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ओडिशा के प्राचीन इतिहास।

ओडिशा और श्री जगन्नाथ का सम्बन्ध अविच्छेद्य है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ “जगत् का नाथ” नहीं है। कारण नाथ शब्द भर्ता, ईश्वर आदि के अर्थमें व्यवहार किया जाता है, जिसमें ब्रह्म और विश्व – यह द्वैत के भावना होती है। यह दोनों सृष्ट और प्रविष्ट ब्रह्म का वाचक हो कर जन्म (प्रादुर्भाव, जात नहीं) लेते हैं (जन्माद्यस्य यतः)। परन्तु जगन्नाथ प्रविविष्ट ब्रह्म है जिनके विषय में कहने के लिए शास्त्र भी अधिकृत नहीं है (यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।)। ब्रह्म का वह आनन्द जहाँ से कुछ भी प्राप्त किए बिना वाणी वापिस लौट आती है तथा मन भी जहाँ पहुँच कर विस्मय से चकित होकर लौट आता है, ब्रह्म के उस आनन्द को कौन जानता है? वह चाहे इस जगत् में, चाहे अन्यत्र, कहीं भी, भयभीत नहीं होता। यहाँ आनन्द शक्ति का अर्थ सर्व स्वातन्त्र्य है। इसीलिए जगन्नाथ का अपूर्व मूर्ति, जो अचिन्त्य, अप्रमेय, निर्गुण ब्रह्म का सगुण चिन्तन का परिप्रकाश है, विश्व के अन्य सब देवताओं (महिमान एवैषामेते) के मूर्ती से विलक्षण है। अथ शब्द आनन्तर्यवाची है। अतः विश्व के साथसाथ जो अनकहा तत्त्व है (जगत् न अथ), उस तत्वको जगन्नाथ कहते हैं। यही जगन्नाथके साथ ओडिआ जाति का आत्मिक सम्बन्धको दिखाता है, तथा उनके लक्षण (न बिभेति कुतश्चन, कलिङ्गाः साहसिकाः) को भी दर्शाता है।

आधुनिक ओडिशा राज्य तीन प्राचीन जनपद का समाहार है। यह तीन है उत्कल, कलिङ्ग और ओड्र। इन्हे त्रिकलिङ्ग भी कहा जाता है। चित्रोत्पला नदी से लेकर गङ्गा नदी पर्यन्त क्षेत्र उत्कलिङ्ग (उत्तर कलिङ्ग) अथवा उत्कल था। ओड्र मध्य कलिङ्ग है। इसका व्याप्ति चित्रोत्पला नदी से ले कर वंशधारा नदी पर्यन्त था। मुख्य कलिङ्ग दक्षिण कलिङ्ग है, जिसका व्याप्ति वंशधारा नदी से ले कर गोदावरी नदी पर्यन्त था। मोगल आक्रमण पर्यन्त, कलिङ्ग का यही व्याप्ति था। हरिवंशपुराण के मत में मनु के वंशज सुद्युम्न के तीन पुत्र थे – उत्कल, गय और विनताश्व। इनके नाम से तीन देश हुए। उत्कल के नाम से उत्कल, गय के नाम से गया तथा विनताश्व के नाम से पश्चिमदेश हुए।

पूर्व भारत में बाली नामक एक राजा हुए। वह निःसन्तान थे। दीर्घतमा नामक वैदिक ऋषि के कृपा से उनके पाञ्च सन्तान हुए, जिनके नाम थे – अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, पुण्ड्र ओर सुम्हु। इनके नाम से पाञ्च जनपद (अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग आदि) स्थापित हुए। यह आख्यायिका शतपथब्राह्मणम्, मनुसंहिता, बौधायन धर्मसूत्रम्, अष्टाध्यायी, रामायण, महाभारत तथा विभिन्न पुराणों, रघुवंश, वृहत्संहिता आदि ग्रन्थों में मिलता है। कलिङ्ग के राजा श्रुतायु और श्रुतसेन महाभारत युद्ध में भाग लिया था। कपिलपुराण और एकाम्र पुराण केवल ओडिशा के विषय में है। युगपुराण में भी प्राचीन कलिङ्गराज के ख्रीष्टपूर्व 50 के आसपास मगध अभियान तथा वहाँ से यवनराज दिमित (Demetrios) को परास्त कर भागने पर विवश कर देने का इतिहास है, जो हाथीगुम्फा के शिलालेख से समर्थित है (गोरथगिरिं धातापयिता राजगहं उपपीडयति)। उसके चार वर्ष पश्चात् अङ्गदेश को जय करने के पश्चात् वह द्वितीय वार मगध आक्रमण कर के वृहष्पतिमित्र को परास्त कर तीन सौ वर्ष पूर्व ले जाया गया कलिङ्ग के जीनासन को पुनः प्राप्त किया था। दक्षिण में वह कृष्णानदी पर्यन्त विजयलाभ किया था। अलर्कचन्द्र (Alexander) जिन प्राच्य (Prasioi) राजाओं का विक्रम तथा उनके गजारोही सैन्यों के विषय में सुन कर भयभीत हुये थे, वह कलिङ्गराज ही थे। कारण केवल कलिङ्गराज को आज पर्यन्त गजपति सम्बोधन किया जाता है – अन्य राजाओं को नहीं। आन्ध्र के विजयनगरम् (Vizianagaram) और विजयवाहुडा (Vijaywada) दोनों नगर तथा सिम्हाचलम् के वराहलक्ष्मीनृसिंह मन्दिर तथा विजयवाडा के कनकदुर्गा मन्दिर भी कलिङ्ग राजाओं ने वनाया है।

उत्कल तथा कलिङ्ग का नामकरण तत्कालीन राजाओं के नाम पर हुआ था। परन्तु ओड्र नाम गुणवाची है। इसीलिए, भरत के नाट्यशास्त्रमें देशप्रवृत्ति में ओड्र नाम आता है। क्लीव लिङ्ग में ओड्र शब्द का अर्थ जवापुष्प है, जो अपने लालरङ्ग के कारण प्रसिद्ध है (ॐ जवाकुसुम सङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्)। रक्तवर्ण क्षात्रधर्म और वीरता का प्रतीक है। आ उपसर्ग पूर्वक (धात्वर्थविशेषे मर्यादासीमायामभिव्याप्तिसीमायामीषदर्थे, समुच्चये, अनुकम्पया चेयम् आ शब्दः) उ रोषोक्ति पूर्वकं डयते इति उड् धातुमें घे और रक् प्रत्यय से ओड्र शब्द निष्पन्न हुआ है। उड् धातु अपाणिनीय है। अतः ओड्र जाति का प्राचीनता स्वयंसिद्ध है। कुछ लोग ओड्र शब्द का व्युत्पत्ति इस प्रकार करते हैं – आ इषदुनत्ति। उन्दीँ क्लेद॑ने + स्फायितञ्चीति रक्। बाहुलकात् दस्य डत्वम्। परन्तु यह व्युत्पत्ति समीचीन नहीं लगती।

सिंहल के प्राचीन इतिहास दीपवंस और महावंस के मत में सिंहलद्वीप का स्थापना सिंहवाहु पुत्र विजयसिंह ने किया था। सिंहलीय प्राचीन कवि धर्मकीर्त्ति के मत में सिंहवाहु कलिङ्ग के राजा थे। दीपवंस में सिंहवाहु को लाल वंश का सम्राट कहागया है। यहाँ लाल का अर्थ ओड्र है।

महाराणी त्रिभूवन महादेवी के ढेन्कानाल ताम्रपत्र से प्रमाण मिलता है कि ओडिशा के भौम राजाओं ने अनेक बौद्ध स्तूप वनाये थे। ओडिशा के रत्नगिरि, ललितगिरि तथा शिशुपालगढ अन्यून ख्रिष्टपूर्व पञ्चम शताव्दी से चल रहे थे और नालन्दा से भी प्रसिद्ध माने जाते थे। बौद्ध तन्त्र में तीन मुख्य विभाग है – वज्रयान, कालचक्रयान और सहजयान। ओडिशा के आचार्य पीतोपाद ही कालचक्रयान के प्रणेता है। साधनमाला ग्रन्थ के अनुसार वज्रयान के चार प्रमुख पीठों में से उड्डीयान (ओडिशा) एक है। सम्बलक (आधुनिक सम्बलपुर) के राजा इन्द्रभूति ने महायान में संस्कार कर वज्रयान का प्रथम ग्रन्थ ज्ञानसिद्धि का रचना किया था। इन्द्रभूति के गुरु अनङ्गवज्र प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रज्ञोपायविनिश्चयसिद्धि के रचयिता है। इन्द्रभूति के दत्तकपुत्र पद्मसम्भव तिव्वत के लामा पन्थ के स्रष्टा है। उनके भगिनी लक्ष्मीङ्कर भी बौद्धधर्म के प्रचार प्रसार के लिए वहुत योगदान की थी।

कोणार्क सूर्यमन्दिर में जिराफ़ का छवि प्रमाण करता है कि ओडिशा के लोग विदेश के विषय में ज्ञान रखते थे। सिंहलीय कवि महामङ्गल थेर के बुद्धघोषुपत्ति ग्रन्थ से पता चलता है कि पूर्व भारत के सब से प्रमुख बंदरगाह था तुषितपुर जो तोषली नाम से जाना याता था। टलेमी ने ओडिशा के प्राचीन बंदरगाह का वर्णन में मेदिनीपुर से पालुर के मध्य में 14 बन्दरगाहों का नाम गिनाये हैं, जो कोसवा, आडामस्, केवला, दोसरन् (तोषली), मिनाशर, मपोर, ताइन्डिस, सिप्परा, कोटवार, मानदा, कन्नागर, कटिकर्दम, ननिचेना तथा पालुर है। पालुर एक प्रसिद्ध बंदरगाह था, जो चिलिका के निकट स्थित है और जहाँ से ओडिशा के वणिक पूर्वी एसिया के देशों में जाते थे। आज भी उसके स्मृति में कार्तिकपूर्णिमा के दिन साधववोहु (वणिकों के पत्नियाँ) “आ का मा भै” कह कर नावों का वन्दन (बोइत बन्दाण) करते है, जहाँ “आ का” का अर्थ है “आषाढ में आये थे। कार्तिक में जा रहे हैं”। वणिक अपने पत्नियों को आश्वस्त कर के कहते हैं “मा भै” – भय नहीं करो। ओडिशा के संस्कृति में तअपोइ, खुदुरुकुणि, सोमनाथ व्रत, बोइत बन्दाण, बालि यात्रा आदि यही समुद्रगमन परम्परा को दर्शाता है।

बालि यात्रा, जो महानदी के तीर में प्रत्येक वर्ष मनाये जाने वाला एक प्रसिद्ध पर्व है, समारोहपूर्वक बाली द्वीप (Bali island) को जाने का स्मृति है। “आ का मा भै” के पश्चात् “पान गुआ खाइ” कहते है जिसका अर्थ पान ओर सुपारी खाना है। बाली में “मसकापान के टुकड” पर्व, लाओस् (Laos) के “थाट् लुआंग” तथा थाइल्याण्ड (Thailand) का “बोन् ओम् तौक” पर्व उसीका प्रतिफलन है। ऐसी परम्परा अन्यत्र नहीं मिलते। जाभा (Java) के बोरोबुद्दुर मन्दिर तथा काम्बोडिया के आङ्गकरवट मन्दिर भी ओडिशा के शैली में वनाये गये हैं। बाली में विदेशियों को क्लीङ्ग कहते हैं, जो कलिङ्ग का अपभ्रंश है। पालुर बन्दर से जाने के कारण उनके भाषा को पाली कहा जाता था। भाषा के अर्थ में पालि शब्द का व्यवहार वहीं से आरम्भ हुआ। त्रिपिटक में पालि शब्द का व्यवहार भाषा के अर्थ में नहीं है। मूल अर्थ को द्योतित करने के लिए पालि शब्द का व्यवहार हुआ है, जैसे कि उदान पालि, महावग्ग पालि आदि। दीपवंस आदि पालि को बुद्धवचन अर्थ में लिया है। ज्ञात रहे कि गौतम बुद्ध के प्रथम शिष्य तपसु और भल्लिक थे, जो कलिङ्ग के वणिक थे।

ऋषि अगस्त्य ने जो तमिल भाषा प्रणयन किया था वह संस्कृत के समकालीन है और उस प्राचीन तमिल को सेन्तमिल कहते हैं। थिरुक्कुराल इसी भाषा में लिखा गया है, जो आधुनिक तमिल से भिन्न है। प्राकृत के समकालीन भाषा को कोडुन्तमिल कहते हैं। तमिलनाडु के अन्यतम प्रसिद्ध भाषा तोलकप्पियम् उसी परम्परा में आता है (ऐन्दिर निरैन्द तोलकप्पियम्)। पालि उसी समय के पूर्व-प्राकृत भाषा है। उसी से आधुनिक ओडिआ भाषा का विस्तार हुआ। यह सब भाषा ऐन्द्र व्याकरण को मानते हैं, जो अष्टाध्यायी से प्राचीन और भिन्न है। कच्चायन व्याकरण के सूत्रसंख्या 7, 10, 11, 31, 54, 57, 133, 165, 166, 167 अष्टाध्यायी से भिन्न है तथा ऐन्द्र व्याकरण और प्रातिशाख्य को अनुसरण करते हैं। इन्द्र ही अखण्डा वाक् को प्रकृति-प्रत्यय भेद से व्याकृ (हिंसित – विभक्त) किया था। अतः इस प्रक्रिया को “व्याक्रियन्ते शब्दाननेनेति” अर्थ में व्याकरण कहते हैं। इन्द्र प्रथम व्याकरणकार है।

ज्ञात रहे कि वररूची कृत प्राकृतप्रकाशः के एकादशः परिच्छेदः में कहा गया है कि “मागधी। प्रकृतिः शौरसेनी” – मागधी का प्रकृति (मूल) शौरसेनी है। उसी के द्वादशः परिच्छेदः में कहा गया है कि “शौरसेनी। प्रकृतिः संस्कृतम्।” – शौरसेनी का प्रकृति (मूल) संस्कृत है। अतः मागधी संस्कृत से आया है और पालि प्राकृत से। इसी कारण पालि और मागधी में अनेक उच्चारणगत विरोधाभास है। मोगल्लान व्याकरण मगध के छात्रों को पालि शिखाने के लिये लेखा गया था। इसलिए इसमें कच्चायन व्याकरण से भिन्नता देखने को मिलती है। ख्रिष्टपूर्व 50 के आसपास कलिङ्गराज महामेघवाहन ऐर खारवेल के समस्त शिलालेख पालि में ही है। अशोक के ओडिशा में प्राप्त शिलालेख पालि में है, परन्तु अन्यत्र स्थानीय भाषा में है। तिव्वती भाषा ओडिआ भाषा के शैली में वनाया गया है।

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