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” मनुष्य बनो ! “

नारायण ! मनुष्य कौन ? जो स्वीकार करते हैं कि वेद ही धर्म और परमात्मा का ज्ञान दे सकता है वे मनुष्य हैं । मोटी भाषा में कहें , तो जो वर्णाश्रम – धर्म को मानने वाले हैं , अर्थात् सनातन – धर्मी हैं , वेद को प्रमाण मानते हैं वे मनुष्य हैं । चार वर्णोँ और चार आश्रमों के अनुसार जो जीवन – निर्माण करने के प्रयत्न में है , उन्हीं हम मनुष्य कहते हैं । मनुष्य शब्द ” मनोर्जातावञ्यतो षुक् च ” सूत्राकार भगवान् मनु की सन्तान अर्थ में व्युतपन्न होता है । मनु के वंश वाले को मनुष्य कहते हैं । परमात्मज्ञान की अतिदुर्लभता इसलिये है , कि पहले तो चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि मिलना ही दुर्लभ है । हम लोक जब चौरासी लाख योनियाँ कहते है तब उनके अवान्तर भेदों को पृथक नहीं गिनते , मछलियों के अन्दर आगे हजारों तरह के भेद हैं परन्तु मछली को हम एक योनि मान लेते हैं । इसी प्रकार अवान्तर भेद मिलाकर अनन्त योनियाँ हो जाती है । जितने संसार में प्राणी हैं , सब किसी – न – किसी योनि में होंगे ; सब योनियों में से शास्त्र में अधिकार मनुष्य को ही है । मनुष्य को ही शास्त्राधिकार है , बाकियों को नहीं । मनुष्य पैदा होना यह पहली दुर्लभता । अनन्त योनियों के अन्दर मनुष्य शरीर की प्राप्ति हो जाये यही पहले दुर्लभ है । बरसात में कितनी तरह के कीट – पतंग आ जाते हैं । ऐक – एक घर में उनकी संख्या लाखों में हो जाती है । गिनते चले जाएं तो एक मोहल्ले में ही इतने हो जायेंग , जितने सारे मनुष्य हैं ! यों गिनें तब पता लगता है कि मनुष्य जन्म मिलना कितना दुर्लभ है । इसलिये भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्कर देशिक जी ने कहा – ” जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ” इतनी योनियों में मनुष्य योनि मिल जाये यह दुर्लभ है । आचार्य ” दुर्लभं त्रयमेवैतत् ” तीन चीजों को दुर्लभ मानते हैं ” मनुष्यत्वम् , मुमुक्षुत्वम् , महापुरुषसंश्रयः ” । ये दुर्लभ चीजें किससे मिलती हैं ? आचार्य श्रीशङ्कर देशिक कहते हैं ” देवानुग्रहहेतुकम् ” परमेश्वर के अनुग्रह से । परमेश्वर का अति अनुग्रह होता है तभी मनुष्य शरीर मिलता है । इस बात को अच्छी तरह समझना बड़ा जरूरी है । वर्तमान काल में चारों तरफ योरप वालों का किया हुआ प्रचार तो है कि ” हम लोग बन्दर थे , पूंछ घिस गई , इसलिये आदमी हैं ! योरप वाले बन्दर रहे होंगे ; उनके चेहरे – मोहरे हैं तो बन्दरों की तरह ही , व्यवहार भी बन्दरों की तरह का ही है । परन्तु हम लोग न आज बन्दरों जैसे हैं , न हमारे पूर्वज थे । मनुष्य जीवन की दुर्लभता आजकल के लोग नकारना चाहते हैं । हम तो पशु पक्षियों की तरह ही हैं यह उनकी मान्यता है । किन्तु अगर मनुष्य पशु – पक्षियों की तरह हैं , तो उनके आचरणों के बारे में क्यों विचार करके कहते हैं , कि ” इसने अमुक अपराध किया ? ” शेर किसी को मारता है तो उसको फाँसी नहीं देते । आदमी मारता है तो फाँसी देते हें । आपके देश के अन्दर तो शेर भी रह रहा है । अगर मनुष्य की विशेषता नहीं मानते हो तो मनुष्यों के लिये विशेष नियम क्यों बनाते हो ? मनुष्य जीवन की दुर्लभता को बार – बार विचार कर मन में बैठाना बहुत जरूरी है – मेरे बाबा ।

दुर्लभ मनुष्य शरीर मिल भी गया तो ” सहस्रेसु ” उनमें हजारों में कोई एक आत्मजिज्ञासु होगा । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण भी अपने श्रीमुख से कहते हैं :

” मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यति सिद्धये । “

नारायण ! संस्कृत भाषा के अन्दर ऐसे प्रसंगों में सहस्र का मतलब होता है बहुत , अनगिनत ; अतः अनेक मनुष्यों में कोई ही साधक बनेगा , भगवान् का यही भाव है । अनेक मनुष्यों में कोई एक परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है , प्रवृत्त होता है । इसलिये आचार्य पाद् ने कि जैसे मनुष्य होना दुर्लभ है , वैसे ही मनुष्यों में परमात्मा की इच्छा करने वाला ममुक्षु होना दुर्लभ है । संसार में बाकी सब चीजों के लिये हम लोगों को निरन्तर प्रयत्न करना अनुकूल और आवश्यक होता है , कौन – सी चीज हम हमेशा टालते हैं ? मर कर जहाँ जाना है उसका इन्तजाम करना हमेशा टालते रहते हैं । क्योंकि परमेश्वर संसारियों की तरह डंडा लेकर आप से कुछ वसुल करने को खड़ा नहीं होता ! किसी को लाख रुपये देने हैं और आपने समय पर व्याज नहीं दिया , तो वह डंडा लेकर पहुँच जाता है , ” क्या बात है ? दो माह हो गये , तुमने हमारा व्याज नहीं दिया । ” जब से जन्में हैं हम – आप – सभी तब से अब तक हम – आप – सभी भगवान् का दिया पानी पी रहे हैं, भगवान् की जमीन पर रह रहे हैं , भगवान् की धूप से गर्मी और प्रकाश पा रहे हैं । पर हम लोगों सवेरे उठकर भगवान् सूर्यदेव को अर्घ्य देने के लिये समय नहीं है ! अगर आप इलेक्ट्रिक बोर्ड़ को पैसा न दे तो वह कनेक्शन काट देगा । लेकिन आपने अर्घ्य नहीं दिया तो आज से प्रकाश बन्द , ऐसा तो भगवान् नहीं करते । पानी के बिल का पैसा नहीं जमा करें तो पानी वाले कनेक्शन काट देते हैं कि पानी नहीं मिलेगा । इसलिये पानी का बिल समय पर दे देते हैं , पर दिन भर में , यहाँ तक कि स्नान के समय भी जल वंदना करने की हमें फुर्सत नहीं मिलती । और एक दिन नहीं , सालों – साल कभी समय नहीं है । जब कभी हम भजन करने का लोगों को कहते हैं तो लोग यही कहते हैं, ” बाबा जी ! करना तो बहुत चाहते हैं , समय नहीं मिलता । ” पानी कम्पनी को कोई नहीं कहता ” जी , हम तुम्हारे पैसे तो देना चाहते थे , लेकिन हमारे पास समय अभी नहीं है । इसलिये अभी नहीं देंगे । ” उसको कोई भी नहीं कहेंगे । जमीन पर निरन्तर खड़े हैं , लेटते हैं , सब कुछ जमीन के सहारे करते हैं । हम जब लोगों से कहते हैं कि प्रातःकाल उठकर भूमि को नमस्कार करो , बोल सको तो मंत्र बोलो –

समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।

नारायण ! यदि इतना भी न बोल सकें तो मन्त्र न भी बोलें , नमस्कार तो करें । पर यह भी करना नहीं चाहते । हमेशा परमात्मा की तरफ वृत्ति बनाने को हम टालते रहते हैं । इसलिये श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने कहा ” कश्चिद्यतति सिद्धये ” , परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले ही लोक बहुत कम हैं ।

नारायण ! भगवान् ने तो यहाँ तक कहा कि जो सिद्धि के प्रयत्न में लगते हैं उनमें भी ” कश्चिन्मां तत्त्वतो वेत्ति ” कोई एक ही सत्य को समझ पाता है । साधना में लगने वालों में भी जब तक सत्य को नहीं जान लें तब तक लगे ही रहें ऐसे लोग और कम हैं । थोड़ा प्रयत्न किया , दो चार महीने किया , चित्त शान्त नहीं हुआ तो हताश हो जाते हैं कि ” बहुत मुश्किल है , हम से नहीं होगा । ” जब तक साक्षात्कार नहीं हो जाये परमात्मा का जो प्रत्यगात्मा से अभिन्न रूप है उस तत्त्व को जब तक जान न लेवें , तब तक लगे रहने वाले लोग बहुत ही कम हैं । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से एक बड़ी जबरदस्त बात कही है । ” यततामपि सिद्धानां ” सिद्ध का मतलब होता है जिसने चीज को प्राप्त कर लिया । भगवान् ने प्रयत्न करने वालों को ही सिद्ध कह दिया ! ” साधकानां ” नहीं कहकर ” सिद्धानां ” कह दिया । भगवान् ने श्रीगीता जी में अपने श्रीमुख से स्पष्ट कहा है कि मेरे रास्ते पर चल पड़ा तो आज नहीं तो कल , कल नहीं तो परसों , जरूर मुझे प्राप्त कर लेगा , जरूर सिद्धि को प्राप्त कर लेगा । परमात्मा के तरफ आप भी चलने के लिये जितने कदम उठाओगे , वे सब आपको आगे ही बढ़ायेंगे , कभी भी पीछे नहीं सरकायेंगे । इसलिये भगवान् ने कहा कि जो अभी साधक है वह सिद्ध ही है ।

ऐसे परम साधक जिन्होंने परमात्मा के तरफ अपना कदम बढ़ाया है वे वन्दन योग्य हैं । मैं उन समस्त साधको प्रणाम करता हूँ ।
नारायण स्मृतिः
पौराणीक काल मे गुरू भक्ति
अपनी-अपनी सीढी है, तुलना करना बंद करो!
भौतिक संसार मे एक उक्ती की अक्सर चर्चा होती है- ‘Crab Mentality’- केकडा प्रव्रति! के कडे एक-दूसरे की उन्नति से जलते है! इसलिए जब एक केकडा उपर चढने लगता है, तो दूसरा उसकी टाँग खीचकर उसे नीचे घसीट लेता है! सांसारिक सँगठनो मे यह प्रव्रति इसलिए भी देखने को मिलती है, क्योंकि सभी कर्मचारीयो के पास ऊँचा उठने का एक ही मार्ग, एक ही सीढी होती है!
लेकिन सज्जनो! गुरू-भक्तो का तो संसार ही निराला है! यहाँ सबकी मंजिल तो एक ही है- गुरू! पर उस तक पहुँचने की सीढी सबके पास अपनी-अपनी है; अलग-अलग है! हर साधक या गुरू-भक्त अपनी-अपनी गति से अपनी-अपनी सीढी चढकर सदगुरू तक पहुँचता है!
लेकिन अफ़सोस कई बार इस पंथ मे भी अज्ञानता का प्रवेश हो जाता है! कई साधक तुलना और प्रतिस्पर्धा के दंश से पीडीत दिखाई देते है! अपनी सीढी पर चढते हुए एक आंख साथ वालो की सीढीयो पर रखते है! अपनी गति नही बढाते; दूसरो की गति से ईर्ष्या करने लगते है! कई बार तो दूसरो की गति बाधित करने तक की योजनाएं मन मे आकार ले लेती है! तुलना या ईर्ष्या-द्वेष करना हमारी आदत बन जाता है! हम भूल जाते है कि हम क्या पाने इस मार्ग पर चले थे और क्या पा रहे है! ऊँचा देखने की जगह हमारी दृष्टि दाएं-बाएं ताकने-झाँकने मे ही उलझ जाती है!
प्रस्तुत लेख हम सभी साधको को ‘विवेक की दीक्षा’ दे रहा है! एसा विवेक एसा समझदारी जिसे यदि हम धारण कर ले, तो बहुत हद तक ईर्ष्या-द्वेष आदि मनोरोगो से छुटकारा पा सकते है!
एक सदगुरू थे- पूर्णत्व! उनके अगणित शिष्य थे! परंतु इस प्रकरण मे हम तीन शिष्यो को मुख्य पात्रो के रूप मे ले रहे है! इन तीनो शिष्यो के नाम थे- अंग-संग, दृष्टि-संग और भाव-संग! जैसा इनका नाम था, वैसे ही इनमे गुण थे, वैसा ही इनका व्यव्हार था और वैसा ही इनका भाग्य था! मतलब? यह कि जैसे इनके नाम थे, वैसे ही इनके जीवन की रुपरेखा थी!
‘अंग-संग’ सदैव गुरू पूर्णत्व जी के आस-पास रहता! उसे गुरुदेव का सानिध्य सुख भरपूर मिला करता! वह दैहिक स्तर पर हुई गुरू की दिव्य-लीलाओ का खूब आनंद उठाता! दूसरा शिष्य ‘दृष्टि-संग’- उसे गुरूदेव के आसपास जाने का तो बहुत कम अवसर मिलता! पर दूर से ही वह गुरू-दर्शन से रज-रज कर निहाल होता रहता! गुरुदेव जब भी दर्शन देने कक्ष से बाहर आते, अपने इस शिष्य पर दृष्टि की व्रष्टि जरूर करते, माने उसकी और अवश्य देखते! त्यो ही दृष्टि-संग के मन के बगीचे मे फूल खिल जाते! आइए, तीसरे शिष्य ‘भाव-संग’ के बारे मे भी जानते है! भाव-संग अधिकतर प्रचार-कार्य मे ही सँलग्न रहता था! उसे गुरू-आश्रम से दूर मोर्चो पर डटे रहना पड़ता था! इसलिए न गुरू का सानिध्य मिलता, न दर्शन! पर अहसास के स्तर पर उसका हृदय सदा गुले-गुलजार रहता! गुरू के अदृश्य सान्निध्य का सुख उसे निरंतर मिलता! उनका यंत्र बनने और सेवा-कार्य संभालने का गौरव उसे आनंदित रखता!
कहने का मतलब तीनो शिष्य अपनी-अपनी सीढी पर चढ रहे थे! तीनो अपने-अपने मार्ग पर सुखी थे, शान्त थे, आनंदित थे! केवल उस दिन तक….

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बहुत सारे लोग सोचते होंगे कि अपने शरीर के रहते भगवान् शंकराचार्य जी ने किसी अन्य के शरीर में कैसे प्रवेश किये होंगे ?

क्या ये सम्भव है अथवा दंतकथा मात्र है, उनकी महिमा को बढ़ा-चढ़ाकर बताने के लिए ?

यदि ऐसा योगबल से सम्भव है तो उसकी यौगिक प्रक्रिया क्या है ?

तो उत्तर है ~~~

योग शास्त्रों में दो प्रकार के योगी कहे गये है।—

१.. युञ्जानयोगी (साधक योगी)

२.. युक्तयोगी (सिद्ध योगी)

अष्टांग योग द्वारा समाधि लगने पर जिनको अपने तथा अन्य के पूर्व जन्म का ज्ञान होता है, उन्हें युञ्जान योगी कहते है तथा बिना समाधि के ही जिनको त्रिकाल ज्ञान हो तथा योग की सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो, उन्हें युक्तयोगी कहते हैं।

आचार्यपाद भगवान् शंकर ने अपने स्थूल शरीर से प्राण, इंद्रिय आदि सहित जीव को निकालने से पूर्व शरीर में विद्यमान अंतःकरण के बंधन का कारण अज्ञान को ध्यान, धारणा, समाधि रूपी संयम से सिथिल किया।

उन्होंने शरीर में संचारित होने वाली नस, नाड़ियों के रक्त को केवलीकुम्भक प्राणायाम द्वारा स्तम्भित करके प्राणों को ऊपर खींचा।

अपने प्राणों को खींचकर राजा अमरुक के मृतक शरीर में प्रवेश करने की इच्छा से प्राणों के साथ चित्त को भी खींचकर राजा के शरीर में प्रवेश करना चाहा।

तब बन्धन के कारणों के सिथिल हो जाने पर अर्थात पैर के तलवों से लेकर मस्तिष्क पर्यन्त चलने वाली व्यान-वायु को धीरे-धीरे ऊपर उठाया।

जैसे-जैसे व्यान वायु ऊपर चढ़ती गई वैसे-वैसे प्राणों तथा रक्त की गति रुक जाने से पैर, एड़ी, पिंडली आदि नीचे के अंग-प्रत्यंग ठंडे होने लगे।

इस प्रक्रिया से ब्रह्मरन्ध्र तक प्राणों को पहुँचाकर प्राणों को सूक्ष्म शरीर के अवयवों सहित मुखमण्डल से निकालकर राजा के मुखद्वार से सूक्ष्म शरीर के सम्पूर्ण अवयवों को राजा के शरीर में प्रविष्ट कराया।

मृत राजा के शरीर की इंद्रियां और प्राण काम करने लगे, शरीर चैतन्य हो गया।

आचार्य के शरीर से पहले प्राण निकले बाद में इन्द्रियों और अंतःकरण ने ऐसे प्रवेश किया जैसे सेनापति के पीछे-पीछे सेना चलती है अथवा बच्चा अपनी माता के पीछे -पीछे चलता है।

पातञ्जल योगदर्शन के तीसरे पाद के १८वें सूत्र में व्यास जी ने अपने भाष्य में लिखा है ~~~

“बन्धकारण शैथिल्यात् प्रचार सम्वेदनाच्च् चित्तस्य परशरीरप्रवेश:।”

【बंधनों के कारण सिथिल होने से तथा प्रचार के सम्वेदन से चित्त एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है।】

“बन्धन कारण शैथिल्यात्”~~

शरीर के भीतर चित्त को बांधने के जो कारण है अर्थात शरीर के भीतर चित्त की प्रतिष्ठा इसका तथा चित्त की गति के प्रतिबंधन ज्ञान के कारण सम्बन्ध विशेष माने गये है। उसके पुण्य, पाप दो कारण है।

चित्त के द्वारा आरम्भ किया हुआ पुण्य अथवा पाप इन दोनों की शिथिलता का कारण संयम है अर्थात धारणा, ध्यान समाधि के अभ्यास से चित्त के बंधन का कारण नहीं रहता।

“प्रचार सम्वेदनात् च”~~~

जिन कारणों से अंतःकरण चंचल होता है , उन्हें चित्त का प्रचार कहा जाता है। चित्त की दौड़ लगाने वाली नाड़ियों में जो चित्त आता-जाता है, वह चित्त का प्रचार है।

“सम्वेदनात्”~~

धारणा, ध्यान, समाधि के एकत्र का नाम संयम है। इन तीनों के एक साथ अभ्यास से चित्त की चंचलता शांत होती है।

“वेदनम्”~~

साक्षात्कार करना।

“चित्तस्य”~~

योगी का चित्त, अपने पूर्व शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है।

ऐसे युक्तयोगी अपने सङ्कल्प शक्ति के प्रभाव से केवल एक शरीर में ही नहीं प्रवेश करते अपितु जितने भी शरीरों में चाहे, प्रवेश कर सकते हैं।

श्रुति कहती है ~~~

“शतधाभवति,पंचधा, सप्तधा, नवधा योगी भवति।”

योगी जितने चाहें उतने रूप बना सकता है। जैसे जगद्गुरु रेणुकाचार्य जी ने विभीषण की प्रार्थना से तीन करोड़ रूप धारण करके, तीन करोड़ शिवलिंगों की एक साथ प्रतिष्ठा की थी।

विष्णुपुराण आदि में कथा आती है कि सौभरि ऋषि ने ५० रूप धारण करके मान्धाता की ५० कन्याओं से विवाह करके गृहस्थ सुख भोगा था।

ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय के चौथे पाद के १५वां और १६वां सूत्रों में भी आया है कि युक्तयोगी अपनी सङ्कल्प शक्ति के प्रभाव से अनेक शरीरों की रचना करके उनमें प्रवेश करता है।

ऐसे योगियों के लिए यह आवश्यक नहीं है कि पूर्व शरीर को मृतक करके ही जाता हो, बल्कि उस शरीर में रहते हुए भी योग के प्रभाव से अनेकों रूप धारण करता है। यह बात ब्रह्मसूत्र के तीसरे अध्याय में तीसरे पाद के ३२वां सूत्र से भी सिद्ध होता है।

इतना ही नहीं कि योगी जीवित शरीर में ही प्रवेश कर सकता है।

ऊपर कहे हुये सूत्र की व्याख्या में आया है कि सुलभा नामकी ब्रह्मवादिनी ने जनक जी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा से अपने शरीर को बिना त्यागे ही जनक के शरीर में प्रवेश किया।
बाद में उनके शरीर को त्यागकर अपने में आ गई।

भगवान् भाष्यकार ने योगदर्शन, वेद, उपनिषद् में कही गई प्रक्रिया के अनुसार ही परकाय प्रवेश किया था। परंतु आधुनिक पश्चिमी विद्वान नवीन प्रक्रिया से परकाय प्रवेश करते हैं।

एक अंग्रेज ने आधा घण्टे पहले मरे हुए मृतक के शरीर में प्रवेश करने के लिए पहले स्वयं के पेट को साफ करने वाली औषधियों से साफ किया।

बाद में मृतक के पेट को खूब दबाया और उसके मल-मूत्र को निकाल दिया।

फिर उसके ऊपर लेटकर उसके मुख से अपना मुख लगाकर अपने प्राणों को जोर से निकालकर उसके भीतर प्राणों का संचार किया।

हठपूर्वक उसने अपने शरीर को प्राण रहित कर दिया तथा मृतक का शरीर सजीव हो गया।

परन्तु यह शैली अत्यंत निन्दनीय तथा योग के शौचाचार से विपरीत है। इस शैली को नहीं अपनाना चाहिए। अपने ऋषियों की आर्ष पद्धति ही ठीक है।
🌷 🌷 ऊं ह्लीं पीताम्बरायै नमः🌷🌷
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हनुमान की मूर्ति से ऐसे दूर करें वास्तुदोष जानिए कैसे
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दक्षिण दिशा में होता है यमराज का वास!!
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🏠 वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा को शुभ नहीं माना जाता है।

🏠 वास्तु विज्ञान के अनुसार इस दिशा के स्वामी यमराज माने जाते हैं।

🏠 इसे संकट का द्वार भी कहा जाता है। यही कारण है कि लोग अधिक कीमत देकर भी पूर्व दिशा की ओर मुंह वाला मकान खरीदना पसंद करते हैं

🏠 और दक्षिण की ओर मुंह वाला घर कम कीमत में भी लेना पसंद नहीं करते हैं।

🏠 वास्तु विज्ञान के मुताबिक दक्षिण की ओर पैर करके सोने और मुख करके बैठने से आपके आस-पास नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता रहता है।

🏠 वास्तु विज्ञान में इसके पीछे का तर्क है कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण बल पर टिकी है। वह अपनी धुरी पर लगातार घूमती है।

🏠 इसकी धुरी के उत्तर-दक्षिण दो छोर हैं।

🏠 यह चुंबकीय क्षेत्र होता है। इसलिए जब भी इंसान दक्षिण दिशा में पैर करके सोता है तो वह तो पृथ्वी की धुरी के समानांतर हो जाता है।

🏠 इससे धुरी के चुंबकीय प्रभाव से रक्तप्रवाह प्रभावित होता है।

🏠 इससे हाथ-पैर में दर्द, कमर दर्द, शरीर का कांपना आदि जैसे दोष हो जाते हैं।

दक्षिण की तरफ मुख्य द्वार, हनुमान की मूर्ति से ऐसे दूर करें वास्तुदोष
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🏠 घर का मुख्य दरवाजा कभी भी दक्षिण दिशा की तरफ नहीं होना चाहिए।

🏠 यदि आपका दरवाजा दक्षिण की तरफ है तो द्वार के ठीक सामने एक आदमकद दर्पण इस प्रकार लगाएं जिससे घर में प्रवेश करने वाले व्यक्ति का पूरा प्रतिबिंब दर्पण में बने।

🏠 इससे घर में प्रवेश करने वाले व्यक्ति के साथ घर में प्रवेश करने वाली नकारात्मक उर्जा पलटकर वापस चली जाती है।

🏠 द्वार के ठीक सामने आशीर्वाद मुद्रा में हनुमानजी की मूर्ति अथवा तस्वीर लगाने से भी दक्षिण दिशा की ओर मुख्य द्वार का वास्तुदोष दूर होता है।

मंद होती है फेफड़ों की गति

🏠 दक्षिण दिशा में सोने से फेफड़ों की गति मंद हो जाती है। इसीलिए मृत्यु के बाद इंसान के पैर दक्षिण दिशा की ओर कर दिए जाते हैं ताकि उसके शरीर से बचा हुआ जीवांश समाप्त हो जाए।

🏠 दक्षिण, यम की दिशा मानी जाती है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यम को मृत्यु का देवता माना जाता है।

🏠 इसके अलावा यदि आपकी तिजारो इस दिशा में है तो बरकत एवं लाभ के लिए दिशा बदल लेनी चाहिए।

🏠 वहीं, शौचालय में सीट इस प्रकार रखनी चाहिए कि शौच करते वक्त मुख उत्तर या दक्षिण दिशा की ओर रहे और दरवाजा सदैव बंद रखना चाहिए।
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🌷🌷जय मां पीताम्बरा🌷🌷
#सनातन_धर्म

ॐ सनातन धर्म का प्रतीक चिह्न ही नहीं बल्कि सनातन परम्परा का सबसे पवित्र शब्द है।
सनातन धर्म: (हिन्दू धर्म, वैदिक धर्म) अपने मूल रूप हिन्दू धर्म के वैकल्पिक नाम से जाना जाता है।वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये ‘सनातन धर्म’ नाम मिलता है। ‘सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘हमेशा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नदी के पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं। हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था।

इतिहास

“ यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यों आप अपने उत्पन्न होने की आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें। ”
—ऋग्वेद-3-18-1

सनातन धर्म जिसे हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहा जाता है, का १९६०८५३११० साल का इतिहास हैं। भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था।

प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म में गाणपत्य, शैवदेव:कोटी वैष्णव,शाक्त और सौर नाम के पाँच सम्प्रदाय होते थे।गाणपत्य गणेशकी, वैष्णव विष्णु की, शैवदेव:कोटी शिव की, शाक्त शक्ति की और सौर सूर्य की पूजा आराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरुओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ,उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है।

कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की।

जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया।

‘सनातन धर्म’, हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है।

स्वरूप

सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि। अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है।

सनातन में आधुनिक और समसामयिक चुनौतियों का सामना करने के लिए इसमें समय समय पर बदलाव होते रहे हैं, जैसे कि राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद आदि ने सती प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता जैसे असुविधाजनक परंपरागत कुरीतियों से असहज महसूस करते रहे। इन कुरीतियों की जड़ो (धर्मशास्त्रो) में मौजूद उन श्लोको -मंत्रो को “क्षेपक” कहा या फिर इनके अर्थो को बदला और इन्हें त्याज्य घोषित किया तो कई पुरानी परम्पराओं का पुनरुद्धार किया जैसे विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि। यद्यपि आज सनातन का पर्याय हिन्दू है पर बौद्ध, जैन धर्मावलम्बी भी अपने आप को सनातनी कहते हैं, क्योंकि बुद्ध भी अपने को सनातनी कहते हैं।यहाँ तक कि नास्तिक जोकि चार्वाक दर्शन को मानते हैं वह भी सनातनी हैं। सनातन धर्मी के लिए किसी विशिष्ट पद्धति, कर्मकांड, वेशभूषा को मानना जरुरी नहीं। बस वह सनातनधर्मी परिवार में जन्मा हो, वेदांत, मीमांसा, चार्वाक, जैन, बौद्ध, आदि किसी भी दर्शन को मानता हो बस उसके सनातनी होने के लिए पर्याप्त है।

सनातन धर्म की गुत्थियों को देखते हुए कई बार इसे कठिन और समझने में मुश्किल धर्म समझा जाता है। हालांकि, सच्चाई तो ऐसी नहीं है, फिर भी इसके इतने आयाम, इतने पहलू हैं कि लोगबाग कई बार इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं। सबसे बड़ा कारण इसका यह कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक, मनीषा या ऋषि के विचारों की उपज नहीं है, न ही यह किसी ख़ास समय पैदा हुआ। यह तो अनादि काल से प्रवाहमान और विकासमान रहा। साथ ही यह केवल एक दृष्टा, सिद्धांत या तर्क को भी वरीयता नहीं देता।

मार्ग

विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर ‘मोक्ष’ की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।

नीच भंग राजयोग

कई बार हमने ऐसी कुण्डलियां देखी हैं जिसमें एकाधिक ग्रह अपनी नीच राशि में मौज़ूद होते हैं। ज्योतिष के क्षेत्र में इसे काफी संवेदनशील माना जाता है, क्योंकि सामान्य मान्यता के अनुसार ऐसा होने से ग्रह बुरी तरह प्रताड़ित होता है और अशुभ फल देने वाला हो जाता है।

ज्यादातर ज्योतिषी इसे अशुभ इसलिए मानते हैं क्योंकि इस अवस्था में ग्रह की स्थिति और बलाबल काफी कम होने से वह संबंधित भाव के लिए तथा अपने कारकत्व वाली वस्तुओं के लिए नुकसानदेह साबित होता है।

कोई ग्रह नीच कब माना जाता है? जब भी ग्रह अपनी उच्च राशि से सातवीं राशि पर जन्मकालीन स्थिति में मौज़ूद होता है, तो ऐसे में उसकी अवस्था उच्च राशि से काफी दूर होने की वजह से उसका बल क्षीण हो जाता है। ऐसी अवस्था में प्रायः वह कम फल देने में सक्षम होता है। इसलिए उसे शुभता नहीं प्राप्त हो पाती है तथा वह जिस स्थान पर उपस्थित होता है उसके लिए सामान्यतः अशुभकर्ता हो जाता है। किंतु सभी स्थितियों में नीच का ग्रह अशुभ फल ही करे, ऐसा कतई आवश्यक नहीं। कई बार उसकी गतिविधि कम हो जाती है तथा मनुष्य पर उसका प्रभाव सीमित हो जाता है किंतु वह हानि पहुंचाए ही, ऐसा नहीं होता।

किंतु यदि कोई ग्रह कुण्डली में नीच राशि में बैठा हो तो बिना उसकी वास्तविक स्थिति जाने कोई फलादेश करना घातक सिद्ध हो सकता है। कई ऐसी स्थितियां हैं, जिनमें नीच राशि पर बैठा हुआ ग्रह, उच्च के ग्रह जैसा फल देने लगता है। इस खास स्थिति को नीच भंग राजयोग कहते हैं। नीच भंग की अवस्था को जानने से पूर्व हमें ये जरूर जानना चाहिए कि ग्रहों की उच्च एवं नीच राशियां कौन-कौन सी हैं:

सूर्य से केतु तक ग्रहों की उच्च एवं नीच राशियां इस प्रकार से मानी गई हैं:

सूर्य – मेष में उच्च, तुला में नीच, चंद्रमा – वृष में उच्च, वृश्चिक में नीच, बुध – कन्या में उच्च, मीन में नीच, शुक्र – मीन में उच्च, कन्या में नीच, मंगल – मकर में उच्च, कर्क में नीच, गुरु – कर्क में उच्च, मकर में नीच, शनि – तुला में उच्च, मेष में नीच, राहु – मिथुन में उच्च, धनु में नीच, केतु – धनु में उच्च, मिथुन में नीच

अब यदि जन्म कुण्डली में ग्रह अपनी नीच राशि में बैठा हो तो निम्नोक्त स्थितियां नीच भंग राजयोग का सृजन करके महान फलदायक बन जाती हैं:

  1. जन्म कुण्डली की जिस राशि में ग्रह नीच का होकर बैठा हो उस राशि का स्वामी उसे देख रहा हो या फिर जिस राशि में ग्रह नीच होकर बैठा हो उस राशि का स्वामी स्वगृही होकर युति संबंध बना रहा हो तो नीच भंग राजयोग का सृजन होता है।
  2. अगर कोई ग्रह नवमांश कुण्डली में अपनी उच्च राशि में बैठा हो तो ऐसी स्थिति में उसका नीच भंग होकर वह राजयोग कारक हो जाता है।
  3. जिस राशि में ग्रह नीच होकर बैठा हो उस राशि का स्वामी अपनी उच्च राशि में बैठा हो तो भी नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है।
  4. अपनी नीच राशि में बैठा ग्रह अगर अपने से सातवें भाव में बैठे नीच ग्रह को देख रहा हो तो दोनों ग्रहों का नीच भंग हो जाता है। ये महान योगकारक स्थिति का द्योतक है।
  5. जिस राशि में ग्रह नीच का होकर बैठा हो उस राशि का स्वामी जन्म राशि से केन्द्र में मौज़ूद हो एवं जिस राशि में नीच ग्रह उच्च का होता है उस राशि का स्वामी भी केन्द्र में बैठा हो तो निश्चित ही नीच भंग राजयोग का सृजन होता है।
  6. जिस राशि में ग्रह नीच का होकर बैठा हो उस राशि का स्वामी एवं जिस राशि में नीच ग्रह उच्च का होता है उसका स्वामी लग्न से कहीं भी केन्द्र में स्थित हों तो ऐसी अवस्था में भी नीच भंग राजयोग का निर्माण होता है। यहां एक बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि नीच भंग राजयोगों का फल सामान्य राजयोगों से कहीं अधिक मिलता है किंतु ऐसे इंसान आमतौर पर मुंह में चांदी का चम्मच नहीं लेकर जन्म लेते वरन् उन्हें अपने कर्मों से ही शुभ परिणाम प्राप्त होता है। ऐसे जातक की किस्मत में संघर्ष अधिक होते हैं किंतु यदि कुण्डली में दो या दो से अधिक नीच भंग राजयोग निर्मित होते हों तो वह अवश्य ही बहुत ऊंचाई पर जाता है।
    [ “”विवाह और उम्र””

आज एक गम्भीर समस्या !!!

विवाह की बढ़ती उम्र पर खामोशी क्यों…?
28-32 साल की युवक युवतियां बैठे है कुंवारे, फिर मौन क्यों हैं समाज के कर्ता-धर्ता
कुंवारे बैठे लड़के लड़कियों की एक गंभीर समस्या आज सामान्य रुप से सभी समाजों में उभर के सामने आ रही है। इसमें उम्र तो एक कारण है ही मगर समस्या अब इससे भी कहीं आगे बढ़ गई है। क्योंकि 30 से 35 साल तक की लड़कियां भी कुंवारी बैठी हुई है। इससे स्पष्ट है कि इस समस्या का उम्र ही एकमात्र कारण नहीं बचा है। ऐसे में लड़के लड़कियों के जवां होते सपनों पर न तो किसी समाज के कर्ता-धर्ताओं की नजर है और न ही किसी रिश्तेदार और सगे संबंधियों की। हमारी सोच कि हमें क्या मतलब है में उलझ कर रह गई है। बेशक यह सच किसी को कड़वा लग सकता है लेकिन हर समाज की हकीकत यही है, 25 वर्ष के बाद लड़कियां ससुराल के माहौल में ढल नहीं पाती है, क्योंकि उनकी आदतें पक्की और मजबूत हो जाती हैं अब उन्हें मोड़ा या झुकाया नहीं जा सकता जिस कारण घर में बहस, वाद विवाद, तलाक होता हैं बच्चे सिजेरियन ऑपरेशन से होते हैं जिस कारण बाद में बहुत सी बिमारी का सामना करना पड़ता है ।
शादी के लिए लड़की की उम्र 18 साल व लड़के की उम्र 21 साल होनी चाहिए ये तो अब बस आंकड़ों में ही रह गया है। एक समय था जब संयुक्त परिवार के चलते सभी परिजन अपने ही किसी रिश्तेदार व परिचितों से शादी संबंध बालिग होते ही करा देते थे। मगर बढ़ते एकल परिवारों ने इस परेशानी को और गंभीर बना दिया है। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि एकल परिवार प्रथा ने आपसी प्रेम व्यवहार ही खत्म सा कर दिया है। अब तो शादी के लिए जांच पड़ताल में और कोई तो नेगेटिव करें या न करें अपनी ही खास सगे संबंधी नेगेटिव कर बनते संबंध खराब कर देते है।

उच्च शिक्षा और हाई जॉब बढ़ा रही उम्र
यूं तो शिक्षा शुरू से ही मूल आवश्यकता रही है लेकिन पिछले डेढ़ दो दशक से इसका स्थान उच्च शिक्षा या कहे कि खाने कमाने वाली डिग्री ने ले लिया है। इसकी पूर्ति के लिए अमूमन लड़के की उम्र 23-24 या अधिक हो जाती है। इसके दो-तीन साल तक जॉब करते रहने या बिजनेस करते रहने पर उसके संबंध की बात आती है। जाहिर से इतना होते-होते लड़के की उम्र तकरीबन 30 के इर्द -गिर्द हो जाती है। इतने तक रिश्ता हो गया तो ठीक, नहीं तो लोगों की नजर तक बदल जाती है। यानि 50 सवाल खड़े हो जाते है।

चिंता देता है उम्र का यह पड़ाव
प्रकृति के हिसाब से 30 प्लस का पड़ाव चिंता देने वाला है। न केवल लड़के-लड़की को बल्कि उसके माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार और सगे संबंधियों को भी। सभी तरफ से प्रयास भी किए, बात भी जंच गई लेकिन हर संभव कोशिश के बाद भी रिश्ता न बैठने पर उनकी चिंता और बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, शंका-समाधान के लिए मंदिरों तक गए, पूजा-पाठ भी कराए, नामी विशेषज्ञों ने जो बताए वे तमाम उपाय भी कर लिए पर बात नहीं बनी। मेट्रीमोनी वेबसाइट्स व वाट्सअप पर चलते बायोडेटा की गणित इसमें कारगार होते नहीं दिखाई देते। बिना किसी मीडिएटर के संबंध होना मुश्किल ही होता है। मगर कोई मीडिएटर बनना चाहता ही नहीं है। मगर इन्हें कौन समझाए की जब हम किसी के मीडिएटर नहीं बनेंगे तो हमारा भी कोई नहीं बनेगा। एक समस्या ये भी हम पैदा करते जा रहे है कि हम सामाजिक न होकर एकांतवादी बनते जा रहे है।

आखिर कहां जाए युवा मन
अपने मन को समझाते-बुझाते युवा आखिर कब तक भाग्य भरोसे रहेगा। अपनों से तिरस्कृत और मन से परेशान युवा सब कुछ होते हुए भी अपने को ठगा सा महसूस करता है। हद तो तब हो जाती है जब किसी समारोह में सब मिलते हैं और एक दूसरे से घुल मिलकर बात करते हैं लेकिन उस वक्त उस युवा पर क्या बीतती है, यह वही जानता है। ऐसे में कई बार नहीं चाहते हुए भी वह उधर कदम बढ़ाने को मजबूर हो जाता है जहां शायद कोई सभ्य पुरूष जाने की भी नहीं सोचता या फिर ऐसी संगत में बैठता है जो बदनाम ही करती हो।

ख्वाहिशें अपार, अरमान हजार
हर लड़की और उसके पिता की ख्वाहिश से आप और हम अच्छी तरह परिचित हैं। पुत्री के बनने वाले जीवनसाथी का खुद का घर हो, कार हो, परिवार की जिम्मेदारी न हो, घूमने-फिरने और आज से युग के हिसाब से शौक रखता हो और कमाई इतनी तगड़ी हो कि सारे सपने पूरे हो जाएं, तो ही बात बन सकती है। हालांकि सभी की अरमान ऐसे नहीं होते लेकिन चाहत सबकी यही है। शायद हर लड़की वाला यह नहीं सोचता कि उसका भी लड़का है तो क्या मेरा पुत्र किसी ओर के लिए यह सब पूरा करने में सक्षम है। यानि एक गरीब बाप भी अपनी बेटी की शादी एक अमीर लड़के से करना चाहता है और अमीर लड़की का बाप तो अमीर से करेगा ही। ऐसे में सामान्य परिवार के लड़के का क्या होगा? यह एक चिंतनीय विषय सभी के सामने आ खड़ा हुआ है। संबंध करते वक्त एक दूसरे का व्यक्तिव व परिवार देखना चाहिए ना कि पैसा। कई ऐसे रिश्ते भी हमारे सामने है कि जब शादी की तो लड़का आर्थिक रूप से सामान्य ही था मगर शादी बाद वह आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो गया। ऐसे भी मामले सामने आते है कि शादी के वक्त लड़का बहुत अमीर था और अब स्थिति सामान्य रह गई। इसलिए लक्ष्मी तो आती जाती है ये तो नसीबों का खेल मात्र है।

क्यों नहीं सोचता समाज
समाजसेवा करने वाले लोग आज अपना नाम कमाने के लिए लाखों रुपए खर्च करने से नहीं चूकते लेकिन बिडम्बना है कि हर समाज में बढ़ रही युवाओं की विवाह की उम्र पर कोई चर्चा करने की व इस पर कार्य योजना बनाने की फुर्सत किसी को नहीं है। कहने को हर समाज की अनेक संस्थाएं हैं वे भी इस गहन बिन्दु पर चिंतित नजर नहीं आती।

पहल तो करें
हो सकता है इस मुद्दे पर समाज में पहले कभी चर्चा हुई हो लेकिन उसका ठोस समाधान अभी नजर नहीं आता। तो क्यों नहीं बीड़ा उठाएं कि एक मंच पर आकर ऐसे लड़कों व लड़कियों को लाएं जो बढ़ती उम्र में हैं और समझाइश से उनका रिश्ता कहीं करवाने की पहल करें। यह प्रयास छोटे स्तर से ही शुरू हो। रोशन भारत का हर समाज के नेतृत्वकर्ताओं से अनुरोध है कि वे इस गंभीर समस्या पर चर्चा करें और एक ऐसा रास्ता तैयार करें जो युवाओं को भटकाव के रास्ते से रोककर विकास के मार्ग पर ले जा सकें। स्वार्थ न समझकर परोपकार समझ कर सहयोग करें।

उच्च सफलता के योग-

  1. जन्म-कुंडली में दशम स्थान
    जन्म-कुंडली में दशम स्थानको (दसवां स्थान) को तथा छठे भाव को जॉब आदि के लिए जाना जाता है। सरकारी नौकरी के योग को देखने के लिए इसी घर का आकलन किया जाता है। दशम स्थान में अगर सूर्य, मंगल या ब्रहस्पति की दृष्टि पड़ रही होती है साथ ही उनका सम्बन्ध छठे भाव से हो तो सरकारी नौकरी का प्रबल योग बन जाता है। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि जातक की कुंडली में दशम में तो यह ग्रह होते हैं लेकिन फिर भी जातक को संघर्ष करना पड़ रहा होता है तो ऐसे में अगर सूर्य, मंगल या ब्रहस्पति पर किसी पाप ग्रह (अशुभ ग्रह) की दृष्टि पड़ रही होती है तब जातक को सरकारी नौकरी प्राप्ति में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अतः यह जरूरी है कि आपके यह ग्रह पाप ग्रहों से बचे हुए रहें।
  2. जन्म कुंडली में जातक का लग्न
    जन्म कुंडली में यदि जातक का लग्न मेष, मिथुन, सिंह, वृश्चिक, वृष या तुला है तो ऐसे में शनि ग्रह और गुरु (वृहस्पति) का एक-दूसरे से केंद्र या त्रिकोण में होना, सरकारी नौकरी के लिए अच्छा योग उत्पन्न करते हैं।
  3. जन्म कुंडली में यदि केंद्र में अगर चन्द्रमा, ब्रहस्पति एक साथ होते हैं तो उस स्थिति में भी सरकारी नौकरी के लिए अच्छे योग बन जाते हैं। साथ ही साथ इसी तरह चन्द्रमा और मंगल भी अगर केन्द्रस्थ हैं तो सरकारी नौकरी की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
  4. कुंडली में दसवें घर के बलवान होने से तथा इस घर पर एक या एक से अधिक शुभ ग्रहों का प्रभाव होने से जातक को अपने करियर क्षेत्र में बड़ी सफलताएं मिलतीं हैं तथा इस घर पर एक या एक से अधिक बुरे ग्रहों का प्रभाव होने से कुंडली धारक को आम तौर पर अपने करियर क्षेत्र में अधिक सफलता नहीं मिल पाती है।
  5. ज्योतिष शास्त्र में सूर्य तथा चंद्र को राजा या प्रशासन से सम्बंध रखने वाले ग्रह के रूप में जाना जाता है। सूर्य या चंद्र का लग्न, धन, चतुर्थ तथा कर्म से सम्बंध या इनके मालिक के साथ सम्बंध सरकारी नौकरी की स्थिति दर्शाता है। सूर्य का प्रभाव चंद्र की अपेक्षा अधिक होता है।
  6. लग्न पर बैठे किसी ग्रह का प्रभाव व्यक्ति के जीवन में सबसे अधिक प्रभाव रखने वाला माना जाता है। लग्न पर यदि सूर्य या चंद्र स्थित हो तो व्यक्ति शाषण से जुडता है और अत्यधिक नाम कमाने वाला होता है।
  7. चंद्र का दशम भाव पर दृष्टी या दशमेश के साथ युति सरकारी क्षेत्र में सफलता दर्शाता है। यधपि चंद्र चंचल तथा अस्थिर ग्रह है जिस कारण जातक को नौकरी मिलने में थोडी परेशानी आती है। ऐसे जातक नौकरी मिलने के बाद स्थान परिवर्तन या बदलाव के दौर से बार बार गुजरते है।
  8. सूर्य धन स्थान पर स्थित हो तथा दशमेश को देखे तो व्यक्ति को सरकारी क्षेत्र में नौकरी मिलने के योग बनते है। ऐसे जातक खुफिया ऐजेंसी या गुप चुप तरीके से कार्य करने वाले होते है।
  9. सूर्य तथा चंद्र की स्थिति दशमांश कुंडली के लग्न या दशम स्थान पर होने से व्यक्ति राज कार्यो में व्यस्त रहता है ऐसे जातको को बडा औहदा प्राप्त होता है।
  10. यदि ग्रह अत्यधिक बली हो तब भी वें अपने क्षेत्र से सम्बन्धित सरकारी नौकरी दे सकते है। मंगल सैनिक, या उच्च अधिकारी, बुध बैंक या इंश्योरेंस, गुरु- शिक्षा सम्बंधी, शुक्र फाइनेंश सम्बंधी तो शनि अनेक विभागो में जोडने वाला प्रभाव रखता है।
  11. सूर्य चंद्र का चतुर्थ प्रभाव जातक को सरकारी क्षेत्र में नौकरी प्रदान करता है। इस स्थान पर बैठे ग्रह सप्तम दृष्टि से कर्म स्थान को देखते है।
  12. सूर्य यदि दशम भाव में स्थित हो तो व्यक्ति को सरकारी कार्यो से अवश्य लाभ मिलता है। दशम स्थान कार्य का स्थान हैं। इस स्थान पर सूर्य का स्थित होना व्यक्ति को सरकारी क्षेत्रो में अवश्य लेकर जाता है। सूर्य दशम स्थान का कारक होता है जिस कारण इस भाव के फल मिलने के प्रबल संकेत मिलते है।
  13. यदि किसी जातक की कुंडली में दशम भाव में मकर राशि में मंगल हो या मंगल अपनी राशि में बलवान होकर प्रथम, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम या दशम में स्थित हो तो सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  14. यदि मंगल स्वराशि का हो या मित्र राशि का हो तथा दशम में स्थित हो या मंगल और दशमेश की युति हो तो सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  15. चंद्र केंद्र या त्रिकोण में बली हो तो सरकारी नौकरी का योग बनाता है ।
  16. यदि सूर्य बलवान होकर दशम में स्थित हो या सूर्य की दृष्टि दशम पर हो तो जातक सरकारी नौकरी में जाता है ।
  17. यदि किसी जातक की कुंडली में लग्न में गुरु या चौथे भाव में गुरु हो या दशमेश ग्यारहवे भाव में स्थित हो तो सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  18. यदि जातक की कुंडली में दशम भाव पर सूर्य, मंगल या गुरु की दृष्टि पड़े तो यह सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  19. यदि १० भाव में मंगल हो, या १० भाव पर मंगल की दृष्टी हो,
  20. यदि मंगल ८ वे भाव के अतिरिक्त कही पर भी उच्च राशी मकर (१०) का होतो।
  21. मंगल केंद्र १, ४, ७, १०, या त्रिकोण ५, ९ में हो तो.
  22. यदि लग्न से १० वे भाव में सूर्य (मेष) , या गुरू (४) उच्च राशी का हो तो। अथवा स्व राशी या मित्र राशी के हो।
  23. लग्नेश (१) भाव के स्वामी की लग्न पर दृष्टी हो।
  24. लग्नेश (१) +दशमेश (१०) की युति हो।
  25. दशमेश (१०) केंद्र १, ४, ७, १० या त्रिकोण ५, ९ वे भाव में हो तो। उपरोक्त योग होने पर जातक को सरकारी नौकरी मिलती है। जितने ज्यादा योग होगे , उतना बड़ा पद प्राप्त होगा।
  26. भाव:कुंडली के पहले, दसवें तथा ग्यारहवें भाव और उनके स्वामी से सरकारी नौकरी के बारे मैं जान सकते हैं।
    27.सूर्य. चंद्रमा व बृहस्पति सरकारी नौकरी मै उच्च पदाधिकारी बनाता है।
  27. भाव :द्वितीय, षष्ठ एवं दशम्‌ भाव को अर्थ-त्रिकोण सूर्य की प्रधानता होने पर सरकारी नौकरी प्राप्त करता है।
  28. नौकरी के कारक ग्रहों का संबंध सूर्य व चन्द्र से हो तो जातक सरकारी नौकरी पाता है।
  29. दसवें भावमें शुभ ग्रह होना चाहिए।
  30. दसवें भाव में सूर्य तथा मंगल एक साथ होना चाहिए।
  31. पहले, नवें तथा दसवें घर में शुभ ग्रहों को होना चाहिए।
  32. पंच महापुरूष योग: जीवन में सफलता एवं उसके कार्य क्षेत्र के निर्धारण में महत्वपूर्ण समझे जाते हैं।पंचमहापुरूष योग कुंडली में मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि अपनी स्वराशि अथवा उच्च राशि का होकर केंद्र में स्थित होने पर महापुरुष योग बनता
  33. पाराशरी सिद्धांत के अनुसार, दसवें भाव के स्वामी की नवें भाव के स्वामी के साथ दृष्टि अथवा क्षेत्र और राशि स्थानांतर संबंध उसके लिए विशिष्ट राजयोग का निर्माण करते हैं।
    कुंडली से जाने नौकरी प्राप्ति का समय नियम:
  34. लग्न के स्वामी की दशा और अंतर्दशा में
  35. नवमेश की दशा या अंतर्दशा में
  36. षष्ठेश की दशा या, अंतर्दशा में
  37. प्रथम,दूसरा , षष्ठम, नवम और दशम भावों में स्थित ग्रहों की दशा या अंतर्दशा में
  38. दशमेश की दशा या अंतर्दशा में
  39. द्वितीयेश और एकादशेश की दशा या अंतर्दशा में
  40. नौकरी मिलने के समय जिस ग्रह की दशा और अंतर्दशा चल रही है उसका संबंध किसी तरह दशम भाव या दशमेश से ।
  41. द्वितीयेश और एकादशेश की दशा या अंतर्दशा में भी नौकरी मिल सकती है।
  42. छठा भाव :छठा भाव नौकरी का एवं सेवा का है। छठे भाव का कारक भाव शनि है।
  43. दशम भाव या दशमेश का संबंध छठे भाव से हो तो जातक नौकरी करता है।
  44. राहु और केतु की दशा, या अंतर्दशा में :
    जीवन की कोई भी शुभ या अशुभ घटना राहु और केतु की दशा या अंतर्दशा में हो सकती है।
  45. गोचर: गुरु गोचर में दशम या दशमेश से केंद्र या त्रिकोण में ।
  46. गोचर : नौकरी मिलने के समय शनि और गुरु एक-दूसरे से केंद्र, या त्रिकोण में हों तो नौकरी मिल सकती है
  47. गोचर : नौकरी मिलने के समय शनि या गुरु का या दोनों का दशम भाव और दशमेश दोनों से या किसी एक से संबंध होता है।
  48. कुंडली का पहला, दूसरा, चौथा, सातवा, नौवा, दसवा, ग्यारहवा घर तथा इन घरों के स्वामी अपनी दशा और अंतर्दशा में जातक को कामयाबी प्रदान करते है।
    : 🕉जानिएआपका कौनसा चक्र बिगडा है..!!🕉

(1) मूलाधार चक्र – गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला ‘आधार चक्र’ है । आधार चक्र का ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है। इसके बिगड़ने से वीरता,धन ,समृधि ,आत्मबल ,शारीरिक बल ,रोजगार ,कर्मशीलता,घाटा,असफलता रक्त एवं हड्डी के रोग ,कमर व पीठ में दर्द ,आत्महत्या के बिचार ,डिप्रेशन ,केंसर अदि होता है।

(2) स्वाधिष्ठान चक्र – इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है । उसकी छ: पंखुरियाँ हैं । इसके बिगड़ने पर क्रूरता,गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, नपुंसकता ,बाँझपन ,मंद्बुधिता ,मूत्राशय और गर्भाशय के रोग ,अध्यात्मिक सिद्धी में बाधा बैभव के आनंद में कमी अदि होता है।

(3) मणिपूर चक्र – नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है । इसके इसके बिगड़ने पर तृष्णा, ईष्र्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, अधूरी सफलता ,गुस्सा ,चिंचिरापन, नशाखोरी,तनाव ,शंकलुप्रबिती,कई तरह की बिमारिया ,दवावो का काम न करना ,अज्ञात भय ,चहरे का तेज गायब ,धोखाधड़ी,डिप्रेशन,उग्रता ,हिंशा,दुश्मनी ,अपयश ,अपमान ,आलोचना ,बदले की भावना ,एसिडिटी ,ब्लडप्रेशर,शुगर,थाईरायेड,सिरएवं शारीर के दर्द,किडनी ,लीवर ,केलोस्ट्राल,खून का रोग आदि इसके बिगड़ने का मतलब जिंदगी का बिगड़ जाना ।

(4) अनाहत चक्र – हृदय स्थान में अनाहत चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है । इसके बिगड़ने पर लिप्सा, कपट, तोड़ -फोड़, कुतर्क, चिन्ता,नफरत ,प्रेम में असफलता ,प्यार में धोखा ,अकेलापन ,अपमान, मोह, दम्भ, अपनेपन में कमी ,मन में उदासी , जीवन में बिरानगी ,सबकुछ होते हुए भी बेचनी,छाती में दर्द ,साँस लेने में दिक्कत ,सुख का अभाव,ह्रदय व फेफड़े के रोग,केलोस्ट्राल में बढ़ोतरी अदि ।

(5) विशुद्धख्य चक्र – कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभूतियाँ विद्यमान है, इसके बिगड़ने पर वाणी दोष ,अभिब्यक्ति में कमी ,गले ,नाक,कान,दात, थाई रायेड,आत्मजागरण में बाधा आती है।

(6) आज्ञाचक्र – भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ ‘?’ उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है । इसके बिगड़ने पर एकाग्रता ,जीने की चाह,निर्णय की सक्ति, मानसिक सक्ति,सफलता की राह आदि इसके बिगड़ने मतलब सबकुछ बिगड़ जाने का खतरा ।

(7) सहस्रार चक्र – सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है । शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।इसके बिगड़ने पर मानसिक बीमारी, अध्यात्मिकता का आभाव ,भाग्य का साथ न देना अदि ।

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[ सुबह 800 सलाद
दोपहर 400 ग्राम सलाद
इतना खाने के बाद ही कुछ खाइये।

वजन घटाने के लिए बस इतना ही करिये

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