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: पीपल पर रविवार को जल क्यों नहीं चढ़ाते ? – क्या है, इसके पीछे कथा ? – ऐसी जानकारी, जो और कहीं बहुत मुश्किल से मिलेगी –

Why should not we touch और Worship Peepal (Peepul · The pipal or holy fig-tree, ficus religios) Trees on Sunday ? – Some Interesting & RARE KNOWLEDGE :

  1. गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है, कि “मैं वृक्षों में पीपल हूं।” पीपल के जड़ में ब्रह्मा जी, बीच में भगवान विष्णु और सबसे ऊपरी भाग में शिव का वास होता है। वहीं स्कंदपुराण के अनुसार, पीपल के जड़ में विष्णु, बीच में श्रीकृष्ण, डालियों में भगवान विष्णु और फलों में सभी देवताओं का निवास होता है। इसके अलावा आम जीवन में भी वृक्षों में देव-वास की अवधारणा की बात कही गई है। इसी कारण, धार्मिक दृष्टिकोण से भी पीपल के वृक्ष को देवता मानकर पूजा जाता है। यह सुख सम्पत्ति, धन-धान्य, ऐश्वर्य, संतान सुख तथा सौभाग्य प्रदान करने वाला है। इसकी पूजा करने से ग्रह पीड़ा, पितरदोष, काल सर्प योग, विष योग तथा अन्य ग्रहों से उत्पन्न दोषों का निवारण हो जाता है।
  2. शास्त्रों के मुताबिक शनिवार को पीपल के वृक्ष में लक्ष्मी का वास होता है। इस दिन पीपल में जल चढ़ाना बेहद शुभ माना गया है। लेकिन वहीं दूसरी ओर शास्त्रों में रविवार के दिन पीपल में जल चढ़ाना निषेध बताया गया है। माना जाता है कि इस दिन पीपल में जल देने से धन की हानि होती है और पैसों की तंगी बनी रहती है। इसके अलावा, पीपल के पेड़ को काटना भी धार्मिक दृष्टि से अशुभ माना गया है।
    रात में पीपल की पूजा को निषिद्ध माना गया है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि रात्री में पीपल पर दरिद्रा बसती है और सूर्योदय के बाद पीपल पर लक्ष्मी का वास माना गया है।
  3. एक कथा :
    एक कथा के अनुसार, मां लक्ष्मी और उनकी छोटी बहन दरिद्रा श्री विष्णु के पास गई और उनसे बोली कि जगत के पालनहार कृपया हमें रहने का स्थान दें। इस बात पर विष्णु बोले, कि आप दोनों लोग पीपल के वृक्ष पर निवास करों। इस तरह, दोनों बहने उस वृक्ष में निवास करने लगी। इसी साथ पीपल ने विष्णु से यह वरदान प्राप्त कर दिया कि जो शनिवार के दिन मेरी पूजा करे, उसके ऊपर लक्ष्मी हमेशा खुश रहेगी और उनकी कृपा उसपर हमेशा बना रहेगी।
  4. रविवार को पूजा न करने के पीछे का कारण :
    एक बार विष्णु भगवान ने माता लक्ष्मी से विवाह करना चाहा तो लक्ष्मी माता ने इंकार कर दिया, क्योंकि उनकी बड़ी बहन दरिद्रा का विवाह नहीं हुआ था। उनके विवाह के बाद ही वह श्री विष्णु से विवाह कर सकती थी। इसलिए माता लक्ष्मी ने अपनी बहन दरिद्रा से पूछा कि वो कैसा वर पाना चाहती हैं। तो वह बोली कि वह ऐसा पति चाहती हैं जो कभी पूजा-पाठ न करे व उसे ऐसे स्थान पर रखे जहां कोई भी पूजा-पाठ न करता हो।
    भगवान विष्णु ने उनके लिए ऋषि नामक वर चुना और दोनों विवाह सूत्र में बंध गए। अब दरिद्रा की शर्त के अनुसार ही उन दोनों को ऐसे स्थान पर वास करना था, जहां कोई भी धर्म कार्य न होता हो। ऋषि उसके लिए उसका मन भावन स्थान ढूंढने निकल पड़े, लेकिन उन्हें कहीं पर भी ऐसा स्थान न मिला। अधिक समय बीत जाने के बाद ऋषि के वापस न आने पर दरिद्रा उनके इंतजार में विलाप करने लगी।
    भगवान विष्णु ने दुबारा लक्ष्मी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो लक्ष्मी जी बोली, कि जब तक मेरी बहन की गृहस्थी नहीं बसती, मैं विवाह नहीं करूंगी। इस बात पर भगवान विष्णु को समझ नही आया, कि ऐसा कौन सी जगह ढूढे, जहां पर कोई धर्म न हो। धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां कोई धर्म कार्य न होता हो। इसलिए, भगवान विष्णु ने अपने निवास स्थान पीपल को रविवार के लिए दरिद्रा और उसके पति को दे दिया। इसी कारण, हर रविवार पीपल के नीचे देवताओं का वास न होकर दरिद्रा का वास होता है। इसी कारण इस दिन पीपल की पूजा वर्जित मानी जाती है।
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    🌻🌻कृष्णं वन्दे🌻🌻
    ‼🔱 प्रस्तुती – मंत्र समुह🔱‼
    🚩🕉 जय श्री राम 🕉🚩
    🌹 ॐ नमः शिवाय 🌹 प्रतिदिन स्मरण करें योग्य शुभ सुंदर मंत्र। संग्रह

📿 महा मृत्युंजय मंत्र 📿
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्णा कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
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🌸 गायत्री मंत्र 🌸
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

🔹 प्रात: कर-दर्शनम्🔹
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

     *🔸पृथ्वी क्षमा प्रार्थना🔸*

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥

🔺त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण🔺
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

          *♥ स्नान मन्त्र ♥*

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

       *🌞 सूर्यनमस्कार🌞*

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च
आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।
दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्
सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥
ॐ मित्राय नम:
ॐ रवये नम:
ॐ सूर्याय नम:
ॐ भानवे नम:
ॐ खगाय नम:
ॐ पूष्णे नम:
ॐ हिरण्यगर्भाय नम:
ॐ मरीचये नम:
ॐ आदित्याय नम:
ॐ सवित्रे नम:
ॐ अर्काय नम:
ॐ भास्कराय नम:
ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

            *🔥दीप दर्शन🔥*

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥
दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

       *🌷 गणपति स्तोत्र 🌷*

गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।
द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥
विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।
द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥
विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।
विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय।
लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय।
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥

    *⚡आदिशक्ति वंदना ⚡*

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

       *🔴 शिव स्तुति 🔴*

कर्पूर गौरम करुणावतारं,
संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।
सदा वसंतं हृदयार विन्दे,
भवं भवानी सहितं नमामि॥

          *🔵 विष्णु स्तुति 🔵*

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

        *⚫ श्री कृष्ण स्तुति ⚫*

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।
नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥
सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्‌।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्‌॥

        *⚪ श्रीराम वंदना ⚪*

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

           *♦श्रीरामाष्टक♦*

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥
हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥

*🔱 एक श्लोकी रामायण 🔱*

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥

       *🍁सरस्वती वंदना🍁*

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा माम पातु सरस्वती भगवती
निःशेषजाड्याऽपहा॥

        *🔔हनुमान वंदना🔔*

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्‌।
दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्‌।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्‌।
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

     *🌹 स्वस्ति-वाचन 🌹*

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

       *❄ शांति पाठ ❄*

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:,
पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

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‼मंत्र : ओम भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्‌।‼

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‼सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते‼

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आप सभी का दिन शुभ व मंगलमय हो
🌹 ॐ नमः शिवाय 🌹
🌹 जय श्री कृष्ण 🌹
🙏🏼 हर हर महादेव 🙏🏼 ऋणमोचन मंगल स्तोत्र पठन से लाभ और इसके पिछे रहस्य क्या है–

      कुछ लोग दावा करते हैं कि शुद्धपूत स्थिति में श्रद्धा व विश्वास के साथ कुछ दिन "ऋणमोचन मंगल स्तोत्र" पठन करने से नित्य बढ़ती हुई ऋण का मोचन यानी परिशोध होकर निस्तार मिल जाता है। ये क्या वास्तव क्षेत्र में सम्भव है ! सिर्फ स्तोत्र पठन कर बैठ जाने से क्या मंगल जी कंहा से प्रकट होकर ऋण परिशोध के लिए कुवेर खजाने से हमारे रिक्त धन भंडार को भरने की चमत्कार कर सकते हैं !!

    ऋण है बहुत किसम का। पितृ, मातृ, देव, गुरु बगैर कर्त्तुक प्राप्त "ऋण" का मोचन या परिशोध तो जिंदगी भर एक रकम असम्भव है। किन्तु किसी से 'धन' अथवा किसी 'वस्तु' उधार या कर्ज लेने से जो लौकिक या कानूनी ऋण बन जाता है, इसको परिशोध करने के लिए कंहा बैठकर सिर्फ प्रोक्त स्तोत्र पठन करें तो फायदा क्या है, जरा वास्तव दृष्टिकोण से सोचिए।।

    धन, सन्तान, भूमि में समृद्धि, धर्य- साहस वृद्धि और शत्रु, आधीव्याधि, ऋण, कष्ट, परेशानी वृद्धि से मुक्त (ऋणमोचन) रहकर सुख- शांति के साथ निरूपद्र्व जीवनचर्या करने के लिए ही प्रोक्त स्तोत्र है। समृद्ध जीवन रक्षण की लक्ष्य में मानव समाज के लिए और भी अनेक पारम्परिक धर्मीय नित्याचार विधि मुनिरुषीओं से हमको उपलब्ध है। इसलिए शांति- सुख रक्षण के लिए ही ऋणमोचन मंगल स्तोत्र उल्लिखित।।

  इस आलोचना का असली मतलब है कि ऋण किया है तो परिशोध के लिए कठिन मेहनत करो, मन- ध्यान लगाकर उचित मार्ग में अधिक से अधिक उपार्जन बढ़ाने की कोसिस चालू रखो, जितने तकलीफ सहना पड़े भी-- खर्च को घटाकर रोजगार से धन संचय करो और बस.. उधार या कर्ज परिशोध करके ऋण मुक्त हो जाओ।। अस्तु।।

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  ।।ऋणमोचन मंगल स्तोत्रम।।

मङ्गलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रदः।
स्थिरासनो महाकायः सर्वकर्मविरोधकः ॥१॥

लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां कृपाकरः।
धरात्मजः कुजो भौमो भूतिदो भूमिनन्दनः॥२॥

अङ्गारको यमश्चैव सर्वरोगापहारकः।
व्रुष्टेः कर्ताऽपहर्ता च सर्वकामफलप्रदः॥३॥

एतानि कुजनामानि नित्यं यः श्रद्धया पठेत्।
ऋणं न जायते तस्य धनं शीघ्रमवाप्नुयात्॥४॥

धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं प्रणमाम्यहम्॥५॥

स्तोत्रमङ्गारकस्यैतत्पठनीयं सदा नृभिः।
न तेषां भौमजा पीडा स्वल्पाऽपि भवति क्वचित्॥६॥

अङ्गारक महाभाग भगवन्भक्तवत्सल।
त्वां नमामि ममाशेषमृणमाशु विनाशय॥७॥

ऋणरोगादिदारिघ्र्यं ये चान्ये ह्यपमृत्यवः।
भयक्लेशमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥८॥

अतिवक्त्र दुरारार्ध्य भोगमुक्त जितात्मनः।
तुष्टो ददासि साम्राज्यं रुश्टो हरसि तत्क्षणात्॥९॥

विरिंचिशक्रविष्णूनां मनुष्याणां तु का कथा।
तेन त्वं सर्वसत्त्वेन ग्रहराजो महाबलः॥१०॥

पुत्रान्देहि धनं देहि त्वामस्मि शरणं गतः।
ऋणदारिद्रयदुःखेन शत्रूणां च भयात्ततः॥११॥

एभिर्द्वादशभिः श्लोकैर्यः स्तौति च धरासुतम्।
महतिं श्रियमाप्नोति ह्यपरो धनदो युवा॥१२॥

        इति श्रीस्कन्दपुराणे भार्गवप्रोक्तं ऋणमोचक मङ्गलस्तोत्रम् सम्पूर्णम्।।

             सत्यमेव जयते।।
     जय जगननाथ।। ॐ शांतिः।।

[ जानिए पूजास्थल पर क्यों नहीं रखते मृत पूर्वजों के चित्र?

हमारे हिन्दू धर्म में आस्था का बहुत ही ख़ास महत्व है, यहाँ लोग प्रत्येक दिन की पूजा को जरूरी एवं महत्वपूर्ण मानते है। ऐसा विश्वास है की हर रोज करने से भगवान प्रसन्न होते है, तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है साथ ही ऐसा करने से मन को शांति प्राप्त होती है।

भगवान की पूजा में उचित एवं उत्तम समानो को प्रयोग में लाना इसका भी ध्यान रखा जाता है,तथा इसके बाद यदि पूजा के लिए कोई महत्वपूर्ण चीज़ होती है तो वह है ऐसा स्थान जहा पर भगवान की पूजा करी जाती है।जैसे की मंदिर या हमारे घरों में ही बनाए गए भगवान की पूजा के लिए स्थल ।

यह पवित्र हो, कोई अशुद्ध वस्तु यहां ना हो, इस बात का ध्यान रखा जाता है। घर के मंदिर में रोज़ाना परिवार-जन एकत्रित होकर पूजा करना सही मानते हैं और अंत में भगवान को भोग लगाकर सभी में बांटा भी जाता है.हिन्दू घरों में पूजा घर को हमेशा साफ एवं सुगंधित बनाए रखने के प्रयास किए जाते हैं।

लेकिन इसके अलावा भी ऐसी कई बातें हैं जिनसे अनजान हैं लोग। पूजा घर को सजाने के लिए वे हर प्रकार की वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, जो उनके हिसाब से तो सही होती हैं लेकिन शास्त्रों के अनुसार वे अशुभ हैं। हिन्दू परिवारों के अमूमन पूजा घरों में आप भगवान की मूर्तियों के अलावा कुछ तस्वीरें भी पाएंगे.

ये तस्वीरें देवी-देवता की भी होती हैं और इसके अलावा जो लोग संत-महात्मा पर विश्वास करते हैं, वे उनकी तस्वीर भी पूजा घर में लगाते हैं। लेकिन इसके अलावा कुछ लोग अपने मृत पूर्वज या फिर परिजनों की तस्वीर भी पूजा घर में लगाते हैं।

ऐसा कभी ना करें…. शास्त्रों एक अनुसार कभी भी पूजा घर में मृत हो चुके व्यक्ति की कोई भी वस्तु या तस्वीर तो बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए।

यह शास्त्रों की दृष्टि में अशुभ है, इससे आपकी पूजा बेकार होती है और घर-परिवार पर संकट भी आते हैं।कुछ लोग जो अपने मृत परिजनों को बेहद प्रेम करते हैं, वे उनके चले जाने के बाद उन्हें सम्मान देने हेतु मंदिर में उनकी तस्वीर लगाते हैं।

लेकिन वास्तु शास्त्र के अनुसार ऐसा नहीं करना चाहिए। ना केवल पूजा घर में अन्य मूर्तियों के साथ, वरन् पूजा घर की दीवारों पर भी मृत परिजनों की तस्वीर नहीं होनी चाहिए। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से देवी-देवता क्रोधित हो जाते हैं।

वास्तु के अनुसार घर का पूजा स्थल हमें उत्तर-पूर्व दिशा में होना चाहिए। यदि इसमें नहीं तो आप केवल उत्तर या पूर्व दिशा भी चुन सकते हैं, किंतु उत्तर-पूर्व दिशा पूजा घर के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वास्तु शास्त्र में मर चुके परिवार के लोगों की तस्वीर कभी भी इन तीन दिशाओं में नहीं लगानी चाहिए।

मृत परिजनों की तस्वीरों को लगाने के लिए घर की दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम एवं पश्चिम दिशा ही चुनी जानी चाहिए। यदि इसके अलावा किसी अन्य दिशा में मृत परिजनों की तस्वीर लगाई जाए तो यह घर में नकारात्मक ऊर्जा को लेकर आता है। जो सबसे पहले परिवार के लोगों की मानसिक अवस्था पर अटैक करता है।

अब जब पूजा स्थल उत्तर-पूर्व दिशा में विराजमान हो, तो यहां मृत परिजन की तस्वीर लगाना बिलकुल भी सही नहीं है। यह घर वालों के लिए ही बुरा सिद्ध हो सकता है। लेकिन ना केवल वास्तु शास्त्र में वरन् देवी-देवता से जुड़ी मान्यताओं में भी देव-मूर्तियों के साथ परिवार के सदस्यों की तस्वीर लगाना गलत है।

कुछ लोग जो अपने माता-पिता या अपने से बड़ों से भगवान से भी अधिक प्रेम करते हैं, उन्हें मानते हैं, वे उनकी पूजा करना आरंभ कर देते हैं। उनकी तस्वीर को पूजा घर में स्थापित कर रोज़ाना उनकी पूजा करते हैं, लेकिन ऐसा करके वे देवी-देवताओं को क्रोधित करते हैं।

ऐसा कहा गया है कि कोई भी आम मनुष्य़ देवी-देवताओं से ऊपर नहीं हो सकता। भगवान का स्थान हमेशा उच्च है और उच्चतम ही रहेगा। इसलिए उनकी बराबरी में ज़िंदा या फिर मर चुके परिवार के लोगों की तस्वीर रखकर पूजा नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से देवी-देवता रुष्ट होकर मनोकामना की पूर्ति कभी नहीं करते।

लेकिन फिर भी यदि कोई मन से परिवार के किसी सदस्य की तस्वीर पूजा घर में रखना भी चाहे, तो उसे भगवान की मूर्ति या तस्वीर से नीच रखें। देवी-देवता की तस्वीर के बिलकुल बराबर ना रखें। किंतु यह केवल मान्यता है, वास्तु शास्त्र के अनुसार तो पूजा घर में मृत परिजनों की तस्वीर रखनी ही नहीं चाहिए.
[ 🌷🌷ॐ ह्लीं पीताम्बरायै नमः🌷🌷
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इन्हें मानोगे तो संकट से दूर रहोगे- हिंदू नियम
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१-प्रत्येक तीन माह में घर में गीता पाठ करना चाहिए।
२-प्रतिदिन संध्या वंदन, प्रार्थना और ध्यान करना चाहिए।
३-प्रति गुरुवार को मंदिर जाना जरूरी है। मंदिर के नियमों का पालन करें।
४-तेरस,चौदस, अमावस्या और पूर्णिमा को पवित्र और शांत बने रहे।
५-वर्ष के व्रत में नवरात्र और श्रावण मास, माह के व्रतों में एकादशी और प्रदोष ही श्रेष्ठ है।
६-किसी भी प्रकार का व्यवसन करने से देवता साथ छोड़ देते हैं।
७-तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ चार धाम ही है। वही की यात्रा का फल है।
८- प्रतिदिन हनुमान पूजा से हर तरह के ग्रह, पित्त और सर्प दोष शांत रहते हैं
९-प्रति दिन संध्या काल में घर में गुड़-घी की धूप दें या कपूर जलाएं।
१०-पूर्व, उत्तर और ईशान का मकान ही उत्तम होता है।
११-कुत्ते गाय और चिड़ियों को अन्न देते रहें। दान दें लेकिन किसे और कहां यह जरूर सोचे।
१२-पंच यज्ञ का पालन करें-ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, वैश्व यज्ञ और अतिथि यज्ञ। इससे देव ऋण ऋषि ऋण और पित्त ऋण चुकता होता है।
१३-प्रायश्चित करना, सेवा करना और सोलह संस्कारों का पालन करना जरूरी है।
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🌷🌷जय मां पीताम्बरा🌷🌷
ओ३म्

“स्वाध्याय क्यों करना चाहिये?”

मनुष्य को मनुष्य इस लिये कहा जाता है कि यह मननशील प्राणी है। पशुओं और मनुष्यों में ईश्वर ने यह भेद किया है कि पशु मनुष्य की भांति मनन व चिन्तन आदि नहीं कर सकते। मनन व चिन्तन करने के लिये मनुष्य को एक उत्कृष्ट भाषा की आवश्यकता होती है और इसके साथ ही सद्ज्ञान की आवश्यकता भी होती है। यदि परमात्मा ने भाषा और वेदों का ज्ञान न दिया होता तो मनुष्य भाषा के अभाव में विचार व चिन्तन नहीं कर सकता था। परमात्मा को इस बात का ज्ञान था, अतः उसने सृष्टि के आरम्भ काल में ही सृष्टि को बनाने के बाद अमैथुनी सृष्टि में मनुष्य को उत्पन्न किया और उन्हें अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों का बोध कराने के लिये वेदों का ज्ञान दिया जो वैदिक संसार की सबसे उत्कृष्ट भाषा संस्कृत में है। यह वैदिक संस्कृत भाषा ही संसार की सभी भाषाओं की जननी है। भाषा और ज्ञान का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। भाषा में ही ज्ञान निहित होता है। यदि भाषा न हो तो ज्ञान भी नहीं होता। इसी कारण जब बच्चा कुछ-कुछ समझने लगता है तो माता-पिता उसे विद्यालय वा पाठशाला में भेजते हैं जहां उसे प्रथम भाषा का ज्ञान कराया जाता है। भाषा के ज्ञान के साथ साधारण ज्ञान पुष्प, फलों, पशुओं एवं साधारण चीजों के चित्र दिखाकर भी ज्ञान कराया जाता है। इस ज्ञान के लिये भी भाषा का होना आवश्यक होता है।

संसार में सबसे महत्वपूर्ण यह जानना है कि यह संसार किसने बनाया और किसके लिया बनाया है। संसार को क्यों बनाया गया, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं। आश्चर्य है कि संसार में भौतिक पदार्थों की प्राप्ति वा धन वैभव के लिये ही मनुष्य रात दिन पुरुषार्थ करता है और इन्हीं कार्यों को करते हुए अपना जीवन गवां देता है। उसे कभी इस संसार की रचना करने वाले परमात्मा और अपनी आत्मा एवं इस जैसी असंख्य आत्माओं जिनके लिये यह संसार बनाया गया है, उसे जानने के लिये अवसर ही नहीं मिलता है। यदि मनुष्य इन विषयों में जानना भी चाहे तो यह काम आसान नहीं है। संसार में अनेक अविद्यायुक्त मत-मतान्तर प्रचलित हैं। संसार के सभी लोग इन मत-मतानतरों के अनुयायी अपने-अपने माता-पिता के विश्वासों के अनुसार ही बन जाते हैं। यह मत-मतान्तर ईश्वर, जीवात्मा, संसार, मनुष्य के कर्तव्य, मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य तथा इनकी प्राप्ति आदि के उपायों को न तो स्वयं जानते हैं न अपने अनुयायियों को इन्हें जानने की स्वतन्त्रता देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य जन्म लेकर स्कूली शिक्षा प्राप्त करता है और इसके बाद धनोपार्जन, विवाह, सन्तानोत्पत्ति, सन्तानों की शिक्षा व उन्हें गृहस्थी बनाने को ही अपना प्रमुख उद्देश्य व कर्तव्य मानकर इस संसार से विदा हो जाता है। उसे यह पता नहीं चलता कि उसका जन्म किस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हुआ था। उस ओर हमारे अविद्यायुक्त मत-मतान्तर मनुष्य का ध्यान जाने ही नहीं देते। वैदिक धर्मियों का यह सौभाग्य है कि वह जीवन के सभी पहलुओं को यथार्थरूप में जानते हैं एवं उनके अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करने का प्रयास भी करते हैं। उनकी भावना है कि संसार के सभी लोग ईश्वर, जीवात्मा तथा इस जड़ भौतिक जगत को यथार्थ रूप में जानकर अपने वास्तविक कर्तव्यों ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों की सेवा-सत्कार सहित सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखते हुए किसी की अकारण हिंसा न करें। स्वयं भी सुखपूर्वक जीवें और अन्य प्राणियों को भी जीनें दें। वेदाज्ञा का पालन कर अपने इहलोक तथा परलोक को सफल बनायें। ऐसा करने से ही मनुष्य जीवन सफल होता है। सभी मनुष्यों को राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, श्रद्धानन्द, लेखराम, गुरुदत्त, हंसराज आदि महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये। इसके लिये इन महापुरुषों के जीवन चरितों का अध्ययन करना होगा। इससे मनुष्य जीवन का महत्व जाना जा सकता है और अपने जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर कर उसे लक्ष्य की ओर ले जाया जा सकता है।

अपने जीवन के अनुभव के आधार पर हम यह सम्रझते हैं कि मनुष्य को अपनी मातृभाषा सहित अन्य भाषायें पढ़ते हुए वैदिक संस्कृत भाषा का व्याकरण अवश्य पढ़ना चाहिये जिससे वह ईश्वरीय ज्ञान चार वेदों सहित अपने पूर्वज ऋषियों के दर्शन, उपनिषद व अन्य ग्रन्थों को पढ़ कर सत्य ज्ञान को प्राप्त कर सके। यदि हम संस्कृत नहीं पढ़ेगे तो हमें इन ग्रन्थों के अनुवादों पर निर्भर रहना पड़ेगा जिससे वह लाभ नहीं होगा जो संस्कृत भाषा का व्याकरण पढ़कर वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से होता है। ऋषि दयानन्द के समय में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन प्रायः बन्द हो चुका है। ऋषि दयानन्द ने जहां-जहां जिस प्रकार से संस्कृत व्याकरण, भाषा और वैदिक साहित्य का अध्ययन किया वह आश्चर्यजनक है। आर्ष संस्कृत व्याकरण पाणिनी की अष्टाध्यायी तथा ऋषि पतंजलि के महाभाष्य सहित महर्षि यास्क के निरुक्त एवं निघण्टु आदि अनेक ग्रन्थों को पढ़कर ऋषि दयानन्द वैदिक सहित्य के भीतर गहराई से प्रविष्ट हुए। उन्होंने विपुल वैदिक साहित्य भण्डार के जो सत्यार्थ प्राप्त किये वह उनसे पूर्व किसी विद्वान को प्राप्त नहीं हुए थे। इसका कारण यह है कि वैदिक आध्यात्मिक एवं सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये जो पुरुषार्थ ऋषि दयानन्द जी ने किया, वैसा पुरुषार्थ करते हुए हम अन्य किसी विद्वान व धर्माचार्य को नहीं पाते। ऋषि दयानन्द ने योगाभ्यास के माध्यम से ईश्वर साक्षात्कार करने सहित ईश्वर, जीव, प्रकृति एवं वेद के ज्ञान को यथार्थ रूप में जानकर उसे अपने जीवन व आचरण में धारण किया था।

संसार के कल्याण के लिये ऋषि दयानन्द ने वेद एवं वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार तथा धर्म के नाम पर अविद्या का खण्डन करना उचित समझा। उनका सारा जीवन ही आध्यात्मिक जगत की सच्चाईयों सहित मनुष्यों के वैदिक ज्ञान के आधार पर आचरण के सुधार में व्यतीत हुआ और इसी कार्य को करते हुए उन्होंने अपने जीवन का बलिदान किया। सत्य ज्ञान के प्रचार के लिये उन्होंने अपना सारा जीवन लगाया। वह मौखिक रूप से प्रवचन, उपदेश एवं व्याख्यानों द्वारा प्रचार तो करते ही थे, इसके साथ वार्तालाप, शंका-समाधान, शास्त्र-चर्चा सहित शास्त्रार्थ आदि के द्वारा भी उन्होंने ईश्वर प्रदत्त वेदों की सत्य मान्यताओं का प्रचार किया। वह जिन मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करते थे उसको स्थायीत्व देने के लिये उन्होंने वैदिक मान्यताओं को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, वेदविरुद्धमत खण्डन, गोकरुणानिधि आदि अनेक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया जो आज भी हमारा मार्गदर्शन करता है और आशा है कि सृष्टि की प्रलय तक वा सुदीर्घकाल तक सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता की पूर्ति करता रहेगा। महर्षि दयानन्द ने संस्कृत भाषा के प्रचार के लिये अपने जीवन काल में कुछ स्थानों पर संस्कृत पाठशालाओं की स्थापनायें भी की थीं।

वेदों का संगठित रूप से प्रचार करने के लिये उन्होंने श्रेष्ठ समाज अर्थात् आर्यसमाज की स्थापना भी 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी। आर्यसमाज से पूरा विश्व एवं सभी मत-मतान्तर लाभान्वित हुए हैं। उन्हें अपनी मान्यताओं को तर्क व युक्ति के आधार पर स्थापित करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने अपनी मान्यताओं को तर्क पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास भी किया है परन्तु झूठ को तर्क से सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस कारण उन्हें इस कार्य में पूर्ण सफलता मिलना सम्भव नहीं था। वेदों के प्रकाश में आर्यसमाज ने सनातन धर्म की मान्यताओं में सुधार करने का पूरा प्रयत्न किया और इस कारण उसने असत्य व अज्ञान पर आधारित मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध तथा अवतारवाद के सिद्धान्त का त्याग किया। इसके साथ ही आर्यसमाज ने सामाजिक असमानता, छुआछूत, ऊंच-नीच, अन्याय व पक्षपात का भी विरोध किया। स्त्री-शूद्रों सहित मानवमात्र को वेदाधिकार प्रदान किया। पूर्ण युवावस्था में गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर जांति-पांति के भेदभावों से रहित वर-वधू की सहमति से विवाह आदि का प्रचार कर उसे समाज में स्थापित किया। आर्यसमाज ने बताया कि वर्णव्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर मनुष्य के ज्ञान व बल सहित उसके आचरण व चरित्र आदि की योग्यता के आधार पर होती है। एक अनपढ़ व विद्याहीन मनुष्य ब्राह्मण कदापि नही हो सकता। वैश्य के लिये वाणिज्य, व्यापार व कृषि कार्यों में दक्ष होने सहित इन कार्यों को करने वाला भी होना चाहिये। क्षत्रिय भी वही हो सकता है कि जो ज्ञान व बल में उत्तम हो तथा देश व समाज की रक्षा के लिये सेना, सुरक्षा बलों व पुलिस आदि विभागों में कार्य करता हो। शूद्र का अर्थ आज की परिस्थितियों में ज्ञान व शिक्षा की कमी वाला ऐसा मनुष्य जो श्रम के कार्य करता है, उस श्रमिक को कह सकते हैं। यह व्यक्ति किसी भी वर्ण या परिवार में जन्मा हुआ हो सकता है। गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित सभी वर्ण व मनुष्य देश व समाज को उन्नति की ओर ले जाते हैं जिससे सबका हित व कल्याण निहित होता है। आर्यसमाज यह भी मानता है कि जिस प्रकार से सभी डाक्टरों के बेटे डाक्टर तथा इंजीनियरों क पुत्र इंजीनियर नहीं होते, उसी प्रकार से यह आवश्यक नहीं है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य आदि के सभी पुत्र व पुत्रियां भी उन्हीं के वर्णों के अनुरुप हों। वेदपाठी व वेदज्ञानी ब्राह्मण के उस पुत्र को जो वेदाध्ययन से शून्य है, उससे पिता वाले कार्य नहीं लिये जा सकते। इस कारण से दोनों का वर्ण एक नहीं हो सकता। हमने इन पंक्तियों को लिखते हुए, स्वाध्याय के महत्व से इतर कुछ सार्थक चर्चायें भी की हैं जिससे पाठक वैदिक विचारधारा को समझ सकें व उसे ग्रहण कर सकें।

मनुष्य को अपने स्कूल व कालेज के अध्ययन के साथ अपने भीतर वैदिक साहित्य के अध्ययन की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिये। यदि यह कार्य बाल जीवन से ही आरम्भ हो जाये तो अच्छा है अन्यथा युवावस्था से तो वेद व वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय को नियमित रूप से आरम्भ करना चाहिये। जो व्यक्ति जितना अधिक स्वाध्याय करेगा उसे उतना ही लाभ होगा। आज स्वाध्याय के लिये सहस्रों की संख्या में उत्तम ग्रन्थ विद्यमान हैं। स्कूलों व कालेजों में अध्ययन करते हुए इनके नाम का बोध तक नहीं कराया जाता। ऐसा मत-मतान्तरों के भय से हमारे राजनीतिक नेता नहीं करते। वोट बैंक भी ऐसा करने से उन्हें रोकता व डराता रहा है। ऐसे कार्यों से मनुष्यता का कल्याण नहीं हो सकता। विज्ञान की तरह आध्यात्मिक ज्ञान भी सर्वत्र एक समान व एक प्रकार का ही होता है। सभी मतों के धार्मिक व सामाजिक नियम प्रायः समान ही होने चाहिये तभी उनके सभी अनुयायियों को लाभ हो सकता है। वेदों व वैदिक साहित्य में ईश्वर व जीवात्मा आदि के जिस सत्यस्वरूप का ज्ञान होता है, वह मत-मतान्तरों की पुस्तकों में न होने से उनके अनुयायियों को इस विषय के सत्यज्ञान से वंचित होना पड़ता है। अतः सबको सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में तत्पर रहना चाहिये। सत्य को ग्रहण करना व कराना ईश्वर की आज्ञा का पालन है। हमें इस कारण वेद, वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द एवं वैदिक विद्वानों के साहित्य का अध्ययन व स्वाध्याय करना है जिससे हम अपने आत्मा, मन व बुद्धि सहित अपने अन्तःकरण का पूर्ण विकास कर सकें। यदि हम न्यूनतम प्रतिदिन एक घंटा स्वाध्याय का व्रत व संकल्प कर लें तो हम प्रतिदिन 10 पृष्ठ तो पढ़ ही सकते हैं। ऐसा करने से हम एक वर्ष में 3650 पृष्ठ आसानी से पढ़ सकते हैं। इस प्रकार अध्ययन करने से हम प्रतिवर्ष 500 पृष्ठों के सात या आठ ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं। इससे अनुमान लगा सकते हैं कि हम ज्ञान की दृष्टि से कहां से कहां तक दूरी तय कर सकते हैं। जो व्यक्ति स्वाध्याय नहीं करता उसकी तुलना में स्वाध्याय करने वाला मनुष्य कहीं अधिक अपनी आत्मा व बुद्धि का विकास करने में सफल होता है, यह प्रत्यक्ष है।

स्वाध्याय एवं अध्ययन करने से ज्ञान की भूख व पिपासा में वृद्धि होती जाती है। हमने अपने जीवन में प्रतिदिन सात-आठ घण्टों तक स्वाध्याय किया है। जिस पुस्तक का अध्ययन आरम्भ करते थे उसे अन्त तक पढ़कर उसके बाद दूसरी पुस्तक आरम्भ करते थे। वर्षों तक हमने ऐसा किया है। जो लोग वृद्धावस्था में अध्ययन की योजना बनाते हैं उनका वह मनोरथ सिद्ध होने की आशा कम ही होती है। अनेक रोगों व शारीरिक बल की कमी के कारण अध्ययन नहीं हो पाता। वृद्धावस्था में आंखों में भी विकार आ सकते हैं व आ जाते हैं। वृद्धावस्था में अध्ययन करते भी हैं, तो तब शेष जीवन कुछ वर्षों का ही बचता है जिससे उतना लाभ नहीं होता जो युवावस्था में स्वाध्याय करने से होता है। हमें प्रयास करना चाहिये कि हम जीवन के आरम्भ के दिनों में ही सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, 6 दर्शन, 11 उपनिषद, खगोल ज्योतिष, विशुद्ध मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, महाभारत सहित चार वेदों पर ऋषि दयानन्द सहित पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार एवं आचार्य डॉ0 रामनाथवेदालंकार आदि आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों को पढ़ ले। इससे आत्मा की उन्नति होने सहित जीवन का कल्याण भी होगा। ईश्वर का सहाय मिलेगा जिससे व्यवसाय आदि में उन्नति एवं सन्तानों की शिक्षा एवं शिक्षणेत्तर जीवन में भी उन्नति की आशा बनती है। इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

पृथ्वी पर विभिन्न प्रजातियाँ और पुनर्जन्म

इस पृथ्वी पर एककोशिकीय, बहुकोशिकीय, थल चर, जल चर तथा नभ चर आदि कोटि के जिव मिलते है। इनकी न केवल संख्या अपितु वर्गीकरण की जानकारी भी हमें पद्म पुराण में मिलती है ।

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित संस्कृत भाषा में रचे गए अठारण पुराणों में से एक और सभी अठारह पुराणों की गणना में द्वितीय स्थान प्राप्त तथा श्लोक संख्या की दृष्टि से भी इसे द्वितीय स्थान प्राप्त है।महर्षि वेदव्यास महाभारत के समय अर्थात लगभग 5000 ईसापूर्व थे अर्थात आज से 7000 वर्ष पूर्व (लगभग)

पदम् पुराण में एक श्लोक मिलता है

जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यकः
पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशवः, चतुर लक्षाणी मानवः
जलज/ जलीय जिव/जलचर (Water based life forms) – 9 लाख (0.9 million)
स्थिर अर्थात पेड़ पोधे (Immobile implying plants and trees) – 20 लाख (2.0 million)
सरीसृप/कृमी/कीड़े-मकोड़े (Reptiles) – 11 लाख (1.1 million)
पक्षी/नभचर (Birds) – 10 लाख 1.0 million
स्थलीय/थलचर (terrestrial animals) – 30 लाख (3.0 million)
मानवीय नस्ल के (human-like animals) – 4 लाख 0.4 million
कुल = 84 लाख ।

इस प्रकार हमें 7000 वर्ष पुराने मात्र एक ही श्लोक में न केवल पृथ्वी पर उपस्थित प्रजातियों की संख्या मिलती है वरन उनका वर्गीकरण भी मिलता है ।

आधुनिक विज्ञान का मत :

आधुनिक जीवविज्ञानी लगभग 13 लाख (1.3 million) पृथ्वी पर उपस्थित जीवों तथा प्रजातियों का नाम पता लगा चुके है तथा उनका ये भी कहना है की अभी भी हमारा आंकलन जारी है ऐसी लाखों प्रजातियाँ की खोज, नाम तथा अध्याय अभी शेष है जो धरती पर उपस्थित है । ये अनुमान के आधार पर प्रतिवर्ष लगभग 15000 नयी प्रजातियां सामने आ रही है ।
अभी तक लगभग 13 लाख की खोज की गई है ये लगभग पिछले 200 सालो की खोज है ।

चूँकि पिछले कई दशकों में विज्ञानं ने काफी प्रगति की है इसलिए जीवों के आंकलन की दर भी बढ़ी है और गणितीय तर्कों द्वारा वैज्ञानिकों ने लगभग 87 लाख जीवों के होने की संभावना बताई है। इनमे भी 13 लाख ऊपर निचे हो सकती है । यधपि पर्याप्त जानकारी केवल 13 की ही है।

आधुनिक विज्ञानं का मत पुरे 84 लाख जिव होना आवश्यक भी नही क्यू की जैसा की हम ऊपर देख चुके है की पद्म पुराण में वर्णित ये जानकारी आज से 7000 वर्ष पुरानी है । इसके पश्चात प्रथ्वी पर कई प्रकार के वातावरणीय तथा जैविक बदलाव हुए है । यदि जीवों के संख्या में बढ़ोतरी अथवा कमी पाई जाये तो कोई बड़ी बात नही ।

उपरोक्त तथ्यों से स्पस्ट है की हमारे ग्रंथों में वर्णित ये जानकरी हमारे पुरखों के सेकड़ों वर्षों की खोज है उन्होंने न केवल धरती पर चलने वाले अपितु आकाश में व् अथाह समुद्रों की गहराइयों में रहने वाले जीवों का भी अध्ययन किया ।
निश्चय ही उस समय पनडुब्बीयां(submarine) भी रही होंगी । विमान बना लेने वालों के लिए पनडुब्बी बनाना कोनसी बड़ी बात थी ?

पुनर्जन्म :

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। …गीता २ /२ २

गीता २ .२ २ में भगवान कृष्ण ने कहा है :

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है

८ ४ लाख जीवों में एक मनुष्य ही है जो सबसे उतम बताया गया है इसके अतरिक्त सभी भोग योनि में है । इसी लिए मानवीय जीवन का उपयोग अच्छे कार्यों में लगाने ही हिदायत दी जाती है ।

सर्वप्रथम जीवआत्मा अध्यात्मिक अवस्था में होती है तथा वही जीवआत्मा देह धारण करती है तथा उसी देह द्वारा किया गये उच्च अथवा नीच कर्मों के अनुसार गति को प्राप्त होती है जैसे कोई जिव-जंतु पेड़ पोधा आदि । तथा पूर्ण ८ ४ लाख योनियों में भटकने के पश्चात पुनः मानव शरीर ग्रहण करती है और पुनर्जन्म की प्रक्रिया से बाहर निकलने का एक अवसर और प्राप्त करती है । इस प्रकार मोक्ष प्राप्ति तक इसी कालचक्र में फंसी रहती है ।

  • श्रीमदभागवत 4.29.2

महर्षि कपिल के सांख्यशास्त्र के अनुसार :-

जीव शरीर का निर्माण इस रीति से हुआ कि :-
त्रिगुणात्मक प्रकृति से बुद्धि, अहंकार,मन,
सात्विक अहंकार से पाँच ज्ञानेंद्रिय (चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण, त्वचा),
ताम्सिक अहंकार से पाँच कर्मेंन्द्रिय (वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ, पायु),
पंच तन्मात्र (पृथ्वि, अग्नि, जल, वायु, आकाश )
पाँच विषय (रूप,रस,गंध,स्पर्श,दृष्य)
और इस चौबिस प्रकार के अचेतन जगत के अतिरिक्त पच्चीसवाँ चेतन पुरुष (आत्मा) ।

शरीर के दो भेद हैं :-
सूक्ष्म शरीर जिसमें :- [बुद्धि ,अहंकार, मन ]
स्थूल शरीर जिसमें :-[ पाँच ज्ञानेंद्रिय (चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण, त्वचा), पाँच कर्मेंन्द्रिय (वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ, पायु), पंच तन्मात्र (पृथ्वि, अग्नि, जल, वायु, आकाश ) ]

जब मृत्यु होती है तब केवल स्थूल शरीर ही छूटता है, पर सूक्ष्म शरीर पूरे एक सृष्टि काल (4320000000 वर्ष) तक आत्मा के साथ सदा युक्त रहता है और प्रलय के समय में यह सूक्ष्म शरीर भी अपने मूल कारण प्रकृति में लीन हो जाता है । बार बार जन्म और मृत्यु का यह क्रम चलता रहता है शरीर पर शरीर बदलता रहता है पर आत्मा से युक्त वह शूक्ष्म शरीर सदा वही रहता है जो कि सृष्टि रचना के समय आत्मा को मिला था , पर हर नये जन्म पर नया स्थूल शरीर जीवात्मा को मिलता रहता है । जिस कारण हर जन्म के कुछ न कुछ विषय हमारी शूक्ष्म बुद्धि में बसे रहते हैं और कोई न कोई किसी न किसी जन्म में कभी न कभी वह विषय पुनः जागृत हो जाते हैं जिस कारण वह लोग जिनको कि शरीर परिवर्तन का वह विज्ञान नहीं पता वह लोग इसको भूत बाधा या कोई शैतान आदि का साया समझ कर भयभीत होते रहते हैं । कभी किसी मानव की मृत्यु के बाद जब उसे दूसरा शरीर मिलता है तब कई बार किसी विषय कि पुनावृत्ति होने से पुरानी यादें जाग उठती हैं , और उसका रूप एकदम बदल जाता है और आवाज़ भारी हो जाने के कारन लोग यह सोचने लगते हैं कि इसको किसी दूसरी आत्मा ने वश में कर लिया है , या कोई भयानक प्रेत इसके शरीर में प्रवेश कर गया है । परन्तु यह सब सत्य ना जानने का ही परिणाम है कि लोग भूत प्रेत, डायन, चुड़ैल,परी आदि का साया समझ भय खाते रहते हैं । पृथ्वी के सभी जीवों में यह बात देखी जाती है कि जिस विषय का अनुभव उनको होता है उस विषय कि जब पुनावृत्ति का आभास जब उन्हें होता है तब उनकी बुद्धि उस विषय में सतर्क रहती है । और देखा गया है कि पृथ्वी का हर जीव मृत्यु नामक दुख से भयभीत होता है और बचने के लिये यत्न करता है , वह उस स्थान से दूर चला जाना चाहता है जहाँ पर मृत्यु की आशंका है , उसे लगता है कि कहीं और चले जाने से उसका इस मृत्यु दुख से छुटकारा हो जायेगा । अब यहाँ समझने वाली बात यह है कि किसने उस जीव को यह प्रेरणा दी यह सब करने कि? तो यही तथ्य सामने आता है कि यह सब उसके पूर्व मृत्यु के अनुभव के कारण ही है, क्योंकि मृत्यु का अनुभव उसे पूर्व जन्म में हो चुका है जिस कारण वह अनुभव का ज्ञान जो उसकी सूक्ष्म बुद्धि में छुपा था वह उस विषय कि पुनावृत्ति के होने से दुबारा जाग्रत हो गया है । जैसा कि पहले भी कहा गया है कि मृत्यु केवल स्थूल शरीर की हुआ करती है , तो सूक्ष्म शरीर तो वही है जो पहले था और अब भी वही है । जिस कारण यह सिद्ध होता है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध है ।
आधुनिक विज्ञानं का मत
यधपि पुनर्जन्म का सत्यापन विज्ञानं द्वारा या उपकरणों, यंत्रों आदि द्वारा किया जाना समभव तो नही परन्तु इसे Einstein के इस सिधांत द्वारा समझा जा सकता है :

उर्जा न ही पैदा की जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है केवल एक रूप से दुसरे रूप में बदली जा सकती है ।
उदहारण के लिए विधुत उर्जा को प्रकाश उर्जा में :- बल्ब द्वारा
विधुत उर्जा को गतिज उर्जा में :- पंखा, पानी की मोटर आदि ।

हमारे भोतिक शरीर को चलाने वाली शक्ति उर्जा ही तो है जिसे आत्मा भी कहते है जो एक रूप से दुसरे रूप में प्रवेश करती है ।

उपरोक्त सिधांत Einstein ने पूरा का पूरा गीता से जोड़ा था :

न जायते म्रियते वा कदाचिन्-
नायं भूत्वा भविता वा न भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। … गीता २ /२ ०

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। …गीता २ /२ २

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है

Einstein ने उपरोक्त दोनों श्लोकों को मिला दिया तथा Soul को energy कहा बाकि सारा ज्यों का त्यों चेप दिया और अपना सिधांत कह कर जगत में ढंढ़ोंरा पिटा ।

खेर मुद्दे पर आते है ।
ऐसे कई प्रमाण अवश्य है जिनमे लोगो को अपने पूर्व जन्म का आंशिक से लेकर पूर्ण स्मरण हो आया ।
इससे सम्बंधित दुनियां भर की जानकारी इन्टरनेट पर भरी पड़ी है किन्तु हम ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई जाँच पड़ताल देखते है जिस पर मुझे तो पूर्ण विश्वास है ।
इसी प्रकार के एक केस का अध्ययन किया वेद विज्ञानं मंडल, पुणे के डॉ० पद्माकर विष्णु वार्तक जी ने ।

वार्तक जी ऐसा केस देख कर आश्चर्य चकित हुए इसी कारण उन्होंने इसे अपने पाठकों से बाँटने के लिए अपनी साईट पर भी डाला ।
वार्तक जी के इस केस में एक 4.5 वर्ष के बालक को अपने पूर्व जन्म (10 वर्ष पूर्व मृत्यु का ) पूर्ण रूप से स्मरण हो गया तथा उनसे अपने पूर्व जन्म के माता पिता को पहचान लिया तथा अन्य महत्वपूर्ण जानकारियां दी । वर्तक जी ने इस केस को सत्यता की कसोटी पर पूर्ण रूप से खरा उतरने के बाद सब के समक्ष प्रस्तुत किया और हेरान कर देने वाली घटना और हुई जब उस बालक ने वो घटनाये भी बताई जो उसके पूर्व शरीर की मृत्यु के बाद उसके परिवार में घटित हुई । इससे ये भी सिद्ध है की आत्मा देखने में भी सक्षम होती है ।

इस प्रकार हमारे बुजुर्गों द्वारा कही बात
“84 लाख योनियों के पश्चात ये मनुष्य जन्म प्राप्त होता है अतः मनुष्य को जीवन में उचित कर्म करने चाहिए”
सिद्ध होती है !!!

कुंडली फलादेश की विधि

कुंडली मे 1, 5, 9 भाव सबसे शुभ, 4, 7, 10 शुभ, 2, 3, 11 सम तथा 6, 8, 12 अशुभ कहें जाते हैं |
1)ग्रह अपनी मूल त्रिकोण राशि का पूरा फल व स्वराशि का आधा फल प्रदान करते हैं अर्थात मेष लग्न मे गुरु भाग्य स्थान का पूरा व द्वादश स्थान का आधा फल प्रदान करेगा यह नियम फलदीपिका के 15वे अध्याय भाव चिंता से लिया गया हैं |
2)ज्योतिष रत्नाकर के अनुसार ग्रहो का अन्य ग्रहो व भावो पर प्रभाव उनके दीप्तांशो पर निर्भर करता हैं जो इस प्रकार से हैं | सूर्य 10 अंश, चन्द्र 5 अंश, मंगल 4 अंश, बुध 3.5 अंश, गुरु व शनि 4.5 अंश, शुक्र 3 अंश, राहू केतू जिस ग्रह की राशि मे होंगे उनके दीप्तांश उसी ग्रह के अनुसार होंगे | उदाहरण के लिए यदि लग्न 13 अंश का हैं और भाग्य स्थान मे गुरु 18 अंश का हैं तो गुरु का प्रभाव किसी भी दृस्ट गृह व भाव पर 4.5 अंश आगे या पीछे तक ही होगा इस प्रकार गुरु के अंश लग्न के अंश से अधिक होने पर उसका प्रभाव ना तो नवम भाव पर होगा और ना ही लग्न पर यदि यह अंतर 4.5 से कम होता तब प्रभाव होता | इस प्रकार अंतर अधिक होने पर गुरु का प्रभाव किसी भी भाव पर नहीं हैं | अब यदि तीसरे भाव मे सूर्य 10 अंश का हैं तो उसका प्रभाव तीसरे व नवम दोनों भावो पर होगा गुरु के अंश मे केवल 8 का अंतर होने से (सूर्य दीप्तांश से ज़्यादा) सूर्य की गुरु पर दृस्टी मानी जाएगी जबकि गुरु की सूर्य पर नहीं | इसी प्रकार अन्य ग्रहो का प्रभाव होगा |
3)भाव स्वामी की अपेक्षा भाव का बलाबल प्रमुख होता हैं जिसके अनुसार यदि किसी भाव पर अशुभ प्रभाव पड़ रहा होतो उसके स्वामी का बली होना अधिक सहायक नहीं होगा जबकि शुभ प्रभाव होने पर उसके स्वामी की निर्बलता कम करने मे सहायक होगा |
[नाभी कुदरत की एक अद्भुत देन है
एक 62 वर्ष के बुजुर्ग को अचानक बांई आँख से कम दिखना शुरू हो गया। खासकर रात को नजर न के बराबर होने लगी।जाँच करने से यह निष्कर्ष निकला कि उनकी आँखे ठीक है परंतु बांई आँख की रक्त नलीयाँ सूख रही है। रिपोर्ट में यह सामने आया कि अब वो जीवन भर देख नहीं पायेंगे।…. मित्रो यह सम्भव नहीं है..
मित्रों हमारा शरीर परमात्मा की अद्भुत देन है…गर्भ की उत्पत्ति नाभी के पीछे होती है और उसको माता के साथ जुडी हुई नाडी से पोषण मिलता है और इसलिए मृत्यु के तीन घंटे तक नाभी गर्म रहती है।
गर्भधारण के नौ महीनों अर्थात 270 दिन बाद एक सम्पूर्ण बाल स्वरूप बनता है। नाभी के द्वारा सभी नसों का जुडाव गर्भ के साथ होता है। इसलिए नाभी एक अद्भुत भाग है।
नाभी के पीछे की ओर पेचूटी या navel button होता है।जिसमें 72000 से भी अधिक रक्त धमनियां स्थित होती है
नाभी में देशी गाय का शुध्द घी या तेल लगाने से बहुत सारी शारीरिक दुर्बलता का उपाय हो सकता है।

  1. आँखों का शुष्क हो जाना, नजर कमजोर हो जाना, चमकदार त्वचा और बालों के लिये उपाय…
    सोने से पहले 3 से 7 बूँदें शुध्द देशी गाय का घी और नारियल के तेल नाभी में डालें और नाभी के आसपास डेढ ईंच गोलाई में फैला देवें।
  2. घुटने के दर्द में उपाय
    सोने से पहले तीन से सात बूंद अरंडी का तेल नाभी में डालें और उसके आसपास डेढ ईंच में फैला देवें।
  3. शरीर में कमपन्न तथा जोड़ोँ में दर्द और शुष्क त्वचा के लिए उपाय :-
    रात को सोने से पहले तीन से सात बूंद राई या सरसों कि तेल नाभी में डालें और उसके चारों ओर डेढ ईंच में फैला देवें।
  4. मुँह और गाल पर होने वाले पिम्पल के लिए उपाय:-
    नीम का तेल तीन से सात बूंद नाभी में उपरोक्त तरीके से डालें।
    नाभी में तेल डालने का कारण
    हमारी नाभी को मालूम रहता है कि हमारी कौनसी रक्तवाहिनी सूख रही है,इसलिए वो उसी धमनी में तेल का प्रवाह कर देती है।
    जब बालक छोटा होता है और उसका पेट दुखता है तब हम हिंग और पानी या तैल का मिश्रण उसके पेट और नाभी के आसपास लगाते थे और उसका दर्द तुरंत गायब हो जाता था।बस यही काम है तेल का।
    अपने स्नेहीजनों, मित्रों और परिजनों में इस नाभी में तेल और घी डालने के उपयोग और फायदों को शेयर करिये।
    करने से होता है , केवल पढ़ने से नहीं
    ⭕⭕⭕⭕⭕⭕⭕⭕
    : नमस्ते जी 🙏🏼

आप सभी ने हनुमान चालीसा की ये पंक्तियाँ तो अवश्य सुनी होंगी कि :

  • हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे*
    काँधे मूँज जनेऊ साजे

लेकिन क्या कभी विचार भी किया कि क्या है इसका अर्थ 🤔
*आओ विचार करें : हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे….अर्थात आपके हाथ में वज्र ( गदा) व *धर्म का प्रतीक ओम ध्वजा विराजमान है तथा कंधे पर मूँज का जनेऊ सुशोभित है I*
*अब सोचो🤔 क्या कभी *वानर के हाथ में ओम ध्वजा या कंधे पर *यज्ञोपवीत *(जनेऊ ) *देखा है ? *
*हम अपने महापुरुषों को स्वयं ही बन्दर कहकर अपमानित कर रहे है । जानते है क्यों ? क्योंकि हम न तो सत्य जानते है और न ही कभी जानने का प्रयास किया । और जब हम स्वयं ही कुछ नहीं जानते तो अपने बच्चों को क्या बताएँगे *

[: यहाँ वर्जित है हनुमान जी की पूजा
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हम सब जानते है हनुमान जी हिन्दुओं के प्रमुख आराध्य देवों में से एक है, और सम्पूर्ण भारत में इनकी पूजा की जाती है। लेकिन बहुत काम लोग जानते है की हमारे भारत में ही एक जगह ऐसी है जहां हनुमान जी की पूजा नहीं की जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ के रहवासी हनुमान जी द्वारा किए गए एक काम से आज तक नाराज़ हैं। यह जगह है उत्तराखंड स्तिथ द्रोणागिरि गांव।

द्रोणागिरि गांव उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली के जोशीमठ प्रखण्ड में जोशीमठ नीति मार्ग पर है। यह गांव लगभग 14000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है।

यहां के लोगों का मानना है कि हनुमानजी जिस पर्वत को संजीवनी बूटी के लिए उठाकर ले गए थे, वह यहीं स्थित था। चूंकि द्रोणागिरि के लोग उस पर्वत की पूजा करते थे, इसलिए वे हनुमानजी द्वारा पर्वत उठा ले जाने से नाराज हो गए। यही कारण है कि आज भी यहां हनुमानजी की पूजा नहीं होती। यहां तक कि इस गांव में लाल रंग का झंडा लगाने पर पाबंदी है।

द्रोणागिरि गांव के निवासियों के अनुसार जब हनुमान बूटी लेने के लिये इस गांव में पहुंचे तो वे भ्रम में पड़ गए। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि किस पर्वत पर संजीवनी बूटी हो सकती है। तब गांव में उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी।

उन्होंने पूछा कि संजीवनी बूटी किस पर्वत पर होगी? वृद्धा ने द्रोणागिरि पर्वत की तरफ इशारा किया। हनुमान उड़कर पर्वत पर गये पर बूटी कहां होगी यह पता न कर सके। वे फिर गांव में उतरे और वृद्धा से बूटीवाली जगह पूछने लगे।

जब वृद्धा ने बूटीवाला पर्वत दिखाया तो हनुमान ने उस पर्वत के काफी बड़े हिस्से को तोड़ा और पर्वत को लेकर उड़ते बने। बताते हैं कि जिस वृद्धा ने हनुमान की मदद की थी उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। आज भी इस गांव के आराध्य देव पर्वत की विशेष पूजा पर लोग महिलाओं के हाथ का दिया नहीं खाते हैं और न ही महिलायें इस पूजा में मुखर होकर भाग लेती हैं।

इस घटना से जुड़ा प्रसंग – यूँ तो राम के जीवन पर अनेकों रामायण लिखी गई है पर इनमे से दो प्रमुख है एक तो वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण और एक तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस। इनमे से जहाँ वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण को सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है वही तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस सबसे अधिक पढ़ा जाता है।

रामायण और रामचरितमानस में कई घटनाओं में, कई प्रसंगो में अंतर है। ऐसा ही कुछ अंतर दोनों किताबों में इस प्रसंग के संबंध में भी है। यहाँ हम आपको दोनों किताबो में वर्णित प्रसंग के बारे में बता रहे है।

वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार
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हनुमानजी द्वारा पर्वत उठाकर ले जाने का प्रसंग वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में मिलता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र चलाकर श्रीराम व लक्ष्मण सहित समूची वानर सेना को घायल कर दिया। अत्यधिक घायल होने के कारण जब श्रीराम व लक्ष्मण बेहोश हो गए तो मेघनाद प्रसन्न होकर वहां से चला गया।

उस ब्रह्मास्त्र ने दिन के चार भाग व्यतीत होते-होते 67 करोड़ वानरों को घायल कर दिया था।हनुमानजी, विभीषण आदि कुछ अन्य वीर ही उस ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से बच पाए थे। जब हनुमानजी घायल जामवंत के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा – इस समय केवल तुम ही श्रीराम-लक्ष्मण और वानर सेना की रक्षा कर सकते हो।

तुम शीघ्र ही हिमालय पर्वत पर जाओ और वहां से औषधियां लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं। जामवंत ने हनुमानजी से कहा कि- हिमालय पहुंचकर तुम्हें ऋषभ तथा कैलाश पर्वत दिखाई देंगे। उन दोनों के बीच में औषधियों का एक पर्वत है, जो बहुत चमकीला है।

वहां तुम्हें चार औषधियां दिखाई देंगी, जिससे सभी दिशाएं प्रकाशित रहती हैं। उनके नाम मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी है।हनुमान तुम तुरंत उन औषधियों को लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं। जांबवान की बात सुनकर हनुमानजी तुरंत आकाश मार्ग से औषधियां लेने उड़ चले।

कुछ ही समय में हनुमानजी हिमालय पर्वत पर जा पहुंचे। वहां उन्होंने हनुमानजी ने अनेक महान ऋषियों के आश्रम देखे। हिमालय पहुंचकर हनुमानजी ने कैलाश तथा ऋषभ पर्वत के दर्शन भी किए। इसके बाद उनकी दृष्टि उस पर्वत पर पड़ी, जिस पर अनेक औषधियां चमक रही थीं।

हनुमानजी उस पर्वत पर चढ़ गए और औषधियों की खोज करने लगे। उस पर्वत पर निवास करने वाली संपूर्ण महाऔषधियां यह जानकर कि कोई हमें लेने आया है, तत्काल अदृश्य हो गईं। यह देखकर हनुमानजी बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने वह पूरा पर्वत ही उखाड़ लिया, जिस पर औषधियां थीं। कुछ ही समय में हनुमान उस स्थान पर पहुंच गए, जहां श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना बेहोश थी।

हनुमानजी को देखकर श्रीराम की सेना में पुन: उत्साह का संचार हो गया। इसके बाद उन औषधियों की सुगंध से श्रीराम-लक्ष्मण व घायल वानर सेना पुन: स्वस्थ हो गई। उनके शरीर से बाण निकल गए और घाव भी भर गए। इसके बाद हनुमानजी उस पर्वत को पुन: वहीं रख आए, जहां से लेकर आए थे।

तुलसीदास रचित रामचरितमानस के अनुसार
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गोस्वामी तुलसीदास द्वारा चरित श्रीरामचरितमानस के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद व लक्ष्मण के बीच जब भयंकर युद्ध हो रहा था, उस समय मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति चलाकर लक्ष्मण को बेहोश कर दिया।

हनुमानजी उसी अवस्था में लक्ष्मण को लेकर श्रीराम के पास आए। लक्ष्मण को इस अवस्था में देखकर श्रीराम बहुत दु:खी हुए। तब जामवंत ने हनुमानजी से कहा कि लंका में सुषेण वैद्य रहता है, तुम उसे यहां ले आओ। हनुमानजी ने ऐसा ही किया।

सुषेण वैद्य ने हनुमानजी को उस पर्वत और औषधि का नाम बताया और हनुमानजी से उसे लाने के लिए कहा, जिससे कि लक्ष्मण पुन: स्वस्थ हो जाएं। हनुमानजी तुरंत उस औषधि को लाने चल पड़े। जब रावण को यह बात पता चली तो उसने हनुमानजी को रोकने के लिए कालनेमि दैत्य को भेजा।

कालनेमि दैत्य ने रूप बदलकर हनुमानजी को रोकने का प्रयास किया, लेकिन हनुमानजी उसे पहचान गए और उसका वध कर दिया। इसके बाद हनुमानजी तुरंत औषधि वाले पर्वत पर पहुंच गए, लेकिन औषधि पहचान न पाने के कारण उन्होंने पूरा पर्वत ही उठा लिया और आकाश मार्ग से उड़ चले। अयोध्या के ऊपर से गुजरते समय भरत को लगा कि कोई राक्षस पहाड़ उठा कर ले जा रहा है। यह सोचकर उन्होंने हनुमानजी पर बाण चला दिया।

हनुमानजी श्रीराम का नाम लेते हुए नीचे आ गिरे। हनुमानजी के मुख से पूरी बात जानकर भरत को बहुत दु:ख हुआ। इसके बाद हनुमानजी पुन: श्रीराम के पास आने के लिए उड़ चले। कुछ ही देर में हनुमान श्रीराम के पास आ गए। उन्हें देखते ही वानरों में हर्ष छा गया। सुषेण वैद्य ने औषधि पहचान कर तुरंत लक्ष्मण का उपचार किया, जिससे वे पुन: स्वस्थ हो गए।

श्रीलंका में स्थित है संजीवनी बूटी वाला पर्वत
जहां वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार हनुमान जी पर्वत को पुनः यथास्थान रख आए थे वही तुलसीदास रचित रामचरितमानस के अनुसार हनुमान जी पर्वत को वापस नहीं रख कर आए थे, उन्होंने उस पर्वत को वही लंका में ही छोड़ दिया था। श्रीलंका के सुदूर इलाके में श्रीपद नाम का एक पहाड़ है।

मान्यता है कि यह वही पर्वत है, जिसे हनुमानजी संजीवनी बूटी के लिए उठाकर लंका ले गए थे। इस पर्वत को एडम्स पीक भी कहते हैं। यह पर्वत लगभग 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। श्रीलंकाई लोग इसे रहुमाशाला कांडा कहते हैं। इस पहाड़ पर एक मंदिर भी बना है।
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[प्रेम की भाषा

गाय ने केला देखकर मुँह मोड़ लिया..औरत ने गाय के सामने जाकर फिर उसके मुँह मे केला देना चाहा,
लेकिन … गाय ने केला नहीं खाया, पर औरत केला खिलाने के लिये पीछे ही पड़ी थी…जब औरत नहीं मानी, तो गाय सींग मारने को हुई..औरत डरकर बिना केला खिलाये चली गयी.

औरत के जाने के बाद पास खडा साँड बोला-“वह इतने ‘प्यार से’ केला खिला रही थी, तूने केला भी नहीं खाया और उसे डराकर भगा भी दिया..”

प्यार नहीं मजबूरी…आज एकादशी है, औरत मुझे केला खिलाकर पुण्य कमाना चाहती है…वैसे यह मुझे कभी नहीं पूछती, गल्ती से उसके मकान के आगे चली जाती हूँ तो डंडा लेकर मारने को दौड़ती है…

गाय बोली-“प्रेम से सूखी रोटी भी मिल जाये, तो अमृत तुल्य है!”

जो केवल अपना भला चाहता है वह दुर्योधन है
जो अपनों का भला चाहता है वह युधिष्ठिर है
और .. जो सबका भला चाहता है वह श्रीकृष्ण है
अत: कर्म के साथ-साथ … भावनाएँ भी महत्व रखती हैं
महावीर हनुमानजी के अतुल्य पराक्रम की रोचक कथा
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ऐसा पढ़ने में आता है कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमानजी कभी-कभी खड़े हो कर कौरवों की सेना की और घूर कर देखते तो उस समय कौरवों की सेना तूफान की गति से युद्ध भूमि को छोड़ कर भाग जाती, हनुमानजी की दृष्टि का सामना करने का साहस किसी में नही था, उसदिन भी ऐसा ही हुआ था जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध चल रहा था।

कर्ण अर्जुन पर अत्यंत भयंकर वाणों की वर्षा किये जा रहा था , उनके बाणो की वर्षा से श्रीकृष्ण को भी वाण लगते गए , अतः उनके बाण से श्रीकृष्ण का कवच कटकर गिर पड़ा और उनके सुकुमार अंगोपर बाण लगने लगे।

रथकी छत पर बैठे (पवनपुत्र हनुमानजी ) एक टक निचे अपने इन आराध्य की और ही देख रहे थे।
श्रीकृष्ण कवच हीन हो गए थे , उनके श्री अंगपर कर्ण निरंतर बाण मारता ही जा रहा था , हनुमानजी से यह सहन नही हुआ , आकस्मात् वे उग्रतर गर्जना करके दोनों हाथ उठाकर कर्णको मार देने के लिए उठ खड़े हुए।

हनुमानजी की भयंकर गर्जना से ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड फट गया हो , कौरव- सेना तो पहले ही भाग चुकी थी अब पांडव पक्षकी सेना भी उनकी गर्जना के भय से भागने लगी , हनुमानजी का क्रोध देख कर कर्णके हाथसे धनुष छूट कर गिर गया।

भगवान श्रीकृष्ण तत्काल उठकर अपना दक्षिण हस्त उठाया और हनुमानजी को स्पर्श करके सावधान किया — रुको ! तुम्हारे क्रोध करने का समय नही है।

श्रीकृष्णके स्पर्श से हनुमानजी रुक तो गए किन्तु उनकी पूंछ खड़ी हो कर आकाश में हिल रही थी , उनके दोनों हाथोंकी मुठ्ठियाँ बन्द थीं , वे दाँत कट- कटा रहे थे और आग्नेय नेत्रों से कर्णको घूर रहे थे , हनुमानजी का क्रोध देख कर कर्ण और उनके सारथि काँपने लगे।

हनुमानजी का क्रोध शांत न होते देख कर श्रीकृष्ण ने कड़े स्वर में कहा हनुमान ! मेरी और देखो , अगर तुम इस प्रकार कर्णकी ओर कुछ क्षण और देखोगे तो कर्ण तुम्हारी दृष्टि से ही मर जाएगा।

यह त्रेतायुग नहीं है। तुम्हारे पराक्रमको तो दूर तुम्हारे तेज को भी कोई यहाँ सह नही सकता। तुमको मैंने इस युद्धमे शांत रहकर बैठने को कहा है।

फिर हनुमानजी ने अपने आराध्यदेव की और निचे देखा और शांत हो कर बैठ गए।
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: हिंदुओ के चार धामों में से एक द्वारिकापुरी धाम की विस्तृत कथा,,,,,

गुजरात के देवभूमि द्वारका जिले में स्थित एक नगर तथा हिन्दू तीर्थस्थल है। यह हिन्दुओं के साथ सर्वाधिक पवित्र तीर्थों में से एक तथा चार धामों में से एक है। यह सात पुरियों में एक पुरी है।

जिले का नाम द्वारका पुरी से रखा गया है। यह नगरी भारत के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार, भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था। यह श्रीकृष्ण की कर्मभूमि है। आधुनिक द्वारका एक शहर है। कस्बे के एक हिस्से के चारों ओर चहारदीवारी खिंची है इसके भीतर ही सारे बड़े-बड़े मन्दिर है।

काफी समय से जाने-माने शोधकर्ताओं ने पुराणों में वर्णित द्वारिका के रहस्य का पता लगाने का प्रयास किया, लेकिन वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित कोई भी अध्ययन कार्य अभी तक पूरा नहीं किया गया है। 2005 में द्वारिका के रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए अभियान शुरू किया गया था। इस अभियान में भारतीय नौसेना ने भी मदद की।

अभियान के दौरान समुद्र की गहराई में कटे-छटे पत्थर मिले और यहां से लगभग 200 अन्य नमूने भी एकत्र किए, लेकिन आज तक यह तय नहीं हो पाया कि यह वही नगरी है अथवा नहीं जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था। आज भी यहां वैज्ञानिक स्कूबा डायविंग के जरिए समंदर की गहराइयों में कैद इस रहस्य को सुलझाने में लगे हैं।

कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांड़वों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया।

द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहां आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे। इस जगह का धार्मिक महत्व तो है ही, रहस्य भी कम नहीं है। कहा जाता है कि कृष्ण की मृत्यु के साथ उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। आज भी यहां उस नगरी के अवशेष मौजूद हैं।

निकटवर्ती तीर्थ

गोमती द्वारका द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे ‘गोमती तालाब’ कहते है। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते है।

निष्पाप कुण्ड इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें हैं।

रणछोड़ जी मंदिर द्वारकाधीश मंदिर गोमती के दक्षिण में पांच कुंए है। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर।

रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। भगवान कृष्ण को उधर रणछोड़जी कहते है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है।

यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल। सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है।

चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे है। एक तरफ ऊपर की मंमें जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिले है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती है।

परिक्रमा रणछोड़जी के दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा की जाती है। मन्दिर की दीवार दोहरी है। दो दावारों के बीच इतनी जगह है कि आदमी समा सके। यही परिक्रमा का रास्ता है। रणछोड़जी के मन्दिर के सामने एक बहुत लम्बा-चौड़ा १०० फुट ऊंचा जगमोहन है। इसकी पांच मंजिलें है और इसमें ६० खम्बे है। रणछोड़जी के बाद इसकी परिक्रमा की जाती है। इसकी दीवारे भी दोहरी है।

दुर्वासा और त्रिविक्रम मंदिर दक्षिण की तरफ बराबर-बराबर दो मंदिर है। एक दुर्वासाजी का और दूसरा मन्दिर त्रिविक्रमजी को टीकमजी कहते है। इनका मन्दिर भी सजा-धजा है। मूर्ति बड़ी लुभावनी है। और कपड़े-गहने कीमती है। त्रिविक्रमजी के मन्दिर के बाद प्रधुम्नजी के दर्शन करते हुए यात्री इन कुशेश्वर भगवान के मन्दिर में जाते है। मन्दिर में एक बहुत बड़ा तहखाना है। इसी में शिव का लिंग है और पार्वती की मूर्ति है।

कुशेश्वर शिव के मन्दिर के बराबर-बराबर दक्षिण की ओर छ: मन्दिर और है। इनमें अम्बाजी और देवकी माता के मन्दिर खास हैं। रणछोड़जी के मन्दिर के पास ही राधा, रूक्मिणी, सत्यभामा और जाम्बवती के छोटे-छोटे मन्दिर है। इनके दक्षिण में भगवान का भण्डारा है और भण्डारे के दक्षिण में शारदा-मठ है।

शारदा-मठ को आदि गुरू शंकराचार्य ने बनबाया था। उन्होने पूरे देश के चार कोनों मे चार मठ बनायें थे। उनमें एक यह शारदा-मठ है। परंपरागत रूप से आज भी शंकराचार्य मठ के अधिपति है। भारत में सनातन धर्म के अनुयायी शंकराचार्य का सम्मान करते है।

रणछोड़जी के मन्दिर से द्वारका शहर की परिक्रमा शुरू होती है। पहले सीधे गोमती के किनारे जाते है। गोमती के नौ घाटों पर बहुत से मन्दिर है- सांवलियाजी का मन्दिर, गोवर्धननाथजी का मन्दिर, महाप्रभुजी की बैठक।

हनुमान मंदिर आगे वासुदेव घाट पर हनुमानजी का मन्दिर है। आखिर में संगम घाट आता है। यहां गोमती समुद्र से मिलती है। इस संगम पर संगम-नारायणजी का बहुत बड़ा मन्दिर है।

चक्र तीर्थ संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहते है। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे ‘ज्ञान-कुण्ड’ कहते है। इससे आगे जूनीराम बाड़ी है, जिससे, राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तिया है।

इसके बाद एक और राम का मन्दिर है, जो नया बना है। इसके बाद एक बावली है, जिसे सौमित्री बावली यानी लक्ष्मणजी की बावजी कहते है। काली माता और आशापुरी माता की मूर्तिया इसके बाद आती है।

कैलाश कुण्ड इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है।

इसके आगे द्वारका शहर का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय बैकुण्ठ में भगवान के महल के चौकीदार है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है। यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं परिश्रम खत्म हो जाती है।

यही असली द्वारका है। इससे बीस मील आगे कच्छ की खाड़ी में एक छोटा सा टापू है। इस पर बेट-द्वारका बसी है। गोमती द्वारका का तीर्थ करने के बाद यात्री बेट-द्वारका जाते है। बेट-द्वारका के दर्शन बिना द्वारका का तीर्थ पूरा नही होता। बेट-द्वारका पानी के रास्ते भी जा सकते है और जमीन के रास्ते भी।

गोपी तालाब नागेश्वर मंदिर जमीन के रास्ते जाते हुए तेरह मील आगे गोपी-तालाब पड़ता है। यहां की आस-पास की जमीन पीली है। तालाब के अन्दर से भी रंग की ही मिट्टी निकलती है। इस मिट्टी को वे गोपीचन्दन कहते है। यहां मोर बहुत होते है। गोपी तालाब से तीन-मील आगे नागेश्वर नाम का शिवजी और पार्वती का छोटा सा मन्दिर है।

यात्री लोग इसका दर्शन भी जरूर करते है।कहते है, भगवान कृष्ण इस बेट-द्वारका नाम के टापू पर अपने घरवालों के साथ सैर करने आया करते थे। यह कुल सात मील लम्बा है। यह पथरीला है। यहां कई अच्छे और बड़े मन्दिर है। कितने ही तालाब है। कितने ही भंडारे है। धर्मशालाएं है और सदावर्त्त लगते है। मन्दिरों के सिवा समुद्र के किनारे घूमना बड़ा अच्छा लगता है।

बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी। बेट-द्वारका के टापू का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत बड़ा मन्दिर है।

इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है। आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है। ये दुमंजिले और तिमंजले है। पहला और सबसे बड़ा महल श्रीकृष्ण का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के महल है। उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है।

इन पांचों महलों की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचौंध हो जाती हैं। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े हैं। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए हैं। सच्ची जरी के कपड़ों से उनको सजाया गया है।

चौरासी धुना – भेंट द्वारका टापू में भगवान द्वारकाधीश के मंदिर से ७ कि॰मी॰ की दूरी पर चौरासी धुना नामक एक प्राचीन एवं एतिहासिक तीर्थ स्थल है।

उदासीन संप्रदाय के सुप्रसिद्ध संत और प्रख्यात इतिहास लेखक, निर्वाण थडा तीर्थ, श्री पंचयाती अखाडा बड़ा उदासीन के पीठाधीश्वर महंत योगिराज डॉ॰ बिंदुजी महाराज “बिंदु” के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मानसिक पुत्रो सनक, सनंदन, सनतकुमार और सनातन ने ब्रह्माजी की श्रृष्टि-संरचना की आज्ञा को न मानकर उदासीन संप्रदाय की स्थापना की और मृत्यु-लोक में विविध स्थानों पर भ्रमण करते हुए भेंट द्वारका में भी आये।

उनके साथ उनके अनुयायियों के रूप में अस्सी (८०) अन्य संत भी साथ थें| इस प्रकार चार सनतकुमार और ८० अनुयायी उदासीन संतो को जोड़कर ८४ की संख्या पूर्ण होती है।

इन्ही ८४ आदि दिव्य उदासीन संतो ने यहाँ पर चौरासी धुने स्थापित कर साधना और तपस्चर्या की और ब्रह्माजी को एक एक धुने की एकलाख महिमा को बताया, तथा चौरासी धुनो के प्रति स्वरुप चौरासी लाख योनिया निर्मित करने का सांकेतिक उपदेश दिया। इस कारन से यह स्थान चौरासी धुना के नाम से जग में ख्यात हुआ।

कालांतर में उदासीन संप्रदाय के अंतिम आचार्य जगतगुरु उदासिनाचार्य श्री चन्द्र भगवान इस स्थान पर आये और पुनः सनकादिक ऋषियों के द्वारा स्थापित चौरासी धुनो को जागृत कर पुनः प्रज्वलित किया और उदासीन संप्रदाय के एक तीर्थ के रूप में इसे महिमामंडित किया। यह स्थान आज भी उदासीन संप्रदाय के अधीन है और वहां पर उदासी संत निवास करते हैं।

आने वाले यात्रियों, भक्तों एवं संतों की निवास, भोजन आदि की व्यवस्था भी निःशुल्क रूप से चौरासी धुना उदासीन आश्रम के द्वारा की जाती है। जो यात्री भेंट द्वारका दर्शन हेतु जाते हैं वे चौरासी धुना तीर्थ के दर्शन हेतु अवश्य जाते हैं। ऐसी अवधारणा है की चौरासी धुनो के दर्शन करने से मनुष्य की लाख चौरासी कट जाती है, अर्थात उसे चौरासी लाख योनियों में भटकना नहीं पड़ता और वह मुक्त हो जाता है।

रणछोड़ जी मंदिर रणछोड़ जी के मन्दिर की ऊपरी मंजिलें देखने योग्य है। यहां भगवान की सेज है। झूलने के लिए झूला है। खेलने के लिए चौपड़ है। दीवारों में बड़े-बड़े शीशे लगे हैं। इन पांचों मन्दिरों के अपने-अलग भण्डारे है। मन्दिरों के दरवाजे सुबह ही खुलते है। बारह बजे बन्द हो जाते है।

फिर चार बजे खुल जाते है। और रात के नौ बजे तक खुले रहते है। इन पांच विशेष मन्दिरों के सिवा और भी बहुत-से मन्दिर इस चहारदीवारी के अन्दर है। ये प्रद्युम्नजी, टीकमजी, पुरूषोत्तमजी, देवकी माता, माधवजी अम्बाजी और गरूड़ के मन्दिर है। इनके सिवाय साक्षी-गोपाल, लक्ष्मीनारायण और गोवर्धननाथजी के मन्दिर है। ये सब मन्दिर भी खूब सजे-सजाये हैं। इनमें भी सोने-चांदी का काम बहुत है।

बेट-द्वारका में कई तालाब है-रणछोड़ तालाब, रत्न-तालाब, कचौरी-तालाब और शंख-तालाब। इनमें रणछोड तालाब सबसे बड़ा है। इसकी सीढ़िया पत्थर की है। जगह-जगह नहाने के लिए घाट बने है। इन तालाबों के आस-पास बहुत से मन्दिर है। इनमें मुरली मनोहर, नीलकण्ठ महादेव, रामचन्द्रजी और शंख-नारायण के मन्दिर खास है। लोगा इन तालाबों में नहाते है और मन्दिर में फूल चढ़ाते है।

शंख तालाब रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।

बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पट्टल है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।
🔥’कलियुग ही सर्वश्रेष्ठ🔥
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एक बार बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एक जगह जुटे तो इस बात पर विचार होने लगा कि कौन सा युग सबसे बढिया है. बहुतों ने कहा सतयुग, कुछ त्रेता को तो कुछ द्वापर को श्रेष्ठ बताते रहे.जब एक राय न हुई यह तय हुआ कि जिस काल में कम प्रयास में ज्यादा पुण्य कमाया जा सके, साधारण मनुष्य भी सुविधा अनुसार धर्म-कर्म करके पुण्य कमा सके उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा.विद्वान आसानी से कभी एकमत हो ही नहीं सकते. कोई हल निकलने की बजाए विवाद और भड़क गया. सबने कहा झगड़ते रहने से क्या फायदा, व्यास जी सबके बड़े हैं उन्हीं से पूछ लेते हैं. वह जो कहें, उसे मानेंगे.सभी व्यास जी के पास चल दिए. व्यास जी उस समय गंगा में स्नान कर रहे थे. सब महर्षि के गंगा से बाहर निकलने का इंतज़ार करने लगे. व्यास जी ने भी सभी ऋषि-मुनियों को तट पर जुटते देखा तो एक गहरी डुबकी ली.जब बाहर निकले तो उन्होंने एक मंत्र बोला. वह मंत्र स्नान के समय उच्चारण किए जाने वाले मंत्रों से बिल्कुल अलग था. ऋषियों ने व्यास जी को जपते सुना- कलियुग ही सर्वश्रेष्ठ है कलियुग ही श्रेष्ठ
इससे पहले कि ऋषिगण कुछ समझते व्यास जी ने फिर डुबकी मार ली. इस बार ऊपर आए तो बोले- शूद्र ही साधु हैं, शूद्र ही साधु है. यह सुनकर मुनिगण एक दूसरे का मुंह देखने लगे.व्यास जी ने तीसरी डुबकी लगाई. इस बार निकले तो बोले- स्त्री ही धन्य है, धन्य है स्त्री. ऋषि मुनियों को यह माजरा कुछ समझ में नहीं आया. वे समझ नहीं पा रहे थे कि व्यास जी को क्या हो गया है. यह कौन सा मंत्र और क्यों ये मंत्र पढ रहे हैं.व्यास जी गंगा से निकल कर सीधे अपनी कुटिया की ओर बढे. उन्होंने नित्य की पूजा पूरी की. कुटिया से बाहर आए तो ऋषि मुनियों को प्रतीक्षा में बैठे पाए. स्वागत कर पूछा- कहो कैसे आए ? ऋषि बोले- महाराज ! हम आए तो थे एक समस्या का समाधान करवाने पर आपने हमें कई नए असमंजस में डाल दिया है. नहाते समय आप जो मंत्र बोल रहे थे उसका कोई गहरा मतलब होगा, हमें समझ नहीं आया, स्पष्ट बताने का कष्ट करें
व्यास जी ने कहा- मैंने कहा, कलयुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही साधु हैं और स्त्री ही धन्य हैं. यह बात न तो बहुत गोपनीय है न इतनी गहरी कि आप जैसे विद्वानों की समझ में न आए. फिर भी आप कहते हैं तो कारण बता देता हूं. जो फल सतयुग में दस वर्ष के जप-तप, पूजा-पाठ और ब्रह्मचर्य पालन से मिलता है वही फल त्रेता में मात्र एक वर्ष और द्वापर में एक महीना जबकि कलियुग में केवल एक दिन में मिल जाता है सतयुग में जिस फल के लिए ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवी देवताओं के निमित्त हवन-पूजन करना पडता है, कलियुग में उसके लिए केवल श्री कृष्ण का नापजप ही पर्याप्त है. कम समय और कम प्रयास में सबसे अधिक पुण्य लाभ के चलते मैंने कलयुग को सबसे श्रेष्ठ कहा
ब्राह्मणों को जनेऊ कराने के बाद कितने अनुशासन और विधि-विधान का पालन करने के बाद पुण्य प्राप्त होता है. जबकि शूद्र केवल निष्ठा से सेवा दायित्व निभा कर वह पुण्यलाभ अर्जित कर सकते हैं. सब कुछ सहते हुए वे ऐसा करते भी आए हैं इसलिए शूद्र ही साधु हैं.स्त्रियों का न सिर्फ उनका योगदान महान है बल्कि वे सबसे आसानी से पुण्य लाभ कमा लेती हैं. मन, वचन, कर्म से परिवार की समर्पित सेवा ही उनको महान पुण्य दिलाने को पर्याप्त है. वह अपनी दिन चर्या में ऐसा करती हैं इसलिए वे ही धन्य हैं
मैंने अपनी बात बता दी, अब आप लोग बताएं कि कैसे पधारना हुआ. सभी ने एक सुर में कहा हम लोग जिस काम से आये थे आपकी कृपा से पूरा हो गया. महर्षि व्यास ने कहा- आप लोगों को नदी तट पर देख मैंने अपने ध्यान बल से आपके मन की बात जान ली थी इसी लिए डुबकी लगाने के साथ ही जवाब भी देता गया था. सभी ने महर्षि व्यास की पूजा की और अपने-अपने स्थान को लौट गए
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: वारो एवं तिथियों का जातक के स्वभाव पर प्रभाव
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सप्ताह में कुल सात दिन या सात वार होते है. हम सभी लोगों का जन्म इन सातों वारों में से किसी एक वार को हुआ है। ज्योतिषशास्त्र कहता हैं, वार का हमारे व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है. हमारा जन्म जिस वार में होता है उस वार के प्रभाव से हमारा व्यवहार और चरित्र भी प्रभावित होता है. आइये देखें कि किस वार में जन्म लेने पर व्यक्ति का स्वभाव कैसा होता है.

1👉 रविवार को पैदा हुये जातक

रविवार सप्ताह का प्रथम दिन होता है. इसे सूर्य का दिन माना जाता है. इस दिन जिस व्यक्ति का जन्म होता है वे व्यक्ति तेजस्वी, गर्वीले और पित्त प्रकृति के होते है . इनके स्वभाव में क्रोध और ओज भरा होता है. ये चतुर और गुणवान होते हैं. इस तिथि के जातक उत्साही और दानी होते हैं. अगर संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाए तो उसमें पूरी तकत लगा देते हैं.

2👉 सोमवार को पैदा हुये जातक

सोमवार यानी सप्ताह का दूसरा दिन, इस वार को जन्म लेने वाला व्यक्ति बुद्धिमान होता है . इनकी प्रकृति यानी इनका स्वभाव शांत होता है. इनकी वाणी मधुर और मोहित करने वाली होती है. ये स्थिर स्वभाव वाले होते हैं सुख हो या दु:ख सभी स्थिति में ये समान रहते हैं. धन के मामले में भी ये भाग्यशाली होते हैं. इन्हें सरकार व समाज से मान सम्मान मिलता है

3👉 मंगलवार को पैदा हुये जातक

मंगलवार को जिस व्यक्ति का जन्म होता है वह व्यक्ति जटिल बुद्धि वाला होता है, ये किस भी बातको आसानी से नहीं मानते हैं और सभी बातों में इन्हें कुछ न कुछ खोट दिखाई देता है. ये युद्ध प्रेमी और पराक्रमी होते हैं. ये अपनी बातो पर कायम रहने वाले होते हैं. जरूरत पड़ने पर इस तिथि के जातक हिंसा पर भी उतर आते हैं. इनके स्वभाव की एक बड़ी विशेषता है कि ये अपने कुटुम्बों का पूरा ख्याल रखते हैं.

4👉 बुध को पैदा हुये जातक

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार बुधवार को जन्म लेने वाले व्यक्ति मधुर वचन बोलने वाले होते हैं . इस तिथि के जातक पठन पाठन में रूचि लेते हैं और ज्ञानी होते हैं. ये लेखन में रूचि लेते हैं और अधिकांशत: इसे अपनी जीवका बनाते हैं. ये अपने विषय के अच्छे जानकार होते हैं. इनके पास सम्पत्ति होती है परंतु ये धोखा देने में भी आगे होते हैं.

5👉 बृहस्पतिवार को पैदा हुये जातक

बृहस्पतिवार सप्ताह का पांचवा दिन होता है. इसे गुरूवार भी कहा जाता है. इस तिथि को जिनका जन्म होता है, वे विद्या एवं धन से युक्त होता है अर्थात ये ज्ञानी और धनवान होते हैं. ये विवेकशील होते हैं और शिक्षण को अपना पेशा बनाना पसंद करते हैं. ये लोगों के सम्मुख आदर और सम्मान के साथ प्रस्तुत होते हैं. ये सलाहकार भी उच्च स्तर के होते हैं.

6👉 शुक्रवार को पैदा हुये जातक

जिस व्यक्ति का जन्म शुक्रवार को होता है वह व्यक्ति चंचल स्वभाव का होता है . ये सांसारिक सुखों में लिप्त रहने वाले होते हैं. ये तर्क करने में निपुण और नैतिकता में बढ़ चढ कर होते हैं. ये धनवान और कामदेव के गुणों से प्रभावित रहते हैं . इनकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है. ये ईश्वर की सत्ता में अंधविश्वास नहीं रखते हैं.

7👉 शनिवार को पैदा हुये जातक

जिस व्यक्ति का जन्म शनिवार को होता है उस व्यक्ति का स्वभाव कठोर होता है . ये पराक्रमी व परिश्रमी होते हैं. अगर इनके ऊपर दु:ख भी आये तो ये उसे भी सहना जानते हैं. ये न्यायी एवं गंभीर स्वभाव के होते हैं. सेवा करना इन्हें काफी पसंद होता है.

जन्मतिथियों का प्रभाव
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प्रतिपदा से लेकर अमावस तक तिथियों का एक चक्र होता है जैसे अंग्रेजी तिथि में 1 से 30 या 31 तारीख का चक्र होता है। ज्योतिषशास्त्र में सभी तिथियों का अपना महत्व है।
सभी तिथि अपने आप में विशिष्ट होती है। हमारे स्वभाव और व्यवहार पर तिथियों का काफी प्रभाव पड़ता है ऐसा ज्योतिषशास्त्री मानते हैं। हमारा जन्म जिस तिथि में होता है उसके अनुसार हमारा स्वभाव होता है। आइये तिथिवार व्यक्ति के स्वभाव के विषय में जानकारी प्राप्त करें।

1👉 प्रतिपदा:

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जिस व्यक्ति का जन्म प्रतिपदा तिथि में होता है वह व्यक्ति अनैतिक तथा कानून के विरूद्ध जाकर काम करने वाला होता है इन्हें मांस मदिरा काफी पसंद होता है, यानी ये तामसी भोजन के शौकीन होते हैं। आम तौर पर इनकी दोस्ती ऐसे लोगों से रहती है जिन्हें समाज में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता अर्थात बदमाश और ग़लत काम करने वाले लोग।

2👉 द्वितीया तिथि:

ज्योतिषशास्त्र कहता है, द्वितीया तिथि में जिस व्यक्ति का जन्म होता है, उस व्यक्ति का हृदय साफ नहीं होता है। इस तिथि के जातक का मन किसी की खुशी को देखकर आमतौर पर खुश नहीं होता, बल्कि उनके प्रति ग़लत विचार रखता है। इनके मन में कपट और छल का घर होता है, ये अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए किसी को भी धोखा दे सकते हैं। इनकी बातें बनावटी और सत्य से दूर होती हैं। इनके हृदय में दया की भावना बहुत ही कम रहती है, यह किसी की भलाई तभी करते हैं जबकि उससे अपना भी लाभ हो। ये परायी स्त्री से लगाव रखते हैं जिससे इन्हें अपमानित भी होना पड़ता है।

3👉 तृतीया तिथि:

तृतीया तिथि में जन्म लेने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से अस्थिर होता है अर्थात उनकी बुद्धि भ्रमित होती है। इस तिथि का जातक आलसी और मेहनत से जी चुराने वाला होता है। ये दूसरे व्यक्ति से जल्दी घुलते मिलते नहीं हैं बल्कि लोगों के प्रति इनके मन में द्वेष की भावना रहती है। इनके जीवन में धन की कमी रहती है, इन्हें धन कमाने के लिए काफी मेहनत और परिश्रम करना होता है।

4👉 चतुर्थी तिथि:

ज्योतिष मान्यताओं के अनुसार जिस व्यक्ति का जन्म चतुर्थी तिथि को होता है वह व्यक्ति बहुत ही भाग्यशाली होता है। इस तिथि में जन्म लेने वाला व्यक्ति बुद्धिमान एवं अच्छे संस्कारों वाला होता है। ये मित्रों के प्रति प्रेम भाव रखते हैं। इनकी संतान अच्छी होती है। इन्हें धन की कमी का सामना नहीं करना होता है और ये सांसारिक सुखों का पूर्ण उपभोग करते हैं।

5👉 पंचमी तिथि:

पंचमी तिथि बहुत ही शुभ होती है। इस तिथि में जन्म लेने वाला व्यक्ति गुणवान होता है। इस तिथि में जिस व्यक्ति का जन्म होता है वह माता पिता की सेवा को धर्म समझता है, इनके व्यवहार में सामाजिक व्यक्ति की झलक दिखाई देती है। इनके स्वभाव में उदारता और दानशीलता स्पष्ट दिखाई देती है। ये हर प्रकार के सांसारिक भोग का आनन्द लेते हैं और धन धान्य से परिपूर्ण जीवन का मज़ा प्राप्त करते हैं।

6👉 षष्टी तिथि:

षष्टी तिथि को जन्म लेने वाला व्यक्ति सैर सपाटा पसंद करने वाला होता है। इन्हें देश-विदेश घुमने का शौक होता है अत: ये काफी यात्राएं करते हैं। इनकी यात्राएं मनोरंजन और व्यवसाय दोनों से ही प्रेरित होती हैं। इनका स्वभाव कुछ रूखा होता है और छोटी छोटी बातों पर लड़ने को तैयार हो जाता हैं।

7👉 सप्तमी:

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जिस व्यक्ति का जन्म सप्तमी तिथि को होता है वह व्यक्ति बहुत ही भाग्यशाली होता है। इस तिथि का जातक गुणवान और प्रतिभाशाली होता है, ये अपने मोहक व्यक्तित्व से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की योग्यता रखते हैं। इनके बच्चे गुणवान और योग्य होते हैं। धन धान्य के मामले में भी यह काफी भाग्यशाली होते हैं। ये संतोषी स्वभाव के होते हैं इन्हें जितना मिलता है उतने से ही संतुष्ट रहते हैं।

8👉 अष्टमी:

अष्टमी तिथि को जिनका जन्म होता है वह व्यक्ति धर्मात्मा होता है। मनुष्यों पर दया करने वाला तथा गुणवान होता है। ये कठिन से कठिन कार्य को भी अपनी निपुणता से पूरा कर लेते हैं। इस तिथि के जातक सत्य का पालन करने वाले होते हैं यानी सदा सच बोलने की चेष्टा करते हैं। इनके मुख से असत्य तभी निकलता है जबकि किसी मज़बूर को लाभ मिले।

9👉 नवमी:

नवमी तिथि को जन्म लेने वाला व्यक्ति भाग्यशाली एवं धर्मात्मा होता है। इस तिथि का जातक धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर शास्त्रों में विद्वता हासिल करता है। ये ईश्वर में पूर्ण भक्ति एवं श्रद्धा रखते हैं। धनी स्त्रियों से इनकी संगत रहती है इनके पुत्र गुणवान होते हैं।

10👉 दशमी:

देशभक्ति तथा परोपकार के मामले में दशमी तिथि के जातक श्रेष्ठ होते हैं। देश व दूसरों के हितों मे लिए ये सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु तत्पर रहते हैं। इस तिथि के जातक धर-अधर्म के बीच अंतर को अच्छी तरह समझते हैं और हमेशा धर्म पर चलने वाले होते हैं।

11👉 एकादशी:

एकादशी तिथि को जन्म लेने वाला व्यक्ति धार्मिक तथा सौभाग्यशाली होता है। मन, बुद्धि और हृदय से ये पवित्र होते हैं। इनकी बुद्धि तीक्ष्ण होती और लोगों में बुद्धिमानी के लिए जाने जाते है। इनकी संतान गुणवान और अच्छे संस्कारों वाली होती है, इन्हें अपने बच्चों से सुख व सहयोग मिलता है। समाज के प्रतिष्ठित लोगों से इन्हें मान सम्मान मिलता है।

12👉 द्वादशी:

द्वादशी तिथि में जन्म लेने वाले व्यक्ति का स्वभाव अस्थिर होता है। इनका मन किसी भी विषय में केन्द्रित नहीं हो पाता है बल्कि हर पल इनका मन चंचल रहता है। इस तिथि के जातक का शरीर पतला व कमज़ोर होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से इनकी स्थिति अच्छी नहीं रहती है। ये यात्रा के शौकीन होते हैं और सैर सपाटे का आनन्द लेते हैं।

13👉 त्रयोदशी:

त्रयोदशी तिथि ज्योतिषशास्त्र में अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। इस तिथि में जन्म लेने वाला व्यक्ति महापुरूष होता है। इस तिथि में जन्म लेने वाला व्यक्ति बुद्धिमान होता है और अनेक विषयों में अच्छी जानकारी रखता है। ये काफी विद्वान होते हैं। ये मनुष्यों के प्रति दया भाव रखते हैं तथा किसी की भलाई करने हेतु तत्पर रहते हैं। इस तिथि के जातक समाज में काफी प्रसिद्धि हासिल करते हैं।

14👉 चतुर्दशी:

जिस व्यक्ति का जन्म चतुर्दशी तिथि को होता है वह व्यक्ति नेक हृदय का एवं धार्मिक विचारों वाला होता है। इस तिथि का जातक श्रेष्ठ आचरण करने वाला होता है अर्थात धर्म के रास्ते पर चलने वाला होता है। इनकी संगति भी उच्च विचारधारा रखने वाले लोगों से होती है। ये बड़ों की बातों का पालन करते हें। आर्थिक रूप से ये सम्पन्न होते हैं। देश व समाज में इन्हें मान प्रतिष्ठा मिलती है।

15👉 पूर्णिमा:

जिस व्यक्ति का जन्म पूर्णिमा तिथि को होता है वह व्यक्ति पूर्ण चन्द्र की तरह आकर्षक और मोहक व्यक्तित्व का स्वामी होता है। इनकी बुद्धि उच्च स्तर की होती है। ये अच्छे खान पान के शौकीन होते हैं। ये सदा अपने कर्म में जुटे रहते हैं। ये परिश्रमी होते हैं और धनवान होते हैं। ये परायी स्त्रियो पर मोहित रहते हैं।

16👉 अमावस:

अमावस्या तिथि को जन्म लेने वाला व्यक्ति चतुर और कुटिल होता है। इनके मन में दया की भावना बहुत ही कम रहती है। इनके स्वभाव में ईर्ष्या अर्थात दूसरों से जलने की प्रवृति होती है। इनके व्यवहार व आचरण में कठोरता दिखाई देती है। ये दीर्घसूत्री अर्थात किसी भी कार्य को पूरा करने में काफी समय लेने वाले होते हैं।
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[भोजन के बाद सौंफ खाने के बेहतरीन फायदे और जबरदस्त नुस्खे

1 भोजन के बाद रोजाना 30 मिनट बाद सौंफ लेने से कॉलेस्ट्रोल काबू में रहता है।
2 पांच-छे ग्राम सौंफ लेने से लीवर और आंखों की रोशनी ठीक रहती है। अपच संबंधी विकारों में सौंफ बेहद उपयोगी है। बिना तेल के तवे पर सिकी हुई सौंफ और बिना तली सौंफ के मिक्चर से अपच होने पर बहुत लाभ होता है।
3 दो कप पानी में उबली हुई एक चम्मच सौंफ को दो या तीन बार लेने से अपच और कफ की समस्या समाप्त होने में मदद मिलती है।
4 अस्थमा और खांसी के उपचार में भी सौंफ का सेवन सहायक है।
5 कफ और खांसी होने पर भी सौंफ खाना फायदेमंद होता है।
6 गुड़ के साथ सौंफ खाने से मासिक धर्म नियमित होने लगते है।
7 यह शिशुओं के पेट और उनके पेट के अफारे को दूर करने में बहुत उपयोगी है।
8 एक चम्मच सौंफ को एक कप पानी में उबलने दें और 20 मिनट तक इसे ठंडा होने दें। इससे शिशु के कॉलिक का उपचार होने में मदद मिलती है। शिशु को एक या दो चम्मच से ज्यादा यह घोल नहीं देना चाहिए।
9 सौंफ के पावडर को शकर के साथ बराबर मिलाकर लेने से हाथों और पैरों की जलन दूर होती है। भोजन के बाद 10 ग्राम सौंफ लेनी चाहिए। 

ॐ हनुमते नमः

शनि कष्ट निवारण हेतु मंत्र, पूजा, दान विधि |

ज्योतिष में शनि ग्रह मकर और कुम्भ का स्वामी है। मकर पृथ्वी तत्त्व तथा कुम्भ वायु तत्त्व राशि है। मकर स्त्री वर्ण और कुम्भ पुरुष वर्ण राशि है। शनि ग्रह तुला में उच्च का तथा मेष में नीच का होता है। शनि का शुक्र और बुध के साथ मित्रता का सम्बन्ध है वही गुरु के प्रति शनि उदासीन है। शनि सूर्य को पूर्ण शत्रु ग्रह मानता है परन्तु सूर्य शनि को शत्रु नही मानता है।

जन्मकुंडली में शनि की महत्ता |

वस्तुतः शनिदेव कालचक्र के अधिपति है। इनके प्रभाव से प्रत्येक प्राणी नए जन्म के साथ एक नए स्वरूप में जन्म लेकर अपना विकास करता रहता है। इनका मृत्यु से साक्षात् सम्बन्ध है। इनके अधिदेवता यम हैं। इनका काम प्राणियों को मृत्यु प्रदान करना है। मृतक प्राणी की अन्तः शक्ति को उसके कर्मो के अनुसार यम उसे दूसरे जन्म के लिए तैयार करते है। इस प्रकार स्पष्ट है की जन्म-मरण के चक्र में शनि देव का कितना विशिष्ट योगदान है।

शनि के साथ ग्रहो की युति से अनेक प्रकार के योग उत्पन्न होते है। जैसे चन्द्रमा का शनि के साथ युति या प्रतियुति होती है तो सन्यास योग कहलाता है ऐसा जातक सांसारिक संबंधो के प्रति अनासक्त और परित्याग करने की भावना से युक्त होता है।

शनि कारक ग्रह है |

ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह कर्म, लोहा, खेती, चोरी, जेल, वृद्धावस्था, अध्यात्म, कंजूस, धार्मिक नेता, मशीन, कोयला, दुःख इत्यादि का कारक ग्रह है।

शनि और स्वास्थय |

शनि ग्रह स्वास्थ्य को अधिक रूप से प्रभावित करता है। यदि जन्मकुंडली में शनि ग्रह अशुभ स्थिति में है या अशुभ ग्रह के प्रभाव में है तो जातक हमेशा “मानसिक रूप से परेशान” रहता है। यदि शनि ग्रह पीड़ित है तो जातक जोड़ो के दर्द परेशान रहता है। अतः व्यक्ति को चाहिए की शनि से सम्बंधित मन्त्र, पूजा दान इत्यादि करे ऐसा करने से शारीरिक रोग से छुटकारा पा सकता है।

शनि ग्रह शुभ तथा अशुभ दोनों फल देता है |

शनि ग्रह यदि अनुकूल स्थिति में है और व्यक्ति ईमानदारी से काम किया है तो उसे मनोनुकूल फल की प्राप्ति होती है। जातक जो भी काम करता है उसमें उसे सफलता मिलती है। इस सफलता के कारण उसे समाज में मान-सम्मान और प्रतिष्ठा भी मिलता है। यदि शनि जन्मकुंडली में शुभ स्थिति में है तो यह जातक की सभी इच्छाओं को पूर्ण करने की शक्ति रखता है इसी शनि की दशा में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी थी परन्तु यदि यह अशुभ स्थिति में है तो वह कार्य के प्रति उदासीनता देता है परिणामस्वरूप व्यक्ति मानसिक पीड़ा का अनुभव करता है।

शनि कष्ट निवारण हेतु आराध्यदेव

शनि ग्रह के लिए आराध्य देव भैरवनाथ जी तथा ब्रह्मा जी है। अतः शनि की शांति हेतु हनुमानजी या भैरवजी की आराधना करनी चाहिए।

शनि कष्ट निवारण हेतु मंत्र |

जन्मकुंडली में शनि के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए शनि मंत्र का जप करने से अनेक प्रकार की समस्याओ से मुक्ति पा सकते है। यदि आप शनि के अशुभ प्रभाव से पीड़ित हैं या जन्मकुंडली में यह ग्रह यदि अशुभ स्थिति में है, तो आपको यह उपाय अवश्य करना चाहिए। शनि मन्त्र का जप शनिवार के दिन से आरम्भ करना चाहिए।

शनि कष्ट निवारण हेतु तांत्रिक मंत्र |

“ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनवे नमः”

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय नमः

ॐ शं शनैश्चराय नमः

शनि कष्ट निवारण हेतु गायत्री मंत्र

ॐ भग भवाय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्न: शनि प्रचोदयात।।

शनि कष्ट निवारण हेतु वैदिक मन्त्र

ॐ शन्नोदेवीरभीष्टये आपो भवन्तु पीतये श्योरिवश्रवन्तुनः। शनि मन्त्र की जप संख्या

जप संख्या – 23000

हवन –

तर्पण – 190

मार्जन – 19

ब्राह्मण भोजन – 2

शनि कष्ट निवारण हेतु दान |

शनि ग्रह के लिए निम्नलिखित वस्तुओं का दान देना चाहिए। दान से पूर्व शनि ग्रह की पूजा विधिवत करनी चाहिए उसके बाद नवग्रह की पूजा करे। शनि से संबंधित वस्तुओं का दान शनिवार के दिन संध्या काल में जरूरतमंद वृद्ध वा गरीब व्यक्ति को दान देना चाहिए यदि यह सम्भव नहीं हो सके तो किसी ब्राह्मण को दान दे।

काली तिल
काला वस्त्र
तेल
जूता
लोहा
भैस
उड़द
नीलमणि

शनि कष्ट निवारण हेतु तांत्रिक टोटका

“दशरथ कृत शनि स्तोत्र“ का नियमित पाठ करे।
अपने भोजन में से प्रथम ग्रास निकालकर काली गाय को खिलावें।
शिवजी के भैरवजी की रूप की अराधना करें।
हनुमानजी की पूजा आराधना करें।
पीपल के वृक्ष में प्रतिदिन अथवा शनिवार के दिन जल दे।
शनि ग्रह की शांति हेतु व्रत

शनि ग्रह की पीड़ा को शांत करने के लिए जातक को शनिवार का व्रत करना चाहिए। यह व्रत ज्येष्ठमास के शुक्लपक्ष में प्रथम शनिवार से आरम्भ करना चाहिए।

शनि कष्ट निवारण हेतु कौन सा रत्न धारण करें

यदि शनि ग्रह आपके कुंडली में शुभ है या योगकारी है या लग्न का स्वामी है और उसे बलप्रदान करना है तो वैसी स्थिति में जातक को लोहे या पञ्च धातु में नीलम रत्न “नीली रत्न” की अंगूठी धारण करनी चाहिए।

शनि की शांति के लिए किस रुद्राक्ष को धारण करे

जिस जातक का शनि कमजोर है वैसे व्यक्ति को “सात मुखी रुद्राक्ष” की पूजा तथा धारण करनी चाहिए । शनि ग्रह से अधिष्ठित सात मुखी रुद्राक्ष साक्षात कामदेव रूप में स्थित है इसके धारण करने से विपुल वैभव, भाग्योदय और उत्तम आरोग्य की प्राप्ति होती है।
[ कैरियर और जानकारियां
आज भौमवती अमावस्या है और चंद्र मिथुन राशि में संचर कर रहा है जो की द्विस्वभाव राशि है इसी मौके पर मैं आपको कैरियर से जुड़े कुछ जानकारी
यू तो कैरियर व्यक्ति के जीवन की आधारभूत सीढी है जिसके बिना व्यक्ति सफल नही हो सकता और हर नवयुवा पीढ़ी इस सीढ़ी को लेकर सचेत रहती है।
👌 दसवे में बैठा सूर्य , मंगल सदा शुभ लेकिन नीच के ना हो तो, बुध शुक्र सामान्य , चंद्र पीड़ित ना हो तो भी सामान्य गुरु हो तो उत्तम लेकिन शनि और केतु हो तो बधाये आती है राहु भी कुछ मिला जुला फल ही देता है।
👌दशमांश में लग्न में राहु केतु हो तो ये कैरियर का सत्यानाश करते है।
👌शनि और केतु की युति दसवे भाव में हो तो (एक दूसरे से 9 डिग्री पर हो) तो जातक कैरियर को लेकर फसता है।
👌 कुछ शास्त्रो के हिसाब से दसवा शनि अच्छा ही फल देता है कैरियर को लेकर लेकिन ये सच्चाई नही है मेरे अनुभवों में ये शत प्रतिशत सही नही मिला।
👌केतु दसवे में हो तो ये जातक को कही भी स्थाई रूप से काम या नौकरी नही करने देता जातक अपना प्रोफेशन बदलते रहता है एक जगह नही टिकता।। 👌 छठे में चंद्र , गुरु हो तो भी परेशानी होती है , दशमांश का स्वामी स्वराशि में दशमांश में ही 5 ,7,9 और 11 में बैठे तो उत्तम कैरियर।
👌लग्न कुंडली में दसवे का स्वामी चौथे में और छष्ठेश दूसरे भाव में हो और गुरु स्वराशि का हो तो नौकरी अच्छे पैकेज वाली मिलती है।
👌 अक्सर कई लोग पैसे देते है बॉन्डिंग के लिए या जॉब के लिए उन लोगो के पैसे फस जाते है जब उनकी कुंडली में अष्टमेश दशम में बैठे अथवा शनि और केतु बिना युति के दसवे भाव में बैठे।
👌सूर्य बारवा हो गुरु नौवा हो और शुक्र चौथा हो तो कैरियर अच्छा होता है।
👌 छठा सूर्य , तीसरा सूर्य , दसवा सूर्य और एकादश शनि , चौथा शनि , सातवा शनि लेकिन हा इन सब योगो के साथ सप्तमेश दशम में और दशमेश छष्टम या दशमेश सप्तम में हो तो सरकारी नौकरी के योग बनते है ।
👌 शनि स्वनवांश , उच्च नवांश में हो लग्न में दसवे भाव में गुरु से दृष्ट या युत्त हो तो शुभ , भाग्येश शनि दशम में शुभ लेकिन शुरवात में तकलीफ को नकारा नही जा सकता।
👌दसवे भाव में वक्री ग्रह हो या दसवे भाव का स्वामी वक्री हो तो भी शुरवात में परेशानी होती है।
👌छठे का स्वामी नीच अवस्था में हो और दसवे का स्वामी भी पीड़ित हो तो कैरियर तमाशा बन के रहता है राहु दसवे में हो तो जातक हमेशा अपने काम से भागने की कोशिश करता है और केतु दसवे में हो तो काम जातक से दूर भागने की कोशिश करता है।
👌 अब ऐसा नही है की जिनके दसवे में राहु, केतू और शनि हो तो जातक काम नही करता या कैरियर नही होता , होता है लेकिन शुरवात में ये लोग बहुत घिसते है और नौकरी के लिए संघर्ष का सामना करते है।
👌बाकी दसवे में राहु ,शनि और केतु हो तो जातक राजनेता बहुत अच्छा बन सकता है लेकिन फिर वहां भी जातक का कैरियर स्थिर नही रहेगा उतार चढ़ाव चलता रहेगा।
👌अष्टक वर्ग में दसवे से ज्यादा एकादश में बिंदु हो तो जातक कम कैरियर में बहुत कमा लेता है।
👌यू तो दसवा भाव स्वतन्त्र व्यापार के लिए और अपने इच्छा से किये जाने वाले कार्य के लिए देखा जाता है लेकिन छठा भाव दुसरो के अंडर मे किये जाने वाले कामो को दर्शाता है इसलिए दोनी भावो का विश्लेषण करना अनिवार्य है।
👌 लग्नेश तीसरे, ग्यारवे और दसवे भाव में बैठे तो भी कैरियर के लिए शुभ।
👌 छष्ट भाव, एकादश में ज्यादा बिंदु हो तो जातक नौकरी कर के बहुत पैसा कमाता है साथ ही छ्ठेश एकादश में और दसमेश सप्तम में बैठे तो भी ये उत्तम योग है ही सकता है कैरियर के शुरवात में परेशानी हो लेकिन उसके बाद जीवन आराम से गुजर जाता है।
👌पंचमेश का दसवे में होने से जातक जिस फील्ड को चुनता है या जिस विषय का अध्ययन करता है उसी फील्ड में अच्छी नौकरी करता है।
• दशमेश अस्त हो तो कैरियर को लेकर बहुत परेशानी होती है , दसवे भाव में शुभ ग्रह यदि पाप कर्तरी में हो तो भी परेशानी आती है। दसमेश का तीसरे , एकादश और लग्न में होना भी शुभ, छठे में मंगल केतु हो एवम दशम में हर्षल ग्रह हो तो जातक सर्जर होता है, मंगल दशम मे शनि छठे में और सूर्य लग्न में हो तो भी कैरियर के लिए शुभ।
• सूर्य शनि की युति कैरियर के aspect में शुभ , शनि केतु की युति अशुभ, गुरु चंद्र की शुभ , बुध राहु की अशुभ (मिथुन , कन्या राशि में शुभ) , सूर्य का पीडत होना कहि न कहि कार्यक्षेत्र में बाधा लाता है।

  • कैरियर को लेकर मैने कई रिसर्च की मुझे एक बात तो अच्छेसे पता चली यदि शनि , केतु कुंडली में दसवे भाव में हो तो जातक कैरियर को लेकर चिंतित जरूर रहता है और गुरु , शुक्र और बुध दसवे में गुरु के दृष्टि में हो तो ठीक और सूर्य मंगल भी गुरु के दृष्टि में हो तो उत्तम और चंद्र बलि हो तो शुभ नही तो उतार चढ़ाव वहां भी दिखता है, कुछ दिनों से मैं busy था लेकिन आज थोड़ा समय मिल गया सोचा कैरियर पर किये कुछ अनुभवों पर एक लेख लिख दु ।
    👌विशेष खैर आज की तारीख में हर दूसरा इंसान बेरोजगार है या अपनी नौकरी से सन्तुष्ट नही है इसका कारण बढ़ती जन संख्या के साथ साथ शिक्षा अध्ययन के गलत तरीके एवं यूनिवर्सिटी में नाम के पढ़ाई के कारण भी है क्योकि कुछ स्टूडेंट्स की नज़र में कॉलेज अय्याशी का अड्डा है जहा मौज मस्ती करना है बाकी नौकरी के बारे में ओ तब सोचते है जब कॉलेज खत्म हो जाता है यहा तक की भारत ऐसा मुल्क है जहा ग्राजवेशन के बाद पता चलता है की हम तो इस फील्ड के लिए बने ही नही थे कुछ अलग करना है ग्रहो की स्तिथि तो खैर ठीक है लेकिन हम जो अपनी स्तिथि खराब कर रहे उसका क्या ? आज कल विद्यार्थी सीखने के बजाय मनोरंजन पर अधिक ध्यान देते है और जब नौकरी करने का समय आता है तो वह सीखने बैठ जाते है खैर इस परिवर्तन के पीछे राहु का बड़ा रोल है। कैरियर होगा तो मनोरंजन जिंदगी भर चलेगा और कैरियर ही नही होगा तो क्षणिक मनोरंजन ही जिंदगी भर याद रहेगा। हर शनिवार बजरंगबली को नारियल चढ़ाये , दशमेश से सम्बन्धित चीजो का दान करे , मंगलवार के दिन बूंदे 11 लड्डू बजरंग बलि को चढ़ाये छोटी मोटी कैरियर सम्बन्धित परेशानी दूर होगी।
    कल से गुप्त नवरात्रे शुरू हो रहे है नव दिन माँ की गुप्त पूजा जरूर करे एवम उनकी सेवा करे आप सभी को गुप्त नवरात्रों की शुभकामनाये माँ आप सबकी मनोकामना पूरी करे।
    सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वासाधिके शरण त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते ❣️
    [03/07, 00:38] Daddy: बीमार पड़ने के पहले , ये काम केवल आयुर्वेद ही कर सकता है. —-
    1–केंसर होने का भय लगता हो तो रोज़ाना कढ़ीपत्ते का रस पीते रहें.
    2– हार्टअटेक का भय लगता हो तो रोज़ना अर्जुनासव या अर्जुनारिष्ट पीते रहिए.
    3– बबासीर होने की सम्भावना लगती हो तो पथरचटे के हरे पत्ते रोजाना सबेरे चबा कर खाएँ .
    4– किडनी फेल होने का डर हो तो हरे धनिये का रस प्रात: खाली पेट पिएँ.
    5– पित्त की शिकायत का भय हो तो रोज़ाना सुबह शाम आंवले का रस पिएँ.
    6– सर्दी – जुकाम की सम्भावना हो तो नियमित कुछ दिन गुनगुने पानी में थोड़ा सा हल्दी चूर्ण डालकर पिएँ.
    7– गंजा होने का भय हो तो बड़ की जटाएँ कुचल कर नारियल के तेल में उबाल कर छान कर,रोज़ाना स्नान के पहले उस तेल की मालिश करें.
    8– दाँत गिरने से बचाने हों तो फ्रिज और कूलर का पानी पीना बंद कर दें .
    9– डायबिटीज से बचाव के लिए तनावमुक्त रहें, व्यायाम करें, रात को जल्दी सो जाएँ, चीनी नहीं खाएँ , गुड़ खाएँ.
    10–किसी चिन्ता या डर के कारण नींद नहीं आती हो तो रोज़ाना भोजन के दो घन्टे पूर्व 20 या 25 मि. ली. अश्वगन्धारिष्ट ,200 मि. ली. पानी में मिला कर पिएँ .
    किसी बीमारी का भय नहीं हो तो भी — 15 मिनिट अनुलोम – विलोम, 15 मिनिट कपालभाती, 12 बार सूर्य नमस्कार करें.
    स्वयं के स्वास्थ्य के लिए इतना तो करें .
    : 🙏🏻🙏🏻💐💐🕉🕉🌹🌹 करो योग रहो निरोग

बवासीर के घरेलू उपचार

बवासीर मलाशय के आसपास की नसों की सूजन के कारण विकसित होता है। बवासीर दो प्रकार की होती है,खूनी बवासीर और बादी वाली बवासीर,खूनी बवासीर में मस्से खूनी सुर्ख होते है,और उनसे खून गिरता है,जबकि बादी वाली बवासीर में मस्से काले रंग के होते है,और मस्सों में खाज पीडा और सूजन होती है। बवासीर बेहद तकलीफदेह होती है। देर तक कुर्सी पर बैठना और बिना किसी शेड्यूल के कुछ भी खा लेना इसका प्रमुख कारण है।हम आपको यहाँ पर कुछ घरेलू नुस्खों के बारे में बताते हैं जिससे बवासीर और इससे होने वाले दर्द में राहत मिल सकती है।

*एक पके केले को बीच से चीरकर उसके दो टुकडे कर लें फिर उस पर कत्था पीसकर छिडक दें, इसके बाद उस केले को खुले आसमान के नीचे शाम को रख दें,सुबह को उस केले को शौच करने के बाद खालें। एक हफ़्ते तक लगातार इसको करने के बाद भयंकर से भयंकर बवासीर भी समाप्त हो जाती है।

*खूनी बवासीर में एक नींबू को बीच में से काटकर उसमें लगभग 4-5 ग्राम कत्था पीसकर डाल दीजिए। इन दोनों टुकड़ों को रात में छत पर खुला रख दीजिए। सुबह उठकर नित्य क्रिया से निवृत होने के बाद इन दोनों टुकड़ों को चूस लीजिए। पांच दिन तक इस प्रयोग को कीजिए। बहुत फायदा होता है।

*करीब दो लीटर मट्ठा लेकर उसमे 50 ग्राम पिसा हुआ जीरा और थोडा सा सेंधा नमक जरुर मिला दें। पूरे दिन पानी की जगह यह मट्ठा ही पियें। चार-पाँच दिन तक यह प्रयोग करें, मस्से काफी ठीक हो जायेंगे।

*छोटी पिप्पली को पीस कर उसका चूर्ण बना ले, इसे शहद के साथ लेने से भी आराम मिलता है|

*नीम के छिलके सहित निंबौरी के पावडर को प्रतिदिन 10 ग्राम मात्रा में रोज सुबह बासी पानी के साथ सेवन करें, लाभ होगा। लेकिन इसके साथ आहार में घी का सेवन आवश्यक है। *जीरे को पीसकर मस्सों पर लगाने से भी फायदा मिलता है, साथ ही जीरे को भूनकर मिश्री के साथ मिलाकर चूसने से भी फायदा मिलता है।

*बवासीर की समस्या होने पर आंवले के चूर्ण को सुबह-शाम शहद के साथ लेने से भी जल्दी ही फायदा होता है।

*एक चम्मच आंवले का चूर्ण सुबह शाम शहद के साथ लेने से भी बवासीर में लाभ प्राप्त होता है।

*नीम का तेल मस्सों पर लगाने से और 4- 5 बूँद रोज़ पीने से बवासीर में बहुत लाभ होता है।

*एक चाय का चम्मच धुले हुए काले तिल ताजा मक्खन के साथ लेने से भी बवासीर में खून आना बंद हो जाता है।

*50 ग्राम बड़ी इलायची को तवे पर रखकर भूनते हुए जला लीजिए। ठंडी होने के बाद इस इलायची को पीस लीजिए। प्रतिदिन सुबह इस चूर्ण को पानी के साथ खाली पेट लेने से बवासीर में बहुत आराम मिलता है।

*नियमित रुप से गुड के साथ हरड खाने से भी बवासीर में जल्दी ही फ़ायदा होता है।

*नागकेशर, मिश्री और ताजा मक्खन इन तीनो को रोजाना बराबर मिलाकर 10 दिन खाने से बवासीर में बहुत आराम मिलता है।

*जमीकंद को देसी घी में बिना मसाले के भुरता बनाकर खाएँ शीघ्र ही लाभ मिलेगा।

*सुबह खाली पेट मूली का नियमित सेवन भी बवासीर को खत्म कर देता है।

*बवासीर की समस्या होने पर तरल पदार्थों का अधिक से अधिक सेवन करें।
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*🔥कैमिकल युक्त फल-सब्जियों को साफ करने के खास उपाय👇🏿👇🏿*

फलों और सब्जियों में मौजूद पेस्टीसाइड हमारे शरीर के लिये हानिकारक होता है इसके लिये जरूरी है कि उन्हें कुछ खास तरीकों से धोया जाये…

उत्तम क्वालिटी के फल और सब्जियों की चाहत में आज के किसान सस्ते और हानिकारक कैमिकल का प्रयोग करते हैं। जिन्हें पेस्टीसाइड कहा जाता है। फलों और सब्जियों के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचकर ये हानिकारक पेस्टीसाइड कैंसर , बच्चों में जन्मजात अपंगता जैसी बीमारी पैदा कर सकते हैं। हमारे शरीर को ये पेस्टीसाइड नुकसान न पहुंचा सके इसके लिये जरूरी हैं कि इन फलों और सब्जियों को खाने से पहले ठीक से साफ किया जाये, आखिर क्या है ये तरीका….

👉🏿नमक वाला पानी

सेंधा नमक मिले हुए पानी से फलों और सब्जियों को धोने से कीटनाशक का सफाया हो जाता है।

इसके लिये एक बड़े बर्तन में पानी भरें, उसमें सेंधा नमक डालकर 10 मिनट के लिये फल और सब्जियों को भिगो दें, फिर साफ पानी से धोकर खाने के लिये प्रयोग करें।

👉🏿हल्दी युक्त पानी

हल्दी में एंटीबैक्टीरियल गुण होते हैं जो कीटाणुओं का नाश करती है। एक भिगोने में पानी भरकर गर्म करें। जब पानी उबलने लगे तो उसमें 3 बड़े चम्मच हल्दी डाल दें। पानी जब ठंडा हो जाये तो उसमें फल और सब्जी डालकर अच्छी तरह धोये, फिर साफ पानी से धोकर प्रयोग करें।

👉🏿सिरके का प्रयोग

एक भिगोने में पानी भर कर उसमें 1 कप सफेद सिरका डाल दें। इसमें फलों और सब्जियों को डालकर अच्छी तरह धोयें और साफ पानी से धोकर प्रयोग करें।

👉🏿बेकिंग सोडा

भिगोने में पानी भरकर उसमें 4 चम्मच बेकिंग सोडा डाल दें। फलों और सब्जियों को 15 मिनट के लिये इसमें डुबो दें। साफ पानी से धोकर खायें। बेकिंग सोडा कीटनाशकों के हानिकारक प्रभाव को पूरी तरह साफ कर देता है।

👉🏿छिलका छील कर खायें

अगर आप फल और सब्जियों को धोकर उनका छिलका निकालकर खायें तो 90 प्रतिशत कीटनाशक तो फल में से अपने आप ही निकल जाएंगे।

🥣स्वच्छ खाएं स्वस्थ रहें⛹🏻

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