आध्यात्मिक गंगास्नान
हमारे शरीर में भी बहतीं हैं एक गंगा ……….
रामचरितमानस के अयोध्याकांड में पतितपावनी गंगा की महिमा का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है….
गंग सकल मुद मंगल मूला।
सब सुख करनि हरनि सब सूला॥
अर्थात गंगाजी समस्त आनंद-मंगलों की मूल हैं। वे सब सुखों को प्रदान करने वाली और सब पीड़ाओं को हरने वाली हैं। इसी में आगे कहा गया है……………
मज्जनु कीनल् पंथ श्रम गयऊ।
सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ॥
अर्थात इसमें स्नान करने से सारी थकावट-श्रम दूर हो जाता है। पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न और पवित्र हो जाता है।
तीर्थराज प्रयाग और त्रिवेणी संगम–गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम की महिमा तो और भी निराली है। भगवान राम ने कहा है कि इसका स्मरण करने से ही सब सुंदर मंगलों को देने वाली है। भरत जी भी इसकी महिमा का बखान करते
हुए कहते हैं……….
सकल काम एद तीरथराऊ।
छेद बिदित जग एगट प्रभाऊ॥
अर्थात हे तीर्थराज ! आप समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध और संसार में प्रकट है।
यह तो हुई भौतिक गंगास्नान की महिमा-महत्ता, लेकिन आध्यात्मिक गंगास्तान इससे भिन्न है। प्राय: लोग भौतिक गंगा में स्नान, दर्शन, पान आदि करके स्वच्छ हो लेते हैं और अपने को पवित्र मान लेते हैं, पर ब्रह्मा कौ पुत्री रूपी अंतरंग में स्थित गंगा का स्पर्श कर सकें तो कायाकल्प हो जाए। परमात्मा का आत्मा के साथ पिता पुत्र का संबंध है। इसीलिए शास्त्रों में मनुष्य को उसका वरिष्ठ राजकुमार कहा गया है और उसका उत्तराधिकारी बताया गया है।
अपने सही स्वरूप की पहचान मनुष्य को आत्मा की त्रिवेणी में स्नान करके पवित्र बनने के पश्चात ही होती है। इसकी उपलब्धि के लिए उपासना, साधना और योग तथा तप का आश्रय लिया जाता है।
अध्यात्म शास्त्रों एवं योगग्रंथों के अनुसार मानवीय काया में नौ द्वार हैं, जिन्हें ऋषियों ने गंधर्व कहा है। ‘षट्चक्रों अर्थात मूलाधार से लेकर सहस्त्रार ब्रह्मरंध्रप्य॑त इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नामक फैली हुई तीन सूक्ष्म नाड़ियाँ गंगा, यमुना और सरस्वती हैं। इन्हें ही आकाशगंगा, मृत्युलोक की गंगा और पातालगंगा कहते हैं । तीनों गंगाओं का जहाँ मिलन होता है, वहीं तीर्थराज प्रयाग का त्रिवेणी संगम है। यह गंगा ही नी द्वारों में रमण कर रही है, इनको स्वच्छ व पवित्र बना रही है।
गंगास्नान का आध्यात्मिक योगपरक आलंकारिक वर्णन न समझ पाने के कारण ही मनुष्य इधर-उधर स्नान करते हुए चंचलमति फिरता रहता है; जबकि मनुष्य के अपने शरीर के भीतर ही त्रिवेणी संगम और तीर्थराज प्रयाग विद्यमान है। शरीर के भीतर मेरुदंड स्थित इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नामक तीन सूक्ष्म नाड़ियाँ हैं, जिन्हें ही गंगा,यमुना एवं सरस्वती कहा जाता है। योगाभ्यासी साधक जब मूलाधार में ध्यान केंद्रित करता है, तब उसे मर्त्यलोक की गंगा का ज्ञान होता है। इसके बाद जब ध्यान नाभिचक्र एवं हृदयचक्र में केंद्रित होता है, तब आकाशगंगा का उद्घाटन होता है। तदुपरांत जब योगाभ्यासी आत्मसमाधि अवस्था में आज्ञाचक्र में ध्यान लगाता है तो वह प्रयागराज के त्रिवेणी संगम में पहुँच जाता है। इससे आगे जब ध्यान का केंद्रीकरण ब्रह्मरंध्र में होता है, तब ब्रहणलोक की गंगा का ज्ञान होता है।
आध्यात्मिक गंगास्नान के इस रहस्य को यदि समझा जा सके तो निश्चित ही हर साधक जीवन को धन्य बना सकता है।