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क्या आयुर्वेद के माध्यम से COVID-19 से बचाव संभव है?
करोना वायरस पर एक सार्थक लेख

दुनिया के किसी कोने में बीमारी फैलते ही भारतवासियों को आयुर्वेद याद आता है! फिर थोड़े दिन में भूल जाता है! कल तक जिन्हें एलोपैथी के कैप्सूल और इंजेक्शन अमृत लगते थे, आज वही वैद्यों के घरों में चूरन, चटनी और काढ़े की कतार में खड़े हैं| देश आयुर्वेद की ओर दौड़ लगा रहा है| क्यों? प्रकृति में पाये जाने वाले वाले एक मामूली वायरस ने वैश्विक समाज को उसकी हैसियत याद दिला दी। अच्छे अच्छे ज्ञानी और दिग्गज देशों की स्वास्थ्य व्यवस्था को चरमरा कर रख दिया| तो क्या यह मान लें कि आयुर्वेद की मदद से नावेल कोरोनावायरस संक्रमण से बचाव संभव है? बीमार होने के बाद उपचार तो पृथक विषय है, परन्तु क्या आयुर्वेद की मदद से वायरस की चपेट में आने से बचने के उपायों या प्रिवेंटिव स्ट्रेटेजीज कोई हैं या नहीं?

यहाँ कुछ बातें पहले बताना और समझना दोनों आवश्यक हैं| पहली बात तो यह है कि अभी तक आधुनिक मेडिकल विज्ञान में कोरोनावायरस-2019 की कोई अचूक औषधि विकसित नहीं हो पायी है| दूसरी बात यह है कि हम यहाँ बीमार व्यक्तियों के उपचार की चर्चा नहीं कर रहे हैं| तीसरी बात यह है यहाँ चर्चा केवल बचाव की उस रणनीति की संभावना पर है जो आयुर्वेद के सिद्धांतों पर आधारित है| और चौथी बात यह है कि यहाँ दिये गये सुझाव आयुर्वेद की संहिताओं, समकालीन वैज्ञानिक शोध तथा अनुभवजन्य-ज्ञान के एकीकृत दृष्टिकोण पर आधारित तो हैं किन्तु इनका उपयोग केवल आयुर्वेदाचार्यों या वैद्यों के परामर्श से ही किया जा सकता है| स्वयं वैद्य बनकर सेल्फ-मेडिकेशन नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करना हानिकारक हो सकता है| और अंत में, कुछ लोग मानते हैं कि आयुर्वेद में ऐसा क्या है जो आधुनिक विज्ञान के सामने टिक सके| उनके लिये यही सलाह देना उचित है कि आयुर्वेद के बारे में व्यक्तिगत अज्ञान आयुर्वेद के अवैज्ञानिक होने का प्रमाण नहीं है। विनम्र रहकर अपना अज्ञान दूर करिये।

कोरोनावायरस (सीओवी) वायरस का एक बड़ा परिवार है जो कॉमन-कोल्ड से लेकर गंभीर बीमारियों जैसे मध्य-पूर्व-रेस्पिरेटरी सिंड्रोम और गंभीर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम का कारण बनता है। कोरोनाविरस एन्वेलप-युक्त, एकल धनात्मक आर.एन.ए. विषाणु हैं, जो उपकुल कोरोनवीरिनी से आते हैं। मानव रोगों का कारण बनने के लिये पूर्व में ज्ञात छह कोरोनावायरस हैं जिन्हें अल्प-रोगजनक और अत्यधिक-रोगजनक समूह में वर्गीकृत किया जा सकता है| नावेल कोरोनावायरस एक नयी समस्या है जो पहले मनुष्यों में कभी नहीं पायी गयी थी। कोरोनावीरस ज़ूनोटिक हैं, जिसका अर्थ है कि वे जानवरों और लोगों के बीच संचारित होते हैं। शोध में पाया गया है कि सार्स-कोव बिल्लियों से मनुष्यों में और मेर्स-कोव ड्रोमेडरी ऊंटों से मनुष्यों में स्थानांतरित हुआ। कई ज्ञात कोरोनवीरस उन जानवरों में घूम रहे हैं जिन्होंने अभी तक मनुष्यों को संक्रमित नहीं किया है।

सार्स-कोव नवंबर 2002 में दक्षिण चीन में एक नये मानव संक्रमण के रूप में उभरा और जुलाई 2003 में समाप्त हो गया। इसने 8,096 लोगों को संक्रमित किया और लगभग 9.6 प्रतिशत की मृत्यु दर के साथ 774 मौतें हुईं। मेर्स-कोव एक और अत्यधिक रोगजनक वायरस है जो पहली बार सऊदी अरब में उभरा| सितंबर 2012 के बाद से 27 देशों में कुल 2494 प्रयोगशाला-पुष्टि के मामले सामने आये और और 858 मौतें (मृत्यु दर, 34.4 प्रतिशत) हुई हैं। दिसंबर 2019 के अंत में, एक नावेल कोरोनावायरस को रोगज़नक़ के रूप में पहचाना गया, जिससे चीन के वुहान शहर में सार्स जैसी बीमारी का प्रकोप हुआ और इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा आधिकारिक तौर पर 2019-nCoV नाम दिया गया। दुनिया भर से 7 मार्च 2020 को सुबह आठ बजे तक प्राप्त रिपोर्ट्स के अनुसार 2019-nCoV से कुल 1,01,500 लोग संक्रमित हुये हैं और 3,490 लोगों की मृत्यु हुई है।

इससे पहले के आंकड़े देखें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा दिसंबर 2017 में प्रकाशित, पहले विश्वव्यापी प्रत्यक्ष अनुमान के मुताबिक, दुनिया में फेफड़े की बीमारियों से 6,50,000 तक सालाना मौतें हो रही हैं। एन्फ्लुएंजा वायरस सहित अनेक प्रकार से वायरस का संक्रमण छींकने, खाँसने, या संक्रमित सतहों व वस्तुओं को छूने से होता है। एक व्यक्ति कई बार संक्रमित हो सकता है। टाइप-ए एन्फ्लुएंजा वायरस असल में सुअर-जन्य वायरस का एक उप-प्रकार, ए(एच1एन1) है। इसके कारण वर्ष 2009 में स्वाइन फ्लू महामारी फैली। अब यह मौसमी एन्फ्लुएंजा के रूप संक्रमित करता है। सबसे पहले यह मेक्सिको के सीमान्त क्षेत्र में पाया गया था, जो दो माह के भीतर 21वीं सदी की पहली महामारी बन गया था।

आइये देखते हैं कि कुछ लोग वायरस की चपेट में क्यों आ जाते हैं जबकि अन्य लोग क्यों बचे रहते हैं? इस प्रश्न का उत्तर आयुर्वेद के बीज-भूमि का सिद्धांत और व्याधिक्षमत्व का सिद्धांत द्वारा समझा जा सकता है। बीज-भूमि का सिद्धांत स्पष्ट करता है कि यदि भोजन का सम्यक पाचन न हो तो शारीर में आम जैसे विषाक्त पदार्थ जमा होने लगते हैं| इस कारण, या पूर्व से किसी रोग से ग्रसित रहने के कारण, शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र या व्याधिक्षमत्व कमजोर हो जाता है| यदि ऐसी दशा में बीज अर्थात वायरस का संक्रमण हो तो वृद्धि के लिये उपजाऊ शरीर की कोशिकाओं में वायरस रोग-जनन करने में सक्षम हो जाते हैं। इसके विपरीत जब भूमि बांझ होती है, या कहिये कि शरीर के आम-रहित होने से व्याधिक्षमत्व मज़बूत रहता है, तो बीज अंकुरित नहीं होते| तात्पर्य यह है कि मज़बूत शरीर में वायरल संक्रमण होने के बावजूद बीमारी शरीर में आगे नहीं बढ़ती। इसके साथ ही, यदि जठराग्नि सम है तो भोजन के सम्यक पाचन से अंततः बनने वाला ओजस शरीर को संक्रमण से लड़ जाने और जीत जाने में मदद करता है। भौतिक स्तर पर ओजस की कमी का तात्पर्य प्रतिरक्षा-शक्ति या व्याधिक्षमत्व की कमी है। मानसिक स्तर पर ओजस की कमी का तात्पर्य मानसिक शक्ति की कमी और अल्पसत्त्व की स्थिति है। इस प्रकार यदि शरीर में रोग-प्रतिरक्षा-शक्ति या व्याधिक्षमत्व दुरुस्त बनाये रखा जाये तो वायरल संक्रमण की स्थिति के बावज़ूद शरीर में रोग के कोई लक्षण या बीमारी उत्पन्न होने की संभावना कम ही रहती है।

ओजस को दुरुस्त अवस्था में रखकर शरीर की प्रतिरक्षा-शक्ति या व्याधिक्षमत्व बढ़ाकर तमाम तरह के वायरल फीवर, स्वाइन फ्लू, इन्फ्लुएंजा, या नावेल कोरोनावायरस-जन्य बीमारी जैसे सन्निपातकारी संक्रमणों से बचा जा सकता है। यदि हमारी पाचन की आग सामान्य है—अर्थात विषमाग्नि नहीं है, माने न सुलग रही है (मन्दाग्नि), न धधक रही है (तीक्ष्णाग्नि)—तो हमारी प्रतिरक्षा और व्याधिक्षमत्व शक्तिशाली होगा और कोई संक्रमण हमारे ऊपर कब्ज़ा नहीं कर सकता है। इसके लिये ऋतुओं के संधिकाल में विशेषकर वर्षाऋतु और शरदऋतु जैसे मौसमों के दौरान, जब मौसमी वायरल संक्रमण की संभावना अधिक होती है, तब पहले से ही सम्यक ऋतुचर्या के द्वारा आहार-विहार, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, रसायन की सुरक्षा-दीवार खड़ा करके रखना उपयोगी रहता है।

वायरल संक्रमण से बचाव का दूसरा कदम यह है कि संक्रमण फैलने की संभावना को दूर किया जाये। उदाहरण के लिये, हाथ जोड़कर अभिवादन करने की भारतीय परंपरा का पालन करने से संक्रमण फ़ैलाने से रोका जा सकता है। हाथ मिलाना वायरल संक्रमण का आसान और पक्का रास्ता है। इस सन्दर्भ में महर्षि सुश्रुत द्वारा औपसर्गिक रोगों के सन्दर्भ संक्रामन्ति-नरान्नरम्-सिद्धांत सभी वायरल इन्फेक्शन्स के लिये महत्वपूर्ण है (सु.नि. 5.33-34): प्रसङ्गाद्गात्रसंस्पर्शान्निश्वासात् सहभोजनात्। सहशय्यासनाच्चापि वस्त्रमाल्यानुलेपनात्।। कुष्ठं ज्वरश्च शोषश्च नेत्राभिष्यन्द एव च। औपसर्गिकरोगाश्च संक्रामन्ति नरान्नरम्।। यौनसंपर्क, शरीर से संपर्क, हाथ मिलाना, छोटी बूंदों से संक्रमण, पहले से संक्रमित व्यक्ति के साथ भोजन करना, संक्रमित व्यक्ति के साथ बैठना या सोना, संक्रमित व्यक्तियों के कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन और गहनों का उपयोग आदि से संक्रमण होता है। ऐसे संक्रामक या औपसार्गिक रोग, जैसे कोविड-2019, वायरल-फीवर, सूअर-जन्य फ्लू, फुफ्फुसीय तपेदिक, कंजंक्टिवाइटिस आदि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचारी होते हैं। अतः संक्रमण काल में आचार्य सुश्रुत की बात मानते हुये असात्म्येन्द्रियार्थसंयोग और प्रज्ञापराध से दूर रहना चाहिये। हाथ जोड़कर अभिवादन कीजिये। हाथ मिलाकर वायरस मत बाँटिये।

वायरस संक्रमण से बचाव का तीसरा कदम सम्यक दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या का पालन है। इसके लिये नियमित नस्य लेना, सप्ताह में कम से कम 150 मिनट व्यायाम व पैदल चलना आवश्यक है। अभ्यंग, शरीर की सफाई, स्नान, साफ़-सुथरे कपड़े पहनना, योग, प्राणायाम, और रात में सात घंटे की नींद आदि आवश्यक हैं। संक्रमण काल में अणुतेल का नियमित प्रतिमर्श नस्य अत्यंत आवश्यक है। बिना नस्य लिये घर के बाहर नहीं निकलना चाहिये। इसके लिये अच्छी तरह से हाथ-धोकर साफ़ अँगुली में अणुतेल की दो बूंदें डालकर नासाछिद्र में लगाना चाहिये। ध्यान रखें कि एक नासाछिद्र में जिस अँगुली से नस्य लें, उसी से दूसरे नासाछिद्र में नहीं। पुनः दूसरी साफ़ अँगुली का प्रयोग करें। भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में जाने के पूर्व भी नस्य लेना आवश्यक है। अगर अणु तेल उपलब्ध न हो तो तिल तेल का भी उपयोग कर सकते हैं। नस्य पर वैज्ञानिक शोध से भी यह स्पष्ट है कि यह साधारण सी लगाने वाली क्रिया असल में अत्यंत लाभकारी है। यह आरोग्य और दृढ़ता देती है। वायरस संक्रमण को निश्चित रूप से रोकती है।
वायरस संक्रमण से बचाव का चौथा कदम, आयुर्वेदाचार्यों की सलाह से, आहार, रसायन और औषधि के सम्यक प्रयोग पर है। आहार ऐसा हो जिससे जठराग्नि सदैव सम रहे एवं व्याधिक्षमत्व बढ़ा रहे। आधुनिक वैज्ञानिक संदर्भ में कहें तो ऐसा आहार जो ऑक्सीडेंटिव स्ट्रेस लोड को कम से कम बढ़ाये, वही व्याधिक्षमत्व बढ़ा सकता है। रेसवेराट्रॉल एवं ऑक्सीरेसवेराट्राल युक्त खाद्य एवं पेय जैसे द्राक्षासव, ग्रीन-टी, द्राक्षा, अनार, संतरे व अनन्नास, आँवला आदि बचाव में मददगार है क्योंकि इनमें एंटीऑक्सीडेंट व एंटीवायरल गुण पाये जाते हैं। अश्वगंधा, शुण्ठी, कालीमिर्च, पिप्पली, गुडूची, पुदीना, हल्दी, यष्टिमधु, बिभीतकी, लहसुन, तुलसी, सहजन, चित्रक, कालमेघ, वासा, सप्तचक्र (सैलेसिया रेटीकुलाटा), दूधी (राइटिया टिंक्टोरिया) का क्षीर आदि बहुत उपयोगी हैं। शहतूत की नई टहनियों में पाया जाने वाला आक्सीरेसवेराट्राल भी वाइरस रेप्लीकेशन को रोकता है। विशेष रूप से अश्वगंधा और कालमेघ की न्यूरामिनिडेज-इन्हिबिटर एक्टिविटी ठीक वैसी ही है जैसी कि आधुनिक औषधियों जानामिविर, ओसेल्टामिविर व पेरामिविर आदि की है।

इलाहबाद में आयुर्वेदपुरम के संस्थापक और विश्व-प्रसिद्ध क्षारसूत्र सर्जन डॉ. वी.बी. मिश्रा का मानना है कि तमाम प्रकार के वायरल रोगों से बचे रहने के लिये संहिताओं, साइंस और अनुभव को साथ लेकर कालमेघ, तुलसी, शुंठी, कालीमिर्च, पिप्पली, गुडूची, हल्दी, यष्टिमधु, बिभीतकी, और अश्वगंधा आदि तथा आधुनिक वैज्ञानिक विधियों से निर्मित, कोल्डकैल, एलेरकैल, जेरलाइफ-एम व जेरलाइफ-डब्ल्यू, त्विषामृत, जेवीएन-7 जैसी डबल-स्टैंडर्डाइज़्ड मल्टीस्पेक्ट्रम आयुर्वेदिक रसायन व औषधियाँ युक्तिपूर्वक उपयोग करने बचाव और उपचार में उत्तम परिणाम देती हैं। किन्तु औषधियां वैद्य की सलाह से ही ली जायें|

वायरल संक्रमण से बचाव का पाँचवां सुझाव यह है कि सद्वृत्त और आचार रसायन का निरंतर पालन किया जाये। विशेषकर स्नान, मलमार्गों व हाथ की सफाई, संक्रमित वस्तुओं, व्यक्तियों व स्थलों से सुरक्षित दूरी रखना, जम्हाई, छींक व खाँसी के समय मुंह ढकना, नासिका-द्वारों को कुरेदना से बचाना, सोने, जागने, मदिरापान, भोजन आदि में अतिवादी नहीं होना, स्नान के बाद पुनः पूर्व में पहने हुये कपड़े नहीं पहनना, हाथ, पैर व मुंह धोये बिना भोजन नहीं करना, गंदे या संक्रमित बर्तनों में भोजन नहीं करना, संक्रमित व्यक्तियों द्वारा लाया हुआ भोजन नहीं करना चाहिये।

वायरल संक्रमण बचाव के लिये वैक्सीनेशन भी महत्वपूर्ण उपाय माना जाता है, परन्तु वैक्सीन उत्पादन के तौर तरीके लम्बे समय से नहीं बदले। वैक्सीन की प्रभाविता भी बड़े-बूढ़ों में असंतोषजनक है। नावेल कोरोनावायरस-2019 का कोई वैक्सीन अभी तक नहीं विकसित हो पाया है| वैक्सीनेशन न केवल हर वर्ष जरूरी है, बल्कि सभी वायरल संक्रमणों के विरुद्ध प्रभावी एकल वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिये एन्फ्लुएंजा के उपचार हेतु भी केवल एन्टीन्यूरामिनीडेज औषधियाँ ही कारगर मानी जाती हैं। पालीमेरेज मैकेनिज्म से सम्बंधित औषधियाँ अभी विकसित नहीं हो पाईं हैं। एन्फ्लुएंजा के नये-नये रूपांतर या वैरिएंट से आपदा की आशंका सदैव बनी रहती है। वर्ष 2017 में हुये कुछ अध्ययनों में पाया गया कि वैसे तो ज्यादातर लोगों में फ्लू के लक्षण नहीं दिखते हैं, लेकिन टीकाकरण किये हुये लोगों के बीमार हो जाने की अधिक आशंका व्यक्त की गयी है। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है।

वायरल संक्रमण से बचने के लिये प्रतिदिन नस्य लीजिये, फल खाइये, समय समय पर हाथ धोइये, हाथ मिलाने की बजाय हाथ जोड़कर अभिवादन कीजिये, सप्ताह में कम से कम 150 मिनट व्यायाम व योग कीजिये, रात में सात घंटे की नींद लीजिये, रसायनों का सेवन कर व्याधिक्षमत्व बढ़ाइये, और आयुर्वेदाचार्यों की सलाह से प्रोफाइलैक्टिक औषधियों द्वारा तमाम तरह के फ्लू से बचाव कीजिये। वर्ष 1918 के स्पैनिश फ्लू से 100 मिलियन लोगों मृत्यु हुई थी जो उस समय कुल मानव जनसंख्या का 5 प्रतिशत था| पर इसमें भी 95 प्रतिशत लोग तो बच ही गये थे न! इसलिये चिंता करने की बजाय बचाव के उपाय कीजिये| और हाँ, जब दुनिया से कोरोनावायरस से होने वाली बीमारी समाप्त हो जाये तो आयुर्वेद को भूल मत जाइये|

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