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इन योग जाने अपने घर/मकान के सुख के बारे में—-

—– चतुर्थ भाव व दशम भाव के भावाधिपति यदि त्रिकोण में पंचम या नवम या लग्न में या केंद्र में हों तो वह व्यक्ति आजीवन शासकीय भवन का सुख भोगने वाला होता है।
—–यदि चतुर्थ भाव का स्वामी उच्च का होकर भाग्य में हो तो उस भवन का उत्तम सुख मिलेगा।
—— यदि चतुर्थ भाव में मंगल की चतुर्थ, सप्तम या अष्टम स्वदृष्टि पड़ रही होगी तो उसे उत्तम भवन का मालिक बनाएगी।
——चतुर्थ भाव में यदि षष्ठ भाव का स्वामी उच्च का या मित्र क्षेत्री होकर बैठ जाए तो उसे नाना-मामा के द्वारा भवन मिलेगा।
——यदि द्वितीय भाव का स्वामी चतुर्थ भाव में स्वग्रही या उच्च का या मित्र क्षेत्री होकर बैठ जाए तो उसे परिवार के सहयोग से या कौटुम्बिक मकान मिलेगा।
—— यदि चतुर्थ भाव का स्वामी उच्च का होकर कहीं बैठा हो एवं जिस भाव में उच्च का हो व उसका स्वामी भी उच्च का होकर कहीं भी बैठ जाए तो उसे उत्तम कोठी या उत्तम बंगले का सुख मिलता है।
—–यदि चतुर्थ भाव का स्वामी पराक्रम में हो तो उसे अपने बलबूते पर साधारण मकान मिलता है।
—– यदि चतुर्थ भाव में पंचम भाव का स्वामी मित्र क्षेत्री हो या उच्च का हो तो उसे पुत्रों द्वारा बनाए मकान का सुख मिलता है।
——. चतुर्थ स्थान में शुभ ग्रह हों तो घर का सुख उत्तम रहता है।
—–चंद्रमा से चतुर्थ में शुभ ग्रह होने पर घर संबंधी शुभ फल मिलते हैं।
—— चतुर्थ स्थान पर गुरु-शुक्र की दृष्टि उच्च कोटि का गृह सुख देती है।
——-चतुर्थ स्थान का स्वामी 6, 8, 12 स्थान में हो तो गृह निर्माण में बाधाएँ आती हैं। उसी तरह 6, 8, 12 भावों में स्वामी चतुर्थ स्थान में हो तो गृह सुख बाधित हो जाता है।
—– चतुर्थ स्थान का मंगल घर में आग से दुर्घटना का संकेत देता है। अशांति रहती है।
—–चतुर्थ में शनि हो, शनि की राशि हो या दृष्टि हो तो घर में सीलन, बीमारी व अशांति रहती है।
—— चतुर्थ स्थान का केतु घर में उदासीनता ‍देता है।
—–चतुर्थ स्थान का राहु मानसिक अशांति, पीड़ा, चोरी आदि का डर देता है।
——चतुर्थ स्थान का अधिपति यदि नैप्च्यून से अशुभ योग करे तो घर खरीदते समय या बेचते समय धोखा होने के संकेत मिलते हैं।
—— चतुर्थ स्थान में यूरेनस का पापग्रहों से योग घर में दुर्घटना, विस्फोट आदि के योग बनाता है।
—— चतुर्थ स्थान का अधिपति 1, 4, 9 या 10 में होने पर गृह-सौख्य उच्च कोटि का मिलता है।
——-लग्नेश से युक्त होकर चतुर्थेश सर्वोच्च या स्वक्षेत्र में हो तो भवन सुख उत्तम होता है।
——–तृतीय स्थान में यदि बुध हो तथा चतुर्थेश का नंवाश बलवान हो, तो जातक विशाल परकोट से युक्त भवन स्वामी होता है।
——नवमेश केन्द्र में हो, चतुर्थेश सर्वोच्च राशि में या स्वक्षेत्री हो, चतुर्थ भाव में भी स्थित ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो जातक को आधुनिक साज-सज्जा से युक्त भवन की प्राप्ति होगी
—– चतुर्थेश व दशमेश, चन्द्र व शनि से युति करके स्थित हो तो अक्समात ही भव्य बंगले की प्राप्ति होती है।
—–कारकांश लग्न में यदि चतुर्थ स्थान में राहु व शनि हो या चन्द्र व शुक्र हो तो भव्य महल की प्राप्ति होनी है।
——-कारकांश लग्न में चतुर्थ में उच्चराशिगत ग्रह हो या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में स्थित हो तो जातक विशाल महल का सुख भोगता है।
——यदि कारकांश कुण्डली में चतुर्थ में मंगल व केतु हो तो भी पक्के मकान का सुख मिलता है।
——-यदि चतुर्थेश पारवतांश में हो, चन्द्रमा गोपुरांश में हो, तथा बृहस्पति उसे देखता हो तो जातक को बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय सुखों जैसे घरो की प्राप्ति होती है।
——-यदि चतुर्थेश व लग्नेश दोनों चतुर्थ में हो तो अक्समात ही उत्तम भवन सुख प्राप्त होता है।
——भवन सुखकारक ग्रहो की दशान्तर्दशा में शुभ गोचर आने पर सुख प्राप्त होता है।
——चतुर्थ स्थान, चतुर्थेश व चतुर्थ कारक, तीनों चर राशि में शुभ होकर स्थित हों या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में हो या लग्नेश, चतुर्थेश व द्वितीयेश तीनो केन्द्र त्रिकोण में, शुभ राशि में हों, तो अनेक मकानों का सुख प्राप्त होता है।
———यदि भवन कारक भाव-चतुर्थ में निर्बल ग्रह हो, तो जातक को भवन का सुख नही मिल पाता । इन कारकों पर जितना पाप प्रभाव बढ़ता जाएगा या कारक ग्रह निर्बल होते जाएंगे उतना ही भवन सुख कमजोर रहेगा। पूर्णयता निर्बल या नीच होने पर आसमान तले भी जीवन गुजारना पड़ सकता है। किसी स्थिति में जातक को भवन का सुख कमजोर रहता है, या नहीं मिल पाता इसके कुछ प्रमुख ज्योतिषीय योगों की और ध्यान आकृष्ट करें तो पाते हैं कि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश का रहना प्रमुख है।

ज्योतिष के अद्भुत फलित सूत्र।

  1. यदि किसी जातक के जन्मलग्न को एक से अधिक शुभ ग्रह एवं केन्द्र-त्रिकोणादि के स्वामी (1, 4, 7, 10, 9, 5) होकर देख रहे हों, तो उसके व्यक्तित्व में सौम्यता, आकर्षण इत्यादि की अभिवृद्धि में सहायक होते हैं| दूसरी ओर यदि एक से अधिक पापग्रह लग्न भाव को देख रहे हों, तो ऐसी स्थिति में जातक उग्र स्वभाव वाला, तामसिक विचारों वाला तथा दु:खी होता है एवं कुछ न कुछ मानसिक, शारीरिक पीड़ा से भी व्यथित रहता है|
  2. नीच राशिगत ग्रह भी अपना विशेष प्रभाव नकारात्मक एवं सकारात्मक रूप से जातक के व्यक्तित्व तथा उसके जीवन पर डालते हैं, जो द्रष्टव्य है| अनुभव के आधार पर नीच राशिगत मङ्गल व्यक्ति को ठण्डे स्वभाव का बनाता है, तो उसके आत्मविश्‍वास, साहस में न्यूनता की प्रवृत्ति भी दर्शाता है| दूसरी ओर नीचराशिस्थ गुरु वाला जातक 31वें वर्ष के उपरान्त निजार्थिक, सामाजिक उत्थान का भोक्ता होता है, लेकिन सन्तान, और शिक्षा से जुड़ी जटिल समस्याओं का उसे जीवन में एक बार अवश्य सामना करना पड़ता है|
  3. सिंह राशि में गुरु एवं मकर राशि में मङ्गल हो, तो व्यक्ति स्वभाव से दम्भी एवं कट्टर होता है| सूर्य चन्द्र की युति वाला व्यक्ति अविनयी, हठी, दृढ़ प्रतिज्ञ होता है| बशर्ते कि इस युति पर मङ्गल की पूर्ण दृष्टि हो|
  4. लग्नस्थ बली (स्वगृही, उच्च) मङ्गल अथवा बुध जातक को अपनी वास्तविक उम्र से छोटी उम्र का दर्शाते हैं अर्थात् यदि वह वृद्धावस्था में हो, तो भी नौजवान युवक की भॉंति प्रतीत होगा|
  5. लग्नेश छठे भाव में हो, तो जातक को विरोधी प्रवृत्ति वाला एवं दबंग बनाता है और इस भाव में यदि शनि स्थित हो, तो पैरों में दर्द विकार अथवा सूजन का सामना करना पड़ता है|
  6. लग्न, सूर्य एवं चन्द्रमा बली होकर केन्द्र त्रिकोणादि भावों में हो साथ ही ये जिन राशियों में स्थित हों, उनके स्वामी भी षड्‌बल में बली होकर उक्त शुभ भावों में ही हो, तो व्यक्ति नि:संदेह प्रभावशाली, दीर्घायु, ख्यातिवान् एवं समाज में पूज्य होता है|
  7. यदि किसी राशि में कोई ग्रह उच्च का होकर स्थित हो, लेकिन उस राशि का स्वामी नीच अथवा अस्त होकर छठे, आठवें बारहवें भावों में से कहीं भी स्थित हो, तो ऐसी स्थिति में उच्चराशिस्थ ग्रह अपना पूर्ण प्रभाव दिखाने में असमर्थ होता है, जैसे यदि मेष राशि में सूर्य भले ही अपने परमोच्च अंश (10) में क्यों न हो? इसका राशिश (मेष का स्वामी मङ्गल ) मङ्गल नीच राशि कर्क में हो या अस्त हो, तो निश्‍चित रूप से उच्चस्थ सूर्य अपना भावजन्य एवं राशिजन्य पूर्ण प्रभाव अभिव्यक्त करने में असमर्थ होगा|
  8. लग्नस्थ मेष, सिंह, धनु, कर्क राशि मेंे स्थित गुरु व्यक्ति को अहंकारी एवं गंभीर प्रकृति का बनाता है|
  9. दशम भाव में स्थित शनि (स्वगृही, उच्च एवं वक्री) 36वें वर्ष से विशेष व्यावसायिक उत्थान देता है एवं आकस्मिक गिरावट भी करता है| दूसरी ओर इस भाव में स्थित बली मङ्गल जातक को अपने व्यवसाय में कीर्तिवान् बनाते हुए अनायास उसे विवादों के घेरे में भी उलझाता है|
  10. जातक के सिंहस्थ सूर्य, मेष राशिस्थ मङ्गल उसके आत्मप्रभाव में वृद्धिकारक होते हैं और वह स्वत: प्रेरणा से समाज में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त करता है|
  11. आधुनिक युग में तुला राशिस्थ सूर्य वाले व्यक्ति राजनीति एवं चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष सफलता प्राप्त करते हुए देखे जा सकते हैं|
  12. किसी जातक के यदि वृषभ राशि में चन्द्रमा केन्द्र त्रिकोणादि भावों में से कहीं भी पक्ष बल से परिपूर्ण होकर पापग्रहों की दृष्टि, युति से मुक्त हो, तो उसे (जातक को) राजपक्ष से पद प्राप्ति के सुअवसर मिलते हैं| ऐसा जातक उदार एवं व्यावहारिक भी होता है|
  13. जन्म लग्न कुण्डली के अन्तर्गत जातक के दाम्पत्य सुख के सन्दर्भ में सप्तम भाव स्थित अकेला शुक्र बाधाएँ एवं रूकावटें पैदा करता है, तो दूसरी ओर इस भाव में स्थित सूर्य जीवनसाथी से मतभेद पैदा करता है| स्थिति यहॉं तक आ जाती है कि गृहस्थ जीवन में घुटन एवं अलगाव की सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं, लेकिन यदि शुक्र या सूर्य स्वगृही, उच्चराशि में स्थित होकर अथवा एक से अधिक शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट होकर सप्तम भाव में स्थित हो, तो इस भाव से उपर्युक्त वर्णित दुष्परिणाम जातक को अत्यल्प मात्रा में ही प्राप्त होंगे|
  14. शुभ भावों के स्वामी (1, 4, 7, 10, 5, 9 भावों के) होकर तीन अथवा इसे अधिक अस्त ग्रह जातक के राजयोग एवं उत्तम स्वास्थ्य में क्षीणता को दर्शाते हैं, ऐसा जातक साधारण व्यक्तित्व का एवं कोई न कोई आधि-व्याधि से ग्रसित रहता है|
  15. जातक की कुण्डली में एक से अधिक नीच राशिस्थ ग्रहों का नीचभङ्ग राजयोग उसे सामान्य स्थिति से काफी उच्च स्तर का बनाता है और अपने कार्य व्यवसाय में विशिष्ट मुकाम पर पहुँचाता है|
  16. जातक की जन्म कुण्डली में लग्न भाव छठे भाव की अपेक्षा पूर्ण बली हो और एकादश भाव द्वादश भाव की अपेक्षा पूर्ण बली हो, तब वह जीवन में मनवांछित यश, धन, उत्थान, उच्च सफलता की सहज प्राप्ति करता है|

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