इस सृष्टि में विभिन्न तत्व है जिनके बिभिन्न प्रकार के शरीरों की रचना होती है। मनुष्य के शरीर मे इन्ही तत्वो के सयोंग से सर्ब प्रथम अन्तः करण की रचना होती है।
इस अन्तःकरण में मन बुद्धि व अहंकार की रचना होती है अहंकार से में पन का अनुभव होता है तथा मन से विचार उत्तपन्न होते है अतः विचारो का नाम ही मन है।
इस मन मे कामना व वाशना का उदय होता है जिसकी पूर्ति के लिए वह कर्म की ओर प्रविर्त्त होता है।
तथा इन कर्मो का जो भी अच्छा बुरा फल होता है उसे भोगने के लिए वह वाध्य होता है जो उसके पूर्ब जन्मो का कारण बन जाता है।
अतः यह सारा मायाजाल अन्तः करण के द्वारा मन से ही रचा जाता है जो उसके विचारों का ही रूप है जैसे उसके विचार होते है वैसा ही यह जगत उसे दिखाई देने लगता है यह जगत कैसा है तथा इसका वास्तविक स्वरूप क्या है इसका इस मन को कुछ भी पता नही है।
वह भोगो में लिप्त रहकर इसे जानने की चेस्टा भी नही करता मन की भावना पूर्ति के कारण ही सूक्ष्म शरीर की रचना होती है इसी में स्थूल शरीर बनता है तथा ज्ञानद्रीय व क्रमन्द्रीय की रचना होती है।
इन सब का कारण अन्तःकरण ही है इसके वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए ऐसी भावना करे इस शरीर मे चित्त आदि अन्तःकरण की कोई सत्ता ही नही तो फिर इस जगत को जानने वाला कौन रहेगा
क्योंकि सभी कुछ इस अन्तःकरण के द्वारा ही तो जाना जाता है जब अन्तःकरण ही नही तो संसार के विभिन्न रूपो को कौन जानेगा फिर बाह्य रूपो की सत्ता कैसे सिद्ध होगी?
बाह्य रूपो के न रहने पर वह साधक निर्विकल्प अवस्था मे प्रविष्ठ हो जाएगा। इससे संसार मे भटक रहा है इन विकल्पों के अभाव में वह अपने ही आत्म स्वरूप में प्रविष्ट हो जाएगा
यही उसका वास्तविक स्वरूप है जिसे प्राप्त कर वह शिवरूप ही हो जाता है
ॐ नमः शिवाय
श्री गुरवे नमः