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सृष्टिकेकुछअकाट्य_नियम

   दर्शन शास्त्रों के  तथा भौतिक विज्ञान  के कुछ विशेषज्ञ ऐसा कहते हैं कि ब्रह्माण्डकी ऐसी अनिर्वचनीय रचना है कि कोई भी ऐसा विशेष नियम नहीं ,जो कभी न कटे।अतः सभी विशेषनियमोंके अपवाद होते हैं। दश बीस स्थलोंमें जो नियम काम करते हैं उन्हें ही सत्य स्वीकार करके काम चलाना पड़ता है। एक क्षेत्रके नियम दूसरे क्षेत्रमें लागू नहीं होते।इतना ही नहीं वल्कि उसी क्षेत्रके शूक्ष्म शूक्ष्मतर स्थलोंमें भी लागू नहीं होते। जैसे--गर्भाधान क्रिया द्वारा रजवीर्यके मिश्रण से मनुष्य पशुपक्षी की उत्पत्तिका नियम स्वेदज जीवोंकी उत्पत्तिमें लागू नहीं होता। खाया हुआ भोजन आमाशय यकृत आदिके सहयोगसे रस आदि सप्त धातु बनकर शरीरकी वृद्धि करता है।इसमें जो नियम काम करता है वह नियम गर्भस्थ शरीर की वृद्धि पर लागू नहीं होता,क्योंकि उस समय आमाशयादि अंग ही नहीं होते।ये उदहारण नास्तिकोंकी दृष्टिसे दिए गए हैं। 
 आस्तिकोंकी दृष्टिसे रज वीर्य के विना भी द्रौपदी आदिकी उत्पत्ति यज्ञ वेदी से हुई है। ऋषि लोग सङ्कल्प ,स्पर्श,दृष्टि, मात्रसे,भी भी संतान की उत्पत्ति करदेते थे,ऐसा पुराणों में तथा महाभारत में वर्णन है।--

शङ्कल्पात्दर्शनात्स्पर्शात्पूर्वेषाम्सृष्टिरुच्यते(ब्रह्माण्डपु.३-४०/लिंग पुराण-७३-२१/हरिवंश पर्व-२-५०/पद्म पु.-१-६-२)।

इसप्रकार व्यवहार से सभी नियम युक्क्त हैं ,ऐसा सामान्यतया कहा जा सकताहै। फिर भी कुछ कुछ नियम अकाट्य प्रतीत होते हैं—
१-कोई भी कार्य कारण के विना नहीं होता ।यदि कारण के विना ही कार्य हो तो सदा ही कार्य होते रहना चाहिए।
२–मूल कारणका कोई कारण नहीं होता ,यदि हो तो वह मूल कारण ही नहीं कहा जासकता।
३–अन्तिम कार्य का कोई कार्य नहीं हो सकता यदि हो तो वह अन्तिम कार्य ही नहीं कहा जा सकता।
४–सभी कार्योंकी उत्पत्ति स्थिति तथा विनाश किसी काल में ही होते है,।
५–काल की उत्पत्ति तथा विनाश नहीं होता,यदि हो तो अनवस्था होतीहै। क्योंकि कालकी उत्पत्ति या विनाश जिस कालमें होगें उस काल की उत्पत्ति या विनाशके लिए अन्य काल मानना होगा, इसप्रकार आगे बढ़ने पर अनवस्था दोष होता है।
६–कारण निर्विशेष नहीं होता ,कम से कम कारणता रूप विशेषता तो अवश्य ही माननी होगी अन्यथा कारण ही नहीं हो सकेगा। इसी कारण से ही शंकराचार्यजी के मत में निर्विशेषब्रह्म को जगत् का कारण न मानकर सविशेषब्रह्म को कारण माना गया , तब वह एक अद्वितीय नहीं हो सकता।
७–कारण अपनी सहयोगी सामग्री के विना कार्यको उत्पन्न नहीं कर सकता, यदि करे तो सदा ही कार्य होने चाहिए।
८–सहयोगी सामग्री युक्त होकर कार्य करने वाले कारणको एक अद्वितीय नहीं कहा जा सकता।इसी लिए शंकराचार्यजीनें जगत्का रण प्रतिपादक श्रुति -“सदेव सौम्य ..एकम् अद्वितीयम् ,के #एक”शब्द का अर्थ “स्वकार्य पतित अन्य नहीं” ऐसा अमुख्य अर्थ किया है ,और अद्वितीय पदका –“अन्य निमित्त कारण रहितः”ऐसा गौण अर्थ किया है।(छा. उप. शा. भा.-६-२-२)।
९–उपादान कारण कूटस्थ अपरिणामी नहीं होसकता,।
१०–आरंभक कारण संयोगकी योग्यता से रहित नहीं होसकता, यदि हो तो संयोगपूर्वक कार्य का आरम्भ ही नहीं हो सकेगा।
११–कल्पना तथा कल्पना जन्य वस्तु कल्पकके विना नहीं होसकती, हो तो सदा ही होनी चाहिए। कोई कल्पक न होने से उसकी निवृत्तिका उत्तर दायित्व किसी पर न होने से उसकी नृवृत्ति ही नहीं होगी।
१२–कल्पक निर्विकार नहीं हो सकता, यदि हो तो उसमें कल्पना रूप विकार का जन्म नहीं हो सकता।
१३–अनादि कल्पित का भी अनादि कल्पक अवश्य होता है, नहीं तो उसकी नृवृत्ति का उत्तर दायित्व किसीपर न होने से ,उसकी नृवृत्ति भी नहीं हो सके गी।
१४–प्रयत्न साध्य वस्तु प्रथम से विद्यमान नहीं होती, हो तो प्रयत्न निरर्थक होगा। अविद्या निवृत्तिरूप मुक्ति भी प्रयत्न साध्य,ज्ञानजन्य आगंतुक ही है।प्रथम से विद्यमान नहीं।
: यूरिन के रंग से पहचानें, कहीं आप बीमार तो नहीं?

1 गहरा पीला – अगर पेशाब का रंग सामान्य से भी गहरा यानि गहरा पीला दिखाई दे रहा है, तो यह पानी की कमी को दर्शा रहा है। इस स्थि‍ति में आपको अधि‍क से अधि‍क पानी और तरल पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
2 लाल रंग – पेशाब का रंग लाल होना, यूरिन में रक्त की मौजूदगी का सूचक हो सकता या फिर अवांछित तत्वों का। अगर आपके साथ ऐसा कुछ हो रहा है तो आपको किसी विशेषज्ञ के पास जाने की आवश्यकता है। इसकी जांच करवाना बेहद जरूरी है, क्योंकि यह रक्त किडनी या मूत्राशय, गर्भाशय, प्रोटेस्ट ग्रंथि के कारण या फिर रक्तमेह के कारण हो सकता है।
3 गहरा लाल या काला – इस तरह का पेशाब का रंग अनगिनत स्वास्थ्य समस्याओं के कारण हो सकता है। यह लिवर की खराबी, लिवर में गंभीर संक्रमण, हेपेटाइटिस, ट्यूमर, मेलानोमा, सिरोसिस या अन्य गंभीर समस्याओं के कारण भी हो सकता है।
4 नारंगी – इस तरह का रंग अक्सर पेशाब में तब नजर आता है जब आप किसी दवा का सेवन कर रहे होते हैं या फिर आप प्राकृतिक सिट्रस एसिड युक्त पदार्थ का सेवन करते हैं। इनके अलावा भी अगर आपको पेशाब का रंग कुछ नारंगी नजर आता है, तो जांच जरूर कराएं।
[ *सुन्नपन (Numbness)

आजकल बहुत लोगों में हाथ – पैर के साथ – साथ शरीर के दूसरे अंग जैसे – जीभ और चेहरे के कुछ भाग में सुन्न हो जाने की समस्या मिल रही है।
सुन्नपन होने पर प्रभावित अंग में संवेदना पूरी तरह से समाप्त ना होते हुये लगातार एक जैसी बनी रहती है। सुन्नपन्न कोई बीमारी नहीं अपितु सुन्नपन से अन्य शारीरिक समस्याए दिखाई देती है, जो भिन्न भिन्न होती हैं।

सुन्नपन होने के कारण

(1) सबसे प्रमुख कारण एक ही स्थति में बैठने, खड़े रहने या सोते समय कोई अंग दब जाने से रक्तपरिसंचरण बाधित हो जाना होता है। इस तरह का सुन्नपन कुछ मिनटों में स्वयमेव ठीक हो जाता है। कभी कभी हलकी मालिश या अंगों के हिलाने डुलाने से ठीक हो जाती है। पर बार बार होने पर चिकित्सक से सलाह लेना आवश्यक है।

(2) यदि लम्बे समय से एक ही हाथ की ऊँगलियों, विशेष रूप से मध्यमा, तर्जनी अंगूठे और कलाई में झनझनाहट व् सुन्नपन, दर्द रहे तो यह कार्पल टनल सिंड्रोम के कारण होने की सम्भावना है।

(3) यदि झनझनाहट गर्दन से बाजू तक जाये या कमर से लेकर पैर तक झनझनाहट हो तो यह रीढ़ की हड्डी से निकलने वाली किसी नस के दबने के कारण हो सकता है। गर्दन या रीढ़ की हड्डी में कोई चोट, हर्नियेशन, असामान्य रूप से किसी हड्डी का बढ़ना, नस के दबने का कारण होते हैं।

(4) लंबे समय तक अनियंत्रित मधुमेह रहने से Peripheral Neuropathy यानि नसें खराब होने लगती हैं। जिससे सामान्य सुन्नपन होने लगता है।

(5) Hypothyroid के कारण भी सुन्नपन देखा जाता है।

(6) कोई भी इन्फेक्शन जिससे नसों पर दबाव आता है, सुन्नपन का कारण बनता हैं। जैसे – Herpes Zoster में इन्फेक्शन रक्त के द्वारा फैलता है, और नसों पर दबाव होने से सुन्नपन का कारण बनता है।

(7) शरीर में होने वाले ट्यूमर्, हड्डियों की असामान्य वृद्धि, विभिन्न प्रकार के घाव ठीक होने के बाद बन जाने वाले Scar Tissue अपने आसपास की नसों और तंत्रिकाओं पर दबाव डालते हैं और सुन्नपन,
[ब्लड प्रेशर खुद कर सकते हैं कंट्रोल, अपनाने होंगे ये आयुर्वेदिक तरीके

आजकल हाई ब्लड प्रेशर अर्थात हाइपरटेंशन से हर व्यक्ति जूझ रहा हैं. अगर यह एक बार हो जाए तो लोगों को उम्र भर बीपी को कंट्रोल करने के लिए गोलियां खानी पड़ती हैं, पर क्या आप जानते हैं किु आप आयुर्वेदिक तरीकों से भी हाई बल्ड प्रेशर से छुटकारा पा सकते हैं. आपको बता दें कि आयुर्वेद में हाई बल्ड प्रेशर को पिटा और वात जैसे दो दोषों का असंतुलन का परिणाम बताया गया हैं, जिसमें आयुर्वेदिक उपचार हाई बीपी के इन दोनों दोषों को संतुलित करता हैं. आइए जानते हैं बीपी के आयुर्वेदिक उपचारों के बारें में.

  1. एंटीऑक्सीडेंट की मात्रा बढ़ाएं
    आयुर्वेद में हाई बीपी को कंट्रोल करने के लिए सबसे अच्छी दवा हैं दालचीनी, इसका प्रयोग मसाले के रूप में भी किया जाता हैं. दालचीनी केवल इंसान को दिल की बीमारियों से ही नहीं बल्कि डायबटीज से भी बचाता हैं. इसके प्रयोग से शरीर में एंटीऑक्सीडेंट की मात्रा बढ़ जाती हैं और ब्लड शुगर की कम. आपको रोज सुबह खाली पेट आधा चम्मच दालचीनी के पाउडर के साथ शहद मिलाकर लेना हैं और फिर ऊपर से गर्म पानी पी लें.
  2. हाइपरटेंशन करें दूर
    हृदय की कमज़ोरी को दूर करने के लिए निम्बू में भी विशेष गुण होते हैं. इसके निरंतर प्रयोग से ब्लड वैसल में लचीलापन और कोमलता आ जाती हैं और इनकी कठोरता दूर हो जाती हैं. इसलिए हाई ब्लड प्रेशर अर्थात हाइपरटेंशन जैसे रोग को दूर करने में निम्बू काफी कारगर साबित होता हैं. इससे बुढ़ापे तक दिल शक्तिशाली बना रहता हैं और हार्ट अटैक का डर भी नहीं रहता. ब्लड प्रेशर के हाई हो जाने पर आपको पानी में निम्बू निचोड़कर दिन में दो-तीन बार पीने से लाभ होगा, आप रोज सुबह एक निम्बू का रस चाय गर्म पानी में मिलाकर भी पा सकते हैं.
  3. ब्लड वैसल खुल जाती हैं
    चुकंदर में नाइट्रेट बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है, इसलिए इससे भी आप हाई बीपी को कंट्रोल कर सकते हैं. क्योंकि नाइट्रेट शरीर में जाने पर नाइट्रिक ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है, जिससे नाइट्रिक ऑक्साइड संकुचित हुई ब्लड वैसल खुल जाती हैं. आप रोजाना चुकंदर खा भी सकते हैं या इसका जूस निकालकर भी पी सकते हैं.
  4. बॉडी सोडियम करें कंट्रोल
    आंवला एक ऐसा घटक हैं जो हमारे पूरे शरीर को संतुलित रख सकता हैं इसमें बॉडी का एक्स्ट्रा सोडियम कम करने की क्षमता होती है, इसलिए हाई बीपी के रोगी के लिए आंवले का उपयोग लाभदायक हैं. इसमें विटामिन सी होता हैं यह खून को बढ़ाने और साफ़ करने में सहायक होता हैं साथ ही इससे शरीर को आवश्यक फाइबर भी मिलता हैं. आंवले का मुरब्बा हाई ब्लड प्रेशर ठीक हो जाता हैं.
  5. खून को जमने से रोकें
    हमारी बॉडी में एंटी ऑक्सीडेंट और प्रो ऑक्सीडेंट दोनों पाए जाते हैं, जब प्रो ऑक्सीडेंट ज़्यादा हो जाते हैं तो हृदय रोग, कैंसर व् अन्य घातक बिमारियों के जल्दी होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं. हाई बीपी में अंगूर का रस बहुत उपयोगी सिद्ध होता हैं. लाल और काले अंगूरों में एंटी ऑक्सीडेंट की संख्या अधिक होती हैं, यह खून को जमने या उसके थक्के बनने से रोकता है. इसलिए अंगूरों को खाने से कैंसर, हृदय रोग और हाई बीपी कंट्रोल होता हैं.

    [ लो-ब्लडप्रेशर में आपके काम आएंगे ये 10 उपाय

आजकल की भागदौड़ और तनाव भरी जिंदगी में ब्लडप्रेशर की शिकायत होना आम बात है। चक्कर आना, आंखों में अंधेरा होना, हाथ पैर ठंडे पड़ना, कुछ पल के लिए बेहोशी, लेटने, खड़े होने और बैठने में ब्लड प्रेशर के स्तर में बदलाव होना, ये सभी निम्न रक्तचाप के लक्षण हैं। अगर आपको लो-ब्लडप्रेशर की समस्या है, पढ़ें 10 कारगर उपाय –

तुरंत नमक का पानी पिएं, अगर आपको डायबिटीज हो तो खाएं।
तुरंत बैठ जाएं या फिर लेट जाएं।
अपनी मुट्ठी बांधें, फिर खोलें। ऐसा बार- बार करें।
अपने पैरों को हिलाते रहें, अर्थात सक्रिय रखें।

1) 50 ग्राम देशी चने व 10 ग्राम किशमिश को रात में 100 ग्राम पानी में किसी भी कांच के बर्तन में रख दें। सुबह चनों को किशमिश के साथ अच्छी तरह से चबा-चबाकर खाएं और पानी को पी लें। केवल किशमिश का प्रयोग भी कर सकते हैं।

2) गाजर के 200 ग्राम रस में पालक का 50 कम ब्लडप्रेशर में गाजर भी आपके लिए फायदेमंद हो सकती है। इसके लिए लगभग 200 ग्राम गाजर के रस में एक चौथाई पालक का रस मिलकाकर पिएं। यह आपके लिए बेहद लाभदायक सिद्ध होगा ।
3) छाछ में नमक, भुना हुआ जीरा और हींग मिलाकर, इसका सेवन करते रहने से भी ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है।

4) दालचीनी के पाउडर को प्रतिदिन गर्म पानी के साथ लेने से भी आपको इस समस्या में लाभ मिल सकता है, इसके लिए सुबह-शाम यह प्रयोग करें।

5) लो-बीपी के कारण अगर चक्कर आने की शिकायत हो, आंवले के रस में शहद मिलाकर खाने से बहुत जल्दी राहत मिलती है ।इसके अलावा आंवले का मुरब्बा भी ब्लडप्रेशर के रोगियों के लिए एक बेहतर विकल्प है।>
6) खजूर को दूध में उबालकर पीने से भी निम्न रक्तचात की समस्या में लाभ होता है। आप खजूर खाकर भी दूध पी सकते हैं।

7) अदरक के छोटे-छोटे करके, उनमें नींबू का रस और सेंधा नमक मिलाकर रख दें। अब इसे प्रतिदिन भोजन से पहले थोड़ी-थोड़ी मात्रा में खाते रहें। दिनभर में 3 से 4 बार भी इसका सेवन आप कर सकते हैं। ऐसा करने से रक्तचाप की समस्या कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाएगी।

8) टमाटर के रस में थोड़ी-सी काली मिर्च और नमक डालकर पिएं। इससे कुछ ही समय में निम्न रक्तचाप में लाभ होगा।
9) लो- ब्लड प्रेशर को सामान्य बनाए रखने में चुकंदर का रस काफी फायदेमंद साबित होता है। प्रतिदिन सुबह-शाम इसका सेवन करने से एक सप्ताह में ब्लड प्रेशर में सुधार होता है।

10) इन सभी उपायों के अलावा निम्न रक्तचाप के मरीजों को पोषक तत्वों से भरपूर भोजन करना चाहिए, साथ ही पैदल चलना या फिर व्यायाम करना उनके लिए बेहद लाभदायक सिद्ध होता है।
[घी के इस्तेमाल से पाएं बेहतरीन सेहत और सौन्दर्य लाभ

  1. एक चम्मच शुद्ध घी, एक चम्मच पिसी शकर, चौथाई चम्मच पिसी कालीमिर्च तीनों को मिलाकर सुबह खाली पेट और रात को सोते समय चाटकर गर्म मीठा दूध पीने से आंखों की ज्योति बढ़ती है।
  2. एक बड़े कटोरे में 100 ग्राम शुद्ध घी लेकर इसमें पानी डालकर हलके हाथ से फेंटकर पानी फेंक दें। यह एक बार घी धोना हुआ। ऐसे 10 बार पानी से घी को धोकर, कटोरे को थोड़ी देर के लिए झुकाकर रख दें, ताकि थोड़ा बहुत पानी बच गया हो तो वह भी निकल जाए। अब इसमें थोड़ा सा कपूर डालकर मिला दें और चौड़े मुंह की शीशी में भर दें। यह घी, खुजली, फोड़े फुंसी आदि चर्म रोगों की उत्तम दवा है।
    3 रात को सोते समय एक गिलास मीठे दूध में एक चम्मच घी डालकर पीने से शरीर की खुश्की और दुर्बलता दूर होती है, नींद गहरी आती है, हड्डी बलवान होती है और सुबह शौच साफ आता है। ठंड आने के पहले से ठंड खत्म होने तक यह प्रयोग करने से शरीर में बलवीर्य बढ़ता है और दुबलापन दूर होता है। 
    : इससे पहले कि मच्छर आपका खून चूसें, अपनाएं ये घरेलू उपाय
  3. जॉन्सन बेबी क्रीम: अगर आपको ये पढ़कर हंसी आ रही है तो आपको बता दें कि ये कोई मजाक नहीं है. जॉन्सन बेबी क्रीम लगाकर आप मच्छरों से राहत पा सकते हैं.
  4. नीम और लैवेंडर का तेल – नीम का तेल तो मच्छरों से छुटकारा पाने का रामबाण उपाय है. विशेषज्ञों की मानें तो नीम का तेल किसी भी कॉयल और वेपराइजर की तुलना में दस गुना ज्यादा इफेक्ट‍िव होता है. नीम के तेल में एंटी-फंगल, एंटी-वायरल और एंटी-बैक्टीरियल गुण पाया जाता है. आप चाहें तो नीम के तेल को लैवेंडर ऑयल के साथ मिलाकर भी लगा सकते हैं.
  5. नींबू और लौंग :- एक नींबू को बीच से काट लें और उसमें कुछ लौंग धंसा दें. इस नींबू को उस जगह पर रख दें जहां मच्छरों के होने की आशंका सबसे अधिक हो. इस उपाय को करने से मक्खियां भी दूर रहती हैं.
  6. तुलसी – अपने घर में तुलसी का एक पौधा लगा लें. तुलसी कई बीमारियों में फायदेमंद है. इसके साथ ही ये मच्छरों को दूर रखने में भी मददगार है. इसकी गंध से मच्छर घर से दूर ही रहते हैं.
  7. लहसुन :- लहसुन की 5 से 6 कलियों को कूट लें. इसे एक कप पानी में मिलाकर कुछ देर के लिए उबाल लें. इस पानी को एक स्प्रे बॉटल में भरकर घर के अलग-अलग कोनों में छिड़क दें. इसकी गंध से भी मच्छर दूर ही रहेंगे. 
    #चीन की महान दीवार से प्राप्त हुयी पांडुलिपि में ‘पवित्र मनुस्मृति’ का जिक्र, सही मनुस्मृति में 630 श्लोक ही थे,,मिलावटी मनुस्मृति में अब श्लोकों की संख्या 2400 हो गयी

*” सवाल यह उठता है कि, जब चीन की इस प्राचीन पांडुलिपी में मनुस्मृति में 630 श्लोक बताया है तो आज 2400 श्लोक कैसे हो गयें ? इससे यह स्पष्ट होता है कि, बाद में मनुस्मृति में जानबूझकर षड्यंत्र के तहत अनर्गल तथ्य जोड़े गये जिसका मकसद महान सनातन धर्म को बदनाम करना तथा भारतीय समाज में फूट डालना था।

मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है।

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।

आखिर जिस मनुस्मृति में कहा गया की जन्म से सब सूद्र ही होते है कर्मो से वो ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य बनते है,जातिवाद नही वर्णवाद नियम था की शूद्र के घर पैदा होने वाला ब्राम्हण बन सकता था,,, सब कर्म आधारित था,,, आज उसको जातिवाद की राजनीती का केंद्र बना दिया गया,,,.

मनुस्मृति और सनातन ग्रंथों में मिलावट उसी समय शुरू हो गयी थी जब भारत में बौद्धों का राज बढ़ा, अगर समयकाल के दृष्टि से देखें तो यह मिलावट का खेल 9 वीं शताब्दी के बाद शुरू हुआ था।

मनुस्मृति पर बौद्धों द्वारा अनेक टीकाएँ भी लिखी गयी थीं। लेकिन जो सबसे ज्यादा मिलावट हुयी वह अंग्रेजों के शासनकाल में ब्रिटिश थिंक टैंक द्वारा करवाई गयीं जिसका लक्ष्य भारतीय समाज को बांटना था। यह ठीक वैसे ही किया ब्रिटिशों ने जैसे उन्होंने भारत में मिकाले ब्रांड शिक्षा प्रणाली लागू की थी। ब्रिटिशों द्वारा करवाई गयी मिलावट काफी विकृत फैलाई।

इसी तरह 9 वीं शताब्दी में मनुस्मृति पर लिखी गयी ‘भास्कर मेघतिथि टीका’ की तुलना में 12 वीं शताब्दी में लिखी गई ‘टीका कुल्लुक भट्ट’ के संस्करण में 170 श्लोक ज्यादा था।

इस चीनी दीवार के बनने का समय लगभग 220 से 206 ईसा पूर्व का है अर्थात लिखने वाले ने कम से कम 220 ईसा पूर्व ही मनु के बारे में अपने हस्तलेख में लिखा।

जानकारी का स्त्रोत :

Manu Dharma shastra : a sociological and historical study, Page No-232 (Motwani K.)

Education in the Emerging India, Page No- 148 (R.P. Pathak)
#गुस्साVSव्यवहार
मात्र किसी को छोटा दिखाने की नीयत से जब हम किसी का असम्मान करने की कोशिश करते हैं तब ये समझने की ज़रूरत है कि हमारे द्वारा किए हरकत से किसी का सम्मान या असम्मान नही होने वाला, हर व्यक्ति का अपना स्वभाव अपना चरित्र होता है जिसके कारण उसका सम्मान असम्मान होता है, ये बात समझने वाली है किसी को बेवजह नीचा दिखाने की कोशिश करने से दरअसल हम अपने दिमाग़ की गन्दगी जो कूड़ा करकट की शक्ल मे हमने जमा कर रखा है इसे औरों पर फेकने की कोशिश करते हैं इससे अधिक कुछ भी नही !
नोट : जब व्यक्ति व्यवहार पूर्ण किसी से नहीं मिलता इसका कारण

दिमागी_परेशानी या #अहंकार

दिमागी परेशानी का कारण हो सकता है आर्थिक समस्या
पारिवारिक समस्या शारीरिक समस्या !
अहंकार होने का कारण : हो सकता है कि मेरे पास जो है वो दूसरे के पास नहीं ज्ञान के ऐतबार से या दौलत के ऐतबार से !
अब समझने वाली बात ये कि गर मुझे अपने ज्ञान काबिलियत पर इतना ही अहंकार है तो क्या मै दुनिया के बड़े इल्म दां मुफक्किर अहले क़लम जैसे सुकरात अरस्तू शेक्सपीयर या अपने देश का एपीजे अब्दुल कलाम जैसा नही, मै किसी नामी गिरामी दुनिया के किसी पॉपुलर विश्वविद्यालय का प्रोफेसर या प्रवक्ता नही, नाही औरों की ज़िन्दगी संवारने की वजह !
गर मुझे अपनी दौलत सामग्री पर इतना ही घमंड है तो क्या मै बिल गेट्स लक्ष्मी मित्तल वारेन वफट मुकेश अंबानी या किसी देश का प्रिंस ? या मेरे ज़रिए सैकड़ों हजारों परिवार के घरों का चूल्हा जलता है ?

सोचिए ?

घमंड करने जैसा मनुष्य के पास कुछ भी नही कोई भी कारण नही
पर व्यवहारिक होने के कई कारण हैं व्यवहार से ही हम अपने आपको मरने के बाद भी लोगों के बीच में ज़िंदा रख सकते है
व्यवहार से ही हम लोगों के बीच आज मे अपनी सकारात्मक पहचान बना सकते हैं व्यवहार से ही हम अपनी आने वाली नस्ल में सिविक सेंस जैसे मूल्यों को समझने का माद्दा पैदा कर सकते हैं याद रहे हमारा व्यवहार हमारे बच्चे फ़ॉलो करते हैं !

Human_Attitude पर मेरा शोध ये कहता है कि व्यक्ति जब औरों को अपना गुस्सा या असम्मान दिखाता है तब इसके कई कारण होते हैं इनमें एक कारण ख़ुद से दुखी होना भी है ख़ुद का फ्रस्ट्रेशन जब व्यक्ति ज़िन्दगी से नाखुश रहता है तब वो कई बार अपनी भड़ास औरों पर निकालने की कोशिश करता है !

नोट : जिसे मन चाहा ना मिला हो जीवन मे उसके अंदर गुस्सा रहेगा भीतर !
ऐसा पुरुष जिसे अपनी ताकत का गुरूर रहता हो पर लोगों के बीच अपनी ताकत का इज़हार करने का मौका गंवा देता हो ये भी गुस्से का कारण !

ऐसी महिला जिसकी शादी हुए कई बरस हो गए हों और औलाद से महरूम हो उस महिला के अंदर चिड़चिड़ापन वा गुस्सा भीतर रहेगा !

ऐसा शिक्षित मनुष्य जिसने रात दिन बरसों रटता हुए किताबों को अपने अंदर घोल कर पी गया हो और समय रहते उसे कोई अच्छी जॉब या अपने इल्म की बिना पर कोई पोजिशन ना मिलना भी गुस्से का एक कारण

ऐसा मनुष्य जो अपने पारिवारिक समस्या में घिरा हुआ हो और जीवन में अपने लोगों से सामंजस्य ना बिठा पाता हो ये भी भीतर मे गुस्से का एक कारण !

कई बार मनुष्य किसी कार्य को बड़ी मेहनत से करता रहता है समय भी देता है पर उसे उस किए हुए कार्य मे सफलता नही मिल पाती जो वो चाहता है कारण फ्रस्ट्रेशन गुस्सा रहना लाज़मी !

किसी चीज़ के ना होने ना पाने की वजह गुस्सा ? आख़िर क्यूं ?
हमे जीवन मालिक ने दिया मेरे पास क्या होना चाहिए क्या नही होगा इसका फ़ैसला मालिक करता है जो है उसका आनंद लें जो नही है उसे पाने की ईमानदार कोशिश करें और गर नही मिलता इसके कारण औरों को गुस्सा या अहंकार दिखाएंगे तो क्या ये व्यवहारिकता ?
मालिक का फैसला जीवन मे अच्छे अच्छों को नतमस्तक कर देता है हम और आप क्या हैं !

एक दूसरा पहलू ये भी की कई बार हम औरों को ख़ुश करने की बेजा कोशिश करते हैं पर ख़ुद को खुश नही रख पाते !
मेरा अनुभव ये कहता है जो व्यक्ति स्वयं को ख़ुश रख पाने मे नाकाम है वो कभी भी औरों को ख़ुशी नहीं दे सकता !
ख़ुद को ख़ुश रखने का कारण हमे ख़ुद ढूंढ़ना पड़ेगा !
गर हम इस कोशिश मे हैं कि ख़ुशी किसी दूसरे से मिले कहीं और से मिले तब हमसे बड़ा मूर्ख कोई नही, हमे ख़ुशी कोई दूसरा नही देता खुशी हमारे भीतर होती है बस इसे तलाशना है !
कई बार हम औरों मे अपने लिए सहारा तलाशने की बेजा कोशिश करते हैं जो व्यक्ति मानसिक रूप मे ख़ुद मज़बूत नहीं उसे कोई सहारा नहीं दे सकता हम अपने स्वयं के लिए सबसे बड़ा सहारा बन सकते हैं कभी भी कोई व्यक्ति दूसरे के लिए मज़बूत सहारा नहीं बन सकता सिवाए ख़ुद के, बस मानसिक रूप मे मज़बूत होने की ज़रूरत और जीवन मे प्रैक्टिकल होने की ज़रूरत !
हमारा दिमाग़ एक डब्बे की तरह होता है इस डब्बे मे अच्छा रखना है या बुरा रखना है ये हम पर निर्भर करता है, गर दिमाग़ में कूड़ा रखेंगे तब वहीं कूड़ा औरों पर डालेंगे गर अच्छा रख पाए तब वही अच्छाई औरों को देने की कोशिश करेंगे !
परिस्थितियां हर रोज़ हर पल बदलती रहती हैं हमे इस बात का भी ख्याल रखना है कि आज के किए गए किसी व्यवहार से कल शर्मिंदा ना होना पड़े !
दूसरा व्यवहारिक सच ये की मेरे पास जो है वहीं दूसरों को दूंगा और दूसरा एक सच ये भी जो जैसा दूंगा वैसा ही मुझे वापस मिलेगा !

हर रोज़ हमे ज़िन्दगी मे कुछ नए लोग मिलते हैं लोगों को आपकी दौलत आपकी काबिलियत से कोई सरोकार नही लोगों को मात्र आपके व्यवहार एवम् उनके लिए लाभकारी मात्र होने से ही सरोकार !
नाही गुस्सा होने की जरूरत नाही अहंकारी होने की जरूरत क्यूंकि गुस्सा और अहंकार दोनों ही हमारे मरने के बाद समाप्त होने वाला है तब क्यूं ना हम गुस्से और अहंकार को जीते जी समाप्त कर लें यही समझदारी !!!

#अपनेअस्तित्वकोबचाकररखनेकेकईकारणउनमेसेएकमहत्वपूर्णकारणहमारा_व्यवहार..
| प्रत्येक व्यक्ति में गुण भी होते हैं , दोष भी होते हैं । प्रायः लोग दूसरों के दोष अधिक देखते हैं , और गुण कम। यह पद्धति अपनी उन्नति के लिए अधिक अच्छी नहीं है। क्योंकि मनोविज्ञान यह कहता है , कि यदि आप दूसरों में दोष देखेंगे , तो कुछ दिनों में वे दोष आपके अंदर भी आ जाएंगे । और यदि दूसरों के गुण देखेंगे , तो आपके अंदर वे गुण आने लगेंगे।
इसका कारण यह है कि जो भी चीज आप देखते या सुनते हैं , उसका आपके ऊपर प्रभाव पड़ता है। इस कारण से वे गुण या दोष आपके अंदर आने लगते हैं ।
तो जैसा कि नियम है , सभी लोगों में गुण और दोष होते हैं । इसके अनुसार गुण व दोष, आपके अंदर भी हैं, तथा दूसरों के अंदर भी । तो आप दूसरों के गुण भले ही देखें , दोष न देखें । गुणों की ही खोज करें ।
जैसे दूसरों में गुण हैं , ऐसे आपके अंदर भी बहुत से गुण हैं । अपने अंदर भी गुणों की खोज करें , कि आपके अंदर कौन कौन से गुण हैं । यदि आप अपने गुणों को भी भूल जाते हैं , तो आप उन गुणों के कारण जो प्रगति कर सकते थे , वह नहीं हो पाएगी। इसलिए अपने अंदर के गुणों की खोज भी लगातार करते रहें। उन गुणों का व्यवहार में प्रयोग करते रहें , जिससे आप की उन्नति होती रहे।
दूसरों में भी गुण देखें । जहां तक संभव हो दोष न देखें । दिखाई दे जाएं , तो उनकी उपेक्षा करें , अन्यथा वही दोष कुछ समय में आपके अंदर आ जाएंगे।
जब आप अपने अंदर गुण देखेंगे, तो एक समस्या उत्पन्न हो सकती है, जिसका नाम है अभिमान। इस अभिमान से अवश्य बचें। जब भी आप अपने गुणों को देखें, तो यह मानें कि ये सब गुण योग्यता ईश्वर की कृपा से मुझ में उत्पन्न हुई है । माता-पिता गुरु जन समाज के लोग आदि आदि इन सबके सहयोग से मुझ में कुछ गुण उत्पन्न हुए हैं । मेरा पुरुषार्थ तो इसमें केवल 1% है । बाकी तो सब दूसरों का ही योगदान है । ऐसा सोचने से आपको इस अभिमान के दोष से भी छुटकारा मिल जाएगा – 🚩 धर्म क्या और धार्मिक कौन ?🚩

धर्म की परिभाषा #मनुसमृति मे बिलकुल स्पष्ट है और इतनी सुंदर परिभाषा है की कोई दे नहीं सकता और पूरे ब्रह्मांड के लिए वही परिभाषा है केवल मनुष्य के लिए नहीं ,पशु पक्षी ,कीड़े मकोड़े ,चींटी हाथी सबके लिए वही परिभाषा है।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।

1️⃣पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना,
2️⃣दूसरा – (क्षमा) क्षमा मांगने और करने वाला बनना
3️⃣तीसरा – (दम) कभी उत्तेजित ना होना
4️⃣चौथा – (अस्तेय) चोरी ना करना
5️⃣पांचवां – (शौच) – पवित्रता रखना
6️⃣छठा – (इन्द्रिय निग्रह) – इंद्रियों में संयम रखना
7️⃣सातवां – (बुद्धि)
8️⃣आठवां – (विद्या)
9️⃣नवां – (सत्य)
🔟दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़

हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि यह धर्म नही होते। धर्म के दस लक्षण है जो इन्हें धारण करे वो धर्मिक है जो इनका पालन कर रहा हो वो ही धर्म पर चल रहा है।
[ सारी साधनाओं का लक्ष्य मन का मेल दूर करना है ….

श्री रामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने एक ऐसा सूत्र पकड़ा दिया है जिस से भगवान स्वयं ही पकड़ में आ गये हैं| वह सूत्र है ….

“निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||”

यही बात हमारे सारे ग्रंथों में कही गयी है| जो इस बात को समझ कर अपने आचरण में ले आयेगा वह एक न एक दिन प्रभू को अवश्य प्राप्त कर लेगा|
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चेहरा सुंदर हो, तो इसमें कोई बुरी बात नहीं है । परंतु प्रायः लोग ऐसा मान लेते हैं , कि “जो सुंदर चेहरे वाला है वह चरित्र का भी अच्छा ही होगा, सत्यवादी और ईमानदार भी होगा। यह सोचना गलत है। व्यवहार में आप ऐसे सैकड़ों लोगों को देखते होंगे जिनका चेहरा तो सुंदर है, परंतु उनका चरित्र ठीक नहीं होता , आचरण ठीक नहीं होता। *उनमें सत्यवादिता ईमानदारी सेवा परोपकार नम्रता आदि गुणों की बहुत कमी होती है । *इसलिए ऐसे लोगों से सावधान रहें।* जिनमें दोनों बातें हो , (सुन्दरता और अच्छे गुण) उन्हीं को पसंद करें।
और यदि चेहरा सुंदर ना भी हो, तो भी कोई बात नहीं , परन्तु सच्चाई ईमानदारी सेवा नम्रता दया परोपकार आदि गुण अवश्य होने चाहिएँ। क्योंकि इन्हीं सब गुणों का नाम उत्तम चरित्र है।
ऐसे चरित्रवान लोग स्वयं सदा सुखी रहते हैं और दूसरों को भी सुख देते हैं।

!!Զเधे Զเधे!!🙏🙏
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एक बच्चा अपनी माँ के साथ एक दुकान पर शॉपिंग करने गया तो दूकानदार ने उसकी मासूमियत देखकर उसके सारे टॉफियों का डिब्बा खोल कर कहा… लो बीटा टॉफ़ी ले लो… पर उस बच्चे ने भी बड़े प्यार से उन्हें मना कर दिया। उसके बावजूद उस दूकानदार ने और उसकी माँ ने भी उसे बहुत कहा पर वो मना करता रहा। हार कर उस दुकानदार ने खुद अपने हाथ से टॉफ़ियां निकाल कर उसे दी तो उसने झट से वो टॉफ़ियां ले ली और अपनी जेब में दाल ली। वापिस आते हुए उसकी माँ ने पूछा कि जब अंकल तुम्हारे सामने डिब्बा खोल कर टॉफ़ी दे रहे थे तब तुमने नहीं ली और जब उन्होंने अपने हाथों से दी तो ले ली, ऐसा क्यों? तब उस बच्चे ने बहुत खूबसूरत और प्यारा जवाब दिया…माँ मेरे हाथ छोटे छोटे है, अगर मैं टॉफ़ियां लेता तो बहुत थोड़ी सी आती पर अंकल के हाथ बड़े है इसलिए ज्यादा टॉफ़िया मिली है। बिलकुल इसी तरह जब मालिक हमें अपनी रजा से कुछ देता है तो वह हमारी सोच से पर होता है। हमें हमेशा उसकी रजा में रहना चाहिए। क्या पता वो हुम्हे पूरा समुंदर देना चाहता हो और हम हाथ में चम्मच लेकर खड़े हो!!!!
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[फलित के कुछ अनुभवीय सूत्र

किसी भी कुंडली की मजबूती के लिए लग्न स्वामी अथवा लग्नेश का मजबूत होना ज़रूरी होता हैं लग्नेश का 3,6,8,12 भावो मे होना अशुभ माना जाता हैं क्यूंकी यह भाव हमेशा अशुभता प्रदान करते हैं लग्नेश भले ही पाप ग्रह हो उसका इन अशुभ भावो मे होना अशुभ ही होता हैं जबकि पाप ग्रहो का इन भावो मे होना शुभ माना जाता हैं लग्नेश का किसी भी प्रकार से 3,6,8,12 भावो से अथवा उनके स्वामियों से संबंध अशुभ ही होता हैं |

यदि कुंडली मे सूर्य बली होतो जातक सामान्य कद काठी वाला,प्रभावी,सात्विक,सम्मानित परंतु चिड़चिड़े स्वभाव का होता हैं |

यदि चन्द्र बली होतो जातक मीठा बोलने वाला,वात स्वभाव का रजोगुणी होता हैं |

मंगल बली होतो साहसी,लड़ाकू,अस्थिर मानसिकता वाला,लाल आँखों वाला तमोगुणी होता हैं |

बुध बली होतो जातक मनोहर रंग रूप वाला,बातुनी,बुद्दिमान,अच्छी याददाश्त वाला,पढ़ा लिखा व ज्योतिष से प्रेम करने वाला किन्तु तमोगुणी होता हैं |

गुरु बली होतो जातक धार्मिक विचारो वाला,सदाचारी,वेदपाठी,पढ़ा लिखा व अच्छे चरित्रवाला सदगुणी होता हैं |

शुक्र बली होतो जातक सांसारिक वस्तुओ व सांसारिक कलाओ की चाह रखने वाला,शौकीन मिजाज व रजोगुणी होता हैं |

शनि बली होने पर जातक पतला,आलसी,क्रूर,खराब दाँतो वाला,रूखा,जिद्दी,निष्ठुर,तमोगुणी होता हैं |

सूर्य व मंगल के प्रभाव मे होने पर जातक बात करते समय ऊपर की और देखता हैं |

शुक्र व बुध के प्रभाव मे जातक बात करते समय इधर उधर देखता हैं |

गुरु व चन्द्र के प्रभाव मे होने पर जातक साधारण दृस्टी से देखने वाला होता हैं |

शनि राहू केतू की प्रभाव मे होने पर जातक आधी आँखें खोलकर अपनी बाते करते हैं |

ग्रहो को अपनी मजबूती हेतु सही भावो मे होना चाहिए | लग्नेश का 12वे भाव मे होना व द्वादशेश का 10वे भाव मे होना जातक का जीवन गरीबी,अशांति व उपद्रव से भरा बताता हैं |

ग्रहो को लग्न से व अपने नियत भावो से 6,8,12 भावो मे नहीं होना चाहिए | ऊंच और नीच के ग्रह जब संग होतो ज्यादा शक्तिशाली होते हैं जैसे शुक्र व बुध मीन राशि मे होतो बुध का नीचभंग हो जाएगा जो बुध व शुक्र दोनों के भावो के लिए शुभता प्रदान करेगा इसी प्रकार नीच ग्रह जिस राशि मे हो उसका स्वामी यदि ऊंच राशि मे होतो यह नीच ग्रह भी ताकतवर हो शुभ फल प्रदान करेगा |

शुभ ग्रहो को समान्यत: त्रिकोण भाव का स्वामी होकर केन्द्रीय भावो मे होना चाहिए जबकि अशुभ ग्रहो को केंद्र का स्वामी होकर त्रिकोण मे होना चाहिए | 3,6,8,12 भावो के स्वामी कमजोर होने चाहिए और 2,4,5,7,9,10,11 भावो के स्वामी बली होने चाहिए | चन्द्र गुरु व शुक्र केंद्र स्वामी होकर शुभ फल नहीं देते | लग्न जो पूर्व का प्रतिनिधित्व करता हैं उसमे बुध व गुरु दिग्बली होते हैं चतुर्थ भाव (उत्तर) मे शुक्र व चन्द्र,सप्तम भाव (पश्चिम) मे शनि तथा दसम भाव (दक्षिण) मे सूर्य व मंगल बली होते हैं |

जो जातक रात मे जन्म लेते हैं उनके लिए चंद्र,मंगल व शनि तथा जो दिन मे जन्म लेते हैं उनके लिए सूर्य,गुरु व शुक्र बली होते हैं जबकि बुध दोनों हेतु बली होता हैं |

स्वग्रही ग्रह शुभता देते हैं मुलत्रिकोण मे स्थित ग्रह भी ऊंच ग्रह की तरह ही शुभ फल देते हैं केंद्र मे स्थित ग्रह लग्नानुसार शुभाशुभ फल देते हैं 2,5,8,11 मे ग्रह अपना कम प्रभाव तथा 3,6,9,12 मे बहुत कम प्रभाव देते हैं |

अंतर्दशा नाथ जब दशानाथ से 2,4,5,9,10,11 भाव मे होतो शुभफल,यदि 3,6,8,12 भाव मे होतो अशुभफल तथा 1-7 होने पर साधारण फल और एक दूसरे से 6/8 होने पर बहुत बुरा फल देते हैं |

शनि सूर्य से 6,शुक्र चन्द्र से 5,बुध मंगल से 12,गुरु बुध से 4,मंगल गुरु से 6,सूर्य गुरु से 12 वे भावो मे होतो शत्रुता रखते हैं | शुक्र से शनि 4 तथा गुरु 12 होतो शत्रुता रखते हैं जबकि गुरु शनि से 6 होने पर शत्रुता रखता हैं |

त्रिकोण व केंद्र स्वामियों की युति राजयोग बनती हैं दसवा भाव मजबूत केंद्र व नवा भाव मजबूत त्रिकोण होता हैं यदि नवमेश व दसमेश मे किसी भी प्रकार का संबंध हो,परिवर्तन तो यह एक बड़ा राजयोग होता हैं और यदि यह युति नवम या दसम भाव मे होतो बहुत ही शुभ फल मिलता हैं |

चन्द्र से 6,7,8, भावो मे शुभ ग्रह का होना भी राजयोग प्रदान करता हैं और यदि यह तीनों ग्रह लग्नेश के मित्र भी होतो जातक को ऊंच सफलता मिलती हैं |

लग्नेश का पंचम मे होना पंचमेश का नवम मे होना तथा नवमेश का लग्न मे होना एक बहुत ही बड़ा राजयोग देता हैं | यदि पाप प्रभाव ना होतो 3,6,8,12 भावो के स्वामियो की युति भी राजयोग देती हैं |

गुरु शुक्र युति राजाओ से मान सम्मान,अच्छी शिक्षा व बुद्दि तथा समाज मे बड़ा रुतबा देती हैं |

लग्न मे चन्द्र,गुरु छठे भाव मे,शुक्र दसवे भाव मे हो,शनि ऊंच अथवा स्वग्रही होतो जातक निर्विवाद रूप से राजा होता हैं |
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कैलेण्डर सुधार या विनाश अभियान-मैंने १९५७ में मेघनाद साहा की अध्यक्षता में गठित Calendar Reforms Committee की पूरी रिपोर्ट पढ़ी है। विक्रम संवत् को अस्वीकार करने का कोई कारण नहीँ लिखा है। पर बंगाल तथा केरल के सुधारवादियों के प्रचार से ऐसा लगता है कि वे सौर-चान्द्र मत को हीन मानते हैं तथा अंग्रेजी सौर कैलेण्डर की नकल अधिक शुद्ध मानते हैं। बंगाल की नकल में ओडिशा मे भी यह प्रवृत्ति हो गयी है तथा कहते हैं कि ओड़िआ संस्कृति में सौर वर्ष ही होता है। इसमें दो भावनाएं हैं-अपने को बाकी भारत से अलग दिखाना, अंग्रेजों की नकल कर महान् बनना। यह प्रचार बिलकुल झूठा तथा मूर्खतापूर्ण है। ओड़िशा का सबसे मुख्य पर्व है रथयात्रा जो सदा आश्विन शुक्ल द्वितीया को होता है। एक और पर्व है भाद्र शुक्ल द्वादशी जिस दिन वामन विष्णु ने इन्द्र के तीनों लोक बलि से ले लिये थे। इसी दिन से ओड़िशा के राजाओं का राजत्व काल गिना जाता है। यदि कोई फाल्गुन पूर्णिमा को राजा बना तो आगामी भाद्र शुक्ल द्वादशी को शून्य वर्ष गिना जायेगा, जैसे पेट्रोल पम्प पर शून्य से गिनती आरम्भ करते हैं। उसके बाद के वर्षों में भाद्र शुक्ल द्वादशी को क्रमशः १,२, ३— वर्ष गिने जायेंगें। इसी पर्व को केरल में ओणम कहते हैं, जिससे अंग्रेजी में वन (one) हुआ है (या उन = १ कम से)। पर यह पुराण वर्णित भाद्र शुक्ल द्वादशी के बदले सिंह मास की ५ तिथि को मनाते हैं जिसका अभी तक कोई आधार नहीँ मिला है। कुछ वर्षों (२९ या ३० वर्ष में एक बार) में सिंह मास की ५ तिथि को भाद्र शुक्ल द्वादशी सम्भव है, पर बलि से तीन लोक का राज्य लेने के दिन सिंह मास की ५ तिथि थी या नहीँ, यह कहीं नहीँ लिखा है।
समिति रिपोर्ट की भूमिका में बिना नाभ दिये न्यूगेबायर की पुस्तक (Exact Sciences of Antiquity-Otto Neugebauer) को उद्धृत किया है कि कैलेण्डर दो प्रकार के होते हैं-एक गणितीय तथा दूसरा व्यावहारिक। न्यूगेबायर ने लिखा है कि प्राचीन मिस्र में दोनों तरह के वर्ष चलते थे। पर भारत में भी ऐसा हो सकता है, यह न न्यूगेबायर की समझ में आया न उनकी नकल करने वाले मेघनाद साहा को।
दो कैलेण्डर का अर्थ इन लोगो ने समझा कि गणित के अनुसार किसी तिथि जैसे एकादशी का आरम्भ दिन-रात में कभी भी हो सकता है, पर व्यवहार में स्थानीय सूर्योदय से ही माना जाता है।
पर समस्या इससे गम्भीर है। मुस्लिम शासकों को लगान वसूली में समस्या होती थी कि ऋतु चक्र से उनका वर्ष हर तीन साल में एक वर्ष पिछड़ जाता था। अतः फसल हर वर्ष अलग-अलग महीनों में होता था। फसल के बाद ही उसके अनुसार लगान लिया जाता था। अतः उसके लिये फसली सन का व्यवहार होता था। अन्य वर्ष अमली कहलाता था।
भारत में यह समस्या नहीँ थी क्योंकि हर ३०-३१ मास के बाद १ अधिक मास जोड़ कर चान्द्र वर्ष को सौर वर्ष या ऋतु चक्र के प्रायः समतुल्य करते थे। यह सौर वर्ष के साथ चलता था, या इसके अनुसार समाज चलता था, अतः इसे सम्वत्सर (सम् + वत् + सरति = साथ चलता है) या संक्षेप में सम्वत् कहते थे।
यहाँ सम्वत् तथा शक दो प्रकार के वर्ष चलते थे। प्रति दिन की गणना द्वारा सौर मास तथा वर्ष की गणना शक है जैसे रोमन कैलेण्डर। इससे दिन गणना तथा किसी समय विन्दु (शक वर्ष आरम्भ) से बीते दिनों की गणना तथा उससे ग्रह गति की गणना सहज है। पर पूजा मानसिक क्रिया है तथा मन का नियन्त्रक चन्द्रमा है-चन्द्रमा मनसो जातः (पुरुष सूक्त)। अतः चान्द्र तिथि के अनुसार ही पर्व होते हैं। इसमें गणना की कठिनाई होती है। ५ तिथि के बाद किसी स्थान पर ५, ६ या ७ तिथि भी हो सकती है। अतः कब ५ तिथि होगी इसकी गणना के लिये शक वर्ष आवश्यक है। शक का अर्थ है १-१ कर दिनों का समुच्चय। इसे अहर्गण (day count) भी कहते हैं। केवल सम्वत् से काम नहीं चलता। पूछना पड़ता है कि निर्जला एकादशी १३ जून को होगी या १४ को। उलटा नहीँ पूछते कि १३ जून कब पड़ेगा-एकादशी या द्वादशी को? तिथि गणना के लिये सम्वत् तथा क्रमागत दिनों की गणना के लिए शक है।
भारत में जितनी गणना की पुस्तकें हैं उनमें शालिवाहन शक का प्रयोग हुआ है तथा पर्व निर्णय के लिये विक्रम सम्वत् का। वराहमिहिर तथा ब्रह्मगुप्त के समय शालिवाहन शक आरम्भ नहीं हुआ था, अतः उस समय ६१२ ईपू के चाप या चपहानि शक का प्रयोग होता था (बृहत् संहिता, १३/३) जब दिल्ली के चाहमान राजा ने असीरिया की राजधानी निनेवे को ध्वस्त कर दिया था (बाइबिल में ५ स्थानों पर उल्लेख)। उससे पहले युधिष्ठिर शक का प्रयोग प्रचलित था।
जितने भी राजाओं ने अपने वर्ष चलाये उनको शक-कारक कहा गया है। उन सभी से अंग्रेजों की शत्रुता है क्योंकि मनमाना तिथि देने में कठिनाई होती थी। सबसे अधिक विक्रमादित्य से शत्रुता है क्योंकि आजषभी उसी के अनुसार पर्व का पालन हो रहा है। उसके अतिरिक्त उन्होंने जूलियस सीजर को भी बन्दी बनाया था। अति घृणा के कारण अंग्रेज या उनके अनुचर विक्रमादित्य का नाम भी नहीँ लेते और इसको हटाने की योजना १८९० से चल रही थी। १८९०, १९३० तथा उसके बाद १९५७ की पञ्चाङ्ग सुधार समितियों का एक मात्र उद्देश्य था विक्रम संवत् को समाप्त करना। सुधार की भावना कभी नहीं थी। पिछले १३० वर्षों में किसी भी सुधारक को यह पता नहीं चला है कि विक्रम संवत् में भूल या अशुद्धि क्या है? जब भूल का पता नही है तो किस सुधार के लिये ये बेचैन थे?
शालिवाहन शक को राष्ट्रीय शक के नाम से प्रचलित करने का आग्रह इस लिये था क्योंकि इनके अनुसार यह विदेशी शक राजा कनिष्क का था। यह कई प्रकार से झूठ है-(१) यह शक विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन का था जो ७८ ईसवी में आरम्भ हुआ। राजतरंगिणी के अनुसार कनिष्क का समय उससे १३०० वर्ष पूर्व १२९२-१२७२ ईपू था।
(२) कनिष्क शक राजा नहीँ था। वह कश्मीर के गोनन्द वंश का ४३वां राजा था।
(३) अलबरूनी की पुस्तक प्राचीन देशों की काल गणना (Chronology of Ancient Nations) में स्पष्ट लिखा है कि किसी भी शक राजा ने अपना कैलेण्डर नहीँ चलाया। वे ईरान या सुमेरियन कैलेण्डर का पालन करते थे।
(४) शक राजाओं का प्रभाव प्रायः १०० वर्ष के लिये पश्चिम उत्तर भारत में था। उनका यदि कैलेण्डर होता तो उसका प्रयोग पूर्व और दक्षिण भारत, कम्बोडिया तथा फिलीपीन (लुगुना शिलालेख) में नहीँ होता। इन स्थानों पर इनके प्रयोग से स्पष्ट है कि विक्रमादित्य का प्रत्यक्ष शासन हो या नहो, उनका प्रभाव वहाँ तक अवश्य था।

विदेश यात्रा के योग

जन्म कुण्डली में विदेश यात्रा के योग होने पर भी जरूरी नहीं कि आपको विदेश जाने का अवसर मिलेगा. इस विषय में ज्योतिषीयों का मत है कि योग अगर कमज़ोर हैं तो विदेश में आजीविका की संभावना कम रहती है इस स्थिति में हो सकता है कि व्यक्ति अपने जन्म स्थान से दूर जाकर अपने ही देश में नौकरी अथवा कोई व्यवसाय करे.विदेश यात्रा योग के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है व्यय स्थान। विदेश यात्रा का निश्चित योग कब आएगा, इसलिए उपरोक्त तीनों भावों के कार्येश ग्रहों की महादशा-अंतरदशा-विदशा पर गौर करने पर सही समय का पता किया जा सकता है।विदेश में कितने समय के लिए वास्तव्य होगा, यह जानने के लिए व्यय स्थान स्थित राशि का विचार करना आवश्यक होता है।

व्यय स्थान में यदि चर राशि हो तो विदेश में थोड़े समय का ही प्रवास होता है। व्यय स्थान में अगर स्थिर राशि हो तो कुछ सालों तक विदेश में रहा जा सकता है। यदि द्विस्वभाव राशि हो तो परदेस आना-जाना होता रहता है। इसके साथ-साथ व्यय स्थान से संबंधित कौन-से ग्रह और राशि हैं, इनका विचार करने पर किस देश में जाने का योग बनता है, यह भी जाना जा सकता है।सर्वसाधारण तौर पर यदि शुक्र का संबंध हो तो अमेरिका जैसे नई विचार प्रणाली वाले देश को जाने का योग बनता है। उसी तरह अगर शनि का संबंध हो तो इंग्लैंड जैसे पुराने विचारों वाले देश को जाना संभव होता है। अगर राहु-केतु के साथ संबंध हो तो अरब देश की ओर संकेत किया जा सकता है।

तृतीय स्थान से नजदीक का प्रवास, नवम स्थान से दूर का प्रवास और व्यय स्थान की सहायता से वहाँ निवास कितने समय के लिए होगा यह जाना जा सकता है।

कुंडली के तृतीय, सप्तम और नवम, द्वादश स्थानों से प्रवास के बारे में जानकारी मिलती है। तृतीय स्थान से आसपास के प्रवास, सप्तम स्थान से जीवन साथी के साथ होने वाले प्रवास, नवम से दूरदराज की यात्रा व द्वादश से विदेश यात्रा का योग देखा जाता है।कुंडली के तृतीय, सप्तम और नवम, द्वादश स्थानों से प्रवास के बारे में जानकारी मिलती है।

तृतीय स्थान से आसपास के प्रवास, सप्तम स्थान से जीवन साथी के साथ होने वाले प्रवास, नवम से दूरदराज की यात्रा व द्वादश से विदेश यात्रा का योग देखा जाता है।यदि ये स्थान व इनके अधिपति बलवान हो तो जीवन में यात्रा योग आते ही रहते हैं।

पंचम-नवम स्थानों के अधिपति स्थान परिवर्तन कर रहे हो तो उच्च शिक्षा हेतु यात्रा होती है। व्यय में शनि, राहु, नैपच्यून हो तो विदेश यात्रा अवश्य होती है। प्रवास स्थान में पापग्रह हो तो यात्रा से नुकसान हो सकता है।

यदि लग्नेश-अष्टमेश का कुयोग हो तो यात्रा में दुर्घटना होने के योग बनते हैं। नवमेश पंचम में हो तो बच्चों के द्वारा यात्रा कराए जाने के योग होते हैं। प्रवास स्थान गुरु के प्रभाव में हो तो तीर्थयात्रा के योग बनते हैं। नवम केतु भी तीर्थ यात्रा कराता है।

वायु तत्व राशि के व्यक्ति हवाई यात्रा के प्रति आकर्षित होते हैं। जल तत्व के व्यक्तियों को जलयात्रा के अवसर मिलते हैं। वहीं पृथ्वी व अग्नि तत्व के व्यक्ति सड़क या‍त्रा करते हैं।

  1. नवम स्थान का स्वामी चर राशि में तथा चर नवमांश में बलवान होना आवश्यक है।
  2. नवम तथा व्यय स्थान में अन्योन्य योग होता है।
  3. तृतीय स्थान, भाग्य स्थान या व्यय स्थान के ग्रह की दशा चल रही हो।
  4. तृतीय स्थान, भाग्य स्थान और व्यय स्थान का स्वामी चाहे कोई भी ग्रह हो वह यदि उपरोक्त स्थानों के स्वामियों के नक्षत्र में हो तो विदेश यात्रा होती है।

यदि तृतीय स्थान का स्वामी भाग्य में, भाग्येश व्यय में और व्ययेश भाग्य में हो, संक्षेप में कहना हो तो तृतियेश, भाग्येश और व्ययेश इनका एक-दूजे के साथ संबंध हो तो विदेश यात्रा निश्चित होती है।

हमारा भोजन ….

हम जो भी भोजन करते हैं वह हम स्वयं नहीं करते बल्कि वैश्वानर के रूप में स्थित परमात्मा को अर्पित करते हैं| हमारा हर आहार स्वयं भगवान ग्रहण कर रहे हैं, इसी भाव से खाना चाहिए, और वही खाना चाहिए जो भगवान को प्रिय है| गीता में भगवान कहते हैं …..

“अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||”

अर्थात् … मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ||

भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि होकर वैश्वानर के रूप में प्राण और अपान वायु से संयुक्त हुए (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) चार प्रकार के अन्नों को पचाते हैं| वैश्वानर अग्नि खानेवाला है और सोम खाया जानेवाला अन्न है| इस प्रकार देखनेवाला मनुष्य अन्नके दोषसे लिप्त नहीं होता| सार की बात यह है कि What so ever we eat, it is an offering to the Divine presence within.

भोजन करना भी एक यज्ञ है जो परमात्मा को अर्पित है| परमात्मा ही हवि हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही आहुति हैं, और भोजन करना भी एक ब्रह्मकर्म है| गीता में भगवान कहते हैं ….

“ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||”

यानि अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||

भगवान को अर्पित नहीं कर के इन्द्रियों की तृप्ति के लिए स्वयं खाने वाला चोर है, यह गीता में भगवान का कथन है ….

“इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः| तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः||३:१२||”

अकेला खाने वाला पापी है और बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी खाना पाप है| बिना भगवान को अर्पित किये खाना पाप का भक्षण है| अति धन्य श्रुति भगवती कहती है ….

“मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य |

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी || (ऋग्वेदः सूक्तं १०.११७.६)

अर्थात् मन में दान की भावना न रखनेवाला व्यर्थ ही अन्न प्राप्त करता है| यह यथार्थ कहता हूँ … इस प्रकार का भोजन उसकी मृत्यु ही है| वह न तो अर्यमा (पित्तरों के देवता) आदि देवों को पुष्ट करता है और न तो मित्र (वेदों में मित्र ही सर्वप्रधान आदित्य माने गए है) को ही| स्वयं भोजन करनेवाला केवल पापी होता है|

मनु स्मृति कहती है …. “अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् |”

{ मनुस्मृति ३ / ११८ }

अर्थात् जो देवता आदि को न देकर केवल अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह केवल पाप खाता है|

हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में हूँ| तुम्हारे समान परम हितकारी कोई अन्य नहीं है| तुम्हारे से पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है| मुझे अपने साथ एक करो| Reveal Thyself unto me.
: सात शरीर व सात चक्र

ईश्वर,परमात्मा,ब्रह्म,तत्व(जो भी नाम आप देना चाहें) से साक्षात्कार के दो ही मार्ग हैं-ध्यान और प्रेम(भक्ति)। शेष सब सामाजिक व्यवस्थाएं मात्र हैं।

हमारे देश में बड़े-बड़े ध्यान योगी और भक्त हुए हैं। जिन्होंने ब्रह्म साक्षात्कार किया है। सभी ने अपने-अपने अनुभव अपने शिष्यों को बताएं भी है।
सभी योगी इस बात पर एकमत है कि मानव का स्थूल शरीर ही एकमात्र शरीर नहीं है अन्य शरीर भी हैं। कोई तीन शरीरों की बात कहते हैं, कोई पांच तो कोई सात। सन्तो ने सात शरीरों की चर्चा करते हैं।
यह ज़्यादा सटीक मालूम पड़ता हैं क्योंकि कुण्डलिनी जागरण के साधक इस बात को जानते हैं कि कुण्डलिनी सात चक्रों से होकर सहस्रार तक पहुंचती हैं। सन्तो के अनुसार हर शरीर एक चक्र से संबंधित होता है। ये सात शरीर और सात चक्र हैं-
१. स्थूल शरीर (फ़िज़िकल बाडी)- मूलाधार चक्र
२. आकाश या भाव शरीर (इथरिक बाडी)-स्वाधिष्ठान चक्र
३. सूक्ष्म या कारण शरीर (एस्ट्रल बाडी)-मणिपुर चक्र
४. मनस शरीर (मेंटल बाडी)-अनाहत चक्र
५. आत्मिक शरीर (स्प्रिचुअल बाडी)-विशुद्ध चक्र
६. ब्रह्म शरीर (कास्मिक बाडी)-आज्ञा चक्र
७. निर्वाण शरीर (बाडीलेस बाडी)-सहस्रार
सामान्य मृत्यु में केवल हमारा स्थूल शरीर ही नष्ट होता है। शेष छः शरीर बचे रहते हैं जिनसे जीवात्मा अपनी वासनानुसार अगला जन्म प्राप्त करती है किंतु महामृत्यु में सभी छः शरीर नष्ट हो जाते हैं फ़िर पुनरागमन संभव नहीं होता। इसे ही अलग-अलग पंथों में मोक्ष,निर्वाण,कैवल्य कहा जाता है।
🙏🙏🙏🙏
. “राजेन्द्रदासजी महाराज के मुख से”

                       (सर्वदेवमयी गाय)

      एक बात है जो बड़े विनोद की है, पर है अनुभव की। हमने तो साधुओं में यह देखा है कि जिसने गाय का गोबर उठाया, वह महन्त बन गया। कई उदहारण हमने ऐसे देखे हैं। अब महन्तों का नाम लेंगे तो उनको बुरा लगेगा कि देखो, महाराज मंच से हमको गोबर उठानेवाला कह रहे हैं, यद्यपि इसको सुनकर उनको अपने-आप में गौरव का अनुभव करना चाहिए।हमारे सामने के १०- २० उदाहरण ऐसे हैं, जो गौ का गोबर उठाते थे, अब बड़े-बड़े स्थानों के महन्त बन गये हैं। यद्यपि महन्त बनना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है तथापि गोसेवा की महिमा की दृष्टि से यहाँ एक सामान्य दृष्टान्त प्रस्तुत है।
      श्रीअयोध्याजी में बड़ी छावनी एक स्थान है, यहाँ एक महन्त ऐसे हुए श्रीकौशलकिशोरदासजी महाराज, जो बहुत प्रतापी सन्त थे। उनके जमाने में ढाई हजार गायें थीं, बहुत लम्बी-चौड़ी खेती थी।उनके समय में गौसेवा, सन्तसेवा बहुत अद्भुत हुई।
      उनके जो गुरुदेव थे, वे शिष्य को महन्त बनाना चाह रहे थे। जिनको महन्त बनाना था, उस दिन वे उबटन लगाकर बढ़िया से स्नान कर रहे थे।बढ़ियासे स्नान करके तिलक लगाकर अँचला पहनकर आनेकी तैयारी में ही लगे थे। जब समय अधिक हो गया तो गुरुजी ने कहा, भाई ! क्या बात है, देर हो रही है, मुहूर्त निकला जा रहा है, पूजन भी होना है। सब लोग आ गये। महन्त जिसको बनना है वह कहाँ है ? बुलाओ उसको, किसी ने कहा-वे तो तैयार हो रहे हैं। अरे ! राम-राम-राम ! अभी तो महन्त बना नहीं, अभी से सजावट में लग गया तो फिर महन्त बनने पर तो अपनी ही सजावट करेगा ; गोसेवा, ठाकुरसेवा और सन्तसेवा तो करेगा नहीं, तो फिर ठीक है उसको सजावट करने दो, उसको बुलाने मत जाना और खुद उठे वहाँ से और उठकर घुमने लगे तो उन्होंने देखा कि बाजे बज रहे थे, महन्त बननेके लिये बड़ा उत्सव का माहौल था, पर एक बालक, जिसकी आयु १०-१२ वर्ष की रही होगी, गोशाला में गोबर उठा रहा था, उसे उत्सव से कोई मतलब ही नहीं था,वह गोसेवा में लगा था। हाथ गोबर से सने हुए थे। उसे देखकर गुरुजी बड़े खुश हो गये और बोले- 'गोसेवा करता है, गोबर उठाता है, महन्त बनने लायक तो यही है।' विप्र बालक था ही, तुरन्त उसका हाथ पकड़ा बोले- चल-चल। बोला- कहाँ गुरुजी ? कहाँ- चल तुझे गद्दीपर बिठाना है। वह बोला- गुरुजी ! हम तो बालक हैं। बोले- बालक नहीं, तुम गोसेवक हो।तुमको गद्दीपर बिठायेंगे, चलो, उसने कहा- हाथ-पैर धो आयें।तो बोले- नहीं, हाथ-पैर धो लोगे तो पवित्रता नष्ट हो जायगी। अभी तुम्हारे पैर में गोबर लगा है, हाथ में गोबर लगा है। इस समय महन्त बनोगे तो खूब गोसेवा करोगे, फिर मुहूर्त निकल जायगा, गोबर से सने हाथों से ही तुरन्त ले जाकर स्वस्तिवाचन करके उसे महन्त बना दिया। ये बालक ही कौशलकिशोरदासजी के रूप में विख्यात हुए। तो जिनके हाथ गोबर से सने हुए थे, वे कौशलकिशोरजी जब गद्दीपर बैठे तो इतनी गोसेवा और सन्तसेवा का विस्तार हुआ कि सर्वत्र आनन्द छा गया। वे महान, उदार, दानी और परोपकारी थे, गोसेवा के प्रभाव से अपार समृद्धि और सम्पत्ति उनके पास थी तो गाय अपनी सेवा करनेवाले की दरिद्रता को दूर कर देती है। इसलिये निवेदन है कि जिसे महान बनने की इच्छा हो, धनाढय बननेकी इच्छा हो, सच्चे अर्थमें श्रीमान् बननेकी इच्छा हो तो उसे गौका गोबर उठाना चाहिये।
      श्रद्धापूर्वक सेवा करनेवालेको गाय अपरिमित सम्पत्ति प्रदान करती है और गायकी यदि कृपा भरी दृष्टि जीवको प्राप्त हो जाय तो वह निश्चित ही उत्तम गतिको प्राप्त होता है।स्मृतियों में लिखा है- गायकी समता करने वाला धन इस ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई नहीं है। गोधश सर्वश्रेष्ठ धन है, इससे बढ़कर धन कोई नहीं है. सम्पूर्ण देवता इसमें निवास करते हैं। आप विचार कीजिये, जिसके गोबर में लक्ष्मी हो, जिसके मूत्र में साक्षात् भगवती गंगा हो, उसकी महिमा का क्या कहना ! उसकी तो अनन्त परिमित महिमा है। गाय सर्वदेवमयी है और सर्ववेदमयी है- यह वाराहपुराण में लिखा है। इसलिये विद्या की प्राप्ति भी गायकी सेवासे और देवताओं की कृपा भी गायकी सेवासे प्राप्त हो जायगी। भगवान् वाराह कह रहे हैं- हे पृथ्वीदेवि ! अमृतको धारण करने वाली यह गाय तीनों लोकों का मंगल करती हुई विचरण कर रही है। तीर्थों में भी यह महान तीर्थ है, इससे बड़ा कोई दूसरा तीर्थ नहीं है। पवित्रों में भी यह पवित्र है, पुष्टियों में भी यह श्रेष्ठ पुष्टि है।
                                 -सन्त राजेन्द्रदासजी महाराज
                              पुस्तक:- 'गोरक्षा एवं गोसंवर्धन'
                                            (गीता प्रेस गोरखपुर)

       अजगर करे ना चाकरी, पंक्षी करे ना काम।
       दास मलूका  कह गये,  सबके दाता  राम।।

                       "जय जय श्री राधे"

     


: 🌹🌹🌹🌹🌹हर दीन इस शिव मंत्र का जाप करे परिवार वालों को मुसीबतों से बचाएगा 🌹🌹🌹🌹🌹🕉
शिव, रात के नियंत्रक देवता माने जाते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार रात्रि यानी अंधकार का वक्त बुरी शक्तियों या भावनाओं के हावी होने का समय भी होता है, जो प्रतीक रूप में भूत, पिशाच, डाकिनी या शाकीनी के रूप में भी प्रसिद्ध है। इन बुरी ताकतों पर शिव का नियंत्रण माना गया है, जिससे वह भूतभावन महाकाल भी कहें जाते हैं।

वास्तव में, प्रतीकात्मक तौर पर संकेत है कि बुराइयों, दोष या विकारों के कारण जीवन में दु:ख और संताप रूपी अंधकार से मुक्ति पानी है तो शिव भक्ति के रूप में अच्छाइयों के रक्षा कवच को पहनकर जीवन को सुखी और सफल बना सकते हैं| इसके लिए शास्त्रों के अनुसार शाम के वक्त विशेष तौर पर आज प्रदोष तिथि या प्रतिदिन शिव का ध्यान घर-परिवार की मुसीबतों से रक्षा करने वाला माना गया है।

  • शाम को शिव की पंचोपचार पूजा गंध, अक्षत, आंकड़े के फूल, बिल्वपत्र व धतुरा चढ़ाकर कर करें।
  • शिव पूजा के बाद यथाशक्ति मौसमी फल जैसे केले या गाय के दूध से बनी मिठाई का भोग चढ़ा कर धूप व घी का दीप लगाएं।

शंकराय नमस्तुभ्यं नमस्ते करवीरक।
त्र्यम्बकाय नमस्तुभ्यं महेश्वरमत: परम्।।
नमस्तेस्तु महादेव स्थावणे च तत: परम्।
नम: पशुपते नाथ नमस्ते शम्भवे नम:।।
नमस्ते परमानन्द नम: सोमर्धधारिणे।
नमो भीमाय चोग्राय त्वामहं शरणं गत:।।

  • शिव पूजा, मंत्र स्मरण के बाद आरती करें।
  • आरती के बाद अशुभ या अनिष्ट से रक्षा की प्रार्थना करें और प्रसाद ग्रहण करें।बिल्कुल सफलता मिलेगी✍🙏🙏🙏🙏
    : ग्रह दोष के पूर्व संकेत
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    ग्रह अपना शुभाशुभ प्रभाव गोचर एवं दशा-अन्तर्दशा-प्रत्यन्तर्दशा में देते हैं।जिस ग्रह की दशा के प्रभाव में हम होते हैं, उसकी स्थिति के अनुसार शुभाशुभ फल हमें मिलता है ।जब भी कोई ग्रह अपना शुभ या अशुभ फल प्रबल रुप में देने वाला होता है, तो वह कुछ संकेत पहले से ही देने लगता है । ऐसे ही कुछ पूर्व संकेतों का विवरण यहाँ दृष्टव्य है।

सूर्य के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 सूर्य अशुभ फल देने वाला हो, तो घर में रोशनी देने वाली वस्तुएँ नष्ट होंगी या प्रकाश का स्रोत बंद होगा । जैसे – जलते हुए बल्ब का फ्यूज होना, तांबे की वस्तु खोना ।
👉 किसी ऐसे स्थान पर स्थित रोशनदान का बन्द होना, जिससे सूर्योदय से दोपहर तक सूर्य का प्रकाश प्रवेश करता हो । ऐसे रोशनदान के बन्द होने के अनेक कारण हो सकते हैं । जैसे – अनजाने में उसमें कोई सामान भर देना या किसी पक्षी के घोंसला बना लेने के कारण उसका बन्द हो जाना आदि ।
👉 सूर्य के कारकत्व से जुड़े विषयों के बारे में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है । सूर्य जन्म-कुण्डली में जिस भाव में होता है, उस भाव से जुड़े फलों की हानि करता है । यदि सूर्य पंचमेश, नवमेश हो तो पुत्र एवं पिता को कष्ट देता है । सूर्य लग्नेश हो,तो जातक को सिरदर्द, ज्वर एवं पित्त रोगों से पीड़ा मिलती है । मान-प्रतिष्ठा की हानि का सामना करना पड़ता है ।
👉 किसी अधिकारी वर्ग से तनाव, राज्य-पक्ष से परेशानी ।
👉 यदि न्यायालय में विवाद चल रहा हो, तो प्रतिकूल परिणाम ।
👉 शरीर के जोड़ों में अकड़न तथा दर्द ।
👉 किसी कारण से फसल का सूख जाना ।
👉 व्यक्ति के मुँह में अक्सर थूक आने लगता है तथा उसे बार-बार थूकना पड़ता है ।
👉 सिर किसी वस्तु से टकरा जाता है ।
👉 तेज धूप में चलना या खड़े रहना पड़ता है

चन्द्र के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 जातक की कोई चाँदी की अंगुठी या अन्य आभूषण खो जाता है या जातक मोती पहने हो, तो खो जाता है।
👉 जातक के पास एकदम सफेद तथा सुन्दर वस्त्र हो वह अचानक फट जाता है या खो जाता है या उस पर कोई गहरा धब्बा लगने से उसकी शोभा चली जाती है।
👉 व्यक्ति के घर में पानी की टंकी लीक होने लगती है या नल आदि जल स्रोत के खराब होने पर वहाँ से पानी व्यर्थ बहने लगता है । पानी का घड़ा अचानक टूट जाता है ।
👉 घर में कहीं न कहीं व्यर्थ जल एकत्रित हो जाता है तथा दुर्गन्ध देने लगता है ।

उक्त संकेतों से निम्नलिखित विषयों में अशुभ फल दे सकते हैं ।
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👉 माता को शारीरिक कष्ट हो सकता है या अन्य किसी प्रकार से परेशानी का सामना करना पड़ सकता है ।
👉 नवजात कन्या संतान को किसी प्रकार से पीड़ा हो सकती है ।
👉 मानसिक रुप से जातक बहुत परेशानी का अनुभव करता है ।
👉 किसी महिला से वाद-विवाद हो सकता है ।
👉 जल से जुड़े रोग एवं कफ रोगों से पीड़ा हो सकती है । जैसे – जलोदर, जुकाम, खाँसी, नजला, हेजा आदि ।
👉 प्रेम-प्रसंग में भावनात्मक आघात लगता है ।
👉 समाज में अपयश का सामना करना पड़ता है । मन में बहुत अशान्ति होती है ।
👉 घर का पालतु पशु मर सकता है ।
👉 घर में सफेद रंग वाली खाने-पीने की वस्तुओं की कमी हो जाती है या उनका नुकसान होता है । जैसे– दूध का उफन जाना ।
👉 मानसिक रुप से असामान्य स्थिति हो जाती है

मंगल के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 भूमि का कोई भाग या सम्पत्ति का कोई भाग टूट-फूट जाता है ।
👉 घर के किसी कोने में या स्थान में आग लग जाती है ।यह छोटे स्तर पर ही होती है ।
👉 किसी लाल रंग की वस्तु या अन्य किसी प्रकार से मंगल के कारकत्त्व वाली वस्तु खो जाती है या नष्ट हो जाती है।
👉 घर के किसी भाग का या ईंट का टूट जाना ।
👉 हवन की अग्नि का अचानक बन्द हो जाना ।
👉 अग्नि जलाने के अनेक प्रयास करने पर भी अग्नि का प्रज्वलित न होना या अचानक जलती हुई अग्नि का बन्द हो जाना ।
👉 वात-जन्य विकार अकारण ही शरीर में प्रकट होने लगना ।
👉 किसी प्रकार से छोटी-मोटी दुर्घटना हो सकती है ।

बुध के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 व्यक्ति की विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है अर्थात् वह अच्छे-बुरे का निर्णय करने में असमर्थ रहता है ।
👉 सूँघने की शक्ति कम हो जाती है ।
👉काम-भावना कम हो जाती है । त्वचा के संक्रमण रोग उत्पन्न होते हैं । पुस्तकें, परीक्षा ले कारण धन का अपव्यय होता है । शिक्षा में शिथिलता आती है ।

गुरु के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 अच्छे कार्य के बाद भी अपयश मिलता है ।
👉 किसी भी प्रकार का आभूषण खो जाता है ।
👉 व्यक्ति के द्वारा पूज्य व्यक्ति या धार्मिक क्रियाओं का अनजाने में ही अपमान हो जाता है या कोई धर्म ग्रन्थ नष्ट होता है ।
👉 सिर के बाल कम होने लगते हैं अर्थात् व्यक्ति गंजा होने लगता है ।
👉 दिया हुआ वचन पूरा नहीं होता है तथा असत्य बोलना पड़ता है ।

शुक्र के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 किसी प्रकार के त्वचा सम्बन्धी रोग जैसे – दाद,खुजली आदि उत्पन्न होते हैं ।
👉 स्वप्नदोष, धातुक्षीणता आदि रोग प्रकट होने लगते हैं ।
👉 कामुक विचार हो जाते हैं ।
👉 किसी महिला से विवाद होता है ।
👉 हाथ या पैर का अंगुठा सुन्न या निष्क्रिय होने लगता है ।

शनि के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 दिन में नींद सताने लगती है ।
👉 अकस्मात् ही किसी अपाहिज या अत्यन्त निर्धन और गन्दे व्यक्ति से वाद-विवाद हो जाता है ।
👉 मकान का कोई हिस्सा गिर जाता है ।
👉 लोहे से चोट आदि का आघात लगता है ।
👉 पालतू काला जानवर जैसे- काला कुत्ता, काली गाय, काली भैंस, काली बकरी या काला मुर्गा आदि मर जाता है ।
👉 निम्न-स्तरीय कार्य करने वाले व्यक्ति से झगड़ा या तनाव होता है ।
👉 व्यक्ति के हाथ से तेल फैल जाता है ।
👉 व्यक्ति के दाढ़ी-मूँछ एवं बाल बड़े हो जाते हैं ।
👉 कपड़ों पर कोई गन्दा पदार्थ गिरता है या धब्बा लगता है या साफ-सुथरे कपड़े पहनने की जगह गन्दे वस्त्र पहनने की स्थिति बनती है ।
👉 अँधेरे, गन्दे एवं घुटन भरी जगह में जाने का अवसर मिलता है ।

राहु के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 मरा हुआ सर्प या छिपकली दिखाई देती है ।
👉 धुएँ में जाने या उससे गुजरने का अवसर मिलता है या व्यक्ति के पास ऐसे अनेक लोग एकत्रित हो जाते हैं, जो कि निरन्तर धूम्रपान करते हैं ।
👉 किसी नदी या पवित्र कुण्ड के समीप जाकर भी व्यक्ति स्नान नहीं करता ।
👉 पाला हुआ जानवर खो जाता है या मर जाता है ।
👉 याददाश्त कमजोर होने लगती है ।
👉 अकारण ही अनेक व्यक्ति आपके विरोध में खड़े होने लगते हैं ।
👉 हाथ के नाखुन विकृत होने लगते हैं ।
👉 मरे हुए पक्षी देखने को मिलते हैं ।
👉 बँधी हुई रस्सी टूट जाती है । मार्ग भटकने की स्थिति भी सामने आती है । व्यक्ति से कोई आवश्यक चीज खो जाती है ।

केतु के अशुभ होने के पूर्व संकेत
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👉 मुँह से अनायास ही अपशब्द निकल जाते हैं ।
👉 कोई मरणासन्न या पागल कुत्ता दिखायी देता है।
👉 घर में आकर कोई पक्षी प्राण-त्याग देता है ।
👉 अचानक अच्छी या बुरी खबरें सुनने को मिलती है ।
👉 हड्डियों से जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है ।
👉 पैर का नाखून टूटता या खराब होने लगता है ।
👉 किसी स्थान पर गिरने एवं फिसलने की स्थिति बनती है ।
👉 भ्रम होने के कारण व्यक्ति से हास्यास्पद गलतियाँ होती।
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[जो लोग में कर्ज फंसे हुए हैं – ज्योतिष शास्त्र में कर्ज के कारण और उपाय –

  1. ऋण या क़र्ज़ दो तरह का होता है – जो आपने लिया हुआ है, या फिर जो पैसा आपने दूसरों को दिया हुआ है.
    रोज़मर्रा की जिंदगी और घर-गृहस्ती के कामों के लिए इंसान कमोबेश ऋण लेता रहता है. यह कर्ज तब तक भार नहीं लगता है, जब तक वह चुकता रहता है. लेकिन समस्या तब बढ़ जाती है, जब कर्ज लेकर कर्जा चुकाएं या कर्जे पर कर्जा बढ़ता चला जाए. ऐसा क्यों होता है और ज्योतिष की दृष्टी से इसके कारण निवारणों पर ध्यान दिया जाए, तो यह पता चलता है, कि इस तरह के कुछ योग होते हैं, जिनमे कर्ज चुकने में ही नहीं आता है.
  2. हमने पिछले कई दिनों में कुछ उपाय लिखे थे, जो आपको क़र्ज़ से मुक्त कर सकें, या फिर आपका फँसा/डूबा हुआ पैसा वापिस आ जाए. एक वीडियो भी हमने यूट्यूब पर इसी विषय पर लोड किया हुआ है. पर, हमेशा की तरह वही बात, हमें वोह प्रतिक्रिया नहीं मिली, जो हम चाहते थे. फिर भी, हम इस विषय पर गहराई से लिख रहे हैं.
  3. ऋण या क़र्ज़ दो तरह का होता है – जो आपने लिया हुआ है, या फिर जो पैसा आपने दूसरों को दिया हुआ है.
    जीवन में वास्तविक और बहुत आवश्यकताओं को छोड़ कर, जैसे कि बिमारी, घर बनाना, कन्या की शादी, व्यापार आदि को छोड़कर, क़र्ज़ के मुख्यता दो कारण होते हैं :

i. आलस्य :
सही समय पर काम न करना, काम को टालना, हर बात को शक की नज़र से देखना और जरुरत से अधिक सोचना, सिक्के के केवल नकारात्मक पहलू को देखना, आदि.

ii. बहुत अधिक लालच :
ऐसी जगह पैसा लगाना जहाँ एक के दो और दो के चार होते हों, ऐसी जितनी स्कीम होती हैं, धोखे वाली होती हैं.

iii. जुआ, शेयर मार्किट में ट्रेडिंग :
लालच ही व्यक्ति को जुआ खेलने पर मजबूर करता है. युधिष्ठर जैसे अपना राज-पाठ हार गए, अपनी पत्नी तक जुए में हार गए.
‘यह एक ऐसा गड्डा है, जिसमें व्यक्ति थोड़ा सा फंस जाये, तो फिर फँसता ही जाता है’.
शेयर मार्किट में ट्रेडिंग भी एक किस्म का जुआ ही है. अगर बाल्टी में छेद हो, तो बाल्टी कभी नहीं भर सकती. व्यक्ति मेहनत से इधर-उधर से काम कर लाता है, और जुए/शेयर मार्किट में झोंकता जाता है.
अब वैसे तो जुए में कोई जीत नहीं सकता, कुछ देर के लिए भले ही लाभ मिल जाये. फिर वोह शायद शहद में चिपकी मक्खी की तरह फँसता जाता है.

  1. हल :
    इनका हल है, कि जिस कारण से आपका पैसा डूब रहा है, उस कारण को रोकें. आज ही जुआ, शेयर ट्रेडिंग से तौबा करें. अगर बीस-तीस बार, या सौ बार में कुछ नहीं मिला, तो एक सौ एकवीं बार में मिलने की आशा करना मृगतृष्णा है, जो कभी पूरी नहीं हो सकती.
    फिर, अगर सोच-समझकर रिस्क लेना ही है, तो जहाँ हज़ारों/लाखों रुपया आप दांव पर लगा रहे हैं, तो चार पैसे खर्च करके ढंग की ज्योतिषीय सलाह लें और उस सलाह के अनुसार उपाय करें और रत्न पहनें.
  2. उपाय :
  3. मंगलवार को कर्ज लेना निषेध माना गया है। वहीं बुधवार को कर्ज देना अशुभ है क्योंकि बुधवार को दिया गया कर्ज कभी नही मिलता। मंगलवार को कर्ज लेने वाला जीवनभर कर्ज नहीं चुका पाता तथा उस व्यक्ति की संतान भी इस वजह परेशानियां उठाती हैं।
  4. जन्म कुंडली के छठे भाव से रोग, ऋण, शत्रु, ननिहाल पक्ष, दुर्घटना का अध्ययन किया जाता है. ऋणग्रस्तता के लिए इस भाव के आलावा दूसरा भाव जो धन का है, दशम-भाव जो कर्म व रोजगार का है, एकादश भाव जो आय का है एवं द्वादश भाव जो व्यय भाव है, का भी अध्ययन किया जाता है.
  5. इसके आलावा ऋण के लिए कुंडली में मौजूद कुछ योग जैसे सर्प दोष व वास्तु दोष भी इसके कारण बनते हैं. इस भाव के कारक ग्रह शनि व मंगल हैं.
  6. जहाँ तक ज्योतिष का सम्बन्ध है, हम नीचे दो उपाय लिख रहे हैं, हो सके तो इन्हें आजमाएं :
    i. पांच दाने काली मिर्च के ले. घर से निकलते समय इन्हें घर के मुख्या द्वार के बाहिर रखें और दाहिने पैर से मसलते हुए आगे बढ़ जाएं. जिस काम के लिए जा रहे हैं, उसमें सफलता मिलेगी और कर्ज का बोझ बढ़ना बंद हो जायेगा. अगर लाभ मिले तो हर सप्ताह करें, या फिर नए काम पर जाते समय हर बार करें. आप यह किसी भी वार को कर सकते हैं., अगले सप्ताह उसी वार में करना आवश्यक नहीं है.

ii. हनुमान जी के मंदिर में किसी मंगलवार को जाएँ और लड्डू का भोग लगाएं. ऐसा 18 मंगलवार करें.

वेद के ६ अंग हैं== शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष और कल्प।

१. शिक्षा ~~ इसमें वेद का शुद्ध पाठ करने के लिये ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, समाहार, स्वरित्,अनुनासिक आदि भेद से शिक्षा दी गई है, क्योंकि उच्चारणज्ञान के न होने से अनर्थ की प्राप्ति होती है। सर्ववेदों के लिए साधारण शिक्षा को श्री पाणिनी मुनि ने “अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि” इत्यादि से आरंम्भ करके नौ खंडों में प्रकाशित किया है और प्रत्येक वेद के लिए भिन्न-भिन्न शिक्षायें ‘प्रातिशाख्य’ नाम से अन्यान्य ऋषियों ने बनाई है।

२. व्याकरण ~~ वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण के लिये, व्याकरण का मुख्य प्रयोजन है। प्राचीन काल में आठ प्रकार के व्याकरण थे। इनका पाणिनि ऋषि ने सारांश अपने अष्टाध्यायी व्याकरण में दिया है। इसके आरम्भ में भगवान् शङ्कर के डमरू से निकले १४ सूत्रों का वर्णन है। अष्टाध्यायी के सूत्रों पर कात्यायन ऋषि का वार्तिक है तथा पतञ्जलि ऋषि का महाभाष्य है। इन तीनों पर कैय्यट ऋषि ने विस्तार से टीका की है।

सूत्र, वार्तिक तथा भाष्य के लक्षण इस प्रकार से हैं~~

“अल्पाक्षरसन्दिग्धम् सारवद् विश्वतोमुखम्।
अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः।।”
जिसमें बहुत थोड़े अक्षर हों, किन्तु अर्थ सन्देह रहित हो, विश्वतोमुखी अर्थ (गागर में सागर भरा हुआ) सूत्र के विशेषज्ञों ने उसे सूत्र कहा है।

वार्तिक ~~ “उक्तानुक्त दुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते।
तं ग्रँथं वार्तिकं प्राहु: वार्तिकज्ञा: मनीषिणः।।”
मूल में कही हुई बात, न कही हुई बात तथा कठिन कही हुई बात की चिंता जहां होती है, वार्तिक के मर्म जानने वाले विद्वानों ने उसे वार्तिक कहा है।

भाष्य ~~ “सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र वाक्यै: सूत्रानुकारिभि:।
स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदोविदुः।।”
सूत्रकार के वाक्यों के अनुसार जहां अर्थ किया जाता है तथा अपने द्वारा कहे शब्दों की व्याख्या की जाती है, भाष्य के जानने वाले विद्वानों ने उसे भाष्य कहा है।

३. निरुक्त ~~ शिक्षा, व्याकरण से वर्णों का शुद्ध उच्चारण होने पर भी वैदिक मंत्रों का अर्थ जानने की इच्छा से जो ग्रन्थ रचा जाता है, उसे निरुक्त कहते हैं। भगवान् यास्काचार्य ने १३ अध्यायों में निरुक्त की रचना की है। निरुक्त दो प्रकार का है= लौकिक निरुक्त, वैदिक निरुक्त ; दोनों रचना इन्ही की है। लौकिक निरुक्त में महाभारत, पुराण, रामायण आती है, वैदिक निरुक्त में वैदिक देवता, द्रव्यपदार्थ के पर्यायवाची शब्दों का निरूपण है, इसको वैदिक निघण्टु भी कहते हैं। यह ५ अध्यायों में है। यास्काचार्य के अतिरिक्त अमरकोष, मेदिनी कोष आदि भी निरुक्त के अंतर्गत ही आते हैं।

४. छन्द ~~ इसके कर्ता पिंगल ऋषि हैं। यह शास्त्र भी दो प्रकार का है — लौकिक, वैदिक।
वैदिक छन्दों में गायत्री, उष्णिग्, अनुष्टुप्, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती आदि सात छन्द हैं। लौकिक छन्दों में शार्दूलविक्रीड़ित सृग्धरा, विराट् आदि अनेक छन्द हैं।

५. ज्योतिष ~~ वैदिक काल के काल ज्ञान के लिए ; गर्गाचार्यादि अनेक ऋषियों ने अनेक प्रकार से इस शास्त्र से सम्बंधित ग्रन्थ लिखें हैं।

६. कल्प ~~ शास्त्रीय गुणों के उपसंहार में वैदिक अनुष्ठान का क्रमानुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिए कल्प-सूत्रों की रचना हुई है। चारों वेदों के भिन्न-भिन्न कल्पसूत्र हैं। अथर्ववेद से सम्बंधित के लिए बौधायन, आपस्तम्ब, कात्यायन आदि के सूत्र हैं तथा सामवेदी प्रयोगों के लिए लाटायन-ब्रिहियायन आदि सूत्र हैं।

ये वेद के ६ अंग हुये। जैसे हमारे शरीर में मुख, नासिका, नेत्र, पैर, श्रोत्र आदि अंग हैं, वैसे ही व्याकरण भगवान् वेद का मुख, शिक्षा नासिका, निरुक्त चरण, छन्द श्रोत्र, कल्प हाथ, ज्योतिष नेत्र हैं।

              ~~~~ पूज्य गुरुदेव भगवान् प्रणीत "गुरुवंश पुराण" के सत्ययुग खण्ड के प्रथम परिच्छेद के चतुर्थ अध्याय के आधार पर

[शास्त्र ज्ञान – ये 9 काम करने से रहती है घर में खुशहाली –
हमारे शास्त्रों में कई ऐसे काम बताएं गए है जिनका पालन यदि किसी परिवार में किया जाए तो वो परिवार पीढ़ियों तक खुशहाल बना रहता है। आइए जानते है शास्त्रों में बताएं गए 9 ऐसे ही काम।

  1. कुलदेवता पूजन और श्राद्ध –
    जिस कुल के पितृ और कुल देवता उस कुल के लोगों से संतुष्ट रहते हैं। उनकी सात पीढिय़ां खुशहाल रहती है। हिंदू धर्म में कुल देवी का अर्थ है कुल की देवी। मान्यता के अनुसार हर कुल की एक आराध्य देवी होती है। जिनकी आराधना पूरे परिवार द्वारा कुछ विशेष तिथियों पर की जाती है। वहीं, पितृ तर्पण और श्राद्ध से संतुष्ट होते हैं। पुण्य तिथि के अनुसार पितृ का श्राद्ध व तर्पण करने से पूरे परिवार को उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है।
    2.जूठा व गंदगी से रखें घर को दूर –
    जिस घर में किचन मेंं खाना बिना चखें भगवान को अर्पित किया जाता है। उस घर में कभी अन्न और धन की कमी नहीं होती है। इसलिए यदि आप चाहते हैं कि घर पर हमेशा लक्ष्मी मेहरबान रहे तो इस बात का ध्यान रखें कि किचन में जूठन न रखें व खाना भगवान को अर्पित करने के बाद ही जूठा करें। साथ ही, घर में किसी तरह की गंदगी जाले आदि न रहे। इसका खास ख्याल रखें।
  2. इन पांच को खाना खिलाएं –
    खाना बनाते समय पहली रोटी गाय के लिए निकालें। मछली को आटा खिलाएं। कुत्ते को रोटी दें। पक्षियों को दाना डालें और चीटिंयों को चीनी व आटा खिलाएं। जब भी मौका मिले इन 5 में से 1 को जरूर भोजन करवाएं।
  3. अन्नदान –
    दान धर्म पालन के लिए अहम माना गया है। खासतौर पर भूखों को अनाज का दान धार्मिक नजरिए से बहुत पुण्यदायी होता है। संकेत है कि सक्षम होने पर ब्राह्मण, गरीबों को भोजन या अन्नदान से मिले पुण्य अदृश्य दोषों का नाश कर परिवार को संकट से बचाते हैं। दान करने से सिर्फ एक पीढ़ी का नहीं सात पीढिय़ों का कल्याण होता है।
  4. वेदों और ग्रंथों का अध्ययन –
    सभी को धर्म ग्रंथों में छुपे ज्ञान और विद्या से प्रकृति और इंसान के रिश्तों को समझना चाहिए। व्यावहारिक रूप से परिवार के सभी सदस्य धर्म, कर्म के साथ ही उच्च व्यावहारिक शिक्षा को भी प्राप्त करें।
  5. तप –
    आत्मा और परमात्मा के मिलन के लिए तप मन, शरीर और विचारों से कठिन साधना करें। तप का अच्छे परिवार के लिए व्यावहारिक तौर पर मतलब यही है कि परिवार के सदस्य सुख और शांति के लिए कड़ी मेहनत, परिश्रम और पुरुषार्थ करें।
  6. पवित्र विवाह –
    विवाह संस्कार को शास्त्रों में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। यह 16 संस्कारों में से पुरुषार्थ प्राप्ति का सबसे अहम संस्कार हैं। व्यवहारिक अर्थ में गुण, विचारों व संस्कारों में बराबरी वाले, सम्माननीय या प्रतिष्ठित परिवार में परंपराओं के अनुरूप विवाह संबंध दो कुटुंब को सुख देता है। उचित विवाह होने पर स्वस्थ और संस्कारी संतान होती हैं, जो आगे चलकर कुल का नाम रोशन करती हैं।
  7. इंद्रिय संयम –
    कर्मेंन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों पर संयम रखना। जिसका मतलब है परिवार के सदस्य शौक-मौज में इतना न डूब जाए कि कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को भूलने से परिवार दु:ख और कष्टों से घिर जाए।
  8. सदाचार –
    अच्छा विचार और व्यवहार। संदेश है कि परिवार के सदस्य संस्कार और जीवन मूल्यों से जुड़े रहें। अपने बड़ों का सम्मान करें। रोज सुबह उनका आशीर्वाद लेकर दिन की शुरुआत करे ताकि सभी का स्वभाव, चरित्र और व्यक्तित्व श्रेष्ठ बने। स्त्रियों का सम्मान करें और परस्त्री पर बुरी निगाह न रखें। ऐसा करने से घर में हमेशा मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।
    [ उन सवालों के जवाब हैं जो हर ज्योतिषी के मन में उठते हैं

प्रश्न: लग्न कुंडली और चलित कुंडली में क्या अंतर है?

उत्तर : लग्न कुंडली का शोधन चलित कुंडली है, अंतर सिर्फ इतना है कि लग्न कुंडली यह दर्शाती है कि जन्म के समय क्या लग्न है और सभी ग्रह किस राशि में विचरण कर रहे हैं और चलित से यह स्पष्ट होता है कि जन्म समय किस भाव में कौन सी राशि का प्रभाव है और किस भाव पर कौन सा ग्रह प्रभाव डाल रहा है।

प्रश्न: चलित कुंडली का निर्माण कैसे करते हैं ?

उत्तर: जब हम जन्म कुंडली का सैद्धांतिक तरीके से निर्माण करते हैं तो सबसे पहले लग्न स्पष्ट करते हैं, अर्थात भाव संधि और भाव मध्य के उपरांत ग्रह स्पष्ट कर पहले लग्न कुंडली और उसके बाद चलित कुंडली बनाते हैं। लग्न कुंडली में जो लग्न स्पष्ट अर्थात जो राशि प्रथम भाव मध्य में स्पष्ट होती है उसे प्रथम भाव में अंकित कर क्रम से आगे के भावों में अन्य राशियां अंकित कर देते हैं और ग्रह स्पष्ट अनुसार जो ग्रह जिस राशि में स्पष्ट होता है, उसे उस राशि के साथ अंकित कर देते हैं। इस तरह यह लग्न कुंडली तैयार हो जाती है। चलित कुंडली बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि किस भाव में कौन सी राशि भाव मध्य पर स्पष्ट हुई अर्थात प्रथम भाव में जो राशि स्पष्ट हुई उसे प्रथम भाव में और द्वितीय भाव में जो राशि स्पष्ट हुई उसे द्वितीय भाव में अंकित करते हैं। इसी प्रकार सभी द्वादश भावों मे जो राशि जिस भाव मध्य पर स्पष्ट हुई उसे उस भाव में अंकित करते हैं न कि क्रम से अंकित करते हैं। इसी तरह जब ग्रह को मान में अंकित करने की बात आती है तो यह देखा जाता है कि भाव किस राशि के कितने अंशों से प्रारंभ और कितने अंशों पर समाप्त हुआ। यदि ग्रह स्पष्ट भाव प्रारंभ और भाव समाप्ति के मध्य है तो ग्रह को उसी भाव में अंकित करते हैं। यदि ग्रह स्पष्ट भाव प्रारंभ से पहले के अंशों पर है तो उसे उस भाव से पहले वाले भाव में अंकित करते हैं और यदि ग्रह स्पष्ट भाव समाप्ति के बाद के अंशों पर है तो उस ग्रह को उस भाव के अगले भाव में अंकित किया जाता है। उदाहरण के द्वारा यह ठीक से स्पष्ट होगा। मान लीजिए भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट इस प्रकार हैं:
भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट से चलित कुंडली का निर्माण करते समय सब से पहले हर भाव में राशि अंकित करते हैं। उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत चलित कुंडली में प्रथम भाव मध्य में मिथुन राशि स्पष्ट हुई है। इसलिए प्रथम भाव में मिथुन राशि अंकित होगी। द्वितीय भाव में भावमध्य पर कर्क राशि स्पष्ट है, द्वितीय भाव में कर्क राशि अंकित होगी। तृतीय भाव मध्य पर भी कर्क राशि स्पष्ट है। इसलिए तृतीय भाव में भी कर्क राशि अंकित की जाएगी। चतुर्थ भाव में सिंह राशि स्पष्ट है इसलिए चतुर्थ भाव में सिंह राशि अंकित होगी। इसी प्रकार यदि उदाहरण कुंडली में देखें तो पंचम भाव में कन्या, षष्ठ में वृश्चिक, सप्तम में धनु, अष्टम में मकर, नवम में फिर मकर, दशम में कुंभ, एकादश में मीन और द्वादश में वृष राशि स्पष्ट होने के कारण ये राशियां इन भावों में अंकित की जाएंगी। लेकिन लग्न कुंडली में एक से द्वादश भावों में क्रम से राशियां अंकित की जाती हैं। राशियां अंकित करने के पश्चात भावों में ग्रह अंकित करते हैं। लग्न कुंडली में जो ग्रह जिस भाव में अंकित है, चलित में उसे अंकित करने के लिए भाव का विस्तार देखा जाता है अर्थात भाव का प्रारंभ और समाप्ति स्पष्ट।
उदाहरण लग्न कुंडली में तृतीय भाव में गुरु और चंद्र अंकित हैं पर चलित कुंडली में चंद्र चतुर्थ भाव में अंकित है क्योंकि जब तृतीय भाव का विस्तार देखकर अंकित करेंगे तो ऐसा होगा। तृतीय भाव कर्क राशि के 150 32‘49’’ से प्रारंभ होकर सिंह राशि के 120 21‘07’’ पर समाप्त होता है। गुरु और चंद्र स्पष्ट क्रमशः सिंह राशि के 080 02‘12’’ और 220 55‘22‘‘ पर हैं। यहां यदि देखें तो गुरु के स्पष्ट अंश सिंह 080 02‘12’’, तृतीय भाव प्रारंभ कर्क 150 32‘49’’ और भाव समाप्त सिंह 210 21‘07’’ के मध्य हैं, इसलिए गुरु तृतीय भाव में अंकित होगा। चंद्र स्पष्ट अंश सिंह 220 55‘22’’ भाव मध्य से बाहर आगे की ओर है, इसलिए चंद्र को चतुर्थ भाव में अंकित करेंगे। इसी तरह सभी ग्रहों को भाव के विस्तार के अनुसार अंकित करेंगे। उदाहरण कुंडली में सूर्य, बुध एवं राहु के स्पष्ट अंश भी षष्ठ भाव के विस्तार से बाहर आगे की ओर हैं, इसलिए इन्हें अग्र भाव सप्तम में अंकित किया गया है।

प्रश्न: चलित कुंडली में ग्रहों के साथ-साथ राशियां भी भावों में बदल जाती हैं, कहीं दो भावों में एक ही राशि हो तो इससे फलित में क्या अंतर आता है?

उत्तर: हर भाव में ग्रहों के साथ-साथ राशि का भी महत्व है। चलित कुंडली का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि हमें भावों के स्वामित्व का भली-भांति ज्ञान होता है। लग्न कुंडली तो लगभग दो घंटे तक एक सी होगी लेकिन समय के अनुसार परिवर्तन तो चलित कुंडली ही बतलाती है। जैसे ही राशि भावों में बदलेगी भाव का स्वामी भी बदल जाएगा। स्वामी के बदलते ही कुंडली में बहुत परिवर्तन आ जाता है। कभी योगकारक ग्रह की योगकारकता समाप्त हो जाती है तो कहीं अकारक और अशुभ ग्रह भी शुभ हो जाता है। ग्रह की शुभता-अशुभता भावों के स्वामित्व पर निर्भर करती है। इसलिए फलित में विशेष अंतर आ जाता है। उदाहरण लग्न कुंडली में एक से द्वादश भावों के स्वामी क्रमशः बुध, चंद्र, सूर्य, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, शनि, गुरु, मंगल और शुक्र और चलित में एक से द्वादश भावों के स्वामी क्रमशः बुध, चंद्र, चंद्र, सूर्य, बुध, मंगल, गुरु, शनि, शनि, शनि, गुरु और शुक्र हैं। इस तरह से देखें तो लग्न कुंडली में मंगल अकारक है लेकिन चलित में वह अकारक नहीं रहा। सूर्य लग्न में तृतीय भाव का स्वामी होकर अशुभ है लेकिन चलित में चतुर्थ का स्वामी होकर शुभ फलदायक हो गया है। शुक्र, जो शुभ है, सिर्फ द्वादश का स्वामी होकर अशुभ फल देने वाला हो गया है। इसलिए भावों के स्वामित्व और शुभता-अशुभता के लिए भी चलित कुंडली फलित में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न: चलित में ग्रह जब भाव बदल लेता है तो क्या हम यह मानें कि ग्रह राशि भी बदल गई?

उत्तर: ग्रह सिर्फ भाव बदलता है, राशि नहीं। ग्रह जिस राशि में जन्म के समय स्पष्ट होता है उसी राशि में रहता है। ग्रह उस भाव का फल देगा जिस भाव में चलित कुंडली में वह स्थित होता है। जैसे कि उदाहरण लग्न कुंडली में सूर्य, बुध, राहु वृश्चिक राशि में स्पष्ट हुए लेकिन चलित में ग्रह सप्तम भाव में हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि वे धनु राशि के होंगे। ये ग्रह वृश्चिक राशि में रहते हुए सप्तम भाव का फल देंगे।

प्रश्न: क्या चलित में ग्रहों की दृष्टि में भी परिवर्तन आता है?

उत्तर: ग्रहों की दृष्टि कोण के अनुसार होती है। अतः लग्नानुसार दृष्टि का विचार करना चाहिए। लेकिन जो ग्रह चलित में भाव बदल लेते हैं उनकी दृष्टि लग्नानुसार करना ठीक नहीं है और न ही चलित कुंडली के अनुसार। अतः दृष्टि के लिए ग्रहों के अंशादि का विचार करना ही उत्तम है।

प्रश्न: निरयण भाव चलित और चलित कुंडली में क्या अंतर है?

उत्तर: चलित कुंडली में भाव का विस्तार भाव प्रारंभ से भाव समाप्ति तक है और भावमध्य भाव का स्पष्ट माना जाता है। लेकिन निरयण भाव में लग्न को ही भाव का प्रारंभ माना जाता है अर्थात जो भाव चलित कुंडली में भाव मध्य है, निरयण भाव चलित में वह भाव प्रारंभ या भाव संधि है। इस प्रकार एक भाव का विस्तार भाव प्रारंभ से दूसरे भाव के प्रारंभ तक माना जाता है। वैदिक ज्योतिष मे चलित को ही महत्व दिया गया है। कृष्णमूर्ति पद्धति में निरयण भाव को महत्व दिया गया है।

प्रश्न: जन्मपत्री लग्न कुंडली से देखनी चाहिए या चलित कुंडली से?

उत्तर: जन्मपत्री चलित कुंडली से देखनी चाहिए क्योंकि चलित में ग्रहों और भाव राशियों की स्पष्ट स्थिति दी जाती है।

प्रश्न: क्या भाव संधि पर ग्रह फल देने में असमर्थ हैं?

उत्तर: कोई ग्रह उसी भाव का फल देता है जिस भाव में वह रहता है। जो ग्रह भाव संधि में आ जाते हैं वे लग्न के अनुसार भाव के फल न देकर चलित के अनुसार भाव फल देते हैं, लेकिन वे फल कम देते हैं ऐसा नहीं है। वे चलित भाव के पूरे फल देते हैं।

प्रश्न: चलित कुंडली में दो भावों में एक राशि कैसे आ जाती है?

उत्तर: हां, ऐसा हो सकता है। यदि दोनों भावों में भाव मध्य पर एक ही राशि स्पष्ट हो जैसे द्वितीय भाव में कर्क 20 08‘40’’ पर है और तृतीय भाव में कर्क 280 56‘58’’ पर स्पष्ट हुई तो दोनों भावों, द्वितीय और तृतीय में कर्क राशि ही अंकित की जाएगी।

प्रश्न: यदि चलित कुंडली में ग्रह उस भाव में विचरण कर जाए जहां पर उसकी उच्च राशि है तो क्या उसे उच्च का मान लेना चाहिए?

उत्तर: नहीं। ग्रह उच्च राशि में नजर आता है। वास्तव में ग्रह ने भाव बदला है, राशि नहीं। इसलिए वह ग्रह उच्च नहीं माना जा सकता है।

प्रश्न: चलित कुंडली को बनाने में क्या अंतर है ?

उत्तर: चलित कुंडली दो प्रकार से बनाई जाती है – एक, जिसमें भाव की राशियों को दर्शित कर ग्रहों को भावानुसार रख देते हैं। दूसरे, दो भावों के मध्य में भाव संधि बना दी जाती है एवं जो ग्रह भाव बदलते हैं उन्हें भाव संधि में रख दिया जाता है। उदाहरणार्थ निम्न कुंडली दी गई है।

प्रश्न: यदि मंगल लग्न कुंडली में षष्ठ भाव में है और चलित में सप्तम भाव में तो क्या कुंडली मंगली हो जाती है?

उत्तर: चलित कुंडली में ग्रह किस भाव में है इसका महत्व है और मंगली कुंडली भी मंगल की भाव स्थिति के अनुसार ही मंगली कही जाती है। इसलिए यदि चलित में मंगल सप्तम में है तो कुंडली मंगली मानी जाएगी।

प्रश्न: यदि मंगल सप्तम भाव में लग्न
कुंडली में और चलित कुंडली में अष्टम भाव में हो तो क्या कुंडली को मंगली मानें?

उत्तर: मंगल की सप्तम और अष्टम दोनों स्थितियों से कुंडली मंगली मानी जाती है, इसलिए ऐसी स्थिति में मंगल दोष भंग नहीं होता।

प्रश्न: ग्रह किस स्थिति में चलायमान होता है?

उत्तर: यदि ग्रह के स्पष्ट अंश भाव के विस्तार से बाहर हैं तो ग्रह चलायमान हो जाता है।

प्रश्न: किन स्थितियों में चलित में ग्रह और राशि बदलती है?

उत्तर: यदि लग्न स्पष्ट प्रारंभिक या समाप्ति अंशों पर हो तो चलित में ग्रह का भाव बदलने की संभावनाएं अधिक हो जाती हैं क्योंकि किसी भी भाव के मध्य राशि के एक छोर पर होने के कारण यह दो राशियों के ऊपर फैल जाता है। अतः दूसरी राशि में स्थित ग्रह पहली राशि में दृश्यमान होते हैं।

प्रश्न: ग्रह चलित में किस स्थिति में लग्न जैसे रहते हैं?

उत्तर: यदि लग्न स्पष्ट राशि के मध्य में हो और ग्रह भी अपनी राशि के मध्य में अर्थात 5 से 25 अंश के भीतर हों तो ऐसी स्थिति में लग्न और चलित एक से ही रहते हैं।

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