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: अभेद और अभिन्नता
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मानव मात्र का कल्याण करने के लिये तीन योग हैं-

कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग।

यद्यपि तीनों ही योग कल्याण करने वाले हैं, तथापि इनमें एक सूक्ष्म भेद है कि

कर्मयोग तथा ज्ञानयोग- दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है।

भक्तियोग सब योगों का अन्तिम फल है।
कर्मयोग तथा ज्ञानयोग- दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं, पर भक्तियोग अलौकिक निष्ठा हैं।

शरीर और शरीरी- दोनों हमारे जानने में आते हैं, इसलिये ये दोनों ही लौकिक हैं।
परन्तु परमात्मा हमारे जानने में नहीं आते, प्रत्युत केवल मानने में आते हैं, इसलिये वे अलौकिक हैं। शरीर को लेकर कर्मयोग, शरीरी को लेकर ज्ञानयोग और परमात्मा को लेकर भक्तियोग चलता है। कर्मयोग भौतिक साधना है, ज्ञानयोग आध्यात्मिक साधना है और भक्तियोग आस्तिक साधना है।

गीता ने कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों का समकक्ष बताया है-
‘लोकेऽस्मिनिद्विधा निष्ठा’।[गीता13/3]

कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों से एक ही तत्त्व की प्राप्ति होती है-
‘एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विंदते फलम्’[ गीता 5/4 】

‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’।[गीता 5/5]

साधक चाहे कर्मयोग से चले, चाहे ज्ञानयोग से चले, दोनों का एक ही फल होता है।
कर्मों से मनुष्य क्रिया और पदार्थ में फँसता है, पर कर्मयोग इन दोनों से ऊँचा उठाता है।

इसलिये कल्याण करने की शक्ति कर्म में नहीं है, प्रत्युत कर्मयोग में है; क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है-

‘योगः कर्मसु कौशलम्’।[ गीता 2/50]

साधारण मनुष्य कर्म करते ही रहते हैं और कर्मों का फल भी भोगते ही रहते हैं अर्थात् जन्मते-मरते रहते हैं। कर्म करने से उनका कल्याण नहीं होता। परन्तु कर्मयोग से कल्याण हो जाता है। कर्मयोग में निःस्वार्थ भाव से सेवा करने पर संसार का त्याग हो जाता है।

सांख्ययोग में साधक सबको छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित होता है। कर्मयोग में करने की मुख्यता है और सांख्ययोग में विवेक-विचार की मुख्यता है।

इस प्रकार कर्मयोग और सांख्ययोग में बड़ा फर्क है। फर्क होते हुए भी दोनों का फल एक ही है। दोनों के द्वारा संसार से ऊँचा उठने पर मुक्ति हो जाती है।

ये दोनों लौकिक साधन हैं; क्योंकि शरीर (जड़) और शरीरी (चेतन)- ये दोनों विभाग हमारे देखने में आते हैं, पर भगवान् देखने में नहीं आते। भगवान् को मानें या न मानें, यह हमारी मरजी है।

इसमें विचार नहीं चलता।
भगवान हैं- ऐसा मानना ही पड़ता है। फिर वह माना हुआ नहीं रहता, उसका अनुभव हो जाता है।

‘कर्म’ में परिश्रम है और ‘कर्मयोग’ में विश्राम है।

परिश्रम पशुओं के लिये है और विश्राम मनुष्य के लिये है।
शरीर की जरूरत परिश्रम में ही है। विश्राम में शरीर की जरूरत है ही नहीं।

इससे सिद्ध हुआ कि शरीर हमारे लिये है ही नहीं। कर्मयोग में शरीर के द्वारा होने वाला परिश्रम दूसरों की सेवा के लिये है और विश्राम अपने लिये है।

कर्मयोग और सांख्ययोग से ‘अभेद’ होता है और भक्तियोग से ‘अभिन्नता’ होती है।

जहाँ-जहाँ ज्ञान का वर्णन है, वहाँ-वहाँ सत् और असत्, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, क्षर और अक्षर आदि का दो का वर्णन है;

जैसे- ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’।
[गीता 2/16]

परन्तु भक्तियोग में दो वर्णन नहीं है, प्रत्युत एक भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं है-

‘वासुदेवः सर्वम्’।[गीता7/19]

ज्ञानयोग में सत् अलग है और असत् अलग है, पर भक्तियोग में सत् भी भगवान् हैं और असत् भी भगवान् हैं-
‘सदसच्चाहमर्जुन’।[गीता 9/19]

अभेद की अपेक्षा अभिन्नता में एक विलक्षणता है। अभिन्नता में कभी भेद होता है, कभी अभेद होता है। इसलिये अभिन्नता में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है। कर्मयोग और सांख्ययोग के द्वारा जो अभेद होता है, उसका आनन्द प्रतिक्षण वर्धमान नहीं है।

जैसे दूध उबलता है तो दूध में उथल-पुथल होती है, ऐसे ही उधल-पुथल वाला जो आनन्द है, वह भक्ति का है और जो शान्त, एकरस आनन्द है, वह ज्ञान का है।

भक्तियोग की अभिन्नता में दो बातें होती हैं- जब भक्त अपने को देखता है, तब वह भगवान् को अपना मालिक देखता है कि मैं भगवान् का दास हूँ और जब वह भगवान् को देखता है, तब वह अपने को भूल जाता है कि केवल भगवान् ही हैं; भगवान् के सिवाय कुछ है ही नहीं, हुआ ही नहीं, हो सकता ही नहीं।

इस प्रकार भेद और अभेद दोनों होते रहते हैं, जिससे प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहता है।

गोस्वामीजी महाराज ने लिखा है-

माई री! मोहि कोउ न समुझावै ।
राम-गवन साँचो किधौं सपनो, मन परतीति न आवै ।। 1 ।।
लगेइ रहत मेरे नैननि आगे, राम लखन अरु सीता ।
तदपि न मिटत दाह या उर को, बिधि जो भयो बिपरीता ।। 2 ।।
दुख न रहै रघुपतिहि बिलोकत, तनु न रहै बिनु देखे ।
करत न प्रान पयान, सुनहु सखि! अरुझि परी यहि लेखे ।। 3 ।।[ गीतावली, अयोध्या० 53】

कौशल्या माता को राम, लक्ष्मण और सीता- तीनों अपने सामने दीखते हैं तो वे सुमित्रा से पूछतीं हैं कि यह बताओ, अगर राम जी वन को चले गये हैं तो वे मेरे को दीखते क्यों हैं?
और अगर वे वन को नहीं गये हैं तो मेरे चित्त में व्याकुलता क्यों है?

कौशल्या जी की ये दो अवस्थाएँ हैं। इन दोनों अवस्थाओं में प्रेम प्रतिक्षण वर्तमान होता है।

भक्ति की अभिन्नता में अपनी तरफ देखते हैं तो भेद होता है कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं। भगवान् की तरफ देखते हैं तो अभेद होता है कि एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है।

यह अभेद भक्ति में ही है, ज्ञानयोग में नहीं।

भक्ति की अभिन्नता में भक्त भगवान् से भिन्न कभी होता ही नहीं। वह न संयोग (मिलन)-में भिन्न होता है, न वियोग (विरह)- में भिन्न होता है।

ज्ञान में अपने स्वरूप का ज्ञान होता है, जो परमात्मा का अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।

ज्ञानयोग में साधक को एक तत्त्व से अभेद का अनुभव हो जाता है। परन्तु जिसके भीतर भक्ति के संस्कार होते हैं, उसको ज्ञान के अभेद में सन्तोष नहीं होता। अतः उसको भक्ति की प्राप्ति होती है। भक्ति में फिर भेद और अभेद होते रहते हैं, जिसको अभिन्नता कहते हैं। परन्तु ज्ञानयोग में केवल अभेद होता है।

ज्ञानयोग में परमात्मा का अंश अपने स्वरूप में स्थित हो गया, अब उसमें भेद कैसे हो?

उसमें अखण्ड आनन्द, अपार आनन्द, असीम आनन्द, एक आनन्द-ही-आनन्द रहता है।
परन्तु भक्तियोग में अभिन्नता होती है। दो से एक होते हैं तो अभेद होता है और एक से दो होते हैं तो अभिन्नता होती है।
अभेद में जीव की ब्रह्म के साथ एकता हो जाती है।एक रूप से जो ब्रह्म है, वही अनेक रूप से जीव है। अभिन्नता में ईश्वर के साथ एकता होती है।
अंश-अंश की एकता अभेद है और अंश-अंशी की एकता अभिन्नता है। अंश-अंशी की एकता में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है। प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम में विरह होने पर भक्त मिलन की इच्छा करता है और मिलन होने पर चुप, शान्त हो जाता है।
इस अवस्था का वर्णन भागवत में इस प्रकार किया गया है-

वाग्गद्भदा द्रवते यस्य चितं-
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्भायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।[11। 14। 24]

‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीला का वर्णन करती-करती गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओं को याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारंबार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वर से गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है।’

वेदान्त में ऐसी मान्यता है कि अभेद के बाद कुछ भी बाकी नहीं रहता। अगर अभेद के बाद ईश्वर से अभिन्नता मानें तो वेदान्त के अद्वैत सिद्धान्त में कमी आती है। अपने सिद्धान्त में कमी न आ जाय, इसलिये वेदान्तियों ने ईश्वर को कल्पित बता दिया; क्योंकि कल्पित बताने के सिवाय और कोई उपाय नहीं।
परन्तु ईश्वर किसकी कल्पना है- इसका उत्तर उनके पास नहीं है। वे द्वैत से डरते हैं कि कहीं अपने में द्वैत न आ जाय।
वास्तव में सत्ता एक ही (अद्वैत) हैं; परन्तु अपने राग के कारण दूसरी सत्ता (द्वैत) दीखती है।
दूसरी सत्ता का तात्पर्य संसार से है, ईश्वर से नहीं; क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्वर ‘स्व’ (स्वकीय) है।

दूसरी सत्ता का निषेध करने के लिये वेदान्त ने ईश्वर को भी कल्पित मान लिया! राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वर को कल्पित! अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता कैसे मिटेगी?
इसलिये ईश्वर को कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये।
ईश्वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है

[द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।’
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।(गीता 15। 16-17)’

‘इस संसार में क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी)- ये दो प्रकार के ही पुरुष हैं।
सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा जाता है।’ ‘उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण) ही है, जो ‘परमात्मा’-इस नाम से कहा गया है।
वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है।]

जीव सब एक हो जायँ तो[ जीव भाव मिटने पर]‘ब्रह्म’ होता है।
जो ऐश्वर्य से युक्त है और सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति, प्रलय आदि जानता है, वह ‘भगवान्’ है।
ये बातें जीव में नहीं होतीं। इसलिये सब जीव एक होने पर उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय नहीं होता-

‘जगद्व्यापारवर्जम्’[ ब्रह्मसूत्र 4। 1। 17】

कारण कि जीव ब्रह्म के साथ एक हो सकता है, भगवान् के साथ नहीं। भगवान् के साथ उसका अभेद नहीं हो सकता, पर अभिन्नता हो सकती है। श्रीएकनाथ जी महाराज ने भागवत, एकादश स्कन्ध की टीका में इसी अभिन्नता को अभेद भक्ति कहा है।
: ॐ श्री परमात्मने नमः

पाँच प्राण एवं उप प्राण व्याख्या
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प्राणतत्व एक है, पर प्राणी के शरीर में उसकी क्रियाशीलता के आधार पर कई भागों में विभक्त किया गया है। शरीर के प्रमुख अवयव मांस-पेशियों से बने हैं, पर संगठन की भिन्नता के कारण उनके आकार-प्रकार में भिन्नता पाई जाती है। इसी आधार पर उनका नामकरण एवं विवेचन भी पृथक्-पृथक् होता है। मानवी-काया में प्राण-शक्ति को भी विभिन्न उत्तरदायित्व निबाहने पड़ती हैं उन्हीं आधार पर उनके नामकरण भी अलग हैं और गुण धर्म की भिन्नता भी बताई जाती है। इस पृथकता के मूल में एकता विद्यमान है। प्राण अनेक नहीं हैं। उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति पृथक है। बिजली एक है, पर उनके व्यवहार विभिन्न यन्त्रों में भिन्न प्रकार के होते हैं। हीटर, कूलर, पंखा, प्रकाश, पिसाई आदि करते समय उसकी शक्ति एवं प्रकृति भिन्न लगती है। उपयोग आदि प्रयोजन को देखते हुए भिन्नता अनुभव की जा सकती है तो भी जानने वाले जानते हैं कि यह सब एक ही विद्युत शक्ति के बहुमुखी क्रिया-कलाप हैं। प्राण-शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। शास्त्रकारों ने उसे कई भागों में विभाजित किया है, कई नाम दिये हैं और कई तरह से व्याख्या की है। उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि प्राणतत्व कितने ही प्रकार का है और उन प्रकारों में भिन्नता एवं विसंगति है। इस प्राण विस्तार को भी ‘‘एकोऽहं बहुस्याम’’ का एक स्फुरण कहा जाता है।

मानव शरीर में प्राण को दस भाग में विभक्त माना गया है। इनमें 5 प्राण और 5 उप प्राण हैं। प्राणमय कोश इन्हीं 10 के सम्मिश्रण से बनता है।

5 मुख्य प्राण हैं (1) अपान (2) समान (3) प्राण (4) उदान (5) व्यान।

उपप्राणों को (1) देवदत्त (2) वृकल (3) कूर्म (4) नाग (5) धनंजय नाम दिया गया है।

शरीर क्षेत्र में इन प्राणों के क्या-क्या कार्य हैं? इसका वर्णन आयुर्वेद शास्त्र में इस प्रकार किया गया है—

(1) अपान—– अपनयति प्रकर्षेंण मलं निस्सारयति अपकर्षाति च शक्तिम् इति अपानः ।

अर्थात्—– जो मलों को बाहर फेंकने की शक्ति में सम्पन्न है वह अपान है। मल-मूत्र, स्वेद, कफ, रज, वीर्य आदि का विसर्जन, भ्रूण का प्रसव आदि बाहर फेंकने वाली क्रियाएं इसी अपान प्राण के बल से सम्पन्न होती हैं।

(2) समान—- रसं समं नयति सम्यक् प्रकारेण नयति इति समानः ।

अर्थात्—- जो रसों को ठीक तरह यथास्थान ले जाता और वितरित करता है वह समान है। पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है। पातञ्जलि योग सूत्र के पाद 3 सूत्र 40 में कहा गया है—‘‘समान जयात् प्रज्वलम्’’ अर्थात् समान द्वारा शरीर की ऊर्जा एवं सक्रियता ज्वलन्त रखी जाती है।

(3) प्राण—- प्रकर्षेंण अनियति प्रर्केंण वा बलं ददाति आकर्षति च शक्तिं स प्राणः ।

अर्थात्—– जो श्वास, आहार आदि को खींचता है और शरीर में बल संचार करता है वह प्राण है। शब्दोच्चार में प्रायः इसी की प्रमुखता रहती है।

(4) उदान—— उन्नयति यः उद्आनयति वा तदानः ।

अर्थात्—–जो शरीर को उठाये रहे, कड़क रखे, गिरने न दे—बह उदान है। ऊर्ध्वगमन की अनेकों प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्रियाएं इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं।

(5) व्यान—व्याप्नोति शरीर यः स ध्यानः ।

अर्थात् जो सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त है—वह व्यान है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, ज्ञान-तन्तु आदि माध्यमों से यह सारे शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अन्तर्मन की स्वसंचालित शारीरिक गतिविधियां इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं।

—– इस तरह प्रथम प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास क्रिया का सम्पादन स्थान छाती है। इस तत्व की ध्यानावस्था में अनुभूति पीले रंग की होती है और षटचक्र वेधन की प्रक्रिया में यह अनाहत चक्र को प्रभावित करता पाया जाता है।

द्वितीय— अपान का कार्य शरीर के विभिन्न मार्गों से निकलने वाले मलों का निष्कासन, एवं स्थान गुदा है। यह नारंगी रंग की आभा में अनुभव किया है और मूलाधार चक्र को प्रभावित करता है।

तीसरा समान— अन्न से लेकर रस-रक्त और सप्त धातुओं का परिपाक करता है और स्थान नाभि है। हरे रंग की आभा वाला और मणिपूर चक्र से सम्बन्धित इसे बताया गया है।

चौथा उदन— का कार्य है आकर्षण ग्रहण करना, अन्न-जल, श्वास, शिक्षा आदि जो कुछ बाहर से ग्रहण किया जाता है वह ग्रहण प्रक्रिया इसी के द्वारा सम्पन्न होती है। निद्रावस्था तथा मृत्यु के उपरान्त का विश्राम सम्भव करना भी इसी का काम है। स्थान कण्ठ, रंग बैगनी तथा चक्र विशुद्धाख्य है।

पांचवा व्यान— इसका कार्य रक्त आदि का संचार, स्थानान्तरण। स्थान सम्पूर्ण शरीर। रंग, गुलाबी और चक्र स्वाधिष्ठान है।

पांच उप प्राण इन्हीं पांच प्रमुखों के साथ उसी तरह जुड़े हुए हैं जैसे मिनिस्टरों के साथ सेक्रेटरी रहते हैं। प्राण के साथ नाग। अपान के साथ कूर्म। समान के साथ कृकल। उदान के साथ देवदत्त और व्यान के साथ धनञ्जय का सम्बन्ध है। नाग का कार्य वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु। कूर्म का नेत्रों के क्रिया-कलाप कृकल का भूख-प्यास, देवदत्त का जंभाई, अंगड़ाई, धनञ्जय को हर अवयव की सफाई जैसे कार्यों का उत्तरदायी बताया गया है, पर वस्तुतः वे इतने छोटे कार्यों तक ही सीमित नहीं है। मुख्य प्राणों की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाये रखने में उनका पूरा योगदान रहता है। इन प्राण और उपप्राणों के भेद को और भी अच्छी तरह समझना हो तो तन्मात्राओं और ज्ञानेन्द्रियों के सम्बन्ध पर गौर करना चाहिए। शब्द तत्व को ग्रहण करने के लिये कान, रूप तत्व की अनुभूति के लिये नेत्र, रस के लिये जिव्हा, गन्ध के लिए नाक और स्पर्श के लिये जो कार्य त्वचा करती है, उसी प्रकार प्राण तत्व द्वारा विनिर्मित सूक्ष्म संभूतियों को स्थूल अनुभूतियों में प्रयुक्त करने का कार्य यह उप प्राण सम्पादित करते हैं। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह वर्गीकरण मात्र वस्तुस्थिति को समझने और समझाने के उद्देश्य से ही किया गया है। अलग-अलग आकृति प्रकृति के दस व्यक्तियों की तरह इन्हें दस सत्ताएं नहीं मान बैठना चाहिए। एक ही व्यक्ति को विभिन्न अवसरों पर पिता, पुत्र, भाई, मित्र, शत्रु सुषुप्त, जागृत, मलीन, स्वच्छ स्थितियों में देखा जा सकता है लगभग उसी प्रकार का यह वर्गीकरण भी समझा जाय।

प्राण शरीर— शरीरस्थ प्राण संस्थान के न केवल अस्तित्व का बल्कि गुण, धर्मों तथा क्रिया-कलापों, प्रभावों आदि का भी वर्णन विस्तार पूर्वक भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। इस मान्यता को स्थूल विज्ञान बहुत दिनों तक झुठलाता रहा, किन्तु शरीर विज्ञान के सन्दर्भ में जैसे-जैसे उसकी जानकारियां बढ़ रही हैं, प्राण संस्थान के अस्तित्व को एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। भौतिक विज्ञान के स्थूल उपकरणों की पकड़ में भी इस सूक्ष्म सत्ता के अनेक प्रमाण आने लगे हैं।

प्राण तत्व को ही एक चेतन ऊर्जा (लाइव एनर्जी) कहा गया है। भौतिक विज्ञान के अनुसार एनर्जी के छह प्रकार माने जाते हैं—1. ताप (हीट) 2. प्रकाश (लाइट) 3. चुम्बकीय (मैगनेटिक) 4. विद्युत (इलेक्ट्रिकसिटी) 5. ध्वनि (साउण्ड) 6. घर्षण (फ्रिक्शन) अथवा यांत्रिक (मैकेनिकल)। एक प्रकार की एनर्जी को किसी भी दूसरे प्रकार की एनर्जी में बदला भी जा सकता है। शरीरस्थ चेतन क्षमता—लाइव एनर्जी इन विज्ञान सम्मत प्रकारों से भिन्न होते हुए भी उनके माध्यम से जानी समझी जा सकती है। एनर्जी के बारे में वैज्ञानिक मान्यता है कि वह नष्ट नहीं होती बल्कि उसका केवल रूपान्तरण होता है। यह भी माना जाता है कि एनर्जी किसी भी स्थूल पदार्थ से सम्बद्ध रह सकती है; फिर भी उसका अस्तित्व उससे भिन्न है और वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित (ट्रांसफर) की जा सकती है। प्राण के सन्दर्भ में भी भारतीय दृष्टाओं का यही कथन है। अब तो पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करने लगे हैं।

संकलित
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जिनकी कुंडली में शादी होने में कुछ बाधाएं आने का योग होता है
ग्रह स्थिति निम्न प्रकार से होती है बीस से चौबीस वर्ष की उम्र में शादी |बुध शीघ ही शादी करवाता है | सातवें घर में बुध हो तो शादी जल्दी होने के योग होते हैं | बीस वर्ष की उम्र में शादी होती है यदि बुध पर कोई किसी अन्य ग्रह का प्रभाव न हो | बुध यदि सातवें घर में हो तो सूर्य भी एक स्थान पीछे या आगे होगा या फिर बुध के साथ सूर्य के होने की संभावना रहती है | सूर्य साथ हो तो दो साल का विलम्ब शादी में अवश्य होगा | इस तरह उम्र बाईस में शादी का योग बनता है | यदि सूर्य के अंश क्षीण हों तो शादी केवल बीस से इक्कीस वर्ष की उम्र में हो जाती है |
अभिप्राय यह है कि बीस से चौबीस की उम्र में शादी का योग बनता है जब बुध सातवें घर में हो |
चौबीस से सत्ताईस की उम्र में शादी का योग
यदि शुक्र गुरु या चन्द्र आपकी कुंडली के सातवें घर में हैं तो चौबीस पच्चीस शादी की उम्र में होने की प्रबल संभावना रहती है |
गुरु सातवें घर में हो तो शादी पच्चीस की उम्र में होती है | गुरु पर सूर्य या मंगल का प्रभाव हो तो शादी में एक साल की देर समझें | राहू या शनि का प्रभाव हो तो दो साल की देर यानी सत्ताईस साल की उम्र में शादी होती है |
शुक्र सातवें हो और शुक्र पर मंगल, सूर्य का प्रभाव हो तो शादी में दो साल की देर अवश्यम्भावी है | शनि का प्रभाव होने पर एक साल यानी छब्बीस साल की उम्र में और यदि राहू का प्रभाव शुक्र पर हो तो शादी में दो साल का विलम्ब होता है |
चन्द्र सातवें घर में हो और चन्द्र पर मंगल, सूर्य में से किसी एक का प्रभाव हो तो शादी छब्बीस साल की उम्र में होने का योग होगा | शनि का प्रभाव मंगल पर हो तो शादी में तीन साल का विलम्ब होता है | राहू का प्रभाव होने पर सत्ताईस वर्ष की उम्र में काफी विघ्नों के बाद शादी संपन्न होती है |
कुंडली के सातवें घर में यदि सूर्य हो और उस पर किसी अशुभ ग्रह का प्रभाव न हो तो सत्ताईस वर्ष की उम्र में शादी का योग बनता है | शुभ ग्रह सूर्य के साथ हों तो विवाह में इतनी देर नहीं होती |
अट्ठाईस से बत्तीस वर्ष की उम्र में शादी का योग
मंगल, राहू केतु में से कोई एक यदि सातवें घर में हो तो शादी में काफी देर हो सकती है | जितने अशुभ ग्रह सातवें घर में होंगे शादी में देर उतनी ही अधिक होगी | मंगल सातवें घर में सत्ताईस वर्ष की उम्र से पहले शादी नहीं होने देता | राहू यहाँ होने पर आसानी से विवाह नहीं होने देता | बात पक्की होने के बावजूद रिश्ते टूट जाते हैं | केतु सातवें घर में होने पर गुप्त शत्रुओं की वजह से शादी में अडचनें पैदा करता है |
शनि सातवें हो तो जीवन साथी समझदार और विश्वासपात्र होता है | सातवें घर में शनि योगकारक होता है फिर भी शादी में देर होती है | शनि सातवें हो तो अधिकतर मामलों में शादी तीस वर्ष की उम्र के बाद ही होती है |
बत्तीस से चालीस वर्ष की उम्र में शादी
शादी में इतनी देर तब होती है जब एक से अधिक अशुभ ग्रहों का प्रभाव सातवें घर पर हो | शनि मंगल, शनि राहू, मंगल राहू या शनि सूर्य या सूर्य मंगल, सूर्य राहू एक साथ सातवें या आठवें घर में हों तो विवाह में बहुत अधिक देरी होने की संभावना रहती है | हालांकि ग्रहों की राशि और बलाबल पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है परन्तु कुछ भी हो इन ग्रहों का सातवें घर में होने से शादी जल्दी होने की कोई संभावना नहीं होती |
शादी में देर के लिए जो ऊपर नियम दिए गए हैं उनमे अधिक सूक्ष्म गणना की आवश्यकता जरूर है परन्तु मोटे तौर पर ये नियम अत्यंत व्यावहारिक सिद्ध होते हैं | : व्यापार व कारोबार में वृद्धि का उपाय।

यदि किसी के व्यापार में वृद्धि नहीं हो रही है और व्यापार व कारोबार में वृद्धि के उपाय टोटके प्राप्त करना चाहते हो तो व्यापार में उन्नति के टोटका/मंत्र का प्रयोग कर वृद्धि प्राप्त कर सकते है|

आप गोमती चक्र के प्रयोग से व्यापार में उन्नति के लिए अचूक टोटका कर सकते हैं. इसके लिए विषम मात्रा में गोमती चक्र लेकर ( 3,5,7 आदि) उन्हें चांदी के किसी तार में पीरों दें. इसके बाद इसके किसी पारदर्शी थैली लेकर उसमे डाल दें. आप इसे किसी साफ़ कपड़े में भी लपेटकर रख सकते हैं. इन गोमती चक्रों को अपने जेब डालकर रखें. ये व्यापार व कारोबार में वृद्धि के अंतर्गत बहुत ही असरदार टोटका है. इस टोटके का प्रयोग आपको चारो तरफ़ से सफलता दिलाएगा. इससे आपकी धन संबंधी सभी मुश्किलें हल होंगी|

इस प्रयोग को करते समय ये ध्यान रखें कि इस दौरान आप मांस का सेवन, मदिरा पान, स्त्री-प्रसंग आदि से दूर रहें. इस प्रयोग के दौरान शमशान में जाना भी वर्जित है| जब भी आप घर से दुकान या ऑफिस जाएँ आपने इष्टदेव को ज़रूर याद करके जाएँ. ये छोटा या उपाय आपके रास्ते की सारी मुश्किलों को दूर कर देगा|

यदि आपके कारोबार में बरकत नहीं हो रही है और आपको बिज़नस में बहुत हानि हो रही है तो व्यापार बढाने के तरीके/टोटके/मंत्र का प्रयोग कर व्यापार में वृद्धि प्राप्त कर सकते है| यदि किसी ने आपके व्यापार में रुकावट पैदा की है और आप बहुत मेहनत के बाद भी सफल नहीं हो पा रहे हो तो व्यापार की बंधी को ख़तम करना पड़ेगा| इसके बाद आपके व्यपार बहुत तेजी से बढ़ेगा | किसी भी तरह की समस्या जैसा के व्यपार, कारोबार, दुकान इत्यादि में सफलता प्राप्त करना चाहते हो तो हमसे परामर्श करे और अपने जीवन को सफल बनाये | व्यापार वृद्धी के लिए विशेष अनुष्टान कराया जाएगा संपर्क – 9839760662 फोन करने का समय 8 बजे शाम
: महाकाली शाबर मंत्र का चमत्कारिक प्रयोग :

महाकाली शाबर मंत्र अत्यंत दुर्लभ और तीव्र प्रभावशाली है। इस मंत्र को पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ विधि पूर्वक जपकर सिद्ध कर लिया जाये तो साधक की सभी मनोकामनायें पूर्ण हो जाती है, और साधक संपूर्ण सुख, सौभाग्य, ऐश्वर्य एवं धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है। साथ ही साथ समस्त प्रकार की बाधायें भी स्वतः ही दूर हो जाती है।

मंत्र –

सात पुनम कालका, बारह बरस क्वांर।

एको देवि जानिए, चौदह भुवन द्वार।।

द्वि-पक्षे निर्मलिए, तेरह देवन देव।

अष्टभुजी परमेश्वरी, ग्यारह रूद्र सेव।।

सोलह कला सम्पुर्णी, तीन नयन भरपुर।

दशों द्वारी तू ही माँ, पांचों बाजे नूर।।

नव-निधि षट्-दर्शनी, पंद्रह तिथि जान।

चारों युग मे काल का कर काली कल्याण।।

इस मंत्र के द्वारा जन कल्याण तथा परोपकार भी किया जा सकता है। साधक इस मंत्र के द्वारा किसी भी बाधाग्रस्त व्यक्ति जैसे भूत प्रेतबाधा, आर्थिक बाधा, नजर दोष, शारीरिक मानसिक बाधा इत्यादि को आसानी से मिटा सकता है। यही नही बल्कि सम्मोहन, वशीकरण, स्तम्भन, उच्चाटन, विद्वेषण इत्यादि प्रयोग भी सफलता पूर्वक सम्पन्न कर सकता है।

प्रयोग विधी:-

किसी भी होली, दीपावली, नवरात्रि, अथवा ग्रहण काल में इस प्रयोग को सिद्ध करना चाहिए। सर्वप्रथम निम्न सामग्रीयाँ जुटा लें। महाकाली यंत्र, महाकाली चित्र, कनेर का पीला फूल, भटकटैया का फूल, लौंग, इलायची, 3 निंबू, सिन्दूर, काले केवाच के 108 बीज धूप, दीप, नारियल, अगरबत्ती इत्यादी।

माता काली के मंदिर में या किसी एकान्त स्थान में इस साधना को सिद्ध किये जा सकते हैं।सर्वप्रथम स्नान आदि से निवृत होकर एक लकड़ी के तख्ते पर लाल वस्त्र बिछाकर महाकाली चित्र तथा यंत्र को स्थापित करें तत्पश्चात घी का चैमुखा दिया जलाकर गुरू गणेश का ध्यान कर गुरू स्थापन मंत्र तथा आत्मरक्षा मंत्र का प्रयोग करें। फिर भोजपत्र पर चैतीसा यंत्र का निर्माण करें तथा महाकाली यंत्र, महाकाली चित्र सहित चैंतीसा यंत्र का पंचोपचार या षोड़शोपचार से पूजन करे।

पूजन के समय कनेर, भटकटैया के फूल को यंत्र चित्र पर चढ़ायें, नारियल इलायची, पंचमेवा का भोग लगायें, फिर तीनों निम्बूओं को काटकर सिन्दूर का टीका लगाकर अर्पित करें तत्पश्चात हाथ में एक-एक केवाच के बीजों को लेकर उक्त मंत्र को पढ़ते हुए काली के चित्र के सामने चढ़ाते जायें इस तरह 108 बार मंत्र जपते हुए केवाच के बीजों को चढ़ायें। मंत्र जप पुर्ण होने पर उसी मंत्र से 11 बार हवन करें। एक ब्राम्हण को भोजन करायें तथा यथाशक्ति दान दक्षिणा दें। फिर इस मंत्र का प्रयोग किसी भी इछित कार्य के लिये कर सकते हैं

भूत-प्रेत बधा निवारण:-

हवन के राख से किसी भी भूत-प्रेत ग्रस्त रोगी को सात बार मंत्र पढ़ते हुए झाड़ दें तथा हवन के राख का टीका लगा दें फिर भोजपत्र पर चैतिसा यंत्र को अष्टगंध से लिख कर तांबे के ताबीज में भर कर पहना दें तो भूत प्रेत बाधा सदा के लिए दूर हो जाता है।

शत्रु बाधा निवारण:-

अमावस्या के दिन एक़़ निंम्बू लेकर उस पर सिंदुर से शत्रु का नाम लिखकर महाकाली मंत्र का उच्चारण करते हुये 21 बार 7 सुइयां चुभाये फिर उसे श्मशान मे ले जाकर गाड़ दें तथा उस पर शराब की धार चढ़ायें ऐसा करने से 3 दिनों मे शत्रु बाधा समाप्त हो जाती है।

आर्थिक बाधा निवारण:-

महाकाली यंत्र के सामने घी का दीपक जलाकर महाकाली शाबर मंत्र का 21 बार जाप 21 दिनों तक करने से आर्थिक बाधा समाप्त हो जाता है।

वशीकरण प्रयोग:-

पंचमेवा को 21 बारt मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित कर जिसे खिला दें वह वशीभूत हो जाता है।

विद्वेषण प्रयोग:-

3 केवाच के बीज कलिहारी का फूल तथा श्मशान की राख को मिलाकर 21 बार मंत्र द्वारा अभिमंत्रित कर जिसके घर के आने जाने वाले मार्ग में गाड़ दें उसका विद्वेषण हो जायेगा।

उच्चाटन प्रयोग:-

एक केवाच के बीज भटकटैया के फूल और सिंदुर तीनों को मिलाकर मंत्र द्वारा 11 बार अभिमंत्रित कर जिसके घर में फेंक दे उसका उच्चाटन हो जायेगा।

स्तम्भन प्रयोग:-

तीन लौंग, हवन की राख, तथा श्मशान की राख तीनों को मिलाकर मंत्र से अभिमंत्रित कर जिसके घर में गाड़ दे उसका स्तम्भन हो जायेगा।
: ज्योतिष शास्त्र में ग्रह-नक्षत्रों और उनके मंत्रों द्वारा सौंदर्य और आकर्षक व्यक्तित्व पाने के तरीके बताए गए हैं। वेदिक ज्योतिष के अनुसार सौंदर्य, आकर्षक, ग्लैमर और लग्जरी लाइफ का कारक ग्रह शुक्र है। जिन लोगों की कुंडली में मजबूत और शुभ शुक्र ग्रह होता है उनमें एक विशेष तरह का ओरा होता है। ऐसे लोगों के संपर्क में जब भी कोई आता है, वह सम्मोहित सा हो जाता है। ज्योतिष में मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने के लिए कुछ उपाय बताए गए हैं।

आइए जानें उनके बारे में-

1.
लक्ष्मी न सिर्फ धन की देवी है, बल्कि सुख, सौंदर्य, आकर्षण और प्रभावी व्यक्तित्व प्रदान करने वाली देवी भी है। इसीलिए शुक्र ग्रह की प्रतिनिधि देवी महालक्ष्मी है। लक्ष्मी की आराधना करने से शुक्र से संबंधित व्यक्ति के जीवन में साकार होने लगते हैं। इससे शुक्र प्रसन्न होते हैं और व्यक्ति को मनचाहा सौंदर्य के साथ लक्ष्मी की कृपा से धन की भी प्राप्ति होती है।

2.
शुक्र का बीज मंत्र अत्यंत चमत्कारी बताया गया है। शुक्र को बीज मंत्र का प्रतिदिन जाप करने से व्यक्ति के चारों ओर एक पॉजिटिव ओरा बनता है। उसके आस पास एक ऐसी आकर्षण उर्जा का प्रवाह होने लगता है, जिससे उसके चेहरे पर चमक आती है। व्यक्तित्व और वाणी में आकर्षण प्रभाव होता है। ऐसा व्यक्ति सैकड़ों लोगों को एक साथ सम्मोहित करने में सफल होता है। ऐसे व्यक्ति से हर कोई प्रभावित रहता है। बीज मंत्र का पूरा लाभ लेने के लिए लगातार 40 दिनों तक 20 हजार मंत्र जाप करें। मंत्र: ओम ड्रां ड्रीं ड्रौं सह शुक्राय नमः।।

3.
शुक्र से संबंधित वस्तुओं के दान से भी सौंदर्य की प्राप्ति की जा सकती है। शुक्रवार के दिन कपड़े और दही का दान करें। इससे शुक्र के बुरे प्रभाव नष्ट होकर शुभ प्रभावों में वृद्धि होती है। शुक्र से संबंधित गुण व्यक्ति के जीवन में आने लगते हैं। व्यक्ति के मुख पर विशिष्ट प्रकार का ओज आने लगता है।

4.
ऋग्वेद में आया श्री सूक्त अद्भुत और चमत्कारी है। श्री सूक्त में साक्षात महालक्ष्मी का वास होता है। इसके प्रतिदिन पाठ से न केवल लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, बल्कि शुक्र को मजबूत करने में चमत्कारिक रूप से असरदार है। लुक, आकर्षण प्रभाव, चेहरे की चमक, स्वस्थ और सुंदर शरीर पाने के लिए श्री सूक्त का वेदिक विधि से पाठ करना चाहिए।

5.
शुक्र की पॉजिटिव एनर्जी हासिल करने के लिए शुक्रवार का व्रत रखना चाहिए। यह व्रत करने वाले व्यक्ति की आंखों में तीव्र आकर्षण प्रभाव पैदा होता है। जब कोई विपरीत लिंगी व्यक्ति उसकी आंखों में देखता है तो तुरंत आकर्षित हो जाता है।

6.
शुक्र को मजबूत बनाने के लिए छह मुखी रूद्राक्ष भी धारण किया जा सकता है। कमजोर शुक्र के कारण आ रही परेशानियां छह मुखी रूद्राक्ष पहनने से दूर हो जाती है और व्यक्ति को अपने शानदार व्यक्तित्व के कारण हर जगह सफलता मिलने लगती है।

7.
शुक्र का प्रतिनिधि रत्न हीरा है। हीरा धारण करने से शुक्र से संबंधित समस्त गुण व्यक्ति में नजर आने लगते हैं। इसे पहनने से चमकदार आंखें, प्रभावित करने वाली आवाज, ग्लैमर, लग्जरी लाइफ की प्राप्ति होने लगती है। लेकिन ध्यान रखें हीरा तीव्र प्रभावी होता है। इसे धारण करने से पहले किसी योग्य ज्योतिषी से सलाह अवश्य लें।

8.
पेड़-पौधों की जड़ भी असरकारक होती है। अरंड मूल की जड़ में शुक्र का वास होता हे। इसे अपने ताबीज में भरकर गले या दाहिने बाजू पर शुक्रवार को बांधकर रखें। इससे शुक्र को पॉवर मिलता है और व्यक्ति सैकड़ों लोगों के समूह को निडर होकर संबोधित करने की शक्ति हासिल कर लेता है।

9.
कुछ ज्योतिषी और तांत्रिक शुक्र का यंत्र भी पास रखने की सलाह देते हैं। शुक्र यंत्र को चांदी पर बनवाकर हमेशा साथ में रखने से लक्ष्मी की प्राप्ति के साथ सौंदर्य प्राप्त होता है।

10.
प्रतिदिन प्रातः पूजा के समय केसर का तिलक लगाने से भी व्यक्ति के आकर्षण प्रभाव में वृद्धि होती है। ऐसा व्यक्ति अपनी वाणी से लोगों को मोहित कर सकता है

जय श्री कृष्णा
: किया कराया लक्षण/निदान

सबसे पहले आप यह जानकारी ले कि किया कराया के लक्षण क्या होते हैं ? किया कराया से ग्रसित व्यक्ति किस तरह का व्यवहार करता है या आपके घर में अथवा व्यापार में इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है | अगर कोई व्यक्ति इस समस्या से ग्रसित है तो उसके लक्षण हैं

खिंचाव आना गले में,

सांसो का भारीपन,

मानसिक अशांति,

तेज गति से चलना,

शरीर में चोट लगने पर पाए जाने वाले नीले निशान जब कि चोट ना लगी हो,

सही तरीके से नींद ना आना,

अपर्याप्त नींद,

शरीर या सर में भारीपन महसूस होना,

हर समय किसी की उपस्थिति का संदेह होना,

व्यक्ति के अंदर कुंठा,निराशा और किसी भी काम के प्रति उत्साह की कमी,

बिना किसी कारण के बात में कलह की स्थिति पैदा होना,

बिना मतलब के लड़ाई झगड़ा,

घर में किसी की असामयिक मौत,

अच्छे खासे चलते हुए व्यापार में अचानक से घाटा होना,

चेहरे का कान्ति का गायब होना |

अगर इस तरह के लक्षण दिखाई पड़े तो समझ जाना चाहिए यह सब ऊपरी माया का प्रभाव है तथा उसका निदान करने का उपाय करना चाहिए

सोमवार से आरम्भ करके नित्य ४१ दिनों तक सूर्यास्त के समय आधा किलो गाय के कच्चे दूध में नौ बूंद शहद मिला लें तथा घर के हर हिस्से में छिड़कें। सबसे अंत में मुख्य द्वार तक पहुंचे तथा शेष दूध वहीं गिरा दें

हमारा प्रयास सबका कल्याण

जय श्री कृष्णा

फोन करने का समय

सुबह १२ से २ और शाम ६ से 8 के बीच

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जय श्री कृष्णा

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