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: चित्रगुप्त जी की वास्तविकता

  1. हम जिस इच्छा से जिस भावना से जो काम करते हैं उस इच्छा या भावना से ही हमारे पाप-पुण्य का नाप होता है। जीव जितना ही ईश्वरीय नियमों पर चलता है अथवा उन्हें तोड़ता है, उतनी ही तोल के अनुसार उसे अच्छा या बुरा कर्मफल मिलता है। इसलिए ईश्वर में और उसके न्याय में विश्वास रखना मनुष्य और समाज के लिए परम कल्याणकारी है
  2. गरूड़ पुराण में वर्णित अलंकारिक विवरण ‘यमलोक में चित्रगुप्त नामक देवता’ प्रत्येक प्राणी के भले-बुरे कर्मों का विवरण प्रत्येक समय लिखते रहते हैं। मृत्यु के बाद प्राणी को इसी के आधार पर शुभ कर्मों के लिए स्वर्ग और दुष्कर्मों के लिए नर्क प्रदान किया जाता है
  3. उक्त वर्णन वास्तविक स्थिति का एक सांकेतिक सारांश मात्र है। जिसे जन सामान्य सरलता से समझ कर तदनुसार दुष्कर्मों से दूर रहने का प्रयास कर सकें
  4. अब यह सर्वविदित वैज्ञानिक तथ्य है कि जो भी भले-बुरे कार्य ज्ञान वान प्राणियों द्वारा किए जाते हैं उनका सूक्ष्म चित्रण अन्तःचेतना में होता रहता है। भले-बुरे कर्मों का “ग्रे मैटर” के परमाणुओं पर यह चित्रण पौराणिक चित्रगुप्त की वास्तविकता को सिद्ध कर देता है
  5. गुप्त चित्र, गुप्त मन, अन्तःचेतना, सूक्ष्म मन आदि शब्दों के भावार्थ को ही चित्रगुप्त शब्द प्रकट करता हुआ जान पड़ता है
  6. यह चित्रगुप्त निःसन्देह हर प्राणी के हर कार्य को हर समय विना विश्राम किए अपनी बही में लिखता रहता है। सबका अलग-अलग चित्रगुप्त होता है। जितने प्राणी हैं- उतने ही चित्रगुप्त हैं
  7. स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारी सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहे तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है
  8. जैसे बगीचे की वायु, गन्दे नाले की वायु आदि स्थान भेद के कारण अनेक नाम वाली होते हुए भी मूलतः विश्व व्यापक वायु तत्व एक ही है- वैसे ही अलग-अलग शरीरों में रहकर भी अलग-अलग काम करने वाला चित्रगुप्त देवता भी एक ही तत्व है
  9. हमारे पाप-पुण्य का निर्णय काम के बाहरी रूप से नहीं वरन् कर्ता की इच्छा और भावना के अनुरूप होता है। हम जिस इच्छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं- उस इच्छा या भावना से ही हमारे पाप-पुण्य का नाप होता है
  10. यह इच्छा जितनी तीव्र होगी उतना ही पाप-पुण्य भी अधिक एवं बलवान होगा। हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग कानून व्यवस्था होती है
  11. अशिक्षित, अज्ञानी, असभ्य व्यक्तियों को कम पाप लगता है। ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भला-बुरा समझने की योग्यता बढ़ती जाती है, विवेक प्रबल हो जाता है। ज्ञान वान, विचार वान और भावना शील ह्रदय वाले व्यक्ति जब दुष्कर्म करते हैं – तो उनका चित्रगुप्त उस करतूत को ‘बहुत भारी पाप’ की श्रेणी में दर्ज कर देता है
    ~~~~~:
    महाभारत ग्रन्थ का मूल – ‘जयसंहिता स्वरूप’ प्राप्त करना अब दुर्लभ नहीं.- पौराणिक कथा साहित्य में ‘महाभारत ग्रन्थ’ एकमात्र ऐसा अनूठा ग्रन्थ है, जिसे ‘पंचम वेदग्रन्थ’ कहा गया है और ‘इतिहास ग्रन्थ’ भी | अपने प्रकटरूप में यह महाभारत ग्रन्थ ‘इतिहास ग्रन्थ’ रूपमें जाना जाता है तथा आख्यान रूपमें श्रुतिकथन की व्याख्या करने के कारण ही इस महाभारत ग्रन्थ को ‘पंचम वेदग्रंथ’ कहा गया है; इसे पाँचवाँ वेदग्रन्थ माना गया है | इस प्रकार यह महाभारत ग्रन्थ उभयरूप को धारण करने वाला पाया जाता है | और, इस उभयरूप को अपनाकर यह ग्रन्थ कालजयी हो गया है |

अपने मूलरुप में इस महाभारत ग्रन्थ का नाम ‘जय संहिता’ रहा है | इस ‘जय संहिता’ की श्लोक संख्या कुल ८८०० (आठ हजार आठ सौ) होना जानी गयी है | और, इस ‘जय संहिता’ को ‘कृतयुग’ से सम्बन्धित होना माना गया है | चूँकि सृष्टिचक्र के अहोरात्र में कृतयुग को दिवसकाल जाना गया है ; अतः यह जयसंहिता ‘ज्ञान के आलोक’ को प्रदान करने वाली प्रकट होती है | ‘जय संहिता’ पर आधारित महाभारत कथा का दूसरा विकसित स्वरूप ‘भारत संहिता’ कहा गया है | ‘भारत संहिता’ की श्लोक संख्या कुल २४००० (चौबीस हजार) होना वर्णन की गयी है और इसे परवर्ती काल से सम्बन्धित माना गया है |

‘भारत संहिता’ पर आधारित इसका तृतीय परिवर्धित स्वरूप ही वर्तमान समय में उपलब्ध ‘महाभारत ग्रन्थ’ जाना गया है जिसे अन्य पौराणिक ग्रन्थों के साथ-साथ महर्षि वेदव्यास की रचना माना गया है तथा इसकी श्लोक संख्या कुल एक लाख (१,००,०००) से अधिक होना और इस विशालकाय ग्रन्थ में कुल अठारह पर्व (भाग) होना पाये जाते हैं | इस प्रकार यह महाभारत ग्रन्थ अपनी त्रिपाद अवस्था को प्राप्त होकर अनवरत रूपसे चलनेवाले सृष्टिचक्र में अहोरात्र आधारित युगात्मक कालचक्र से अपनी सम्बद्धता को धारण करने वाला और तदनुरूप अपने परिवर्धित और परिवर्तित स्वरुप को धारण करनेवाला पाया जाता है |

इस क्रमिक विकास में महाभारत ग्रन्थ का जो मूल ‘जय संहिता’ स्वरूप है तथा इसका जो द्वितीय परिवर्धित ‘भारत संहिता’ स्वरूप है; ये दोनों ही हमें कहीं पर भी उपलब्ध होते नहीं | नाम के अतिरिक्त इन दोनों ग्रन्थ का कोई विशद विवरण हमें कहीं जानने को मिलता नहीं | किन्तु ये दोनों ही (ग्रन्थ) इस महाभारत ग्रन्थ के वर्तमान विशालकाय स्वरुप में समाहित होकर, इसमें उपस्थित होना जाने जाते हैं |

अतः इस महाभारत ग्रन्थ का जो मूल ‘जय संहिता’ स्वरुप है यह अपने नाम के अनुरूप इस जागतिक संग्राम में विजयी बनने अर्थात् जगतरूप क्रीड़ाकर्म में आत्मजयी बनने और सर्वत्र ही विजय प्राप्त करने का आधारभूत ग्रन्थ होना प्रकट होता है | यह सर्वरूप आत्मा के जागतिक स्वरुप को प्रकट करनेवाला ग्रन्थ जानने में आता है | केनोपनिषद में श्रुति कथन आया है कि-

प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते |
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् || केनोपनिषद् २.४||

अर्थात् – “संकेत या प्रतीक के माध्यम से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है | इस प्रतिबोध आधारित ज्ञान के द्वारा (यह मनुष्य) अमृतस्वरुप आत्मा को प्राप्त करता है | अन्तर्यामी आत्मा (परमात्मा) से जुड़कर यह पराक्रम, तेज, ओज, वीरता आदि (वीर्यं) को प्राप्त करता है, तथा विद्या के द्वारा (अर्थात् पराविद्या या ब्रह्मविद्या के द्वारा) अमृतस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है |”

अतः यह जयसंहिता प्रतिबोधात्मक रूपमें अविनाशी आत्मा को प्रकट करने वाली और सर्वरूप आत्मा के जगतरूप क्रीड़ाकर्म का बोध प्रदान करने वाली प्रकट होती है | कठोपनिषद् में वर्णन मिलता है कि ‘सम्पूर्ण लोक इस आत्मा में आश्रय पाये हुए हैं; कोई भी इस आत्मा को लांघ सकता नहीं’- ‘तस्मिँल्लोका: श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन |” (कठ. उप. २.२.८) यह ब्रह्मस्वरूप आत्मा उसे ही नष्ट कर देता है जो इसे नष्ट करना चाहता है | अतः जगतरूप क्रीड़ाकर्म में अविनाशी स्व-आत्मस्वरूप का बोध प्रदान करते हुए सर्वत्र ही विजयमार्ग प्रशस्त करने के कारण ही इसे जयसंहिता कहा जाना प्रकट होता है; जिसकी श्लोक संख्या कुल ‘आठ हजार आठ सौ’ होना वर्णन की गयी है |; अतः इसकी खोज कर लेना ही महाभारत ग्रन्थ के मूल स्वरुप को प्राप्त कर लेना है | और जयसंहिता स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही द्वितीय परिवर्धित ‘भारत संहिता’ स्वरूप को प्राप्त करने का आधार बन जाता है |

इस प्रकार जब हम महाभारत ग्रन्थ के वर्तमान स्वरूप में ‘जयसंहिता’ को खोजकर इसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं; तो इस गवेषणाकार्य में ‘जयसंहिता’ की कुल श्लोक संख्या ‘आठ हजार आठ सौ’ हमारा मार्गदर्शन करती है | यह इस महत्वपूर्ण कार्य को सुकर बनाती है और इस कार्य में हमारी सहायक हो जाती है | यह संशयरहित अवस्था में इस महाभारत ग्रन्थ के वर्तमान स्वरूप में आये ‘आठ हजार आठ सौ’ कूटश्लोक में अपना गन्तव्य प्राप्त कर लेना प्रकट करती है |

महाभारत ग्रन्थ के आदिपर्व में महर्षि वेदव्यास का यह कथन आया है कि ‘इस महाभारत ग्रन्थ में कुल आठ हजार आठ सौ श्लोक (८८०० श्लोक) रचना वैचित्र्य के कारण अतिगूढ़ हैं | सर्वज्ञ स्वयं गणेशजी भी इस महाभारत ग्रन्थ का लेखनकार्य करते समय इन श्लोकों पर विचार करते हुए क्षणभर के लिये ठहर जाते थे |’ –

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च |
अहं वेद्मि शुको वेत्ति सञ्जयो वेत्ति वा न वा ||
तच्छ्श्लोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढ़ं मुने |
भेत्तं न शक्यतेऽर्थस्य गूढ़त्वात् प्रश्रितस्य च ||
सर्वज्ञोऽपि गणेशो यत् क्षणमास्ते विचारयन् |
||महाभारत,आदिपर्व १.८१से८३||

अर्थात्- ‘इस महाभारत ग्रन्थ में कुल आठ हजार आठ सौ श्लोक (८८०० श्लोक) ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें सन्देह है | हे मुनिवर ! वे कूटश्लोक आज भी इतने सुदृढ़ गुंथे हुए हैं कि उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढ़वृत्ति आदि रचना-वैचित्र्य के कारण गम्भीर है | सर्वज्ञ स्वयं गणेशजी भी उन श्लोकों पर विचार करते समय क्षणभर के लिये ठहर जाते थे |”

इस प्रकार ‘जयसंहिता’ का यह मूलस्वरूप इस महाभारत ग्रन्थ के वर्तमान स्वरूप में समाहित, इन ‘आठ हजार आठ सौ श्लोक’ पर आधारित होना प्रकट होता है | तथा इन आठ हजार आठ सौ श्लोक को खोज लेना ही ‘जय संहिता’ को अपने मूलरूप में प्राप्त कर लेना है | और भारत संहिता के आधार को खोज लेना भी |यह ‘भारत संहिता’ अपने नाम के अनुरूप ही इस जीवात्मा की भास्वर अवस्था को धारण करने में सहायक होती है | यह इस भारतभूमि को भारत कहे जाने का आधार बनी होती है |

स्मरणीय है कि ‘भारत’ शब्द समासरूप होकर, दो भिन्न पद (शब्द) के संयोग से बना है- भा+रत = भारत | ‘भा’ शब्द भासना, चमकना, प्रकाश, आभा, कान्ति, उज्जवलता, चमकदार या चमकीला होना, जगमगाना, आदि अर्थ धारण करता है तथा ‘रत’ शब्द क्रियापद होकर निरत, रत, व्यस्त, अनुरक्त, प्रसन्न, संलग्न, आदि अर्थ को धारण करता है | अतः जो सतत् भासने में रत है अर्थात् जो सतत् प्रकाशमान, आभायुक्त, कान्तियुक्त, उज्जवल, चमकीला, जगमग अवस्था को धारण करनेवाला है; या कि सृष्टिचक्र के रात्रिकाल में इस विश्वधरा पर जो सतत रूपसे अपने आचरण की भास्वर अवस्था को धारण करने में रत है; जो अन्य सबके लिये रात्रिकाल के अन्धकार में प्रकाशयुक्त अवस्था को धारण करनेवाला पथप्रदर्शक है; वह भारत कहा गया है | इस प्रकार यह ‘भारत संहिता’ विश्व धरातल पर भारतवासियों द्वारा अपनी भास्वर अवस्था को धारण करने का कारण बनती है | यह भारत द्वारा विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्व करने का आधार होती है |

चूँकि लेखनीं का विषय बनीं पूर्व कृति ‘श्रुति सन्देश’ में इन ‘आठ हजार आठ सौ’ कूटश्लोक की पहचान का आधार प्रकट हो गया है | और श्रुति की व्याख्या करने का आधार बन गया है | अतः जिज्ञासु शोधकर्ता और दर्शनशास्त्र के अध्येताओं के लये अब महाभारत ग्रन्थ का मूल ‘जयसंहिता’ स्वरुप प्राप्त करना दुर्लभ रहता नहीं | महाभारत ग्रन्थ का मूल ‘जयसंहिता’ स्वरुप प्राप्त करना अब दुर्लभ रहता नहीं | || ॐ तत्सत् ||

|| ॐ ॥
शिव सूत्र : एक में ठहर कर ही, तुम परम सत्य तक पहुँच सकते हो !

इस संसार में दो बातें प्रमुख हैं। एक है, आनेस्टी या ईमानदारी और दूसरी है, विजडम यानी बुद्धिमानी ।
बस, इन दो विरोधी ध्रुवों के बीच, इन दो विपरीतों के बीच हमारा जीवन भी बटा हुआ है। ईमानदारी भी और बुद्धिमानी भी, इन दोनों को ही एक साथ ही संभालने की हमारी कोशिश रहती है।
लेकिन, वचन पूरा करना ईमानदारी का लक्षण है और कभी बचन न देना भी बुद्धिमानी का लक्षण है।

इधर तुम चाहते हो, कि लोग तुम्हें संत की तरह पूजें और उधर तुम चाहते हो कि तुम पापी की तरह मजे भी लूटो।
बड़ी कठिनाई है।
इधर तुम चाहते हो कि राम की तरह तुम्हारे चरित्र का गुणगान हो, लेकिन उधर तुम रावण की तरह दूसरे की सीता को भगाने के लिए भी तत्पर हो।
इस सबसे यही प्रतीत होता है, कि वास्तव में, तुम होना तो रावण जैसा चाहते हो, लेकिन प्रतिष्ठा राम जैसी चाहते हो।

इन दो बिपरितो के बीच ही यह संसार जी रहा है और पिस रहा है।

जब विपरीत दिशाओं में तुम्हारी यात्रा चलती है, तो तुम मुस्किल में पड़ जाते हो और इससे बचने के लिए, तुम अपने अनंत लक्ष्य बना लेते हो और अपने उन लक्ष्यों के कारण ही, तुम उन सब में बंट जाते हो, टुकड़े टुकड़े हो जाते हो और इस तरह जीवन के आखिर में तुम पाते हो, कि जो भी तुम लेकर आये थे, वह सब खो गया।

भगवान शिव कह रहे हैं :
तुम एक हो और अगर तुम उस एक में ही ठहर गये तो तुम जीत गये। अगर तुम उस एक में आ गये, उसमें रम गये तो तुम परम सत्य को प्राप्त कर लोगे।

भगवान शिव कह रहे है:
एक में, स्व में, स्थित होना ही शक्ति है। तुम दुर्बल हो, दीन हो, दुखी हो, इसका कारण यह नहीं, कि तुम्हारे पास रुपये कम है, मकान नहीं है, धन दौलत नहीं है।
तुम दीन और दुखी इसलिए हो, क्योंकि, तुम स्वयं में नहीं हो।
स्वयं में होना, एक में ठहरना, ही ऊर्जा का स्रोत है और स्वयं में ठहरते ही व्यक्ति महाऊर्जा से भर जाता है।

स्वयं में, उस एक में, स्थित होने पर ही तुम परम सत्य को प्राप्त कर सकते हो, उसे जान सकते हो।

श्रीगुरवे नमः
ॐ नमः शिवाय
: पशुपतिनाथ की महिमा
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नेपाल का पशुपतिनाथ मंदिर ऐसा ही एक स्थान है, जिसके विषय में यह माना जाता है कि आज भी इसमें शिव की मौजूदगी है।

पशुपतिनाथ मंदिर को शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक, केदारनाथ मंदिर का आधा भाग माना जाता है। पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू से किलोमीटर उत्तर-पश्चिम देवपाटन गांव में बागमती नदी के तट पर है स्थित है।

अगर आप कभी नेपाल घुमने जाते हैं तो आपको वहां जाकर इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं होगा कि आप एक अलग देश में हैं। कुछ भारत जैसी संस्कृति और संस्कारों को देखकर आप आश्चर्यचकित जरुर हो जायेंगे। आप अगर शिव भगवान के भक्त हैं तो आपको एक बार नेपाल स्थित भगवान शिव का पशुपतिनाथ मंदिर जरूर जाना चाहिए।
नेपाल में भगवान शिव का पशुपतिनाथ मंदिर विश्वभर में विख्यात है। इसका असाधारण महत्त्व भारत के अमरनाथ व केदारनाथ से किसी भी प्रकार कम नहीं है। पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू से तीन किलोमीटर उत्तर-पश्चिम देवपाटन गांव में बागमती नदी के तट पर स्थित है।
यह मंदिर भगवान शिव के पशुपति स्वरूप को समर्पित है। यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में शामिल भगवान पशुपतिनाथ का मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।
यह मंदिर हिन्दू धर्म के आठ सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। नेपाल में यह भगवान शिव का सबसे पवित्र मंदिर है। इस अंतर्राष्ट्रीय तीर्थ के दर्शन के लिए भारत के ही नहीं, अपितु विदेशों के भी असंख्य यात्री और पर्यटक काठमांडू पहुंचते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव यहां पर चिंकारे का रूप धारण कर निद्रा में चले बैठे थे। जब देवताओं ने उन्हें खोजा और उन्हें वाराणसी वापस लाने का प्रयास किया तो उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी। कहा जाता हैं इस दौरान उनका सींग चार टुकडों में टूट गया था। इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में यहाँ प्रकट हुए थे।
पशुपतिनाथ लिंग विग्रह में चार दिशाओं में चार मुख और ऊपरी भाग में पांचवां मुख है। प्रत्येक मुखाकृति के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंडल है। प्रत्येक मुख अलग-अलग गुण प्रकट करता है। पहला मुख ‘अघोर’ मुख है, जो दक्षिण की ओर है। पूर्व मुख को ‘तत्पुरुष’ कहते हैं। उत्तर मुख ‘अर्धनारीश्वर’ रूप है। पश्चिमी मुख को ‘सद्योजात’ कहा जाता है। ऊपरी भाग ‘ईशान’ मुख के नाम से पुकारा जाता है। यह निराकार मुख है। यही भगवान पशुपतिनाथ का श्रेष्ठतम मुख माना जाता है।
इतिहास को देखने पर ज्ञात होता है कि पशुपतिनाथ मंदिर में भगवान की सेवा करने के लिए 1747 से ही नेपाल के राजाओं ने भारतीय ब्राह्मणों को आमंत्रित किया है। इसके पीछे यह तथ्य बताये जाते हैं कि भारतीय ब्राह्माण हिन्दू धर्मशास्त्रों और रीतियों में ज्यादा पारंगत होते हैं। बाद में ‘माल्ला राजवंश’ के एक राजा ने दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को ‘पशुपतिनाथ मंदिर’ का प्रधान पुरोहित नियुक्त किया। दक्षिण भारतीय भट्ट ब्राह्मण ही इस मंदिर के प्रधान पुजारी नियुक्त होते रहे हैं।
मंदिर के निर्माण का कोई प्रमाणित इतिहास तो नहीं है किन्तु कुछ जगह पर यह जरुर लिखा गया है कि मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था।
कुछ इतिहासकार पाशुपत सम्प्रदाय को इस मंदिर की स्थापना से जुड़ा मानते हैं। पशुपति काठमांडू घाटी के प्राचीन शासकों के अधिष्ठाता देवता रहे हैं। 605 ईस्वी में अमशुवर्मन ने भगवान के चरण छूकर अपने को अनुग्रहीत माना था। बाद में मध्य युग तक मंदिर की कई नकलों का निर्माण कर लिया गया। ऐसे मंदिरों में भक्तपुर (1480), ललितपुर (1566) और बनारस (19वीं शताब्दी के प्रारंभ में) शामिल हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ है। इसे वर्तमान स्वरूप नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया।
मंदिर की आध्यात्मिक शक्ति की चर्चाआसपास में काफी प्रचलित है। भारत समेत कई देशों से लोग यहाँ आध्यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं। अगर आप भी भगवान शिव के दर्शनों के अभिलाषी हैं तो यहाँ साफ़ और छल रहित दिल से आकर, आप शिव के दर्शन कर सकते हैं।
मंदिर की महिमा के बारे में आसपास के लोगों से आप काफी कहानियां भी सुन सकते हैं। मंदिर में अगर कोई घंटा-आधा घंटा ध्यान करता है तो वह जीव कई प्रकार की समस्याओं से मुक्त भी हो जाता है।
विशेष,,,,
भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर की किंवदंती के अनुसार
जब महाभारत के युद्ध में पांडवों द्वारा अपने ही रिश्तेदारों का रक्त बहाया गया तब भगवान शिव उनसे बेहद क्रोधित हो गए थे। श्रीकृष्ण के कहने पर वे भगवान शिव से मांफी मांगने के लिए निकल पड़े।

गुप्त काशी में पांडवों को देखकर भगवान शिव वहां से विलुप्त होकर एक अन्य थान पर चले गए। आज इस स्थान को केदारनाथ के नाम से जाना जाता है।

शिव का पीछा करते हुए पांडव केदारनाथ भी पहुंच गए लेकिन भगवान शिव उनके आने से पहले ही भैंस का रूप लेकर वहां खड़े भैंसों के झुंड में शामिल हो गए। पांडवों ने महादेव को पहचान तो लिया लेकिन भगवान शिव भैंस के ही रूप में भूमि में समाने लगे।

इसपर भीम ने अपनी ताकत के बल पर भैंस रूपी महादेव को गर्दन से पकड़कर धरती में समाने से रोक दिया। भगवान शिव को अपने असल रूप में आना पड़ा और फिर उन्होंने पांडवों को क्षमादान दे दिया।

लेकिन भगवान शिव का मुख तो बाहर था लेकिन उनका देह केदारनाथ पहुंच गया था। जहां उनका देह पहुंचा वह स्थान केदारनाथ और उनके मुख वाले स्थान पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इन दोनों स्थानों के दर्शन करने के बाद ही ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का पुण्य प्राप्त होता है। पशुपतिनाथ में भैंस के सिर और केदारनाथ में भैंस की पीठ के रूप में शिवलिंग की पूजा होती है।

पशुपति नाथ मंदिर के विषय में यह मान्यता है कि जो भी व्यक्ति इस स्थान के दर्शन करता है उसे किसी भी जन्म में पशु योनि प्राप्त नहीं होती। लेकिन साथ ही यह भी माना जाता है कि पशुपतिनाथ के दर्शन करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले नंदी के दर्शन नहीं करने चाहिए, अगर ऐसा होता है तो उस व्यक्ति को पशु योनि मिलना तय होता है।

पशुपतिनाथ मंदिर के बाहर एक घाट स्थित है जिसे आर्य घाट के नाम से जाना जाता है। पौराणिक काल से ही केवल इसी घाट के पानी को मंदिर के भीतर ले जाए जाने का प्रावधान है। अन्य किसी भी स्थान का जल अंदर लेकर नहीं जाया जा सकता।

पशुपतिनाथ विग्रह में चारों दिशाओं में एक मुख और एकमुख ऊपर की ओर है। प्रत्येक मुख के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंदल मौजूद है

ये पांचों मुख अलग-अलग गुण लिए हैं। जो मुख दक्षिण की ओर है उसे अघोर मुख कहा जाता है, पश्चिम की ओर मुख को सद्योजात, पूर्व और उत्तर की ओर मुख को क्रमश: तत्वपुरुष और अर्धनारीश्वर कहा जाता है। जो मुख ऊपर की ओर है उसे ईशान मुख कहा जाता है।

पशुपतिनाथ मंदिर का ज्योतिर्लिंग चतुर्मुखी है। ऐसा माना जाता है कि ये पारस पत्थर के समान है, जो लोहे को भी सोना बना सकता है।
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