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भाग्य और पुरुषार्थ।
कुछ लोग भाग्य को सबसे बडा समझते हैं – “भाग्यं फ़लति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम्”। भाग्य हि सर्वत्र फ़ल देता है, विद्या अथवा पौरुष नहीं। कुन्ति श्रीकृ्ष्ण से कहती है कि मेरा पुत्र महापराक्रमी एवं विद्वान है परन्तु हम लोग वनों में भटकते हुए जीवन गुजार रहे हैं। क्यों कि भाग्य ही सर्वत्र फल देता है। भाग्यहीन व्यक्ति की विद्या और उसका पुरूषार्थ निरर्थक है। अपरपक्ष में कुछ लोग पुरुषार्थ को ही सबकुछ मानते हैं। कर्ण कहते हैं कि “दैवायत्तं कुले जन्म मदायत्तं तु पौरुषम्”। मैं कहाँ जन्म हुआ, वह दैव का विधान था। परन्तु पुरुषार्थ मेरे अधीन है। मैं अपने पुरुषार्थ से अपना भाग्य वदल दुँगा। कोइ भी व्यक्ति भाग्यवाद का त्याग कर केवल पुरुषार्थी नहीं बन सकता।
जो लोग भाग्य को तिरस्कार करते हुये केवल पुरुषार्थ को प्राधान्य देते है, वह भाग्य क्या है, और पुरुषार्थ का बीज क्या है, यह नहीं जानते। पुरुषार्थ के लिये भी भाग्य ही कारण है। राम ने जीवनभर भाग्य के सहारे रहे। उनमें पुरुषार्थ की कमी नहीं थी। कृष्ण ने पुरुषार्थ से सब कुछ प्राप्त किया। परन्तु वह भी भाग्य से बन्धे थे। भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का अपना अपना महत्व है।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि।
अवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्॥ ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय 37॥
मनुष्य को अपना कर्म का फल अवश्य ही भोगना पडता है। विना भोग किये कोटि कोटि कल्प के पश्चात् भी कर्मफल का क्षय नहीं होता। यही पुनर्जन्म का कारण है। महाभारत, अनुशासन पर्व, सप्तमोऽध्यायः,3 से 5 और 22 श्लोकमें कहा गया है कि –
येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत्तत फलम् उपाश्नुते॥3॥
यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।
तस्यां तस्यामवस्थायां भुङ्क्ते जन्मनि जन्मनि॥4॥
न नश्यति कृतं कर्म सदा पञ्चेन्द्रियैरिह।
ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा तथैव च॥5॥
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सॊ विन्दति मातरम्।
एवं पूर्वंकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति॥22॥
मनुष्य स्थूल अथवा सूक्ष्म जिस-जिस शरीरसे जो-जो शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसी शरीरसे उसी-उसी शरीरसे उस-उस कर्मका फल भोगता है। जिस-जिस अवस्थामें वह जो-जो शुभ-अशुभ कर्मकरता है, प्रत्येक जन्मकी उसी-उसी अवस्थामें वह उसकाफल भोगता है। पाञ्चों इन्द्रियोंद्वारा कियाहुआ कर्म कभी नष्ट नहीं होता है। वे पाञ्चों इन्द्रियाँ और छठा मन उस कर्मके साक्षी होते हैं। जैसे बछडा हजारों गौओंके मध्यसे अपनी माताको जानलेता है, उसीप्रकार पूर्वका किया हुआ कर्म भी अपना कर्ताको जानकर उसका अनुसरण करता है।
परन्तु मनुष्यको सब कर्मका फल सद्य प्राप्त नहीं होता। भुख लगी है। खाना खाया। सद्य फलप्राप्त हुआ। क्षुधा शान्त हो गयी। परन्तु एक बीज वोया। कालान्तरमें उसका फल मिलेगा। जीवनके अन्तमें जो कर्मका फल शेष रह जाता है, उसे सञ्चितकर्म कहते हैं। अन्तके समय जो भाव मनमें सर्वोपरि होता है, उसीको चरितार्थ करने केलिये सञ्चित कर्मके आधारपर जीवात्मा एक उपयुक्त शरीरका अन्वेषण करता है। जैसे रास्तेमें भुख लगनेपर अपने आर्थिकस्थितिके अनुसार कोइ पञ्चतारका होटेलमें जाता है तो कोइ पथप्रान्तसे खाना खा लेता है। उसीप्रकार अपने पूर्वकर्मके अनुसार जीवात्मा जिसशरीरमें जाता है, उसशरीरके विशेषताओंसे युक्त हो जाता है। जैसे मनुष्यशरीरकी विशेषतायें गौ अथवा सर्प अथवा शुकपक्षीसे विलक्षण है। अतः जो कार्य मनुष्य करसकता है, वह गौ अथवा शुकपक्षी नहीं करसकते। यहाँसे कर्मकरनेका तथा कर्मफल भोगनेका एक नूतन पद्धतिका प्रारम्भ होता है। अतः इसे प्रारब्धकर्म कहते हैं। कुण्डली से इसीके विचार कियाजाता है। ज्योतिषमें इस विभागको होरा कहते हैं।
जीवात्मा पुरुषके अंश होनेसे पूर्ण है, परन्तु बद्ध होनेसे संक्षिप्तशक्तिक है। ईश्वरके आनन्दशक्ति उनका सर्वस्वातन्त्र्यका वोधक है। वही सर्वस्वातन्त्र्य सङ्कुचित होकर जीवमें नियति (भाग्य अथवा दैव) कहलाता है (आनन्दशक्तिः स्वातन्त्र्यं सार्वत्रिकमुदीरितम्। अन्यापेक्षणहेतोस्तु सङ्कोचान्नियतिः स्मृता – मृगेन्द्रसंहिता)। जो पूर्वकर्म सर्वशरीरसामान्य है – जैसे कि सन्तानहानी, कठिन रोगादि – वह सञ्चितकर्मके द्वारा प्रभावित होते हैं। प्रारब्ध और सञ्चितकर्म दोनों पूर्वजन्मके कर्मफलसे निर्धारित होते हैं, जो किया जा चुका है और जिसका फल निर्द्धारित हो चुका है। इसके उपर हमारा ईशित्व अथवा वशित्व नहीं है। अतः केवल विशेषरूपसे ईश्वराधनासे इसका प्रतिकार किया जा सकता है। ज्योतिषमें इसको कर्मविपाक के द्वारा जाना जा सकता है। प्रारब्ध और सञ्चितकर्म के इस विभागको, जिसे वदला नहीं जा सकता, नियति, भाग्य तथा दैव कहते हैं।
परिपूर्णशक्ति ईश्वरके सङ्कुचितशक्ति जीवमें कलादि रूपमें दृष्ट होते हैं। ईश्वरके सर्वकर्तृत्वरूपी क्रियाशक्ति जीवमें कला (आंशिक शक्ति) वन जाती है। ईश्वरके सर्वज्ञतारूपी ज्ञानशक्ति जीवमें विद्या/अविद्या वन जाती है। ईश्वरके नित्यतृप्तिरूपी इच्छाशक्ति जीवमें राग (मोह तथा अनुराग का जननी) वन जाती है। ईश्वरके नित्यसत्तारूपी चिच्छक्ति जीवमें षड्भाव (जायते-अस्ति-विपरिणमते-वर्धते-अपक्षीयते-विनश्यति) योग से काल वन जाता है। एतादृश नियति-काल-राग-कला-अविद्याश्रय जीव सीमितरूपसे कर्मकरने केलिए स्वतन्त्र है। उसी सीमितस्वातन्त्र्यको क्रियमाणकर्म कहते हैं। यही पुरुषार्थ अथवा पौरुष है। जन्मके पश्चात् जो कर्म हमने किये हैं अथवा करनेवाले हैं, वह भाग्यसे मिलकर उसमें परिवर्तनलानेका सामर्थ्य रखते हैं। ज्योतिषमें इसको जानने की प्रक्रिया को प्रश्न अथवा केरल कहते हैं।
इनके अतिरिक्त देश-काल का प्रभाव सर्वसामान्य है। उसको जानने की प्रक्रिया को गोचर तथा शकुन कहते हैं। ज्योतिषमें इसका आलोचना संहिताभागमें पाया जाता हैं। जैसे किसी खिलाडी खेल आरम्भ करनेसे पूर्व कुछ प्रारम्भिक क्रियायें करता है, उसीप्रकार क्रियमाणकर्मसे पूर्व कुछ प्रारम्भिक क्रियायें करना पडता है। उस प्रक्रिया को स्वरोदय कहते हैं। वह ज्योतिष का एक अलग विभाग है। जो सदाचारी ज्योतिषी सिद्धान्त सहित इन सब विभागोंको सरहस्य सोपनिषद जानता है, केवल वही सठीक भाग्यगणना कर सकता है। आजकल ऐसे ज्योतिषी नहीं है।
तभी तो गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है –
जो विधिना ने लिख दिया छठी रात्रि के अंक।
राई घटै न तिल बढ़ै रह रे जीव निशंक॥

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