोभ) तथा यथार्थ बात न कहना आदि दोष नहीं है, अतः वेद स्वतः प्रमाण है। वेदानुसारी ही आस्तिक दर्शन, स्मृतियां, श्रौतसूत्र, धर्मसूत्र, पुराण, रामायण, महाभारत तथा तन्त्रग्रन्थ प्रमाण माने गये है।
“अज्ञात ज्ञापकं प्रमाणं” अज्ञात का ज्ञान कराने वाले ग्रँथ (वेद) प्रमाण है। यथा~ “प्रमाया: करणमिति प्रमाणम्” प्रमा का साधन प्रमाण है।

ऋग्वेद का प्रमाण~ इसकी इक्कीस मंत्र संहिताएं हैं। ऋग्वेद के आठ स्थान है~~
१- चर्चा
२- श्रावक
३- चर्चक
४-श्रवणीय पार
५-क्रमपार
६- क्रमचट्ट
७- क्रमजट
८- क्रमदण्ड

इसके चार परायणों की पांच शाखाएं हैं~~ शाकला, बाष्कला, अश्वलायना, शांखायना, मांडूकायना।

इनके अध्ययन, अध्याय ६४ है, मण्डल १० है।
एकर्च, एक वर्ग, एकश्च नवक। दो दोवर्ग, दो-दो ऋचाएं। कुल मिलाकर ३०० ऋचाएं हैं।

ऋग्वेद का स्वरूप~~ “ऋग्वेद पद्मपत्राक्ष: ग्रीव: , कुंचित केश: श्मश्रु:, श्वेतवर्ण:, प्रमाप पंच वितस्ति मितम्।”
ऋग्वेद के कमल के समान नेत्र, सुंदर गर्दन, घुंघराले केश, दाढ़ी-मूंछ से युक्त श्वेतवर्ण, पांच बालिस्त लम्बा शरीर है।

यजुर्वेद का स्वरूप~~ “पिंगाक्ष:, कृशमध्य:, स्थूलगलकपोलस्ताम्रवर्ण:, कृष्णवर्णा:, प्रादेशषट् दीर्घ:।”
यजुर्वेद के पीले नेत्र, पतली कमर, मोटा गला, तांबे के रंग के गाल, काला वर्ण, छः बालिस्त शरीर है।

सामवेद का स्वरूप~~ “नित्य स्त्रग्वी, सुप्रीत:, शुचि:, शुचौवासी, शमी, दांतो, चर्मी, बृह्च्छरीर:-काञ्चननयन:, नवरत्निमात्र:।”
सामवेद नित्य माला धारण किये हुए, पवित्र मुस्कान, पवित्र स्थान के निवासी, संयतेन्द्रिय, मृगचर्मधारी, बड़ा शरीर, सुनहरे नेत्र, सूर्य के समान रंग, नवरत्नि लम्बाई है।

अथर्ववेद का स्वरूप ~~ “तीक्ष्ण प्रचंड कामरूपी, विश्वात्मा, विश्वकर्ता, क्षुद्रकर्मा, स्वशाखाध्यायी, प्राज्ञो, महाहनु:, नीलोत्पल वर्ण:, स्वदारसंतुष्ट:, दशरत्निमात्र:।”
अथर्ववेद तीक्ष्ण, प्रचंड, इच्छानुसार रूपधारी, विश्वात्मा, विश्वकर्ता, क्षुद्रकर्मा, अपनी शाखा का पाठ करने वाला, बुद्धिमान्, बड़ी ठोड़ी, नीलकमल के समान रंग, अपनी पत्नी में संतुष्ट, दशरत्नि लम्बाई है।

ऋग्वेद का आत्रेयगोत्र, चन्द्रमा देवता, गायत्री छन्द है।
यजुर्वेद का कश्यप गोत्र, इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द है।
सामवेद का भारद्वाज गोत्र, इन्द्र देवता, जगती छन्द है।
अथर्ववेद का वैखानस गोत्र, ब्रह्मा देवता, अनुष्टुप छन्द है।

य: एषां वेदानां नाम, रूप, गोत्र:, प्रमाण,छन्दो, देवता, वर्णादीनि वर्णयति, स सर्व विद्यो भवति, जातिस्मरो जायते, जन्मजन्मानि वेद पारगो भवति, अव्रतीव्रतीभवति, अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी भवति य इदं चरणव्यूहं गर्भिणी शृणुयात् स पुत्रान् लभते, इदंश्राद्ध पठेत् स अक्षय श्राद्धं पितृणां समर्पयति , य: इदं पठेत् स पंक्तिपावनो भवति। य इदं पर्व पर्वषु पठेत् स विधूतपाप्मा भवति ! ब्रह्मभूयाय गच्छति।

【श्रीमद्भागवत पुराण के प्रथम श्लोक में तर्कशास्त्र के पक्ष में श्री वंशीधर जी के व्याख्या के आधार पर】

चतुर्वेद = वेद चार हैं ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद-अथर्ववेद। प्रत्येक वेद के चार भाग हैं।
पहला मंत्र भाग जिसे संहिता भी कहते हैं। दूसरा ब्राह्मण, तीसरा आरण्यक और चौथा उपनिषद् ।
महाभाष्यकार पतञ्जलि ने ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०१, सामवेद की १००० , अथर्ववेद की ९ संहिताएँ कही है। सब मिलाकर ११३१ है, किन्तु वर्तमान कल्प की संहिताओं के विषय में सीतोपनिषद् में ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०९ , सामवेद की १०००, अथर्ववेद की ५० संहिताएँ कही है, यह सब मिलाकर ११८० संहिताएँ हैं। इतने ही ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषद्, धर्मसूत्र, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र है। इन सब को मिलाकर चारों वेद पूर्ण होते हैं। महर्षि पतंजलि के समय मे उपर्युक्त संहिता प्रभृति मिलते थे, किन्तु वर्तमान में बहुत कम उपलब्ध हैं।
~~ पूज्य गुरुदेव भगवान् प्रणीत गुरुवंश पुराण के सत्ययुग खण्ड के दूसरे अध्याय के आधार पर
: ग्रह दशा का खराब होना भी हो सकता है
“थायरॉइड” का कारण, जानें इससे बचने के उपाय !
थायरॉइड” का कारण
थायरॉयड ग्रंथि हमारी गर्दन में स्थित है, और यह ग्रंथि हार्मोन को स्रावित करने के लिए जिम्मेदार होती है, जो मुख्य रूप से हमारे शरीर को ऊर्जा का प्रदान करते हैं। इसलिए, ये हार्मोन हमारे शरीर के लगभग हर अंग को प्रभावित करते हैं । जब यह ग्रंथि बहुत अधिक या बहुत कम हार्मोन बनाने लगती है, तो हम थका हुआ, बेचैन या अचानक वजन कम होने या बढ़ने की समस्या से पीड़ित होने लगते हैं। हालाँकि ये बीमारी शुरूआती दिनों में जानलेवा नहीं है लेकिन थायरॉइड कैंसर और ऐसे मामलों में जहां सर्जरी की आवश्यकता होती है, वहां स्थिति अधिक गंभीर हो सकती है। थायरॉइड रोग का मुख्य कारण शरीर में आयरन की कमी, अनुवांशिक समस्या, कैंसर ट्यूमर या ऑटोइम्म्यून बीमारियां होती हैं। लेकिन कभी-कभार व्यक्ति की कुंडली में ग्रहों और नक्षत्रों की दशा में परिवर्तन होने से भी व्यक्ति इस रोग से ग्रसित हो सकता है। आज इस लेख के जरिये हम आपको थायरॉइड होने के ज्योतिषीय कारण और उसके निवारण के बारे में बताने जा रहे हैं।

थायरॉइड होने के ज्योतिषीय कारण
थायरॉइड एक ऐसी बीमारी है जिसका ना तो जल्दी पता चलता है और पता चलने पर ना ही आसानी से इसका इलाज हो पाता है। इसलिए मेडिकल साइंस ये नहीं बता सकती है कि कोई व्यक्ति कब इस रोग से ग्रसित हो सकता है या नहीं हो सकता। दूसरी तरफ ज्योतिषशास्त्र हमें व्यक्ति की कुंडली में मौजूद ग्रहों और नक्षत्रों की दशा को देखकर इस रोग के होने के कारणों के बारे में जानकारी दे सकता है। आईये कुंडली में मौजूद उन ग्रह दशाओं से आपको अवगत करवाते हैं जो इस रोग के होने के मुख्य कारण हैं।

सूर्य और बृहस्पति की युति : वो व्यक्ति कभी ना कभी थायरॉइड से पीड़ित हो सकता है जिसकी जन्म कुंडली में सूर्य और बृहस्पति की युति होती है। इसके साथ ही इस युति पर यदि शनि, राहु और मंगल की हानिकारक दृष्टि हो तो भी व्यक्ति इस रोग से ग्रसित हो सकता है। लिहाजा आपकी कुंडली में ऐसे योग होने से आप भी थायरॉइड की समस्या से ग्रसित हो सकते हैं।
पहला और दूसरा भाव : व्यक्ति की जन्मकुंडली के अनुसार यदि जातक के लग्न भाव में किसी हानिकारक ग्रह की दृष्टि हो तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति जीवन में कभी भी इस बीमारी से ग्रसित हो सकता है।
पहले और दूसरे भाव का स्वामी : जब व्यक्ति की कुंडली के पहले और दूसरे भाव का स्वामी छठे, आठवें और बारहवें भाव में स्थित होता है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति थायरॉइड का शिकार हो सकता है। ग्रहों की ऐसी अवस्था में होने से व्यक्ति को थायरॉइड से संबंधित अन्य रोग भी हो सकते हैं।
थायरॉइड होने के ज्योतिषीय कारण

वैदिक ज्योतिष, वेदों के अध्ययन से जुड़े छह सहायक विषयों में से एक है जो हमें हमारे जीवन में आने वाली किसी भी समस्या के बारे में न केवल भविष्यवाणी देता है बल्कि उन समस्याओं से निबटने में भी सहायता करता है। इसी प्रकार से आज वैदिक ज्योतिष की मदद से हम आपको थायरॉइड जैसी बीमारी से निजात पाने के कारगर उपायों के बारे में बताने जा रहे हैं। आईये एक नजर डालें इन उपायों पर:

पहले घर के स्वामी की स्थिति को मजबूत करें : कुंडली का पहला भाव या लग्न भाव विशेष रूप से व्यक्ति के “स्व” और ऊपरी शरीर के अंगों का कारक माना जाता है। इस प्रकार से, थायरॉइड ग्रंथि हमारे गले में मौजूद होती है, लिहाजा इससे जुड़ी किसी भी प्रकार की समस्या से निजात पाने के लिए व्यक्ति को अपने लग्न भाव के स्वामी की स्थिति पर ध्यान देना चाहिए और उसकी स्थिति को मजबूत करने का प्रयत्न करना चाहिए।
दूसरे घर के स्वामी को शांत रखें : व्यक्ति की जन्म कुंडली में, दूसरा भाव विशेष रूप से बोलने की क्षमता यानि कि गले से संबंधित होता है। लिहाजा यदि किसी व्यक्ति को थायरॉइड रोग के लक्षण नजर आ रहे हैं तो उसे अपने दूसरे भाव के स्वामी को शांत रखने के लिए ज्योतिषीय उपाय करने चाहिये। ऐसा करके गले से जुड़ी विभिन्न समस्याओं से निजात पाया जा सकता है।
जन्म कुंडली में सूर्य को प्रभावशाली बनाएं : सूर्य को खासतौर से हिन्दू धर्मशास्त्र में जीवन और ऊर्जा का कारक माना जाता है। इसके साथ ही व्यक्ति की कुंडली की गणना करने के लिए भी सूर्य की स्थिति ख़ासा मायने रखती है। व्यक्ति की कुंडली में ग्रहों की दशा की वजह से थायरॉइड रोग होने का कारण नजर आ रहा हो तो ऐसे में ग्रहों को कुंडली में अनुकूल बनाने का प्रयास करना चाहिए। इसके साथ ही साथ आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ करना भी विशेष लाभकारी साबित हो सकता है। प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठें और उगते हुए सूर्य के दर्शन करें इससे भी थायरॉइड की समस्या से निजात पाया जा सकता है।
नियमित व्यायाम : जैसा कि हम सभी जानते हैं व्यक्ति को स्वस्थ्य रहने के लिए रोजाना सुबह जल्दी उठकर व्यायाम करना चाहिए। थायरॉइड रोग से निवारण के लिए भी यदि सुबह जल्दी उठकर व्यायाम किया जाए और हेल्दी रूटीन अपनाया जाए तो इस रोग से निश्चित रूप से निजात पाया जा सकता है।
हम आशा करते हैं “ थायरॉइड” पर आधारित हमारा ये लेख आपके लिए उपयोगी साबित होगा। हम आपके स्वास्थ्य जीवन की कामना करते हैं

      *हमारे व्यवहारिक जीवन में योग का क्या साधन है अथवा व्यवहारिक जीवन में योग को कैसे जोड़ें ? इसका श्रेष्ठ उत्तर केवल गीता के इन सूत्रों के अलावा कहीं और नहीं मिल सकता है।*

     *गुफा और कन्दराओं में बैठकर की जाने वाली साधना ही योग नहीं है। हम अपने जीवन में, अपने कर्मों को कितनी श्रेष्ठता के साथ करते हैं, कितनी स्वच्छता के साथ करते हैं बस यही तो योग है। गीता जी तो कहती हैं कि किसी वस्तु की प्राप्ति पर आपको अभिमान ना हो और किसी के छूट जाने पर दुःख भी न हो।*

       *सफलता मिले तो भी नजर जमीन पर रहे और असफलता मिले तो पैरों के नीचे से जमीन काँपने न लग जाये। बस दोंनो परिस्थितियों में एक सा भाव ही तो योग है। यह समभाव ही तो योग है।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏

आज का दिन शुभ मंगलमय हो।
[ आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं अपने को महान बनाना चाहते हैं। विद्या बुद्धि संपादित करना चाहते हैं। कीर्ति चाहते हैं, और अक्षय आनन्द की तलाश में हैं। तो त्याग कीजिए। गाँठ में से कुछ खोलिए। यह चीजें बड़ी महंगी हैं। कोई नियामत लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती। दीजिए आपके पास पैसा, रोटी, विद्या श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो मुक्त हस्त होकर दुनिया को दीजिए, बदले में आपको बहुत मिलेगा। गौतम बुद्ध ने राज सिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी उन्होंने जो छोड़ा था उससे अधिक पाया। विश्व कवि रवीन्द्र टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं।” उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ माँगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया। शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला? जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।”

जय श्री कृष्णा🙏🙏
[ प्रेम
किसी के लिए आदत जैसा है, तो किसी के लिए जरुरत जैसा। प्रेम किसी के लिए जिम्मेदारी है, तो किसी के लिए वफादारी। किसी का प्रेम लालसा है, तो किसी का वासना। कोई स्वयं की सुविधा देखकर प्रेम करता है, तो कोई आपसी योग्यता देखकर। किसी का प्रेम मोह हैं, तो किसी का स्वार्थ। अड़चन यही है कि किसी का भी प्रेम, ‘प्रेम’ जैसा नहीं है। इन सबमे प्रेम की एक झलक मिलती है। सब प्रेम के करीब ले जाते हैं, पर ‘प्रेम’ हो नहीं पाता। ऐसा प्रेम, सम्बन्धो से जुड़कर, शब्दों में ढलकर खंड- खंड हो जाता है, पर प्रेम हो नहीं पाता। सच तो यह है कि हम सब कुछ करते हैं, बस प्रेम नहीं करते। यही कारण है, हमने प्रेम को इतने नाम दिए हैं और असफल हुए हैं। प्रेम क्या है, क्या नहीं? जानने के लिए पढे, यह लेख।

जय श्री कृष्णा🙏🙏
[सन्त जन कहते हैं कि जीव अनेक हैं , ईश्वर एक है।जीव परतंत्र है , ईश्वर स्वतन्त्र है।जीव और ईश्वर में यही भेद है कि जीव माया के अधीन है और माया ईश्वर के अधीन है।

 *तन मरने से मुक्ति नहीं मिलती ।जिसका मन मरता है उसे ही मुक्ति मिलती है।तन बदल जाता है पर मन नहीं बदलता ।मन तो मरने के बाद भी साथ रहता है अतः मन को नियंत्रित करें ।*

 *जो तन की संभाल रखता है, वह संसारी ।मन की सँभाल रखे , वह सन्त ।सेवा स्मरण को ही जीवन का लक्ष्य रखो और मन की सम्भाल करते रहे ।श्री राम की सेवा के बिना जीवन सफल नहीं होता ।*

!!Զเधे Զเधे!!🙏🙏
[ आपको संसार में ईश्वर ने मनुष्य का जन्म दिया। सोचिए, क्यों दिया?
आप कहेंगे , हमारे पिछले अच्छे कर्मों का फल है। ठीक है, मान लेते हैं , आपके पिछले अच्छे कर्मों का फल है , कि आपको ईश्वर ने मनुष्य का जन्म दिया।
परंतु अब इस उत्तम मनुष्य जन्म को प्राप्त करके आगे क्या करना है?
क्या आने वाले जन्म में फिर से मनुष्य शरीर प्राप्त करना चाहेंगे या नहीं? आप कहेंगे , जी हां।
तो सोचिए क्या अगले जन्म में मनुष्य बनने के लिए शुभ कर्मों का आचरण कर रहे हैं अथवा नहीं ?
यदि नहीं कर रहे , तो शीघ्र आरंभ करें । धन कमाना अच्छी बात है । पर पूरा समय धन कमाने में ही नष्ट कर देना, यह अच्छी बात नहीं है । कुछ पुण्य कर्मों के लिए भी समय बचाएं। केवल धन कमाना ही उद्देश्य नहीं है ।
जो लोग सारा समय पैसा कमाने में खर्च कर देते हैं, वे अपने भविष्य को बिगाड़ रहे हैं ।
आपका सारा पैसा आपके काम नहीं आएगा । सब यहीं रह जाएगा । यदि आपने अच्छे कर्म नहीं किए, तो दूसरे लोग आपकी मेहनत की कमाई को खाएंगे , और आप अगले जन्म में मनुष्य बनने से भी वंचित रह जाएंगे । इसलिए जागिए, सावधान हो जाइए , अपने दैनिक जीवन में से कुछ समय पुण्य कर्मों के लिए भी निकालिए।

जय श्री कृष्णा🙏🙏
[: प्रभु हर चीज हमें हर जन्म में मिल जाएगी मगर एक वस्तु ऐसी है वह दूसरी योनियों में नहीं मिल सकती वह है सतसंग हरि कथा वह बहुत दुर्लभ है पति-पत्नी मिल जाएंगे मां-बाप मिल जाएंगे और जो चाहिए वह सब मिल जाएगा हर योनि में मगर इस मनुष्य जीवन रहते सत्संग और हरि कथा देव दुर्लभ है वह हमें मिले हैं तो छोड़ना मत जहां से मिले जब मिले सत्संग का पल और अनं का कण कभी व्यर्थ मत जाने देना यही संतों का कहना है देव दुर्लभ मानुष तन पावा देवता भी तरसते हैं ऐसा मनुष्य जीवन पाने के लिए वह हमें मिला है इसको जरा समझना है प्रभु थोड़ा सा भी समय निकाल कर हमें हरी चर्चा कीर्तन कर लेना चाहिए इसके लिए हमें घर बार छोड़ने की जरूरत नहीं है हम काम धंधा करते हुए भी उस हरि का सुमिरन कर सकते हैं और टाइम मिले तो समूह में बैठकर हरि चर्चा कर लेनी चाहिए।

जय श्री कृष्णा🙏🙏
[देवता, दिव् धातु,जिसका
अर्थ *#प्रकाशमान होना है,
से निकलता है।
अर्थ है कोई भी परालौकिक शक्ति का पात्र,
जो अमर और पराप्राकृतिक है और इसलिये पूजनीय है। देवता अथवा देव
इस तरह के पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है और
देवी इस तरह की स्त्रियों के लिये।
हिन्दू धर्म में देवताओं को या
तो परमेश्वर (ब्रह्म) का #लौकिकरूप माना जाता है, या तो उन्हें ईश्वर का #सगुणरूप माना जाता है।

बृहदारण्य_उपनिषद में एक बहुत सुन्दर संवाद है जिसमें यह प्रश्न है कि कितने देव हैं।

उत्तर यह है कि वास्तव में केवल एक है जिसके कई रूप हैं।

पहला उत्तर है
३३ करोड़;
और पूछने पर ३३३९;
और पूछने पर ३३;
और पूछने पर ३ और
अन्त में डेढ
और फिर
केवल एक।

वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है।
प्रत्येक मन्त्र का ऋषि,कीलक और देवता होता है।

देवताओंकावर्गीकरण:-

देवताओं का वर्गीकरण कई प्रकार से हुआ है, इनमे चार प्रकार मुख्य है:-

पहला स्थान क्रम से दूसरा

परिवार क्रम से तीसरा

वर्ग क्रम से चौथे

समूह क्रम से स्थान

*#क्रम से वर्णित देवता

द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता,

मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और

तीसरे #पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।

*परिवार क्रम से वर्णित देवता *–

इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि
को गिना जाता है।

**वर्ग क्रम से वर्णित देवता *–

इन देवताओं में #इन्द्रावरुण, #मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।

समूह क्रम से वर्णित देवता —
इन देवताओं में #सर्व_देवा आदि की गिनती की जाती है।

ऋग्वेद में देवताओं का स्थान*

ऋग्वेद के सूक्तों में देवताओं की स्तुतियों से
देवताओं की पहचान की जाती है,
इनमें देवताओं के नाम #अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा,
सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहम्णस्पति,
सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुनानी,
द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि को पहचाना गया है,
और इनकी स्तुतियों का विस्तृत वर्णन मिलता है।

जो लोग देवताओं की अनेकता को नही मानते है,
वे सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक लगाते है, और जो अलग अलग मानते हैं
वे भी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है।

भारतीय_गाथाओ मे और #पुराणों में

इन देवताओं का मानवीकरण अथवा
पुरुषीकरण हुआ है,
फ़िर इनकी मूर्तियाँ बनने लगी,
फ़िर इनके सम्प्रदाय बनने लगे,
और
अलग अलग पूजा पाठ होने लगे ,
सबसे पहले जिन देवताओं का वर्गीकरण हुआ
उनमें #ब्रह्मा_विष्णु और #शिव का उदय हुआ,
इसके बाद में लगातार इनकी संख्या में
वृद्धि होती चली गयी,

निरुक्तकार यास्क के अनुसार,” देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से ही मानी गयी है”,

देवताओं के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है, कि “#तिस्त्रो_देवता”.अर्थात देवता तीन है,

किन्तु यह प्रधान देवता है,
जिनके प्रति सृष्टि का निर्माण,
इसका पालन और इसका संहार
किया जाना माना जाता है।
महाभारत के (शांति पर्व) में
इनका वर्णनक्रम
इस प्रकार से किया गया है:-

आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा,
अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:,
इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम

आदित्यगण क्षत्रिय देवता,
मरुदगण वैश्य देवता,
अश्विनी गण शूद्र देवता,
और
अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं।
शतपथ ब्राह्मण में भी
इसी प्रकार से
देवताओं को माना गया है।

शुद्ध बहुईश्वरवादी धर्मों में
देवताओं को पूरी तरह
स्वतन्त्र माना जाता है।
[सनातन धर्म में शंख का महत्व —–


सनातन धर्म में शंख को अत्यधिक पवित्र एवं शुभ माना जाता है । इसका पावन नाद वातावरण को शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल करता है। शंख का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है । शंख का प्रयोग प्रत्येक शुभ कार्य में किया जाता है । शंख की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेको कथाये प्रचलित है

एक कथा के अनुसार शंख की उत्पत्ति शिवभक्त चंद्रचूड़ की अस्थियो से हुई , जब भगवान शिव ने क्रोधवश होकर भक्त चंद्रचूड़ का त्रिशूल से वध कर दिया, तत्पश्चात उसकी अस्थियाँ समुद्र में प्रवाहित कर दी गयी। विष्णु पुराण के अनुसार शंख लक्ष्मी जी का सहोदर भ्राता है। यह समुद्र मंथन के समय प्राप्त चौदह रत्नों में से एक है। शंख समुद्र मंथन के समय आठवे स्थान पर प्राप्त हुआ था । शंख के अग्र भाग में गंगा एवं सरस्वती का , मध्य भाग में वरुण देवता का एवं पृष्ठ भाग में ब्रम्हा जी का वास होता है। शंख में समस्त तीर्थो का वास होता है। वेदों के अनुसार शंख घोष को विजय का प्रतीक माना जाता है। महाभारत युद्ध में श्री कृष्ण भगवान् एवं पांडवो ने विभिन्न नामो के शंखो का घोष किया था। श्री कृष्ण भगवान् ने पांचजन्य, युधिष्ठुर ने अनन्तविजय, भीम ने पौण्ड्र, अर्जुन ने देवदत्त, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंखो का प्रचंड नाद करके कौरव सेना में भय का संचार कर दिया था।

शंख तीन प्रकार के होते है :

वामावर्ती – खुला हुआ भाग बायीं ओर होता है ।

दक्षिणावर्ती – खुला हुआ भाग दायीं ओर होता है ।

मध्यावर्ती – मध्य में खुला हुआ भाग होता है ।

दक्षिणावर्ती शंख शुभ एवं मंगलदायी होता है अतः इसका उपयोग पूजा-पाठ, अनुष्ठानों एवं शुभ कार्यो किया जाता है ।

शंख के उपयोग

दक्षिणावर्ती शंख में प्रतिदिन प्रातः थोड़ा सा गंगा जल भरकर सारे घर में छिड़काव करे। भूत प्रेत बाधा को दूर करने का यह एक अचूक उपाय है ।
शंख में जल भरकर रखा जाता है और पूजा करते समय छिड़का जाता है ।

शंख में जल, दुग्ध भरकर भगवान का अभिषेक भी किया जाता है ।
पुराणों के अनुसार, घर में दक्षिणावर्ती शंख रखने से श्री लक्ष्मी जी का स्थायी निवास होता है ।

शयन कक्ष में शंख रखने से पति पत्नी के मध्य सदैव प्रेमभाव बना रहता है ।

शंख बजाने से ह्रदय की मांसपेशिया मजबूत होती है, मेधा शक्ति प्रखर होती है तथा फेफड़ो का व्यायाम होता है । अतः श्वास सम्बन्धी रोगों से मुक्ति मिलती है तथा स्मरण शक्ति भी बढ़ती है ।

शंख की ध्वनि में रोगाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत शक्ति होती है। जहां जहां तक शंख ध्वनि पहुचती है, वहाँ तक के रोगाणुओं का नाश हो जाता है।

वर्तमान युग में रक्तचाप, मधुमेह, ह्रदय सम्बन्धी रोग, कब्ज़ , मन्दाग्नि आदि रोग आम हो गए है । नियमित रूप से शंख बजाइये और इन रोगों से मुक्ति पाइये ।

अगर आपके घर में कोई वास्तु दोष है, तो आप प्रातः और सायंकाल शंख अवश्य बजाये। शंख बजाने से घर का वास्तुदोष दूर हो जाता है ।

अगर हमारे शरीर में स्थापित चक्रों में संतुलन न हो तो हमें रोग घेर लेते है, शंख चक्र संतुलित करने में समर्थ है।

घर में शंख बजने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है , इससे घर में निवास करने वालो के तन मन पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ता है । सकारात्मक विचारों का उदभव होता है ।

अध्यन कक्ष में शंख रखने से ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
वैज्ञानको के अनुसार, शंख घोष का प्रभाव समस्त ब्रम्हाण्ड पर होता है।
: एक जापानी प्रोफेसर ने आश्चर्यजनक शोध किया।

  1. अम्लता न केवल आहार त्रुटियों के कारण होती है, बल्कि तनाव के कारण अधिक प्रभुत्व होती है।
  2. उच्च रक्तचाप न केवल नमकीन खाद्य पदार्थों की बहुत अधिक खपत के कारण होता है, बल्कि मुख्य रूप से भावनाओं के प्रबंधन में त्रुटियों के कारण होता है।
  3. कोलेस्ट्रॉल न केवल फैटी खाद्य पदार्थों के कारण होता है, बल्कि अत्यधिक आलस्य अधिक जिम्मेदार होता है।
  4. अस्थमा न केवल फेफड़ों के लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति में व्यवधान की वजह से, बल्कि अक्सर उदास भावनाएं फेफड़ों को अस्थिर बनाती हैं।
  5. मधुमेह न केवल ग्लूकोज की अधिक खपत के कारण, बल्कि अति विचार और जिद्दी रवैया पैनक्रिया के कार्य को बाधित करता है।

किसी भी बीमारी का सही कारण हैं:
वैचारिक 50%
मानसिक तनाव 25%
सामाजिक 15%
शारीरिक 10%

अगर हम स्वस्थ होना चाहते हैं, तो हमें अपने दिमाग के विचारों को ठीक करने की जरूरत है ।
हमेशा पाजिटिव सोचें पाजिटिव रहें।
[ ► हर दिन 10 मिनट का व्यायाम बीमारियों से लडऩे की शक्ति को 40 फीसदी तक बढ़ाता है।

►  दफ्तर की सीढिय़ां चढऩा, उतरना तथा पार्किग स्थल से दफ्तर तक पैदल चलना भी तरोताजा रखने वाला व्यायाम है।

► सुबह-सुबह 10 मिनट की जॉगिंग कई घंटों तक आपमें चुस्ती बरकरार रख सकती है। यह ध्यान रखें कि व्यायाम को मौजमस्ती में करें यानी उसे बोझ समझकर न करें।

► अगर बाहर जाकर व्यायाम करना संभव न हो तो संगीत की धुन पर 10 मिनट डांस करिए।

► प्रातः उठते ही खूब पानी पीओ। दोपहर भोजन के थोड़ी देर बाद छाछ और रात को सोने के पहले उष्ण दूध अमृत समान है।

► बुखार, थकान, कमजोरी महसूस करने की स्थिति में व्यायाम से बचें।

► ध्यान रखें, जहां व्यायाम करें वहां शांति हो, जगह साफ-सुथरी हो, प्राकृतिक हवा हो और पर्याप्त प्राकृतिक रोशनी हो।

► व्यायाम का समय बढ़ाना हो तो धीरे-धीरे बढ़ाएं, एकदम से समय बढ़ाने से थकान, कमजोरी की शिकार हो सकती हैं।

► व्यायाम के समय बातचीत न करें, व्यायाम के समय चुप रहने से फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है।

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