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: सदा सुखी कौन है ?

जिसको भगवान की कृपा पर भरोसा है और उनके न्याय पर विश्वास है ,
उसको संसार की कोई भी स्थिति विचलित नही कर सकती ….

ईश्वर तो मेरे बिना भी ईश्वर है….,
परन्तु मैं ईश्वर के बिना कुछ भी नहीं। 🌹🌹
: ॐ श्री परमात्मने नमः

रुपयोंके संग्रहसे कोई लाभ नहीं है । रुपये खुद काम नहीं आते, प्रत्युत खर्च करनेसे काम आते हैं । आपके काम खर्च आयेगा, रुपया नहीं । रुपया कामकी चीज नहीं है, खर्चा कामकी चीज है । रुपयोंसे रद्दी कोई चीज नहीं है । जीवनका निर्वाह चार चीजोंसे होता है‒अन्न, जल, वस्‍त्र और मकान । रुपया खर्च करनेके लिये ही है, पर मनुष्य लोभके वशीभूत होकर रुपयोंका संग्रह करता है, खर्च नहीं । ज्यादा संग्रहसे केवल अभिमान ही बढ़ेगा‒

संसृत मूल सूलप्रद नाना ।
सकल सोक दायक अभिमाना ॥
(मानस, उत्तर॰ ७४ । ३)

ᇮ ᇮ ᇮ
धनका अभिमानी आदमी सत्संगमें नहीं आ सकता । विचार करें, आपके खजानेमें दया, क्षमा, उदारता, त्याग आदि जमा हुए हैं कि नहीं ? यह खजाना पूरा आपके साथ चलेगा । यह विचार करो कि लाभ किसमें है और हानि किसमें है ?

ᇮ ᇮ ᇮ
एक परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य हो और ‘परमात्मा हैं’ ‒यह विश्वास हो । ज्ञानमें विवेक मुख्य है और भक्तिमें विश्वास मुख्य है‒‘बिनु बिस्वास भगति नहिं’ (मानस, उत्तर॰ ९० क) । विश्वाससे ही भक्ति होती है कि भगवान् हैं और वे मेरे हैं । दूसरेसे भय होता है‒‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’ (बृहदा॰ १ । ४ । २) । भगवान् अपने हैं, दूसरे नहीं । अपनेसे भय नहीं होता । क्या माँसे किसीको भय होता है ? केवल पालन करनेकी शक्तिका नाम भगवान् है ।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
: हमारे पापकर्म और हमारी पीडाएं
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हम अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि मैंने कभी कोई बुरा काम नहीं किया फिर
भी मैं बीमारियों से परेशान हूँ. ऐसा मेरे साथ
क्यों हो रहा हैं. क्या भगवान बहुत कठोर और
निर्दयी हैं ?
पहली बात तो हमें ये समझ लेनी चाहिए
कि हमारे कार्यों और भगवान का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए हमें अपनी परेशानियों और पीडाओं के लिए ईश्वर को दोषी नहीं मानना चाहिए।
यदि आप सह्गुनी हैं तो आप जीवन में
संपन्न और सुखी रहते हैं. यदि आप लोगों को सताते हैं या पाप कर्म करते हैं तो आप पीड़ित होते हैं और तरह तरह की बीमारियाँ कष्ट
देती हैं. हमारे कार्यों का हम पर निश्चित रूप से
असर होता है. कभी हमारे कर्मों का प्रभाव
इसी जन्म में तो कभी अगले जन्म में मिलता हैं लेकिन मिलता जरुर है. आशय है कि हम अपने कर्मों के प्रभाव से कभी मुक्त नहीं होते यह
बात अलग है कि इसका प्रभाव तुरंत दिखाई न दे।
इस लेख में इस बात का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है कि हमारे पाप हमें किस रूप में लौटकर मिलते हैं और पीड़ित करते हैं. यदि आप किसी रोग से पीड़ित है तो ये समझें कि आपने अवश्य ही कोई पाप पूर्व जन्म में किया है. आपके पाप कर्म द्वारा होने वाली कुछ बीमारियों को साकेंतिक रूप में नीचे दिया जा रहा
है।

👉 लोगों का धन लूटने वाले गले की
बीमारी से पीड़ित होते हैं।

👉 पढ़े लिखे ज्ञानी जन के प्रति दुर्भावना से काम करने वाले व्यक्ति को सिरदर्द की शिकायत रहती है।

👉 हरे पेड़ काटने वाले और सब्जियों की
चोरी करने में लगे व्यक्ति अगले जन्म में
शरीर के अन्दर अल्सर (घाव)से पीड़ित
होते हैं।

👉 झूठे और धोखाधड़ी करने वाले लोगों को
उल्टी की बीमारी होती है।

👉 गरीब लोगों का धन चुराने वाले लोगों को कफ और खांसी से कष्ट होता है।

👉 यदि कोई समाज के श्रेष्ठ पुरुष (विद्वान) की हत्या कर देता है तो उसे तपेदिक रोग होता है।

👉 गाय का वध करने वाले कुबड़े बनते हैं।

👉 निर्दोष व्यक्ति का वध करने वाले को कोढ़ होता है।

👉 जो अपने गुरु का अपमान करता है उसे मिर्गी का रोग होता है।

👉 वेद और पुराणों का अपमान और निरादर करने वाले व्यक्ति को बार बार पीलिया होता है।

👉 झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति गूंगे हो
जाते हैं।

👉 पुस्तकों और ग्रंथो की चोरी करने वाले
व्यक्ति अंधे हो जाते हैं।

👉 गाय और विद्वानों को लात मरने वाले व्यक्ति अगले जन्म में लगड़े बनते हैं।

👉 वेदों और उसके अनुयायियों का निरादर करने वाले व्यक्ति को किडनी रोग होता है।

👉 दूसरों को कटु वचन बोलने वाले अगले जन्म में हृदय रोग से कष्ट पाते हैं।

👉 जो सांप, घोड़े और गायों का वध करता है वह संतानहीन होता है।

👉 कपड़े चुराने वालों को चर्म रोग होते हैं।

👉 परस्त्रीगमन करने वाला अगले जन्म में कुत्ता बनता है।

👉 जो दान नहीं करता है वह गरीबी में जन्म लेता है।

👉 आयु में बड़ी स्त्री से सहवास करने से
डायबिटीज़ रोग होता है

👉 जो अन्य महिलाओं को कामुक नजर से देखता है उसकी आंखें कमजोर होती हैं।

👉 नमक चुराने वाला व्यक्ति चींटी बनता है।

👉 जानवरों का शिकार करने वाले बकरे बनते हैं।

👉 जो ब्राह्मन होकर भी गायत्री मंत्र नहीं पढ़ता वो अगले जन्म में बगुला बनता है।

👉 जो ज्ञानी और सदाचारी पुरुषों को दिए गए
अपने वचन से मुकर जाता है वह अगले जन्म में
गीदड़ बनता है।

👉 जो दुकानदार नकली माल बेचते हैं वे अगले जन्म में उल्लू बनते हैं।

👉 जो अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते वो खच्चर बनते है।

👉 जो व्यक्ति अपने माता पिता और गुरुजनों का निरादर करता है उसकी गर्भ में ही हत्या हो
जाती है।

👉 मित्र की पत्नी से सम्बन्ध बनाने
की इच्छा रखने वाला अगले जन्म में गधा बनता है।

👉 मदिरा का सेवन करने वाला व्यक्ति भेड़ियाँ बनता है.

👉 जो स्त्री अपने पति को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ भाग जाती है वह घोड़ी बन जाती है।

पूर्व जन्म में किये गए पापों से उत्त्पन्न रोग कैसे दूर हों ?

पूर्व जन्मार्जितं पापं व्याधि रूपेण व्याधिते,
तछंती: औषधनैधान्ने: जपाहोमा क्रियादिभी:
पूर्व जन्म के जो पाप हमें रोग के रूप में आकर पीड़ित
करते हैं उनका निराकरण करने के लिए दवाइयां, दान, मंत्र जप, पूजा,
अनुष्ठान करने चाहिए. केवल यह ही
नहीं हमें गलत काम करने से भी बचना
चाहिए. तभी हम पूर्वजन्म कृत पापों के दुष्प्रभाव से मुक्त हो सकेगें।
: 🔷♦🔷🕉🔷♦🔷

👉🏿क्रोध में आकर क्या कर बैठता है जीव➖

मानव जीवन हमें चौरासी लाख यौनियो के बाद मिलता है हमें चाहिए जहां तक हो सके तो हमें क्रोध से बचना चाहिए और किसी कारण आभी जाये तो क्रोध पर नियंत्रण करना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि क्रोध के परिणाम घातक ही देखे जाते हैं।
जैसे——–
एक दिन, एक साँप, एक बढ़ई की औजारों वाली बोरी में चला गया । बोरी मे जाते समय, बोरी में रखी हुई बढ़ई की आरी उसके शरीर में चुभ गई और उसमें घाव हो गया, जिस से उसे दर्द होने लगा और वह विचलित हो उठा। गुस्से में उसने, उस आरी को अपने दोनों जबड़ों में जोर से दबा दिया। अब उसके मुख में भी घाव हो गया और खून निकलने लगा। अब इस दर्द से परेशान हो कर, उस आरी को सबक सिखाने के लिए, अपने पूरे शरीर को उस साँप ने उस आरी के ऊपर लपेट लिया और पूरी ताकत के साथ उसको जकड़ लिया। इस से उस साँप का सारा शरीर जगह जगह से कट गया और वह मर गया।
ठीक इसी प्रकार कई बार, हम तनिक सा आहत होने पर आवेश में आकर सामने वाले को सबक सिखाने के लिए, अपने आप को अत्यधिक नुकसान पहुंचा देतें हैं।
यहीं पर साधु, गुरू, शास्त्र का ज्ञान और शिक्षा, हमारे जीवन में हमारा मार्गदर्शन करते हैं, और हमारे विवेक को जागृत करते हैं।
यह जरूरी नहीं कि हमें हर बात की प्रतिक्रिया देनी है, हमें दूसरों की गल्तियों को नजरअंदाज करते हुए, अपने परम पथ पर अग्रसर होना है और यह नहीं कि दूसरे को उसकी गलती की सजा देने के लिए हम अपने लक्ष्य और पथ से विचलित हो जायें।
साधु, गुरु, शास्त्र यही तो हमें समझाते है अपने क्रोध मे आकर कभी भी बिना सोचे समझे कदम नहीं उठाये वर्णा सांप जैसी दूर्गति होनी संभव है ।
🙏🌹🙏
🔷♦🔷🕉🔷♦🔷
: कौन है सुखी यहाँ?

लँगड़ा कहता है,
पैर के लिए दुःखी है,
पैर मिल जाए तो वो,
सुखी हो जाएगा।

पैर वाला कहता है,
पैदल चलने से पैर दुःखते हैं,
साइकिल मिल जाये तो,
वो सुखी हो जाएगा।

साइकिल वाला कहता है,
साइकिल चलाने में पैर दुःखते हैं,
मोटरसाइकिल मिल जाये तो,
वो सुखी हो जाएगा।

मोटरसाइकिल वाला कहता है,
धूप में सर दुःखते हैं,
चार पहिये की गाड़ी मिल जाये तो,
वो सुखी हो जाएगा।

चार पहिया वाला कहता है,
मेरी गाड़ी की स्पीड कम है,
फ़रारी मिल जाये तो,
वो सुखी हो जायेगा।

फ़रारी वाला कहता है,
जमीन की स्पीड में अब मज़ा नहीं है,
हवाईयान मिल जाये तो,
वो सुखी हो जाएगा।

हवाईयान वाला कहता है,
धरती के चक्कर लगाने में मज़ा नहीं है,
अंतरिक्षयान मिल जाये तो,
वो सुखी हो जाएगा।

अंतरिक्षयान में बैठा व्यक्ति कहता है,
अंतरिक्ष में कुछ नहीं है,
धरती पर सकुशल लौट आये तो,
वो सुखी हो जाएगा।

शहर वाला गाँव की शांति चाहता है,
गांव वाला शहर की चमकधमक चाहता है,
जो जहाँ है बस वहीं से भागना चाहता है,
अन्यत्र कहीं काल्पनिक स्वर्ग में पहुंचना चाहता है।

सब मृग मरीचिका के भ्रम में है,
भ्रामक कल्पना के ज़ाल में हैं।

किसी दूर, स्थान, वस्तु, पद, प्रतिष्ठा, रिश्तों में,
सुख की तलाश कर रहे हैं,
जो स्वयं के भीतर है,
उसे बाहर तलाश रहे हैं।

👉🏼बीज के अंदर ही वृक्ष है,
उसे बाहर ढूंढने की जरूरत नहीं है,
केवल स्वयं को मिटाकर-गलाकर ही,
वह बड़ा वृक्ष बन सकता है,
इंसान भी स्वयं के मैं को मिटाकर ही,
स्वयं में देवत्व जगा सकता है,
स्वयं की इच्छाओं को तिरोहित कर ही,
अंतर्जगत में आनन्दित हो सकता है।

👉🏼सांसारिक चीज़ें सदा सर्वदा के लिए आनंद नहीं देती। एक इच्छा के पूरे होते ही रक्तबीज की तरह नई इच्छा पनपेगी और वो पुनः दुःखी करेगी और दौड़ायेगी। लँगड़ा पैर पाकर कुछ दिन ही खुशियां मनाएगा, साइकिल वाला भी मोटरसाइकिल की ख़ुशी कुछ दिन ही मनाएगा…इसीतरह यह सिलसिला चलता रहेगा…स्वयं के लिए दुःखमय संसार रचता रहेगा ।

🙏🏻: तृष्णा
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एक व्यापारी था, वह ट्रक में चावल के बोरे लिए जा रहा था। एक बोरा खिसक कर गिर गया। कुछ चीटियां आयीं 10-20 दाने ले गयीं, कुछ चूहे आये 100-50 ग्राम खाये और चले गये, कुछ पक्षी आये थोड़ा खाकर उड़ गये, कुछ गायें आयीं 2-3 किलो खाकर चली गयीं, एक मनुष्य आया और वह पूरा बोरा ही उठा ले गया।
अन्य प्राणी पेट के लिए जीते हैं, लेकिन मनुष्य तृष्णा में जीता है। इसीलिए इसके पास सब कुछ होते हुए भी यह सर्वाधिक दुखी है।
आवश्यकता के बाद इच्छा को रोकें, अन्यथा यह अनियंत्रित बढ़ती ही जायेगी, और दुख का कारण बनेगी।✍🏻

चौराहे पर खड़ी जिंदगी,
नजरें दौड़ाती हैं…_ 👀

काश कोई बोर्ड दिख जाए
जिस पर लिखा हो..🙂✍🏻
“सुकून..
0. कि.मी.”

🌹आओ विचार करें🌹
: 🙏 आजका सदचिंतन 🙏
“”””””””””””””””””””””””””””””””””
समय नहीं है ? वह जन्म हार गए
———
८४ लाख योनियों में भटकने के बाद प्रभु कृपा से मनुष्य जन्म मिला है। यह गलियों में जो आवारा जानवर घूम रहे हैं, इन्हें भी कभी मनुष्य जन्म मिला था। इनके गुरु इन्हें भगवान् का भजन व् शुक्रिया करने को कहते थे। तब ये हँसकर जवाब देते थे कि, हमारे पास समय नहीं है और वो मनुष्य जन्म हार गये।
कर्म बहुत रूलाते हैं, किसी को नहीं छोड़ते, मन से नित्य भजन व् भगवान् का शुक्रिया हमारे कर्मों/प्रारब्ध को भी खत्म या हल्का कर देता है।
कर्म/प्रारब्ध बहुत ज्यादा हैं, और समय बहुत कम, हम अब नहीं समझेंगे तो कब समझेंगे?

       *विचार क्रांति अभियान*

🙏 सबका जीवन मंगलमय हो🙏
★◆★कर्म सबके लिए करें★◆★
◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆
अपने शरीर से अधिक बोझ लादे चींटियाँ गन्तव्य की ओर दौड़ी जा रही थीं।

एक बरसाती कीड़े ने देखकर पूछा…. “चींटी! तेरे इस परिश्रम पर मुझे बड़ा आश्चर्य है। तेरी माँद में अभी भी इतना अन्न है कि तू बैठी-बैठी जीवन भर खा सकी है, चैन की बंशी बजा सकती है। ऐसा लगता है तू भी धनिकों की तरह जोड़-जोड़कर रखना चाहती है।”

चींटी बोली….
“नहीं भाई! ऐसा नहीं है। श्रम ही तो जीवन है। मैं अपने लिए ही जीवित नहीं हूँ। वरन् सोचती हूँ यदि मेरी सेवाओं से मेरे साथी लोग लाभान्वित हो सकें तो मेरा जीवन कितना धन्य हो जायेगा।”

“अखण्ड ज्योति”,’जून-१९७६’
◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆
“दोस्तों! स्वयं के लिए किया गया कार्य तो कर्म मात्र है परंतु सर्वजन हिताय किया गया कार्य ही कर्तव्य बनता है। श्रम का दान भी श्रेष्ठ दान है।”
‘आपका दिन शुभ हो!’
: एक बालक की सहज पूजा

एक बार एक बच्चे के दादा जी जो शाम को घूमकर आने के बाद बच्चे के साथ प्रतिदिन सायंकालीन पूजा करते थे।बच्चा भी उनकी इस पूजा को देखकर अंदर से स्वयं इस अनुष्ठान को पूर्ण करने की इच्छा रखता था,किन्तु दादा जी की उपस्तिथि उसे अवसर नही देती थी।

एक दिन दादा जी को शाम को आने में विलंब हुआ,इस अवसर का लाभ लेते हुए बच्चे ने समय पर पूजा प्रारम्भ कर दी।

जब दादा जी आये,तो दीवार के पीछे से बच्चे की पूजा देख रहे थे।

बच्चा बहुत सारी अगरबत्ती एवं अन्य सभी सामग्री का अनुष्ठान में यथाविधि प्रयोग करता है

और फिर अपनी प्रार्थना में कहता है,कि

भगवान जी प्रणाम

आप मेरे दादा जी को स्वस्थ रखना,और दादी के घुटनो के दर्द को ठीक कर देना

क्योकि दादा और दादी को कुछ हो गया,तो मुझे चॉकलेट कौन देगा

फिर आगे कहता है,भगवान जी मेरे सभी दोस्तों को अच्छा रखना,वरना मेरे साथ कौन खेलेगा

फिर मेरे पापा और मम्मी को ठीक रखना,घर के कुत्ते को भी ठीक रखना,क्योकि उसे कुछ हो गया,तो घर को चोरों से कौन बचाएगा

(लेकिन भगवान यदि आप बुरा न मानो तो एक बात कहू, सबका ध्यान रखना,लेकिन उससे पहले आप अपना ध्यान रखना,क्योकि आपको कुछ हो गया,तो हम सबका क्या होगा)

इस प्रथम सहज प्रार्थना को सुनकर दादा की आंखों में भी आंसू आ गए,क्योकि ऐसी प्रार्थना उन्होंने न कभी की थी,और न सुनी थी।

कदाचित इसी सहजता का अभाव मनुष्य को सभी प्रकार के यथोचित ईश्वरीय अनुष्ठानोपरांत भी जन्मजन्मांतर तक ईश्वर का बोध भी नही करा पाता है
: साधना करने का अर्थ यह नहीं है कि आप प्रतिदिन २ – 4 घंटे बैठकर किसी एक मंत्र या विधि का जप करें, और प्रसन्न हो जाएँ कि आज हमने साधना की है।

बल्कि स्वयम के मन के भटकाव को साधना , विचारों का साधना और मन्त्र शक्ति को जागृत करना ही वास्तविक साधना है ।

—>> साधक को इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि वह लोकेषणा (क्षणिक लौकिक इच्छाएं) में न पड़े ।
उस भक्त के प्रति संसार का क्या दृष्टिकोण है…. , उसे यश मिलेगा या अपयश मिलेगा …, इन सब निजाभिमान के भाव से मुक्त होकर ही तुम साधना/ भक्ति लक्ष्य सफल कर सकोगे , अन्यथा नही।

क्योंकि लक्ष्य पर ध्यान हो तो ही तुम अर्जुन समान लक्ष्यभेदी बन सकोगे , और यदि तुम्हारा ध्यान मुख्य लक्ष्य से भटक कर क्षणिक फलों में फंस जाएगा तो भटकाव निश्चित है।

💐जय माँ आदिशक्ति दुर्गे भवनी !!

       *अगर आप गलती करके स्वयं को सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं तो समय आपकी मूर्खता पर हंसेगा। गलती हो जाना तो मानव देह का स्वभाव है मगर गलती होने के बावजूद उसे स्वीकार न करना यह अवश्य एक कुभाव और दुर्भाव है।*

     *गलती पर गलती करने के बावजूद यदि दुर्योधन और रावण आदि ने स्वयं को सही सिद्ध करने का प्रयास न किया होता तो निश्चित ही वे जग हंसाई के पात्र बनने से बच जाते।*

       *जो लोग गलती को एक अवसर, एक सबक अथवा एक अनुभव के तौर पर लेना जानते हैं, निश्चित ही वो एक स्वर्णिम भविष्य की नींव भी रख देते हैं। अतः गलती हो जाने पर अपने को सही सिद्ध करने का प्रयास नही अपितु शुद्ध करने का प्रयास करो।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏
: मनुष्य कर्मों से अधिक अशांत नहीं है वह इच्छाओं से, वासनाओं से अधिक अशांत है। जितने भी द्वंद , उपद्रव, अशांति, और सबसे ज्यादा अराजकता कहीं है तो वह व्यक्ति के भीतर है।
मनुष्य अपना संसार स्वयं बनाता है। पहले कुछ मिल जाये इसलिए कर्म करता है। फिर बहुत कुछ मिल जाये इसलिए कर्म करता है। इसके बाद सब कुछ मिल जाये इसलिए कर्म करता है। उसकी यह तृष्णा कभी ख़तम नहीं होती। जहाँ ज्यादा तृष्णा है वहाँ चिंता स्वभाविक है।
जहाँ चिंता है वहाँ कैसी प्रसन्नता ? कैसा उल्लास ? यदि मनुष्य की तृष्णा शांत हो जाये , उसे जितना प्राप्त है उसी में सन्तुष्ट रहना आ जाये तो वह कभी भी अशांत नहीं रहेगा। इंसान अपने विचार और सोचने का स्तर ठीक कर ले तो जीवन को मधुवन बनते देर ना लगेगी।

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏
: सुखी..

एक भिखारी किसी किसान के घर भीख माँगने गया,किसान की स्त्री घर में थी उसने चने की रोटी बना रखी थी।किसान आया उसने अपने बच्चों का मुख चूमा, स्त्री ने उनके हाथ पैर धुलाये, वह रोटी खाने बैठ गया।स्त्री ने एक मुट्ठी चना भिखारी को डाल दिया, भिखारी चना लेकर चल दिया।
रास्ते में वह सोचने लगा:- “हमारा भी कोई जीवन है ? दिन भर कुत्ते की तरह माँगते फिरते हैं, फिर स्वयं बनाना पड़ता है।इस किसान को देखो कैसा सुन्दर घर है, घर में स्त्री हैं, बच्चे हैं। अपने आप अन्न पैदा करता है, बच्चों के साथ प्रेम से भोजन करता है वास्तव में सुखी तो यह किसान है।इधर वह किसान रोटी खाते-खाते अपनी स्त्री से कहने लगा:-
“नीला बैल बहुत बुड्ढा हो गया है, अब वह किसी तरह काम नहीं देता यदि कही से कुछ रुपयों का इन्तजाम हो जाय तो इस साल काम चले।साधोराम महाजन के पास जाऊँगा, वह ब्याज पर दे देगा।”भोजन करके वह साधोराम महाजन के पास गया, बहुत देर चिरौरी बिनती करने पर 1रु. सैकड़ा सूद पर साधों ने रुपये देना स्वीकार किया।एक लोहे की तिजोरी में से साधोराम ने एक थैली निकाली और गिनकर रुपये किसान को दिये।रुपये लेकर किसान अपने घर को चला, वह रास्ते में सोचने लगा-”हम भी कोई आदमी हैं, घर में 5 रु. भी नकद नहीं। कितनी चिरौरी विनती करने पर उसने रुपये दिये,साधो कितना धनी है, उस पर सैकड़ों रुपये है “वास्तव में सुखी तो यह साधोराम ही है।साधोराम छोटी सी दुकान करता था, वह एक बड़ी दुकान से कपड़े ले आता था और उसे बेचता था।दूसरे दिन साधोराम कपड़े लेने गया, वहाँ सेठ पृथ्वीचन्द की दुकान से कपड़ा लिया।वह वहाँ बैठा ही था, कि इतनी देर में कई तार आए कोई बम्बई का था कोई कलकत्ते का, किसी में लिखा था 5 लाख मुनाफा हुआ, किसी में एक लाख का।साधो महाजन यह सब देखता रहा, कपड़ा लेकर वह चला।
रास्ते में सोचने लगा “हम भी कोई आदमी हैं, सौ दो सौ जुड़ गये महाजन कहलाने लगे।
पृथ्वीचन्द कैसे हैं, एक दिन में लाखों का फायदा “वास्तव में सुखी तो यह है।”उधर पृथ्वीचन्द बैठे थे कि इतने ही में तार आया कि 5 लाख का घाटा हुआ। वे बड़ी चिन्ता में थे कि नौकर ने कहा:-आज लाट साहब की रायबहादुर सेठ के यहाँ दावत है आपको जाना है मोटर तैयार है।” पृथ्वीचन्द मोटर पर चढ़ कर रायबहादुर की कोठी पर गया,
वहाँ सोने चाँदी की कुर्सियाँ पड़ी थी रायबहादुर जी से कलक्टर कमिश्नर हाथ मिला रहे थे, बड़े-बड़े सेठ खड़े थे,वहाँ पृथ्वीचन्द सेठ को कौन पूछता वे भी एक कुर्सी पर जाकर बैठ गये।लाट साहब आये, रायबहादुर से हाथ मिलाया, उनके साथ चाय पी और चले गये।पृथ्वीचन्द अपनी मोटर में लौट रहें थे रास्ते में सोचते आते थे, हम भी कोई सेठ है 5 लाख के घाटे से ही घबड़ा गये, रायबहादुर का कैसा ठाठ है लाट साहब उनसे हाथ मिलाते हैं “वास्तव में सुखी तो ये ही है।”अब इधर लाट साहब के चले जाने पर रायबहदुर के सिर में दर्द हो गया, बड़े-बड़े डॉक्टर आये एक कमरे वे पड़े थे।
कई तार घाटे के एक साथ आ गये थे, उनकी भी चिन्ता थी, कारोबार की भी बात याद आ गई, वे चिन्ता में पड़े थे… खिड़की से उन्होंने झाँक कर देखा एक भिखारी हाथ में एक डंडा लिये अपनी मस्ती में जा रहा था।रायबहदुर ने उसे देखा और बोले:- ”वास्तव में तो सुखी यही है, इसे न तो घाटे की चिन्ता न मुनाफे की फिक्र, इसे लाट साहब को पार्टी भी नहीं देनी पड़ती सुखी तो यही है।”

दोस्तों, इस कहानी का कहने का मतलब इतना ही है, कि हम एक दूसरे को सुखी समझते हैं। वास्तव में सुखी कौन है इसे तो वही जानता है जिसे आन्तरिक शान्ति है।

😊😊😊: कर्म करते समय कर्ता भाव हटाइए, फिर देखिए कैसा चमत्कार होता है

एक पुरानी कहानी है कि एक पण्डित जी ने अपनी पत्नी की आदत बना दी थी कि घर में रोटी खाने से पहले कहना है कि “विष्णु अर्पण”।

अगर पानी पीना हो तो पहले कहना है कि”विष्णु अर्पण”। उस औरत की इतनी आदत पक्की हो गई

की जो भी काम करती पहले मन में यह कहती कि “विष्णु अर्पण” “विष्णुअर्पण”। फिर वह काम करती।

एक दिन उसने घर का कूड़ा इकट्ठा किया और फेंकते हुए कहा कि “विष्णु अर्पण” “विष्णु अर्पण”।
वहीँ पास से नारद मुनि जा रहे थे। नारद मुनि ने जब यह सुना तो उस औरत को थप्पड़ मारा कि विष्णु जी को कूड़ा अर्पण कर रही है।
फेंक कूड़ा रही है और कह रही है कि “विष्णु अर्पण”। वह औरत विष्णु जी के प्रेम में रंगी हुई थी। कहने लगी नारद मुनि तुमने जो थप्पड़ मारा है वो थप्पड़ भी “विष्णु अर्पण”।
अब नारद जी ने दूसरे गाल पर थप्पड़ मारते हुए कहा कि बेवकूफ़ औरत तू थप्पड़ को भी विष्णु अर्पण कह रही है। उस औरत फिर यही कहा आपका मारा यह थप्पड़ भी “विष्णु अर्पण”।

इसके बाद जब नारद मुनि विष्णु पुरी में गए तो क्या देखते है कि विष्णु जी के दोनों गालों पर उँगलियों के निशान बने हुए थे। नारद पूछने लगे कि “भगवन यह क्या हो गया”? आप के चेहरे पर यह निशान कैसे पड़े”?

विष्णु जी कहने लगे कि “नारद मुनि थप्पड़ मारे भी तू और पूछे भी तू” , नारद जी कहने लगे कि “मैं आपको थप्पड़ कैसे मार सकता हूँ”?,

विष्णु जी कहने लगे, “नारद मुनि जिस औरत ने कूड़ा फेंकते हुए यह कहा था कि विष्णु अर्पण और तूने उसको थप्पड़ मारा था तो वह थप्पड़ सीधे मेरे को ही लगा था, क्योकि वह मुझे अर्पण था”।

सीख
जब आप कर्म करते समय कर्ता का भाव निकाल लेते हैं और अपने हर काम में मैं, मेरी, मेरा की भावना हटा कर अपने इष्ट या सतगुरु को आगे रखते हैं तो कर्मों का बोझ भी नहीं बढ़ता और वो काम आप से भी अच्छे तरीके से होता : राधे राधे ॥ आज का भगवद चिन्तन
अध्यात्म कायरों और अकर्मण्यों का मार्ग नहीं अपितु कायरता और अकर्मण्यता का त्याग करने वालों का मार्ग है। अधिकांशतया लोगों की दृष्टि में अध्यात्म का मतलब सिर्फ वह मार्ग है जहाँ से कायर लोग अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं।
अध्यात्म का मतलब छोटी जिम्मेदारियों से बचना तो नहीं मगर छोटी-मोटी जिम्मेदारियों का त्यागकर एक बड़ी जिम्मेदारी उठाने का साहस करना जरूर है। सोचो! अध्यात्म अगर कमजोर लोगों का ही मार्ग होता तो फिर बालपन में ही शेर के दाँत गिन लेने की सामर्थ्य रखने वाले महावीर और बुद्ध जैसे लोग इस पथ से ना गुजरे होते।
स्वयं की चिंता को त्यागकर स्वयंभू (शंभू) के चिंतन का नाम ही अध्यात्म है। और स्वयं के कष्टों का विस्मरण कर सृष्टि के कष्टों के निवारण की यात्रा ही वास्तविक अध्यात्मिक यात्रा है।

🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏
: 🌫🌫🌫🌫 प्रारब्ध 🌫🌫🌫🌫

एक व्यक्ति हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करता था । धीरे धीरे वह काफी बुजुर्ग हो चला था इसीलिए एक कमरे मे ही पड़ा रहता था ।

 जब भी उसे शौच; स्नान आदि के लिये जाना होता था; वह अपने बेटो को आवाज लगाता था और बेटे ले जाते थे ।

धीरे धीरे कुछ दिन बाद बेटे कई बार आवाज लगाने के बाद भी कभी कभी आते और देर रात तो नहीं भी आते थे।इस दौरान वे कभी-कभी गंदे बिस्तर पर ही रात बिता दिया करते थे

अब और ज्यादा बुढ़ापा होने के कारण उन्हें कम दिखाई देने लगा था एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही उन्होंने आवाज लगायी, तुरन्त एक लड़का आता है और बडे ही कोमल स्पर्श के साथ उनको निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है । अब ये रोज का नियम हो गया ।

एक रात उनको शक हो जाता है कि, पहले तो बेटों को रात में कई बार आवाज लगाने पर भी नही आते थे। लेकिन ये  तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बडे कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है ।

एक रात वह व्यक्ति उसका हाथ पकड लेता है और पूछता है कि सच बता तू कौन है ? मेरे बेटे तो ऐसे नही हैं ।

अभी अंधेरे कमरे में एक अलौकिक उजाला हुआऔर उस लड़के रूपी ईश्वर ने अपना वास्तविक रूप दिखाया।

 वह व्यक्ति रोते हुये कहता है : हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ती के कार्य कर रहे है । यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना ।

 प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है । आप मेरे सच्चे साधक है; हर समय मेरा नाम जप करते है इसलिये मै आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ ।

 व्यक्ति कहता है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बडे है; क्या आपकी कृपा, मेरे प्रारब्ध नही काट सकती है ।

 प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है; ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है; लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा । यही कर्म नियम है । इसलिए आपके प्रारब्ध मैं स्वयं अपने हाथो से कटवा कर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ ।

ईश्वर कहते है: प्रारब्ध तीन तरह के होते है :

मन्द,
तीव्र, तथा
तीव्रतम

मन्द प्रारब्ध मेरा नाम जपने से कट जाते है । तीव्र प्रारब्ध किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है । पर तीव्रतम प्रारब्ध भुगतने ही पडते है।

लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं; उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूँ और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूँ ।

       प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर ।

तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर।।🙏
: आंख ने पेड़ पर फल देखा .. लालसा जगी..
आंख तो फल तोड़ नही सकती इसलिए पैर गए पेड़ के पास फल तोड़ने..
पैर तो फल तोड़ नही सकते इसलिए हाथों ने फल तोड़े और मुंह ने फल खाएं और वो फल पेट में गए.
अब देखिए जिसने देखा वो गया नही, जो गया उसने तोड़ा नही, जिसने तोड़ा उसने खाया नही, जिसने खाया उसने रक्खा नहीं क्योंकि वो पेट में गया
अब जब माली ने देखा तो डंडे पड़े पीठ पर जिसकी कोई गलती नहीं थी ।
लेकिन जब डंडे पड़े पीठ पर तो आंसू आये आंख में क्योंकि सबसे पहले फल देखा था आंख ने
अब यही है कर्म : ॐ का रहस्य क्या है?

मन पर नियन्त्रण करके शब्दों का उच्चारण करने की क्रिया को मन्त्र कहते है। मन्त्र विज्ञान का सबसे ज्यादा प्रभाव हमारे मन व तन पर पड़ता है। मन्त्र का जाप एक मानसिक क्रिया है। कहा जाता है कि जैसा रहेगा मन वैसा रहेगा तन। यानि यदि हम मानसिक रूप से स्वस्थ्य है तो हमारा शरीर भी स्वस्थ्य रहेगा।

मन को स्वस्थ्य रखने के लिए मन्त्र का जाप करना आवश्यक है। ओम् तीन अक्षरों से बना है। अ, उ और म से निर्मित यह शब्द सर्व शक्तिमान है। जीवन जीने की शक्ति और संसार की चुनौतियों का सामना करने का अदम्य साहस देने वाले ओम् के उच्चारण करने मात्र से विभिन्न प्रकार की समस्याओं व व्याधियों का नाश होता है।

सृष्टि के आरंभ में एक ध्वनि गूंजी ओम और पूरे ब्रह्माण्ड में इसकी गूंज फैल गयी। पुराणों में ऐसी कथा मिलती है कि इसी शब्द से भगवान शिव, विष्णु और ब्रह्मा प्रकट हुए। इसलिए ओम को सभी मंत्रों का बीज मंत्र और ध्वनियों एवं शब्दों की जननी कहा जाता है।

इस मंत्र के विषय में कहा जाता है कि, ओम शब्द के नियमित उच्चारण मात्र से शरीर में मौजूद आत्मा जागृत हो जाती है और रोग एवं तनाव से मुक्ति मिलती है।

इसलिए धर्म गुरू ओम का जप करने की सलाह देते हैं। जबकि वास्तुविदों का मानना है कि ओम के प्रयोग से घर में मौजूद वास्तु दोषों को भी दूर किया जा सकता है।

ओम मंत्र को ब्रह्माण्ड का स्वरूप माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि ओम में त्रिदेवों का वास होता है इसलिए सभी मंत्रों से पहले इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है जैसे

ओम नमो भगवते वासुदेव, ओम नमः शिवाय।
I
आध्यात्मिक दृष्टि से यह माना जाता है कि नियमित ओम मंत्र का जप किया जाए तो व्यक्ति का तन मन शुद्घ रहता है और मानसिक शांति मिलती है। ओम मंत्र के जप से मनुष्य ईश्वर के करीब पहुंचता है और मुक्ति पाने का अधिकारी बन जाता है।

वैदिक साहित्य इस बात पर एकमत है कि ओ३म् ईश्वर का मुख्य नाम है. योग दर्शन में यह स्पष्ट है. यह ओ३म् शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है- अ, उ, म. प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है. जैसे “अ” से व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है. “उ” से बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है।

“म” से अनंत, अमर, ज्ञानवान, और पालन करने वाला है. ये तो बहुत थोड़े से उदाहरण हैं जो ओ३म् के प्रत्येक अक्षर से समझे जा सकते हैं. वास्तव में अनंत ईश्वर के अनगिनत नाम केवल इस ओ३म् शब्द में ही आ सकते हैं, और किसी में नहीं.

१. अनेक बार ओ३म् का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनावरहित हो जाता है।

२. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ओ३म् के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं!

३. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।

४. यह हृदय और खून के प्रवाह को संतुलित रखता है।

५. इससे पाचन शक्ति तेज होती है।

६. इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।

७. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।

८. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है. रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी।

९ कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मजबूती आती है.

इत्यादि!

ॐ के उच्चारण का रहस्य?

ॐ है एक मात्र मंत्र, यही है आत्मा का संगीत

ओम का यह चिन्ह ‘ॐ’ अद्भुत है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है।

ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त ‘ओ’ पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है √ मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।

तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।

साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।

त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक :

ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है-
अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है।

बीमारी दूर भगाएँ :
तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।

सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।

उच्चारण की विधि :

प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।

इसके लाभ :

इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।

शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव :

प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में ‘टॉक्सिक’पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरहआल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।

कम से कम 108 बार ओम् का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव रहित हो जाता है। कुछ ही दिनों पश्चात शरीर में एक नई उर्जा का संचरण होने लगता है। । ओम् का उच्चारण करने से प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल और नियन्त्रण स्थापित होता है। जिसके कारण हमें प्राकृतिक उर्जा मिलती रहती है। ओम् का उच्चारण करने से परिस्थितियों का पूर्वानुमान होने लगता है।

ओम् का उच्चारण करने से आपके व्यवहार में शालीनता आयेगी जिससे आपके शत्रु भी मित्र बन जाते है। ओम् का उच्चारण करने से आपके मन में निराशा के भाव उत्पन्न नहीं होते है।

*आत्म हत्या जैसे विचार भी मन में नहीं आते है। जो बच्चे पढ़ाई में मन नहीं लगाते है या फिर उनकी स्मरण शक्ति कमजोर है। उन्हें यदि नियमित ओम् का उच्चारण कराया जाये तो उनकी स्मरण शक्ति भी अच्छी हो जायेगी और पढ़ाई में मन भी लगने लगता है ।
: *जल से पतला कौन है?*
कौन सब पापों से भारी?
कौन प्रकाश की गति से तेज़ है?
और कौन कलंक से कारी ?

जल से पतला तत्वज्ञान है।
नामापराध सब पापों से भारी।
मन की गति प्रकाश से तेज़ है।
और गुरु हरि विमुखता है कलंक से कारी।
(क्योंकि संसारी कलंक तो केवल देह को कुछ समय के लिए लगता है और गुरु हरि विमुखता का चौरासी लाख योनियों रुपी कलंक जीवात्मा को अरबों – खरबों सालों के लिए लग जाता है।)

सबसे अच्छी और बुरी देह कौन सी है?
मानव देह। अगर मानव देह पाने के बाद हम मन का लगाव गुरु हरि में करते हैं तो ये चौरासी लाख योनियों से छुटकारा दिलाकर सदा को आनन्द अर्थात भगवान को ही देने वाली है इसलिए सबसे अच्छी अन्यथा सबसे बुरी, क्योंकि चौरासी लाख योनियों वाले दण्ड स्वरुप अपने पाप कर्म भुगत कर काट रहे हैं और हम उनमें जाने की तैयारी कर रहे हैं।

मानव देह पाने के बाद सबसे दुर्लभ क्या है?
मानव देह पाने के बाद सबसे दुर्लभ गुरु हरि में मन का लग जाना है, बस इतना ही हमारा काम है। आगे गुरुवर कृपा करके प्रेमदान अपने आप देंगे।

संसार रुपी भवसागर में डूबाने और उबारने वाला कौन है?
संसार रुपी भवसागर में डूबाने और उबारने वाला मन ही है। ये मन ऐस शत्रु है जैसे एक व्यभिचारिणी स्त्री अपने यार के मिलकर पति को मरवा देती है ऐसे ही ये मन संसारिक विषयों के साथ मिलकर जीवात्मा का पत्तन करा देता है। अगर हम मन का लगाव संसार में करते हैं तो ये चौरासी लाख योनियों को फिर से देने वाला और हम इसी मन का लगाव हम भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम और उनके संतों में करते हैं तो ये गुरु कृपा स्वरुप सदा को आनन्द अर्थात भगवान को ही दिलाने वाला है।

दुःखदायक और आनंददायक कौन है?
जगत संग दु:खदायक है क्योंकि रुप, रस, गंध, श्रवण, स्पर्श आदि जितने भी संसारिक विषय हैं, इनका अन्त दुःखदायक है और इन में मन लगाने का परिणाम नीच योनियां।
वहीं भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम और उनके संतों में मन का लगाव ही आनन्ददायक है।

जल से पतला कौन है?
कौन सब पापों से भारी?
कौन प्रकाश की गति से तेज़ है?
और कौन कलंक से कारी ?

जल से पतला तत्वज्ञान है।
नामापराध सब पापों से भारी।
मन की गति प्रकाश से तेज़ है।
और गुरु हरि विमुखता है कलंक से कारी।
(क्योंकि संसारी कलंक तो केवल देह को कुछ समय के लिए लगता है और गुरु हरि विमुखता का चौरासी लाख योनियों रुपी कलंक जीवात्मा को अरबों – खरबों सालों के लिए लग जाता है।)

सबसे अच्छी और बुरी देह कौन सी है?
मानव देह। अगर मानव देह पाने के बाद हम मन का लगाव गुरु हरि में करते हैं तो ये चौरासी लाख योनियों से छुटकारा दिलाकर सदा को आनन्द अर्थात भगवान को ही देने वाली है इसलिए सबसे अच्छी अन्यथा सबसे बुरी, क्योंकि चौरासी लाख योनियों वाले दण्ड स्वरुप अपने पाप कर्म भुगत कर काट रहे हैं और हम उनमें जाने की तैयारी कर रहे हैं।

मानव देह पाने के बाद सबसे दुर्लभ क्या है?
मानव देह पाने के बाद सबसे दुर्लभ गुरु हरि में मन का लग जाना है, बस इतना ही हमारा काम है। आगे गुरुवर कृपा करके प्रेमदान अपने आप देंगे।

संसार रुपी भवसागर में डूबाने और उबारने वाला कौन है?
संसार रुपी भवसागर में डूबाने और उबारने वाला मन ही है। ये मन ऐस शत्रु है जैसे एक व्यभिचारिणी स्त्री अपने यार के मिलकर पति को मरवा देती है ऐसे ही ये मन संसारिक विषयों के साथ मिलकर जीवात्मा का पत्तन करा देता है। अगर हम मन का लगाव संसार में करते हैं तो ये चौरासी लाख योनियों को फिर से देने वाला और हम इसी मन का लगाव हम भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम और उनके संतों में करते हैं तो ये गुरु कृपा स्वरुप सदा को आनन्द अर्थात भगवान को ही दिलाने वाला है।

दुःखदायक और आनंददायक कौन है?
जगत संग दु:खदायक है क्योंकि रुप, रस, गंध, श्रवण, स्पर्श आदि जितने भी संसारिक विषय हैं, इनका अन्त दुःखदायक है और इन में मन लगाने का परिणाम नीच योनियां।
वहीं भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम और उनके संतों में मन का लगाव ही आनन्ददायक है।

🙇श्री गुरुवे नमः🙇
गुरू:कृपार्लु मम शरणम्। वन्देहम् सद्गुरू चरणम्
🙌😢🙏🙌😢🙏
: रहस्यमय सूर्य मंदीरः-

लोहार्गल – यहां पानी में गल गए थे पांडवों के अस्त्र-शस्त्र, मिली थी परिजनों की हत्या के पाप से मुक्त!!!!!!!

राजस्थान के शेखावटी इलाके के झुंझुनूं जिले से 70 कि. मी. दूर अरावली पर्वत की घाटी में बसे उदयपुरवाटी कस्बे से करीब दस कि.मी. की दूरी पर स्थित है लोहार्गल। जिसका अर्थ होता है जहां लोहा गल जाए। यह राजस्थान का पुष्कर के बाद दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ है। इस तीर्थ का सम्बन्ध पांडवो, भगवन परशुराम, भगवान सूर्य और भगवान विष्णु से है।

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन जीत के बाद भी पांडव अपने परिजनों की हत्या के पाप से चिंतित थे। लाखों लोगों के पाप का दर्द देख श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि जिस तीर्थ स्थल के तालाब में तुम्हारे हथियार पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।

घूमते-घूमते पाण्डव लोहार्गल आ पहुँचे तथा जैसे ही उन्होंने यहाँ के सूर्यकुण्ड में स्नान किया, उनके सारे हथियार गल गये। इसके बाद शिव जी की आराधना कर मोक्ष की प्राप्ति की। उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थ राज की उपाधि से विभूषित किया।

यहां प्राचीन काल से निर्मित सूर्य मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसके पीछे भी एक अनोखी कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में काशी में सूर्यभान नामक राजा हुए थे, जिन्हें वृद्धावस्था में अपंग लड़की के रूप में एक संतान हुई।

राजा ने भूत-भविष्य के ज्ञाताओं को बुलाकर उसके पिछले जन्म के बारे में पूछा। तब विद्वानों ने बताया कि पूर्व के जन्म में वह लड़की मर्कटी अर्थात बंदरिया थी, जो शिकारी के हाथों मारी गई थी। शिकारी उस मृत बंदरिया को एक बरगद के पेड़ पर लटका कर चला गया, क्योंकि बंदरिया का मांस अभक्ष्य होता है।

हवा और धूप के कारण वह सूख कर लोहार्गल धाम के जलकुंड में गिर गई किंतु उसका एक हाथ पेड़ पर रह गया। बाकी शरीर पवित्र जल में गिरने से वह कन्या के रूप में आपके यहाँ उत्पन्न हुई है। विद्वानों ने राजा से कहा, आप वहां पर जाकर उस हाथ को भी पवित्र जल में डाल दें तो इस बच्ची का अंपगत्व समाप्त हो जाएगा।

राजा तुरंत लोहार्गल आए तथा उस बरगद की शाखा से बंदरिया के हाथ को जलकुंड में डाल दिया। जिससे उनकी पुत्री का हाथ स्वतः ही ठीक हो गया। राजा इस चमत्कार से अति प्रसन्न हुए। विद्वानों ने राजा को बताया कि यह क्षेत्र भगवान सूर्यदेव का स्थान है। उनकी सलाह पर ही राजा ने हजारों वर्ष पूर्व यहां पर सूर्य मंदिर व सूर्यकुंड का निर्माण करवा कर इस तीर्थ को भव्य रूप दिया।

यहां भगवान विष्णु ने लिया था मतस्य अवतार –यह क्षेत्र पहले ब्रह्मक्षेत्र था। माना जाता है कि यह वह स्थान है जहां भगवान विष्णु ने शंखासूर नामक दैत्य का संहार करने के लिए मत्स्य अवतार लिया था। शंखासूर का वध कर विष्णु ने वेदों को उसके चंगुल से छुड़ाया था। इसके बाद इस जगह का नाम ब्रह्मक्षेत्र रखा।

परशुराम जी ने भी किया था यहां प्रायश्चित –विष्णु के छठें अंशअवतार भगवान परशुराम ने क्रोध में क्षत्रियों का संहार कर दिया था, लेकिन शान्त होने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। तब उन्होंने यहां आकर पश्चाताप के लिए यज्ञ किया तथा पाप मुक्ति पाई थी।

मालकेतु बाबा की चौबीस कोसी परिक्रमा – यहाँ एक विशाल बावड़ी भी है जिसका निर्माण महात्मा चेतनदास जी ने करवाया था। यह राजस्थान की बड़ी बावड़ियों में से एक है। पहाड़ी पर सूर्य मंदिर के साथ ही वनखण्डी जी का मन्दिर है। कुण्ड के पास ही प्राचीन शिव मन्दिर, हनुमान मन्दिर तथा पाण्डव गुफा स्थित है।

इनके अलावा चार सौ सीढ़ियाँ चढने पर मालकेतु जी के दर्शन किए जा सकते हैं। श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं। यहां प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है।

भाद्रपद मास में श्रीकृषण जन्माष्टमी से अमावस्या तक प्रत्येक वर्ष लोहार्गल के पहाडो में हज़ारों लाखों नर-नारी 24 कोस की पैदल परिक्रमा करते हैं जो मालकेतु बाबा की चौबीस कोसी परिक्रमा के नाम से प्रसिद्ध है। पुराणों में परिक्रमा का महात्म्य अनंत फलदायी बताया है। अब यह परिक्रमा और ज्यादा प्रासंगिक है।

हरा-भरा वातावरण। औषधि गुणों से लबरेज पेड़-पौधों से आती शुद्ध-ताजा हवा और ट्रैकिंग का आनंद यहां है। और फिर खुशहाली की कामना से अनुष्ठान तो है ही। अमावस्या के दिन सूर्यकुण्ड में पवित्र स्नान के साथ यह परिक्रमा विधिवत संपन्न होती है।

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