आजकल बहुत से लोग ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य आदि को जन्म से मानते हैं , जो कि न्याय नहीं है । क्या आप एक वकील साहब के बेटे को जन्म से ही वकील मान लेते हैं? क्या आप एक डॉक्टर के बच्चे को जन्म से ही डॉक्टर मान लेते हैं? क्या आप एक पायलट के बच्चे को जन्म से ही पायलट मान लेते हैं? यदि नहीं मानते । तो ब्राह्मण के बेटे को जन्म से ब्राह्मण क्यों मानते हैं ? शूद्र के बच्चे को जन्म से ही शूद्र क्यों मानते हैं? यह अन्याय है।
इसलिए यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है , कि सामने वाला व्यक्ति ब्राह्मण का बेटा है , या क्षत्रिय का है , या शूद्र का । यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि उसमें गुण क्या है?
जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो, यदि उसमें आज पुरुषार्थ करने के बाद अच्छे गुण हैं , तो हमें उसका सम्मान यथा योग्य करना चाहिए । और यदि ब्राह्मण कुल में भी उत्पन्न हुआ हो , और पढ़ता लिखता कुछ नहीं, आचरण ठीक नहीं है, ज्ञान विज्ञान उत्तम नहीं है , तो वह सम्माननीय नहीं है। इसी का नाम न्याय है। न्याय करेंगे , तो आपको सुख मिलेगा . यदि अन्याय करेंगे , तो दुख ही मिलेगा –
[ शान्तितुल्यं तपो नास्ति
न संतोषात्परं सुखम्।
न तृष्णया: परो व्याधिर्न
च धर्मो दया परा:।।
शान्ति के समान कोई तप नही है, संतोष से श्रेष्ठ कोई सुख नही, तृष्णा से बढकर कोई रोग नही और दया से बढकर कोई धर्म नहीं।
[…….शानदार फैसला……
“पापा जी ! पंचायत इकठ्ठी हो गई, अब बँटवारा कर दो।” रजिन्दर सिंह के बड़े लड़के ने रूखे लहजे में कहा।
“हाँ पापा जी ! कर दो बाँट बटव्वल अब इकठ्ठे नहीं रहा जाता” छोटे मनप्रीत ने भी उसी लहजे में कहा।
“जब साथ में निबाह न हो तो औलाद को अलग कर देना ही ठीक है, अब यह बताओ तुम किस बेटे के साथ रहोगे ?” सरपंच ने रजिन्दर सिंह के कन्धे पर हाथ रख कर के पूछा।
“अरे इसमें क्या पूछना, छ: महीने पापा जी मेरे साथ रहेंगे और छ: महीने छोटे के पास रहेंगे।”
” चलो तुम्हारा तो फैसला हो गया, अब करें जायदाद का बँटवारा !” सरपंच बोला।
रजिन्दर सिंह जो काफी देर से सिर झुकाये बैठा था, एकदम उठ के खड़ा हो गया और चिल्ला के बोला,
” कैसा फैसला हो गया, अब मैं करूंगा फैसला, इन दोनों लड़कों को घर से बाहर निकाल कर !,”
“छः महीने बारी बारी से आकर मेरे पास रहें, और छः महीने कहीं और इंतजाम करें अपना….”
“जायदाद का मालिक मैं हूँ यह नहीं।”
दोनों लड़कों और पंचायत का मुँह खुला का खुला रह गया, जैसे कोई नई बात हो गई हो….🙏
[: बहुत प्यारा सन्देश
कभी आपको बस की सबसे पीछे वाली सीट पर बैठने का मौका लगा है l यदि नही ; तो कभी गौर करना l और हाँ ; तो आपने महसूस किया होगा कि पीछे की सीट पर धक्के ज्यादा महसूस होते है l चालक तो सबके लिए एक ही है l बस की गति भी समान है l फिर ऐसा क्यों ? साहब जिस बस में आप सफर कर रहे है उसके चालक से आपकी दूरी जितनी ज्यादा होगी – आपकी यात्रा में धक्के भी उतने ही ज्यादा होंगे l
आपकी जीवन यात्रा के सफर में भी जीवन की गाड़ी के चालक परमात्मा से आपकी दूरी जितनी ज्यादा होगी आपको ज़िन्दगी में धक्के उतने ही ज्यादा खाने पड़ेंगे l अपनी रोज़ की दिनचर्या में यथासंभव कुछ समय अपने आराध्य के समीप बैठो और उनसे अपने मन की बात एकदम साफ शब्दों में कहो l आप स्वयं एक अप्रत्याशित चमत्कार महसूस करेंगे।
कोशिश करके देखिए ।
[सु-प्रभात
“आपसी वार्तालाप में सबसे बड़ा अवगुण, पर-निन्दा करना है। परनिन्दक मनुष्यों की दशा ठीक उस पागल मनुष्य की तरह होती है जिसके हाथ में एक तलवार दे दी जाती है और जो किसी भी मनुष्य को मारने में नहीं हिचकता। निन्दा करने वाले प्रत्येक मनुष्य में कुछ भी नैतिक साहस नहीं रहता, वह प्रत्यक्ष में कुछ कहने की हिम्मत नहीं रखता। वह उस कायर शत्रु के समान है जो छिपकर वार करना जानता है।
सिवाय इसके दूसरों की निन्दा करने में यह भी एक नुकसान है कि वह मनुष्य, जिसकी निन्दा की जाती है अपना दुश्मन बन बैठता है।
जो मनुष्य यह समझते हैं कि हम दूसरों की जब निन्दा किया करते हैं तब वह बात उसके कानों तक नहीं पहुँचती, वे बड़े मूर्ख हैं। ऐसा होना असम्भव है दूसरों की तुम हजार तारीफ करो, परन्तु यह बात उसके कानों तक नहीं पहुँचेगी, जब तुमने किसी की निन्दा की तब याद रखो यह बात उसे हवा के द्वारा मालूम हो जायेगी।
इस तरह से जिन-जिन मनुष्यों की निन्दा की जाती है वे सब दुश्मन बन जाते हैं और अन्त में निन्दा करने वाले मनुष्य की दशा ठीक वैसी ही हो जाती है जैसी कि किसी फुटबाल की जो कि एक जगह से लात खाकर दूसरी और दूसरी से तीसरी जगह चली जाती है।”
आज प्रभु से हमारी यही प्रार्थना कि वो हमारे हृदय के अन्तर्मन मे ऐसी शक्ति जागृत करे कि हम स्वप्न मे भी किसी की निन्दा न कर सके।
आज के सुबह की राम राम
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🙏माता पिता की जय🙏
🙏ॐ नमः शिवाय🙏