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: श्रीराम का कूटनीतिज्ञ स्वरूप
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प्रायः ये जनप्रवृत्ति रही है कि श्रीराम को एक सरल , करुणावत्सल और मर्यादारक्षक के रूप में देखा गया जो सदैव सामाजिक और राजनैतिक मर्यादाओं की रक्षा करते हैं जबकि श्रीकृष्ण को एक चतुर , कूटनीतिज्ञ और लीलाधर के रूप में देखा गया जो धर्मस्थापना के लिये साध्य साधन औचित्य की किसी मर्यादा को मानने के लिये तैयार नहीं हैं । इसी तुलना के चलते भावुक भक्तों द्वारा चौदह और सोलह कलाओं जैसी अवधारणायें दी गयीं जबकि वास्तविकता यह है कि श्रीराम भी उतने ही घोर राजमर्मज्ञ थे जितने श्रीकृष्ण । अंतर केवल छवि का है । श्रीराम की सरल छवि के नीचे उनका धुर राजनीतिज्ञ रूप आच्छादित हो गया है जबकि श्रीकृष्ण की चपल छवि के कारण उनका कूटनीतिज्ञ रूप जनमानस में स्थापित हो गया है ।

एक वास्तविकता यह भी है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण दोंनों की कूटनीतिक और रणनैतिक कार्यशैली एक जैसी ही थी जिसे चार प्रमुख सिद्धांत थे —

1– अपने पक्ष में सुदृढ संगठन नैतिक बल उत्पन्न करना
2– युध्द पूर्व विरोधी पक्ष में समर्थक उत्पन्न करना ।
3– सैन्य प्रयोग के लिये उचित समय का इंतजार करना
3– कम से कम प्रयत्न द्वारा अधिकतम परिणाम लेना

प्रारंभ से ही श्रीराम के अभियानों में उपरोक्त सिद्धांतों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है ।

उनके जीवन का प्रथम अभियान था विश्वामित्र के सिद्धाश्रम के नजदीक स्थित रावण के सैनिक स्कंधावार के विरुद्ध जिसका नेतृत्व कर रही थी यक्षिणी ताड़का व राक्षस सुन्द के लवजेहाद के जाल में फंसकर रक्ष धर्म में धर्मांतरण के बाद उसके पुत्र मारीच और सुबाहु जो उस क्षेत्र के स्वार्थी और शक्तिशाली आर्यों को तेजी से रक्षधर्म में धर्मांतरित कर रहे थे ।

नरमांस भक्षण , स्त्रीअपहरण व बलात्कार , लूट और शोषण के विरुद्ध विश्वामित्र के नेतृत्व में जनाक्रोश पहले से एकत्रित था और आवश्यकता थी केवल न्याय के लिये अधिकृत नेतृत्व की जो राम ने उन्हें प्रदान किया ।

इसके बाद राम ने श्रंगवेरपुर के निषादों से स्वतंत्रता व समानता के संबंध स्थापित किये और यह विशाल व स्वाभिमानी जाति सदैव के लिये राम के प्रति श्रद्धावनत हो गई ।

अपने पिता दशरथ द्वारा दक्षिण में शंबर के नेतृत्व में असुरों के विरुद्ध देव जाति के सैन्य अभियान की असफलता से राम ने वन्य जाति बहुल क्षेत्रों राजकीय सैन्य अभियान की निरर्थकता को समझ लिया था इसीलिए चित्रकूट और दंडकारण्य में राम ने वन्य जातियों यथा शबर , भील , कोल आदि के बीच में उन्हीं जैसा जीवन जीते हुये इन जातियों का संगठन किया उनमें सुधारों व सैन्यप्रशिक्षण द्वारा नैतिकता व आत्मविश्वास का संचार किया। शूर्पणखा प्रसंग से अपने समर्थकों में अपने चरित्र के प्रति अगाध विश्वास उत्पन्न किया ।

सम्यक रणनीति द्वारा खर दूषण को अपने अनुकूल भूगोल में युद्ध करने के लिये उकसाया और दंडकवन में रावण की सैन्य उपस्थिति को समूल नष्ट कर दिया ।

वानरों के संदर्भ में भी यही हुआ । उन्होंन दुर्बल सुग्रीव का पक्ष लिया जिससे उन्हें स्वतः ही सुग्रीव के प्रति सहानुभूति रखने वाली अधिसंख्य वानर प्रजा का नैतिक समर्थन प्राप्त हो गया जिसके कारण द्वंद्वयुद्ध के नियमों के विपरीत हस्तक्षेप कर बालि का वध करने पर भी वानर जाति ने उन्हें अपना मुक्तिदाता माना , आक्रांता नहीं ।

बालि के पश्चात राम ने राक्षसों के शोषण के विरुद्ध वानर जाति के आक्रोश को उभारा और सीता अनुसंधान के समय का सदुपयोग कर साथ साथ समस्त जानकारियां जुटाते रहे जिसका परिणाम था श्रीराम के नेतृत्व के प्रति असाधारण रूप से निष्ठावान सेना तथा हनुमान , जाम्बवान , नल, नील और सुहोत्र जैसे यूथपतियों की अगाध श्रद्धा । केवल अंगद की निष्ठा पर उन्हें आशंका थी जिसे लंका में रावण के दरबार में उसे दूत के रूप में भेजकर जांच लिया गया ।

लंका में विभीषण के विद्रोह व पलायन तथा उसे लंकापति के रूप में मान्यता देकर उन्होंने न केवल रावण की कमजोरियों को जान लिया बल्कि संधिप्रस्ताव भेजकर अपने व रावण दोंनों पक्षों में अपने नैतिक बल को मजबूत कर लिया और इसके बाद ही उन्होंने युद्ध प्रारंभ किया ।

युद्ध के दौरान भी उन्होंने अपनी सतर्कता बनाये रखी और विभीषण को सुरक्षा के नैतिक उत्तरदायित्व का हवाला देकर सदैव केंद्र में अपने नजदीक रखा ।

क्या पता कब भाई के प्रति मोह जाग जाये ?

और जब विभीषण की सहायता से मेघनाद का वध हो गया तो उन्होंने विभीषण को रावण से टकराने की छूट दे दी क्योंकि अब रावण द्वारा विभीषण को पुनः अपनाने की सारी सम्भावनायें नष्ट हो चुकी थीं।

सुग्रीव के राज्याभिषेक के साथ साथ अंगद के युवराज्याभिषेक व अंगद के दूतकर्म के पश्चात विभीषण के प्रसंग में श्रीराम के चरम कूटनीतिक चातुर्य के दर्शन होते हैं और यह तीन प्रसंग ही उनके राजनैतिक व्यक्तित्व को स्पष्ट करने के लिये काफी हैं ।

वनवास से लौटने के पश्चात हनुमान को अयोध्या व भरत की मनःस्थिति को भांपने के लिये अग्रिम दूत के रूप में भेजना उनकी राजोचित सतर्कता का उदाहरण है ।

राज्याभिषेक के पश्चात सीतात्याग के उपरांत भी भारतवर्ष के राजनैतिक संगठन का उनका अभियान जारी रहा ।

लंका में विभीषण और दक्षिण भारत में सुग्रीव दोंनों उनकी मैत्रीपूर्ण अधीनता स्वीकार करते ही थे और दोंनों शक्तियों में विजित और विजेता संबंध का विवाद कभी भी उत्पन्न ना हो सके और दोंनों के मध्य संतुलन बना रहे इसके लिये विभीषण के गुप्त अनुरोध पर उन्होंने अपने ही बनाये रामसेतु को मध्य से इतना भंग करवा दिया कि वानर सेनायें कभी भी लंका पर और लंका निवासी राक्षस जो अब आर्य संस्कृति को स्वीकार कर चुके थे दक्षिण भारत पर आक्रमण ना कर सकें ।

परंतु राज्याभिषेक के पश्चात राम के समक्ष सबसे पहली और नजदीकी मुसीबत थी यमुना पार मधुवन में लवणासुर के रूप में और पूर्व में प्राग्ज्योतिष में बाणासुर के रूप में स्थापित प्राचीन असुरों की पीठें ।

मधुवन की लवणासुर की पीठ अयोध्या के लिये विशेष रूप से सिरदर्द थी । इस क्षेत्र के असुरों ने ना केवल यदुओं को सौराष्ट्र की ओर धकेल दिया था बल्कि सूर्यवंश के ही प्रतापी चक्रवर्ती नरेश मांधाता की हत्या तक युद्ध में कर दी थी जिसका दंश इक्ष्वाकुओं को अब तक चुभता था ।

प्राचीन असुरों की यह पीठ इतनी शक्तिशाली थी कि रावण तक लवणासुर से कन्नी काट गया था ।

परंतु भृगुओं की एक शाखा के कुलपति च्यवन जो सौराष्ट्र छोड़कर इस क्षेत्र में आ बसे थे , उनपर आक्रमण कर असुरों ने भीषण गलती कर दी ।

अपनी देखो और इंतजार करो की नीति के कारण श्रीराम सदैव उचित समय का इंतजार करते थे। अब जबकि उनकी अपनी प्रजा और सेना का नैतिक बल उन्हें प्राप्त हो गया और महर्षि च्यवन के नेतृत्व में भृगुओं के रूप में उस क्षेत्र के भूगोल और शत्रु के बलाबल से परिचित एक जबरदस्त सहायक मिल गया तो उन्होंने शत्रुघ्न के नेतृत्व में अविलंब सेनायें भेज दीं ।

तत्कालीन लवणासुर मारा गया , असुर सेनाओं को छिन्न भिन्न कर दिया गया और श्रीराम ने मधुवन के नाम पर ‘मधुरा’ को सैन्यकेन्द्र बनाकर वहाँ नियुक्त किया शत्रुघ्न को और यही मधुरा आगे जाकर कहलाई मथुरा ।

शत्रुघ्न ने श्रीराम की आज्ञा पर दक्षिण की ओर बढ़कर विदिशा पर भी अधिकार कर लिया और वहां नियुक्त किया अपने पुत्र शत्रुघाती को ।

उन्होंने लक्ष्मण की राजसूय यज्ञ करने की सलाह के विरुद्ध भरत के मत के कारण भाइयों में मतभेद को टालने के लिये राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान के विचार को तज कर अपने पूर्वज रघु की भांति पूरे भारत के पुनः राजनैतिक एकीकरण और ‘चक्रवर्ती’ उपाधि धारण करने का विचार तो छोड़ दिया परंतु राजनैतिक स्थिरता के लिये सम्पूर्ण भारत को एक दृढ़ संगठित रूप देने की कोशिश अवश्य की ।

अश्वमेध के दौरान संधि संरक्षित राज्य के पक्ष में सहायता को आये महारुद्र शिव से एक संक्षिप्त युद्ध और संधि के पश्चात उत्तर की दिशा सुरक्षित हो गयी जिससे अयोध्या साम्राज्य रुद्रों के अधीन कश्मीर में बसे ‘यक्ष’ , ‘नाग’ और ‘पिशाच’ जातियों की अराजकता से सुरक्षित हो गया । यक्षराज कुबेर यों भी श्रीराम के प्रति अत्यंत श्रद्धा रखते ही थे ।

सर्वाधिक समस्या थी उत्तर पश्चिम में और उसके मूल में थे ‘गंधर्व’ । उन्होंने पूरे पश्चिमोत्तर क्षेत्र में आतंक मचा रखा था और यहां तक कि उन्होंने आनव नरेश और भरत के मामा युधाजित पर आक्रमण कर उनकी हत्या कर दी । अवसर की तलाश में बैठे श्रीराम ने तुरंत भरत और उनके पुत्रों तक्ष व पुष्कल के सेनापतित्व में एक विशाल सेना बाह्लीक प्रदेश में भेज दी जिनका स्वागत मुक्तिदायिनी सेना के रूप में आनवों ने किया । गंधर्वों को वापस अपने हिमाचल व पामीर की ओर भागना पड़ा ।

भरत ने आनवों और द्रुह्युओं की सहायता से सुदूर पश्चिम में सबसे अग्रिम सैन्य चौकी के रूप में अपने ज्येष्ठ पुत्र पुष्कल के नाम पर पुष्कलावती और उसके पीछे सिंधु के पूर्वी तट पर तक्ष के नाम पर तक्षशिला की स्थापना की । पुष्कल और तक्ष के राजवंशों का क्या हुआ यह स्पष्ट नहीं है । संभवतः वे स्थानीय गणक्षत्रियों में समाहित हो गये परंतु उनके नाम पर बसे ये सैन्यकेन्द्र आगे चलकर वैभवशाली नगरों के रूप में विकसित हुये ।

कालांतर में सिंधु के नीचे रावी के तट पर राम ने अपने कनिष्ठ पुत्र लव के प्रभार में लवपुर बसाया जो मद्रों व कठों के कारण विशेष विस्तृत ना हो सका लेकिन संभवतः वह एक छोटी बस्ती या गाँव के रूप में किसी तरह बना रहा और लोकस्मृति में उसके संस्थापक का नाम भी जो आगे जाकर 9वीं शताब्दी में दुर्ग रूप में लोहकोट और नगरीकृत रूप में ‘लवपुर’ या लाहौर के रूप में प्रसिद्ध हुआ जहां किसी काल में इसके संस्थापक लव की स्मृति में बनाया गया ‘लव मंदिर’ जीर्ण शीर्ण दशा में आज भी उपस्थित है ।

उधर दंडकवन प्राचीनकाल से इक्ष्वाकुओं की एक शाखा के पूर्वज राजा दंडके अधिकार में था परंतु किसी भृगु पुरोहित की पुत्री के साथ दंड द्वारा बलात्कार के कारण आर्यों में फूट पड़ गयी जिसका लाभ उठाकर राक्षसों ने इक्ष्वाकुओं को वहां से खदेड़ दिया था यद्यपि इक्ष्वाकुओं की एक शाखा का छोटा सा राज्य वहां स्थापित था जो कोशल के दक्षिणी भाग दक्षिण कोशल के नाम पर दक्षिण कोशल ही कहलाया । आज यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाता है । स्वयं श्रीराम की माँ कोशल्या दक्षिण कोशल की ही राजकुमारी थीं , इसलिये वह क्षेत्र श्रीराम की ननिहाल भी था । खर दूषण के नेतृत्व वाले राक्षस स्कंधावार के विध्वंस के पश्चात ही वहां शक्ति शून्य पैदा हो चुका था , इसलिये उन्होंने वहां भी सेनायें भेज दीं और वहाँ पहले से बसे इक्ष्वाकुओं की मदद से अयोध्या के दक्षिण में बसाये गये कुशावती के नाम पर दक्षिण कोशल में भी कुशावती के नाम पर एक और सैन्यकेंद्र बनाया गया और कालांतर में उसका प्रभारी कुश को बनाया । कुछ लोग कुशावती को द्वारका मानते हैं जहाँ शार्यातों के रूप में बसी हुई इक्ष्वाकुओं की एक शाखा को असुरों ने अपदस्थ कर रखा था । परंतु कुशावती का दक्षिण कोशल अर्थात छत्तीसगढ़ में होना अधिक समीचीन प्रतीत होता है ।

अब पश्चिमोत्तर से दक्षिण में कुशावती तक एक सशक्त प्रतिरक्षा पंक्ति तैयार हो चुकी थी परंतु अभी भी श्रीराम संतुष्ट नहीं थे क्योंकि मथुरा और तक्षशिला के बीच में एक बड़ी दरार थी उसे भरने के लिये उन्होंने चुना अपने सर्वाधिक विश्वासपात्र अनुज लक्ष्मण की संतानों अंगद और चित्रकेतु को जो पहले ही अयोध्या के उत्तर में अंगदीयापुरी और पूर्व में मल्लजाति के क्षेत्र में कारूपथ नामक नगर के प्रभारी थे ।
चित्रकेतु मल्लों में इस कदर लोकप्रिय हो चुके थे कि उनका दूसरा नाम ” मल्ल ” ही लोकप्रिय हो गया ।
कारूपथ की स्थापना संभवतः पूर्व में असम की ओर से बाणासुर पीठ व उसके सहयोगियों के किसी संभावित अभियान को रोकने के लिए और कोशल के मित्र राज्य काशी , अंग व बंग को सहायता प्रदान करने के लिये की गयी ।

श्रीराम ने लवपुर और मधुरा के बीच में पूर्व की अंगदीयपुरी और कारूपथ के नाम पर ही पंजाब में भी अंगदीयपुरी और कारुपथ के नाम से दो और सैन्य केंद्रों की स्थापना की । अंगदीयपुरी का अस्तित्व अधिक नहीं चल सका लेकिन चित्रकेतु के साथ गये उनके निष्ठावान “मल्ल” जनों ने वहां अपने पैर जमा लिये और कहलाये मालव । कालांतर में इनकी नगरी जिसे कालिदास ने “कारापथ” कहा , वह पीछे छूट गयी और मालव रावी और चेनाब के उपरले काठे में बस गये । निचले काठे या क्षुद्र भाग में बसे आर्यजन अपनी बस्ती की भौगोलिक स्थिति के कारण कहलाये क्षुद्रक अर्थात ‘निचले’ ।

अब उत्तर पश्चिम दिशा एक प्रतिरक्षा रेखा द्वारा सुरक्षित थी जिसका एक बिंदु पुष्कलावती था और दूसरा बिंदू था दक्षिण कोशल में कुशावती में ।

केंद्र में अयोध्या चारों ओर से लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) , अंगदीयपुरी , कारूपथ, मथुरा और श्रंगवेरपुर द्वारा सुरक्षित थी

इस प्रकार श्रीराम ने अयोध्या साम्राज्य को दोहरी सुरक्षापंक्ति से घेर दिया । साम्राज्य के रूप में भारत का राजनैतिक संगठन पूराकर उन्होंने इस राष्ट्र को एक बार फिर एकीकृत कर राजनैतिक स्थिरता की नींव डाली ।

स्वयं के प्रभार वाली सदृढ़ गुप्तचर व्यवस्था , शत्रुघ्न के सेनापतित्व में विशालशक्तिशाली सेना व लक्ष्मण के प्रभार में उदार परंतु सचेत निगरानी वाले आर्थिक तंत्र के आधार पर उन्होंने उस प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जिसे इतिहास में एक ऐसे मानक के रूप में देखा गया जो अब तक रामराज्य के रूप में यूटोपिया बना हुआ है और जिसे केवल गुप्त सम्राट ही कुछ हद तक प्राप्त कर पाये।
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जीवात्मापरमात्मामें_भेद

कुछ लोग यह कहतेहैं कि श्रुति और शास्त्रों में जीवात्मा और परामात्मामें भेद नहीं है। श्रीशंकराचार्यजीके बाद यह भेद कल्पित किया गया है।किन्तु यह बात ठीक नहीं है क्योंकि –अपरे तु वादिनः पारमार्थिकमेव जैवं रूपमि ति मन्यन्ते ,अस्मदीयाश्च केचित् (ब्र. सू .शां भा.१-३-१९) इसप्रकार स्वयं शंकराचार्यजी ने “”अन्य लोग तथा कुछ हमारे मतके लोग भी जीवात्मा तथा परामात्मामें स्वाभाविक भेद मानते है “”कहकर प्राचीनता स्पष्ट कर दी है।उनसे पूर्वाचार्य व्यासजी के शिष्य शुकदेव,उनके शिष्य बोधायन,इत्यादि स्वाभाविक भेद ही मानते रहे हैं।श्रुतियोंमें भी स्वाभाविक भेदका ही प्रतिपादनहै—
इस परमात्माके एक अंश सम्पूर्ण प्राणीहै–#पादोस्यविश्वाभूतानि (ऋ.सं.८-४-१७)।इस मंत्रसे अंश जीवात्मा तथा अंशी परमात्मा का स्पष्ट भेद ज्ञातहै।
“जो नित्योंमे नित्यहै, चेतनोंमें चेतनहै वह एक परमात्मा बहुत आत्माओंको अभीष्ट पदार्थ अनायास प्रदान करता है–#नित्योनित्यानांचेतनश्चेतनानामेकोबहूनांयोविदधातिकामान्(क. उप.२-२-१३)यहाँ एक वचनान्त पद परमात्मा और बहुवचनान्त पद जीवात्माओंका बोधकहै।इस श्रुतिसे जीव और
परमात्माका भेद स्पष्टहै।
नित्य और असंकु चित ज्ञान वाले परमात्मा तथा संकुचित ज्ञान वाला जीवात्मा ये दोनों अजन्मा हैं ।इन दोनोंमें प्रथम नियंता और दूसरा नियाम्यहै–#ज्ञाज्ञौद्वावजावीशनीशौ(श्वे.उप.१-९) “समान गुण वाले साथ रहनेवाले पक्षीके समान जीव और ईश्वर वृक्षकी तरह छेदन योग्य इस शरीर में रहते है।उन दोनों में से जीव परिपक्व कर्मफलोंको भोगताहै और ईश्वर कर्मफलको न भोगते हुए प्रकाशित होता रहता है–#द्वासुपर्णासयुजासखायासमानंवृक्षम्परिषस्वजाते।(ऋ.सं.२-३-१७) (मुंडक उ.३- १-१)।
“सर्वात्मा परब्रह्म सभी जीवात्माओंके अन्तः प्रवेश करके शासन करते हैं–#अन्तःप्रविष्टःशास्ताजनानाम् (तै.आ.३-११-३)। “जो आत्माके अंदर रहताहै,जिसको आत्मा नहीं जानता आत्मा जिसका शरीर है ,जो आत्माके अंदर प्रविष्ट होकर उसके प्रवृत्ति नृवृत्ति रूप व्यवहारका नियमन करताहै वह निरूपाधिक अमृतस्वरूप परात्मा तेरा अंत र्यामीहै–य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोन्तरो य मात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानम न्तरो यमयति स त अन्तर्याम्यमृतः(बृ.उप. मा. पा.३-७-२६)। “परामात्मा ही सभी प्राणियों के सभी प्रकारके ज्ञानोंका कारणहै,तथा इंद्रियोंके अधिष्ठाता जीवका भी अधिष्ठाताहै–#सकारणंकरणाधिपाधिपः (श्वे.उ.६-९)।इत्यादि श्रुतियोंमें जीव परमात्मासे भिन्न कहा गयाहै।भेदका निर्देश स्पष्ट रूपसे किया गया है -#अधिकंतुभेदनिर्देशात् (ब्रह्म.सू.२-१-१२) काण्व और माध्यन्दिन दोनों शाखाओं का अध्ययन करने वाले वैदिक विद्वान् जीवसे भिन्न परमात्माका प्रतिपादन करते हैं–#उभयेपिहि_भेदेनैनमधीयते (ब्रह्म.सू.१-२-२१) जीवसे परमात्माके भेदका” #अन्यमीशम्””(श्वे.७-४ )श्रुतिसे स्पष्ट कथन होनेसे तथा #भेदव्यपदेशात् (ब्रह्सू.१-३-४)से भी ज्ञातहोताहै कि जीवसे परमात्मा भिन्न हैं।

मीमांसा

मीमांसा = किसी तत्त्व का विचार, वेद-सम्मत निर्णय या विवेचन ।

पक्ष-प्रतिपक्ष को लेकर वेदवाक्यों के निर्णीत अर्थ के विचार ।

  1. पूर्व मीमांसा

‘मीमांसा’ शब्द का अर्थ (पाणिनि के अनुसार) जिज्ञासा है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की लालसा।
अत: पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते हैं –
‘अथातो धर्मजिज्ञासा’।
अर्थात धर्म (करणीय कर्म) को जानने की जिज्ञासा।

पूर्व मीमांसा श्री वेदव्यास जी के शिष्य जैमिनि मुनि ने प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों तथा कर्मकाण्डियों के लिए बनायी है । इसको जैमिनि दर्शन भी कहते हैं ।

पूर्व मीमांसा के अनुसार – धर्म की व्याख्या – वेदविहित शिष्टों से आचरण किये हुए कर्मों में अपना जीवन ढालना है। इसमें सब कर्मों को यज्ञों/महायज्ञों के अंतर्गत कर दिया गया है ।नित्य-नैमित्तिक कर्म तथा पूर्णिमा एवं अमावस्या में जो छोटी-छोटी इष्टियाँ की जाती हैं इनका नाम यज्ञ और अश्वमेध आदि यज्ञों का नाम महायज्ञ है । ये यज्ञ और महायज्ञ वेदों में बतलायी हुई विधि के अनुसार ही होने चाहिए । इसलिए जैमिनि मुनि ने इनकी सिद्धि के लिए ‘शब्द’ अर्थात ‘आगम’ प्रमाण ही माना है जो वेद हैं ।

  1. ब्रह्मसूत्र (उत्तर मीमांसा)

जब मनुष्य जीवन-यापन करने लगता है तो उसके मन में दूसरी जिज्ञासा उठती है, वह है– ‘ ब्रह्म -जिज्ञासा ‘। ब्रह्मसूत्र का प्रथम सूत्र ही है–

“अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।”

अर्थात ब्रह्म को जानने की इच्छा।

इस जिज्ञासा का चित्रण श्वेताश्वर उपनिषद् में बहुत बहुत भली-भाँति किया गया है। उपनिषद् का प्रथम मंत्र है –

ब्रह्मवादिनो वदन्ति-
किं कारणं ब्रह्म कुत: स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा:।
अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्।।

हिन्दी अर्थ

ब्रह्म का वर्णन करनेवाले कहते हैं – इस (जगत्) का कारण क्या है? हम कहाँ से उत्पन्न हैं ? कहाँ स्थित हैं ? कैसे स्थित हैं ?यह सुख-दु:ख क्यों होता है? ब्रह्म की जिज्ञासा करनेवाला यह जानना चाहता है की यह जो कुछ भी उत्पन्न हुआ , वह क्या है? कैसे है ? क्यों है? इत्यादि।

पहली जिज्ञासा कर्म-धर्म की जिज्ञासा थी और दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने (ज्ञान) की थी।

इस दूसरी जिज्ञासा का उत्तर ही ब्रह्मसूत्र अर्थात् उत्तर मीमांसा है। चूँकि यह दर्शन वेद के परम और अन्तिम तात्पर्य का दिग्दर्शन कराता है, इसलिए इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता है –
“वेदस्य अन्त: अन्तिमो भाग: इति वेदान्त:।” यह वेद के अन्तिम ध्येय ओर कार्य क्षेत्र की शिक्षा देता है।
: मकान का वेध
वास्तुशास्त्र में वेध का उल्लेख मिलता है। जैसे गृहवेध, द्वारवेध आदि। हालांकि यह एक विस्तृत विषय है लेकिन हम बताएंगे कि द्वार या घर के सामने कौन सी 10 चीजें नहीं होना चाहिए।
1.मुख्य द्वार या घर के सामने कोई सीधा मार्ग नहीं होना चाहिए। इससे गृह स्वामी का नाश हो जाता है।
2.मुख्य द्वार या घर के सामने कोई गड्ढा या कीचड़ नहीं होना चाहिए। यह शोककारक है।
3.मुख्य द्वार या घर के सामने कोई नाला नहीं होना चाहिए। यह धन नाशक होता है।
4.मुख्य द्वार या घर के सामने यदि कोई कुआं है तो मिरगी का रोग होगा।
5.मुख्य द्वार या घर के सामने स्तंभ है तो स्त्री को रोग लगा ही रहेगा।
6.मुख्य द्वार या घर के सामने यदि मंदिर है तो परेशानी और संकटों से घिरे रहेंगे।
7.मुख्य द्वार या घर के सामने सीढ़ी नहीं बनवाना चाहिए या नहीं होना चाहिए।
8.द्वार के उपर द्वार होना भी नुकसान दायक है। इससे धन का नाश होता है।
9.घर के उपर पड़ रही छाया से छायावेध होता है। हालांकि यह देखना होता है कि घर के उपर किसकी छाया पड़ रही है और किस दिशा से और किस प्रहर में छाया होती है। उसी से लाभ या नुकसान का पता चलता है।
10.मुख्य द्वार या घर केएकदम सामने कोई वृक्ष नहीं होना चाहिए यह सभी कार्यों में बाधा उत्पन्न करता है। इससे बाल दोष भी होता है। कौन सा वृक्ष घर की किस दिशा में होना चाहिए यह उल्लेख मिलता है।
🌹🌷🌷🚩🌷🚩🌷🚩🌷👏👏👏👏🌷🚩🌷🌷🚩🌷🌷🚩🚩ॐ नमः शिवाय मंत्र की उत्पत्ति कैसे हुयी?????

ॐ नमः शिवाय सबसे लोकप्रिय हिंदू मंत्रों में से एक है और शैव सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण मंत्र है। नमः शिवाय का अर्थ “भगवान शिव को नमस्कार” या “उस मंगलकारी को प्रणाम!” है। इसे शिव पञ्चाक्षर मंत्र या पञ्चाक्षर मंत्र भी कहा जाता है, जिसका अर्थ “पांच-अक्षर” मंत्र (ॐ को छोड़ कर) है। यह भगवान शिव को समर्पित है।

यह मंत्र श्री रुद्रम् चमकम् और रुद्राष्टाध्यायी में “न”, “मः”, “शि”, “वा” और “य” के रूप में प्रकट हुआ है। श्री रुद्रम् चमकम्, कृष्ण यजुर्वेद का हिस्सा है और रुद्राष्टाध्यायी, शुक्ल यजुर्वेद का हिस्सा है।

यह मंत्र कृष्ण यजुर्वेद के हिस्से श्री रुद्रम् चमकम् में मौजूद है। श्री रुद्रम् चमकम्, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता की चौथी किताब के दो अध्यायों से मिल कर बना है। प्रत्येक अध्याय में ग्यारह स्तोत्र या हिस्से हैं। दोनों अध्यायों का नाम नमकम् (अध्याय पाँच) एवं चमकम् (अध्याय सात) है।

ॐ नमः शिवाय मंत्र बिना “ॐ” के नमकम् अध्याय के आठवे स्तोत्र में ‘नमः शिवाय च शिवतराय च’ के रूप में मौजूद है। इसका अर्थ है “शिव को नमस्कार, जो शुभ है और शिवतरा को नमस्कार जिनसे अधिक कोई शुभ नहीं है। यह मंत्र रुद्राष्टाध्यायी में भी मौजूद है जो शुक्ल यजुर्वेद का हिस्सा है। यह मंत्र रुद्राष्टाध्यायी के पाँचवे अध्याय (जिससे नमकम् कहते हैं) के इकतालीसवे श्लोक में ‘नमः शिवाय च शिवतराय च’ के रूप में मौजूद है।

नमः शिवाय का अर्थ “भगवान शिव को नमस्कार” या “उस मंगलकारी को प्रणाम!” है। सिद्ध शैव और शैव सिद्धांत परंपरा जो शैव संप्रदाय का हिस्सा है, उनमें नमः शिवाय को भगवान शिव के पंच तत्त्व बोध और उनकी पाँच तत्वों पर सार्वभौमिक एकता को दर्शाता मानते हैं :

“न” ध्वनि पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करता है
“मः” ध्वनि पानी का प्रतिनिधित्व करता है
“शि” ध्वनि आग का प्रतिनिधित्व करता है
“वा” ध्वनि प्राणिक हवा का प्रतिनिधित्व करता है
“य” ध्वनि आकाश का प्रतिनिधित्व करता है
इसका कुल अर्थ है कि “सार्वभौमिक चेतना एक है”।

शैव सिद्धांत परंपरा में यह पाँच अक्षर इन निम्नलिखित का भी प्रतिनिधित्व करते हैं :

“न” ईश्वर की गुप्त रखने की शक्ति (तिरोधान शक्ति) का प्रतिनिधित्व करता है
“मः” दुनिया का प्रतिनिधित्व करता है
“शि” शिव का प्रतिनिधित्व करता है
“वा” उसका खुलासा करने वाली शक्ति (अनुग्रह शक्ति) का प्रतिनिधित्व करता है
“य” आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है

यह मंत्र “न”, “मः”, “शि”, “वा” और “य” के रूप में श्री रुद्रम् चमकम्, जो कृष्ण यजुर्वेद का हिस्सा है, उसमे प्रकट हुआ है। यह मंत्र रुद्राष्टाध्यायी जो शुक्ल यजुर्वेद का हिस्सा है उसमे भी प्रकट हुआ है। पूरा श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्र इस मंत्र के अर्थ हेतु समर्पित है। तिरुमंतिरम, तमिल भाषा में लिखित शास्त्र, इस मंत्र का अर्थ बताता है ।

शिव पुराण के विद्येश्वर संहिता के अध्याय 1.2.10 और वायवीय संहिता के अध्याय 13 में ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र लिखा हुआ है। तमिल शैव शास्त्र, तिरुवाकाकम, “न”, “मः”, “शि”, “वा” और “य” अक्षरों से शुरू हुआ है

यह मंत्र के मौखिक या मानसिक रूप से दोहराया जाते समय मन में भगवान शिव की अनंत व सर्वव्यापक उपस्थिति पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। परंपरागत रूप से इसे रुद्राक्ष माला पर १०८ बार दोहराया जाता है। इसे जप योग कहा जाता है। इसे कोई भी गा या जप सकता है, परन्तु गुरु द्वारा मंत्र दीक्षा के बाद इस मंत्र का प्रभाव बढ़ जाता है। मंत्र दीक्षा के पहले गुरु आमतौर पर कुछ अवधि के लिए अध्ययन करता है। मंत्र दीक्षा अक्सर मंदिर अनुष्ठान जैसे कि पूजा, जप, हवन, ध्यान और विभूति लगाने का हिस्सा होता है। गुरु, मंत्र को शिष्य के दाहिने कान में बोलतें हैं और कब और कैसे दोहराने की विधि भी बताते हैं।

यह मंत्र प्रार्थना, परमात्मा-प्रेम, दया, सत्य और परमसुख जैसे गुणों से जुड़ा हुआ है। सही ढंग से मंत्र जप करने से यह मन को शांत, आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और ज्ञान लाता है । यह भक्त को शिव के पास भी लाता है। परंपरागत रूप से, यह स्वीकार किया गया है कि इस मंत्र में समस्त शारीरिक और मानसिक बीमारियों को दूर रखने के शक्तिशाली चिकित्सकी गुण हैं। इस मंत्र के भावपूर्ण पाठ करने से दिली शांति और आत्मा को प्रसन्नता मिलती है। कई हिन्दू शिक्षकों का विचार है कि इन पाँच अक्षरों का दोहराना शरीर के लिए साउंड थैरेपी और आत्मा के लिए अमृत के भाँति है।

ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इन मंत्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रह कर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं।

इन में से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है, 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है।

ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है:

प्रणवो धनु:शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥

कठोपनिषद में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है।

मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।

वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध तथा जैन संप्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है। प्रणव शब्द का अर्थ है–

प्रकर्षेणनूयते स्तूयते अनेन इति,
नौति स्तौति इति वा प्रणव:।

प्रणव का बोध कराने के लिए उसका विश्लेषण आवश्यक है। यहाँ प्रसिद्ध आगमों की प्रक्रिया के अनुसार विश्लेषण क्रिया का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचंद्र रोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना। इनमें से अकार, उकार और मकार ये तीन सृष्टि, स्थिति और संहार के सपादक ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के वाचक हैं।

प्रकारांतर से ये जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं के भी वाचक हैं। बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। प्लुत तथा दीर्घ मात्राओं का स्थितिकाल क्रमश: संक्षिप्त होकर अंत में एक मात्रा में पर्यवसित हो जाता है। यह ह्रस्व स्वर का उच्चारण काल माना जाता है। इसी एक मात्रा पर समग्र विश्व प्रतिष्ठित है। विक्षिप्त भूमि से एकाग्र भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है।

एकाग्र से निरोध अवस्था में जाने के लिए इस एम मात्रा का भी भेद कर अर्धमात्रा में प्रविष्ट हुआ जाता है। तदुपरांत क्रमश: सूक्ष्म और सूक्ष्मतर मात्राओं का भेद करना पड़ता है। बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है।

समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़वा संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। आचार्यो का उपदेश है कि इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए। इसका थोड़ा सा आभास मांडूक्य उपनिषद् में मिलता है।

बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।

योगी संप्रदाय में स्वच्छंद तंत्र के अनुसार ओंकारसाधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार “अ” समग्र स्थूल जगत् का द्योतक है और उसके ऊपर स्थित कारणजगत् का वाचक है मकार। कारण सलिल में विधृत, स्थूल आदि तीन जगतों के प्रतीक अ, उ और म हैं। ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनंतर मात्रातीत की ओर गति होती है। म पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।

तंत्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि बिंदु अशेष वेद्यों के अभेद ज्ञान का ही नाम है और नाद अशेष वाचकों के विमर्शन का नाम है। इसका तात्पर्य यह है कि अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर अर्थतत्व का अवश्य ही भेद हो जाता है।

उसका कारण यह है कि यहाँ योगी को सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिंदुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है। अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही अवशिष्ट रहता है एवं नाद की नादांत तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है।

उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही सिद्ध है।

इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है। स्वच्छंद तंत्र में यह दिखाया गया है कि ऊर्ध्व गति में किस प्रकार कारणों का परित्याग होते होते अखंड पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है।

“अ” ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। “उ” विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कंठ में होता है तथा “म” रुद्र का वाचक है ओर उसका त्याग तालुमध्य में होता है।

इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है। तदनंतर बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिंदु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता। भ्रूमध्य में बिंदु का त्याग होता है। नाद सदाशिवरूपी है। ललाट से मूर्धा तक के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है।

यहाँ तक का अनुभव स्थूल है। इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं। मूर्धा के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनंतर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है।

इसके बाद ही मनन का त्याग हो जाता है। इसके उपरांत कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रहप्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।

इसी को परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है।👐👐👐👐👐👐👐👐👐👐🥀👐🥀👐🥀👐🥀👐🥀
: राम शब्द का अर्थ है

– रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वह
राम आखिर क्या हैं ?…
राम जीवन का मंत्र है। राम मृत्यु का मंत्र नहीं है। राम गति का नाम है, राम थमने, ठहरने का नाम नहीं है। सतत वितानीं राम सृष्टि की निरंतरता का नाम है।
राम, महाकाल के अधिष्ठाता, संहारक, महामृत्युंजयी शिवजी के आराध्य हैं। शिवजी काशी में मरते व्यक्ति को(मृत व्यक्ति को नहीं) राम नाम सुनाकर भवसागर से तार देते हैं। राम एक छोटा सा प्यारा शब्द है। यह महामंत्र – शब्द ठहराव व बिखराव, भ्रम और भटकाव तथा मद व मोह के समापन का नाम है। सर्वदा कल्याणकारी शिव के हृदयाकाश में सदा विराजित राम भारतीय लोक जीवन के कण-कण में रमे हैं।
राम हमारी आस्था और अस्मिता के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। भगवान विष्णु के अंशावतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम हिंदुओं के आराध्य ईश हैं। दरअसल, राम भारतीय लोक जीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान महाऊर्जा का नाम है।
वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं। अनेकानेक संतों ने निर्गुण राम को अपने आराध्य रूप में प्रतिष्ठित किया है। राम नाम के इस अत्यंत प्रभावी एवं विलक्षण दिव्य बीज मंत्र को सगुणोपासक मनुष्यों में प्रतिष्ठित करने के लिए दाशरथि राम का पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छावास बाहर फेंकते हैं।
मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास – प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।
राम शब्द का अर्थ है – रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं इसी तरह कहा गया है – रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं।
इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है –
राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः
अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है।
जय श्री राम
: मंदिर में जाने से पहले आखिर
क्यों बजाते है घंटी !!
घंटियां 4 प्रकार की होती हैं :

  1. गरुड़ घंटी, 2. द्वार घंटी, 3.
    हाथ घंटी और 4. घंटा।
  2. गरुड़ घंटी : गरुड़ घंटी छोटी-
    सी होती है जिसे एक हाथ से
    बजाया जा सकता है।
  3. द्वार घंटी : यह द्वार पर
    लटकी होती है। यह बड़ी और
    छोटी दोनों ही आकार
    की होती है।
  4. हाथ घंटी : पीतल की ठोस एक
    गोल प्लेट की तरह होती है
    जिसको लकड़ी के एक गद्दे से
    ठोककर बजाते हैं।
  5. घंटा : यह बहुत बड़ा होता है।
    कम से कम 5 फुट लंबा और चौड़ा।
    इसको बजाने के बाद आवाज कई
    किलोमीटर तक चली जाती है।
    हिंदू धर्म से जुड़े प्रत्येक मंदिर और
    धार्मिक स्थलों के बाहर आप
    सभी ने बड़े-बड़े घंटे
    या घंटियां लटकी तो अवश्य
    देखी होंगी जिन्हें मंदिर में प्रवेश
    करने से पहले भक्त श्रद्धा के साथ
    बजाते हैं. लेकिन क्या कभी आपने यह
    सोचा है कि इन घंटियों को मंदिर
    के बाहर लगाए जाने के पीछे
    क्या कारण है या फिर धार्मिक
    दृष्टिकोण से इनका औचित्य
    क्या है?
    असल में प्राचीन समय से
    ही देवालयों और मंदिरों के बाहर
    इन घंटियों को लगाया जाने
    की शुरुआत हो गई थी. इसके पीछे
    यह मान्यता है कि जिन
    स्थानों पर घंटी की आवाज
    नियमित तौर पर आती रहती है
    वहां का वातावरण हमेशा सुखद
    और पवित्र बना रहता है और
    नकारात्मक
    या बुरी शक्तियां पूरी तरह
    निष्क्रिय रहती हैं.
    यही वजह है कि सुबह और शाम जब
    भी मंदिर में
    पूजा या आरती होती है तो एक
    लय और विशेष धुन के साथ
    घंटियां बजाई जाती हैं जिससे
    वहां मौजूद लोगों को शांति और
    दैवीय
    उपस्थिति की अनुभूति होती है.
    लोगों का मानना है
    कि घंटी बजाने से मंदिर में
    स्थापित देवी-देवताओं
    की मूर्तियों में चेतना जागृत
    होती है जिसके बाद
    उनकी पूजा और आराधना अधिक
    फलदायक और प्रभावशाली बन
    जाती है.
    पुराणों के अनुसार मंदिर में
    घंटी बजाने से मानव के कई
    जन्मों के पाप तक नष्ट हो जाते हैं.
    जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब
    जो नाद (आवाज)
    गूंजी थी वही आवाज घंटी बजाने
    पर भी आती है. उल्लेखनीय है
    कि यही नाद ओंकार के उच्चारण से
    भी जागृत होता है.
    मंदिर के बाहर लगी घंटी या घंटे
    को काल का प्रतीक
    भी माना गया है. कहीं-कहीं यह
    भी लिखित है कि जब प्रलय
    आएगा उस समय भी ऐसा ही नाद
    गूंजेगा.
    मंदिर में घंटी लगाए जाने के पीछे
    ना सिर्फ धार्मिक कारण है
    बल्कि वैज्ञानिक कारण
    भी इनकी आवाज को आधार देते हैं.
    वैज्ञानिकों का कहना है कि जब
    घंटी बजाई जाती है
    तो वातावरण में कंपन
    पैदा होता है, जो वायुमंडल के
    कारण काफी दूर तक जाता है. इस
    कंपन का फायदा यह है कि इसके
    क्षेत्र में आने वाले सभी जीवाणु,
    विषाणु और सूक्ष्म जीव आदि नष्ट
    हो जाते हैं, जिससे आसपास
    का वातावरण शुद्ध हो जाता है.
    इसीलिए अगर आप मंदिर जाते
    समय घंटी बजाने को अहमियत
    नहीं देते हैं तो अगली बार प्रवेश
    करने से पहले घंटी बजाना ना भूलें.
    शेयर कर सभी तक पहुँचाए..

    इतिहास-पुराण

कथा नंदी की

 पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान माँगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की माँग की। 

भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो। मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा।”

भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर का वरदान है कि जहाँ पर नंदी का निवास होगा वहाँ उनका भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है।

शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का प्रतीक है। नंदी का एक संदेश यह भी है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की दृष्टि शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी दृष्टि भी आत्मा की ओर होनी चाहिये। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। नंदी यह संकेत देता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही सामान्य भाषा में मन का स्वच्छ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाते हुए मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।

धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि जब शिव अवतार नंदी का रावण ने अपमान किया तो नंदी ने उसके सर्वनाश को घोषणा कर दी थी। रावण संहिता के अनुसार कुबेर पर विजय प्राप्त कर जब रावण लौट रहा था तो वह थोड़ी देर कैलाश पर्वत पर रुका था। वहाँ शिव के पार्षद नंदी के कुरूप स्वरूप को देखकर रावण ने उसका उपहास किया। नंदी ने क्रोध में आकर रावण को यह श्राप दिया कि मेरे जिस पशु स्वरूप को देखकर तू इतना हँस रहा है। उसी पशु स्वरूप के जीव तेरे विनाश का कारण बनेंगे।

नंदी का एक रूप सबको आनंदित करने वाला बी है। सबको आनंदित करने के कारण ही भगवान शिव के इस अवतार का नाम नंदी पड़ा। शास्त्रों में इसका उल्लेख इस प्रकार है-

त्वायाहं नंन्दितो यस्मान्नदीनान्म सुरेश्वर।
तस्मात् त्वां देवमानन्दं नमामि जगदीश्वरम।।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ६/४५

 अर्थात नंदी के दिव्य स्वरूप को देख शिलाद मुनि ने कहा तुमने प्रगट होकर मुझे आनंदित किया है। 

अत: मैं आनंदमय जगदीश्वर को प्रणाम करता हूं।

  नासिक शहर के प्रसिद्ध पंचवटी स्थल में गोदावरी तट के पास एक ऐसा शिवमंदिर है जिसमें नंदी नहीं है। अपनी तरह का यह एक अकेला शिवमंदिर है। पुराणों में कहा गया है कि कपालेश्वर महादेव मंदिर नामक इस स्थल पर किसी समय में भगवान शिवजी ने निवास किया था। यहाँ नंदी के अभाव की कहानी भी बड़ी रोचक है। यह उस समय की बात है जब ब्रह्मदेव के पाँच मुख थे। चार मुख वेदोच्चारण करते थे, और पाँचवाँ निंदा करता था। उस निंदा से संतप्त शिवजी ने उस मुख को काट डाला। इस घटना के कारण शिव जी को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। उस पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवजी ब्रह्मांड में हर जगह घूमे लेकिन उन्हें मुक्ति का उपाय नहीं मिला। एक दिन जब वे सोमेश्वर में बैठे थे, तब एक बछड़े द्वारा उन्हें इस पाप से मुक्ति का उपाय बताया गया। कथा में बताया गया है कि यह बछड़ा नंदी था। वह शिव जी के साथ गोदावरी के रामकुंड तक गया और कुंड में स्नान करने को कहा। स्नान के बाद शिव जी ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो सके। नंदी के कारण ही शिवजी की ब्रह्म हत्या से मुक्ति हुई थी। इसलिए उन्होंने नंदी को गुरु माना और अपने सामने बैठने को मना किया। 

आज भी माना जाता है कि पुरातन काल में इस टेकरी पर शिवजी की पिंडी थी। अब तक वह एक विशाल मंदिर बन चुकी है। पेशवाओं के कार्यकाल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। मंदिर की सीढि़याँ उतरते ही सामने गोदावरी नदी बहती नजर आती है। उसी में प्रसिद्ध रामकुंड है। भगवान राम में इसी कुंड में अपने पिता राजा दशरथ के श्राद्ध किए थे। इसके अलावा इस परिसर में काफी मंदिर है। लेकिन इस मंदिर में आज तक कभी नंदी की स्थापना नहीं की गई।
: कर्ज से जितने लोग परेशान हैं उनके लिए उपाय

मंगलवार का दिन हनुमानजी का माना जाता है। यह दिन कर्ज से मुक्ति के लिए सबसे उत्तम है। यदि किसी से कर्ज लिया है तो उसे मंगलवार के दिन चुकाने के बारे में सोचे। बुधवार और रविवार को कभी किसी को उधार न दें। मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ करके हनुमान मंदिर में नारियल रखना अच्छा माना जाता है।

  • मंगलवार को इन चीजों के प्रयोग व दान का विशेष महत्व है- तांबा, मतान्तर से सोना, केसर, कस्तूरी, गेहूं, लाल चंदन, लाल गुलाब, सिन्दूर, शहद, लाल पुष्प, शेर, मृगछाला, मसूर की दाल, लाल कनेर, लाल मिर्च, लाल पत्थर, लाल मूंगा।
  • आटे के बने दीपक को बढ़ के पत्ते पर रखकर जलाएं। ऐसे पांच पत्तों पर पांच दीपक रखें और उसे ले जाकर हनुमानजी के मंदिर में रख दें। ऐसा कम से कम 11 मंगलवार को करें।
  • शुक्लपक्ष के किसी मंगलवार की रात को हनुमानजी के मंदिर में दो दीपक जलाएं और हनुमान चालीसा का 11 बार पाठ करें। पहला देसी घी का छोटा दीपक लगाएं। दूसरा 9 बत्तियों वाला एक बड़ा दीप लगाएं जिसमें सरसों का तेल हो और दो लोंग डाली गई हो और जो रातभर जलता रहे। छोटा दीपक आपके दाहिनी ओर रहेगा और बड़ा दीपक हनुमानजी के सामने। ऐसा आप पांच मंगलवार करें ऋणहर्ता गणेश स्तोत्र का शुक्ल पक्ष के बुधवार से नित्य पाठ करें। बुधवार को सवा पाव मूंग उबालकर घी-शकर मिलाकर गाय को खिलाने से शीघ्र कर्ज से मुक्ति मिलती है ।

प्रायश्चित्त व क्षमा का परित्याग अथवा धर्म की हत्या

कोई धर्म-संस्कृति अपेक्षाकृत अधिक अथवा न्यून उदात्त हो सकती है किन्तु उसका उत्कर्ष उसकी उदात्तता के न्यूनाधिक होने पर बहुत अधिक निर्भर नहीं है क्योंकि धर्म-संस्कृति विकासशील भी हो सकती है। उसका उत्कर्ष वस्तुत: उसके सदस्यों अथवा अनुयायियों के आन्तरिक बल पर ही अधिक आश्रित होता है जिसके क्षीण हो जाने पर धर्म-संस्कृति का अपकर्ष अवश्यम्भावी है। इस आन्तरिक बल का स्रोत अन्त:करण (conscience) है। अन्त:करण में उचित-अनुचित का भावनात्मक बोध होता है। जब कोई यह अनुभव करता है कि उसने कुछ अनुचित किया है तो वह अपने कृत (किए) को अकृत (अनकिया) तो नहीं कर सकता किन्तु यह स्वीकार कर सकता है कि उसने अनुचित कृत्य किया है। यह स्वीकारोक्ति लज्जा व उत्तरदायित्व से रहित अथवा युक्त हो सकती है। लज्जा व उत्तरदायित्व का निश्चय प्रायश्चित्त से होता है जो स्वयमेव निश्चित किया जा सकता है अथवा ज्ञानी से निर्दिष्ट भी हो सकता है। यदि किसी के प्रति अकरणीय किया गया है तो यह प्रायश्चित्त उसके सम्मुख किया जा सकता है अथवा ज्ञानी के सम्मुख भी किया जा सकता है। उचित रीति से प्रायश्चित्त हो जाने पर सशर्त अथवा बेशर्त क्षमादान भी होना चाहिए। क्षमादान वही कर सकता हो जो यह समझ सकता है कि यह न सही कोई अन्य अनुचित कृत्य उसने भी किया है। दोष सुलभ है किन्तु दोष-स्वीकृति दुर्लभ व अपवादात्मक है। अत: प्रायश्चित्त के महत्त्व को न्यून नहीं ठहराया जा सकता। प्रायश्चित्त न करने वाले का आत्मबल क्षीण होता जाता है और उसके द्वारा अकरणीय की पुनरावृत्ति की शक्यता भी बढ़ जाती है। अत: प्रायश्चित्त अनिवार्य है।

अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितञ्च समाचरन्।
प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नर:॥
अकामत: कृते पापे प्रायश्चित्तं विदुर्बुधा:।
कामकारकृतेऽप्याहुरेके श्रुतिनिदर्शनात्॥
अकामत: कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुध्यति।
कामतस्तु कृतं मोहात् प्रायश्चित्तै: पृथग्विधै:॥
प्रायश्चित्तीयतां प्राप्य दैवात् पूर्वकृतेन वा।
न संसर्गं व्रजेत् सद्भि: प्रायश्चित्तेऽकृते द्विजे॥
(मनुस्मृति ११-४४ से ४७)

क्रिश्चियैनिटि में पाप-स्वीकृति (confession) और क्षमा (forgiveness) की व्यवस्था है जिसका वे प्राय: पालन करते हैं जबकि हिन्दुओं में प्रायश्चित्त की व्यवस्था है जो उससे अधिक परिष्कृत है किन्तु हिन्दू उसका पालन नहीं करते हैं। अब तुलना करें कि आन्तरिक बल अधिक होने की शक्यता किसमें है!
: अलख का ओटला का रहस्य क्यां है???
सभी लोग अलख का ओटला शब्द का उच्चारण करते है और ये शब्द का ग्यान के व्यवहारिक भाषा मे उपयोग भी करते है लेकिन उनकी व्याख्या क्यां होती है वो तो योगी पुरुष ही जानते है।
ये प्रकृति का सर्जन और प्रकृति चलायमान मे जो अद्रश्य और निराकार शक्ति काम कर रही है ये बात सभी मानव मानते है लेकिन उनका अनुभव किसिको नही होता है और किसिने देखी भी नही है ।जो अद्रश्य ओर निराकार है वो शक्ति का कहा से उद्दभव स्थान है वो भी किसीको मालुम नही।उसका ठीकाना (पता) कहा है वो भी किसिको मालुम नही है वो कोन से तरीके से काम करती है वो भी किसिको मालुम नही है वो शक्ति का विराट स्वरूप है कि सुक्ष्म स्वरुप है।वो भी किसिको मालुम नही है उसको निराकार रूप मे से साकार रूपमे कैसे दिखा जाये ओर किस तरीके से उनका ऊनुभव करा जाये वोभी किसिको मालुम नही है।वो शक्ति पंचतत्व के शरीर मे भी है लेकिन कोन से स्वरूप मे कहां है कैसा उनका आकार है वो भी किसिको मालुम नही है ये ही शक्ति के अनुभव के लिए निझिया धर्म की स्थापना आध्यशक्ति माता ने किया था बाद मे शिवजी ने तीन शिष्यो बनाकर निझिया धर्म मे से सनातन धर्म की स्थापना परिवर्तन किया है। ये हि शक्ति को जानने के लिए उनको देखने के लिए -उनका अनुभव करने चे लिए उनको साकार रूपमे प्रगट करने के लिए -उनका स्वरुप पहचाने के लिए उनका उद्दभव स्थान जानने के लिए जो मानव तन मशीन मारफत से योग क्रिया कि माध्यम से जो मानव प्रयत्न करने के लिए महत्वकांक्षा धराते है वो ही राह को अलख कहा जाता है ओर जहां एकांत स्थान पर बेठकर उनको पहचाने का प्रयत्न जहां स्थान पर किया जाता है वो स्थान को ओटला के नाम से जाना जाता है।अलख एक उपमा शब्द लेकर नाम दिया गया है।जो शक्ति का कही लिखाण नही है जो शक्ति का कहि फोटो नही है जिसका कही साकार रूप है।लेकिन दिखता नही है वो साकार रूपको दिखने के लिए जो प्रयत्न करते है जो प्रयत्न करते है जो प्रयत्न करने का रास्ता है जो प्रयत्न करने का स्थान नक्की करते है वोही उनको अलख को ओटला के नाम से बोला जाता है। अलख के नाम की पुकार भी होती है। अलख के नाम की पुकार की आवाज की तरंगे जो नाभी केन्द्र से निकाली जाये तो वो तरंग ही उनके नजर के सामने ही वास्तविक्ता बनकर खडी हो जाती है। ये अलख शब्द की ताकात है ईसिलिए सिध्धोने अलख नाम दिया है।लेकिन ये योगी पुरुष और जीसका आगयाचक्र खुलगया है वो ही पुरुष नाभी केन्द्रसे आवाज की तरंगे निकाल शक्ते है।दुसरा कोई नही निकाल शकता अलख शब्द मे एक दुसरा रहस्य बहुत गहरा छुपा हुवा है लेकिन वो ये प्रकृति का गुप्त रहस्य है।ईसिलिए मे ये बात करने मे असमर्थं हुं।
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: बुरी नजर का असर

अगर किसी व्यक्ति को बुरी नजर लग जाती है तो उसके बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है, व्यापार-व्यवसाय में घाटा हो सकता है, नौकरी में परेशानियां बढ़ सकती हैं या पति-पत्नी के बीच झगड़े शुरू हो सकते हैं। इन सभी परेशानियों से बचने के लिए यहां बताए जा रहे उपाय कर सकते हैं।

  1. लाल मिर्च, अजवाइन और पीली सरसों को मिट्‍टी के एक छोटे बर्तन में जलाएं। फिर उसका धुआं उस व्यक्ति को लगने दें, जिसे बुरी नजर लगी है। इससे बुरी नजर उतर सकती है।
  2. शनिवार को हनुमान मंदिर जाएं और हनुमानजी की पूजा करें। उनके कंधे पर से सिंदूर लाकर नजर लगे हुए व्यक्ति के माथे पर लगाने से बुरी नजर का प्रभाव कम होता है।
  3. नमक, राई, राल, लहसुन, प्याज के सूखे छिलके और सूखी मिर्च को एक साथ एक कागज में बांध लें और नजर दोष के पीड़ित व्यक्ति के ऊपर से 7 बार वार लें। इसके बाद अंगारे पर ये पुड़िया डाल दें। इससे बुरी नजर उतर सकती है।
  4. अगर अचानक ही भूख लगना बंद हो गई है तो संभव है कि खाने पर बुरी नजर लग गई हो। इससे बचने के लिए भोजन बनाने के बाद एक रोटी लें और उसे नजर लगे हुए व्यक्ति के ऊपर से 7 बार वार लें। इसके बाद इस रोटी पर गुलाब के फूल रखकर किसी चौराहे पर रख आएं। इससे भी बुरी नजर उतर सकती है।
  5. नजर लगे व्यक्ति को पान में गुलाब की सात पंखुड़ियां रखकर खिलाएं। नजर लगा हुआ व्यक्ति अपने इष्टदेव के नाम का जाप करते हुए पान खाएं। इससे भी बुरी नजर का प्रभाव दूर हो सकता है
    : मंत्र

क्या कारण है कि लोगों को मंत्र गुप्त रखने के लिए कहा जाता है?

मंत्र—दीक्षा का अर्थ है कि जब तुम समर्पण करते हो तो गुरु तुममें प्रवेश कर जाता है, वह तुम्हारे शरीर, मन, आत्मा में प्रविष्ट हो जाता है। गुरु तुम्हारे अंतस में जाकर तुम्हारे अनुकूल ध्वनि की खोज करेगा। वह तुम्हारा मंत्र होगा। और जब तुम उसका उच्चारण करोगे तो तुम एक भिन्न आयाम में एक भिन्न व्यक्ति होओगे।
जब तक समर्पण नहीं होता, मंत्र नहीं दिया जा सकता है। मंत्र देने का अर्थ है कि गुरु ने तुममें प्रवेश किया है, गुरु ने तुम्हारी गहरी लयबद्धता को, तुम्हारे प्राणों के संगीत को अनुभव किया है। और फिर वह तुम्हें प्रतीक रूप में एक मंत्र देता है जो तुम्हारे अंतस के संगीत से मेल खाता हो। और जब तुम उस मंत्र का उच्चार करते हो तो तुम आंतरिक संगीत के जगत में प्रवेश कर जाते हो, तब आंतरिक लयबद्धता उपलब्ध होती है।
मंत्र तो सिर्फ चाबी है। और चाबी तब तक नहीं दी जा सकती जब तक ताले को न जान लिया जाए। मैं तुम्हें तभी चाबी दे सकता हूं जब तुम्हारे ताले को समझ लूं। चाबी तभी सार्थक है जब वह ताले को खोले। किसी भी चाबी से काम नहीं चलेगा। प्रत्येक आदमी विशेष ढंग का ताला है, उसके लिए विशेष ढंग की चाबी जरूरी है।
यही कारण है कि मंत्रों को गुप्त रखा जाता है। अगर तुम अपना मंत्र किसी और को बताते हो तो वह उसका प्रयोग कर सकता है । यही कारण है कि लोगों को अपने— अपने मंत्र गुप्त रखने चाहिए, उन्हें सार्वजनिक बनाना ठीक नहीं है। वह खतरनाक है। तुम दीक्षित हुए हो तो तुम जानते हो, तुम उसका मूल्य जानते हो, तुम उसे बांटते नहीं फिर सकते। यह दूसरों के लिए हानिकर हो सकता है। यह तुम्हारे लिए भी हानिकर हो सकता है। इसके कई कारण हैं।
पहली बात कि तुम वचन तोड़ रहे हो। और जैसे ही वचन टूटता है, गुरु के साथ तुम्हारा संपर्क टूट जाता है। फिर तुम गुरु के संपर्क में नहीं रहोगे। वचन पालन करने से ही सतत संपर्क कायम रहता है। दूसरी बात, दूसरे को बताने से, दूसरे के साथ उसके संबंध में बातचीत करने से मंत्र मन की सतह पर चला आता है और उसकी गहरी जड़ें टूट जाती हैं। तब मंत्र गपशप का हिस्सा बन जाता है। और तीसरा कारण है कि गुप्त रखने से मंत्र गहराता है। जितना गुप्त रखोगे वह उतना ही गहरे जाएगा; उसे गहरे में जाना ही होगा।
मारपा के संबंध में खबर है कि जब उसके गुरु ने उसे गुह्य मंत्र दिया तो उससे वचन ले लिया कि वह उसे बिलकुल गुप्त रखेगा। उसे कहा गया कि तुम इसे किसी को भी नहीं बताओगे। फिर मारपा का गुरु उसके स्वप्न में प्रकट हुआ और उसने पूछा कि तुम्हारा मंत्र क्या है? और स्वप्न में भी मारपा ने वचन का पालन किया; उसने बताने से इनकार कर दिया। और कहा जाता है कि इस भय से कि कहीं स्वप्न में गुरु फिर प्रकट हों या किसी को भेजें और वह इतनी नींद में हो कि गुप्त मंत्र को प्रकट कर दे और वचन टूट जाए, मारपा ने बिलकुल सोना ही छोड़ दिया। वह सोता ही नहीं था।
ऐसे सोए बिना मारपा को सात— आठ दिन हो गए थे। फिर जब उसके गुरु ने पूछा कि तुम सोते क्यों नहीं हो? मैं देखता हूं कि तुमने सोना छोड़ दिया है। बात क्या है? मारपा ने गुरु से कहा : आप मेरे साथ चालबाजी कर रहे हैं। आपने स्वप्न में आकर मुझसे मेरा मंत्र पूछा था। मैं आपको भी नहीं बताने वाला हूं। जब वचन दे दिया तो मैं उसका स्वप्न में भी पालन करूंगा। लेकिन फिर मैं डर गया। नींद में, कौन जाने, किसी दिन मैं भूल जा सकता हूं!
अगर तुम अपने वचन के प्रति इतने सावधान हो कि स्वप्न में भी उसका स्मरण रहता है तो उसका अर्थ है कि वह गहराई में उतर रहा है। वह अंतस में उतर रहा है; वह अंतरस्थ प्रदेश में प्रवेश कर रहा है। और वह जितनी गहराई से
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: जानिए खरबूजे के यह 8 बेहतरीन लाभ

1 खरबूजा शरीर में पानी की कमी की पूर्ति करता है साथ ही इसमें मौजूद विटामिन और मिनरल्स आपको ऊर्जावान बना रखने में मदद करते हैं। यह आपकी त्वचा को हाइड्रेट रखता है।

2 इसमें भरपूर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट्स पाए जाते हैं, जो बढ़ती उम्र को रोकने के साथ-साथ तनाव कम करने में भी मददगार है। यह आपकी त्वचा को जवां बनाए रखने के साथ-साथ मानसिक शांति भी देगा। 

3 खरबूजे का नियमित रूप से सेवन, दिल के दौरे से आपको बचा सकता है। रक्त की नलिकाओं में रक्त के जमने या थक्का बनने से रोकने में यह कारगर उपाय है। इस तरह से आप दिल के दौरे से बच सकते हैं।

4 खरबूजे का सेवन या फिर इसके गूदे को चेहरे पर लगाना, त्वचा के लिए फायदेमंद है। इससे धूप से झुलसी हुई त्वचा ठीक होती है और त्वचा में नमी बरकरार रहने के साथ ही ताजगी दिखाई देती है। 

5 खरबूजे में मौजूद विटामिन ए आपकी आंखों, त्वचा व बालों के लिए बेहद फायदेमंद होता है। इसके अलावा इसमें बीटा कैरोटीन भी पाया जाता है जो आंखों के लिए बेहद लाभप्रद है।

6 अगर आप अपना वजन कम करना चाहते हैं, तो खरबूजा आपके लिए काफी फायदेमंद साबित होगा। इसमें भरपूर मात्रा में फाइबर और पानी होता है। इसके अलावा इसमें शर्करा की मात्रा भी कम होती है जो आपका वजन बढ़ने से रोकती है। 

7 पाचन संबंधी समस्याएं होने पर भोजन के साथ या इसके अलावा खरबूजे को अपनी डाइट में शामिल करें। यह पाचन में सहायक होगा और कब्जियत की समस्या को दूर करेगा।

8 गर्मी के दिनों में पेट एवं शरीर में गर्मी बढ़ने की समस्या बहुत होती है। इससे बचने के लिए खरबूजा बेहतरीन तरीका है। यह पेट में गर्मी बढ़ने से रोकेगा और गर्मी के दुष्प्रभावों से भी आपको बचाएगा।
: एक्जिमा से हैं परेशान तो जरूर पढ़ें यह 3 घरेलू उपचार

एक्जिमा त्वचा की सबसे घातक बीमारी है। इससे ग्रस्त व्यक्ति लगातर खुजली और जलन से परेशान हो जाता है। कई बार तो गंभीर घाव भी हो जाते हैं। आज हम आपके लिए लाए हैं एक्जिमा के कारगर घरेलू उपचार…

1. एलोवेरा
एलोवेरा त्वचा को ताजगी देने का सबसे बढ़िया इ लाज है। एक्जिमा के कारण हो रहे त्वचा के सूखेपन को नियंत्रित करने में अद्भुत काम करता है। विटामिन ई के तेल के साथ एलोवेरा मिलाकर लगाने से खुजली को कम करने में मदद मिलेगी। यह त्वचा को पोषण और एक ही समय में सूजन को कम करने में सहायता करेगा। इसके लिए आप एलोवेरा की पत्तियों से जेल निकाल लीजिए और उसमें कैप्सूल से विटामिन ई के तेल को निकाल कर अच्छी तरह से मिला लीजिए। फिर इसे एक्जिमा प्रभावित जगह पर लगाएं और ठंडक के साथ फायदे आप स्वयं महसूस करें।

2. नीम तेल
नीम और नींबौरियों के तेल में दो मुख्य एंटी-इंफ्लेमेटरी कंपाउंड होते हैं। नीम का तेल त्वचा को मॉइश्चराइज करता है, किसी भी दर्द को कम करता है, और संक्रमण के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इसके लिए आप एक चौथाई जैतून का तेल लीजिए और उसमें 10 से 12 नीम तेल बूंदें मिलाएं और प्रभावित जगह पर लगाएं। त्वचा पर सेंसेशन होगा लेकिन यह फायदा करेगा।

3. शहद और दालचीनी

इसके लिए आप 2 चम्मच शहद तथा 2 चम्मच दालचीनी पाउडर लीजिए और इसे अच्छी तरह मिलाकर उसका पेस्ट बना लीजिए। एक्जिमा प्रभावित जगह को धो लीजिए फिर इस पेस्ट को लगाएं। सूखने के बाद पानी से धो लीजिए। शहद त्वचा की जलन को शांत करता है, सूजन को कम करता है, और उपचार प्रक्रिया को तेज करता है। दालचीनी भी एंटीमाइक्रोबायल एजेंट है। यह एंटीऑक्सीडेंट से समृद्ध है और इसमें एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण भी हैं।
: हेल्दी रहना है तो इन टिप्स को फौलो करें, कभी नहीं होंगी बीमार

1. रहें जंक फूड से दूर :- आधुनिक जीवन में जमक फूड का सेवन अधिक होने लगा है. आज के युवा की सबसे बड़ी चुनौती है जंक फूड से दूरी बनाने की. ये आदत बहुत से लोगों का काफी नुकसान कर रही है. ऐसे में जरूरी है कि आप जंक फूड से दूरी बनाएं और अपनी डाइट में हरे साग सब्जियों को शामिल करें.

2. रोजाना करें फलों और सब्जियों का सेवन :- अपनी डाइट में फलों और सब्जियों को जरूर ऐड करें. ये ना सिर्फ आपके शरीर को हेल्दी रखती हैं बल्कि आपका दिमाग भी अधिक सक्रिय और तेज रहेगा. हरी साग सब्जियों से आपकी सेहत के लिए खासकर के जरूरी होती हैं. 

3. एक्सरसाइज को अपनाएं :- सेहतमंद रहने के लिए जरूरी है कि हेल्दी डाइट के साथ साथ आप एक्सरसाइज करें. इससे सेहत का काफी लाभ होता है. एक्सरसाइज को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाएं. खाने के बाद कम से कम वौक जरूर करें.

4. एक रूटीन बनाएं :- स्वस्थ रहने की चाबी है खुद को एक रूटीन में रखना. खाने का, सोने का, जगने का, खलने कूदने, एक्सरसाइज सारी चीजों को एक तय समय में करें. इससे आपकी सेहत का काफी फायदा होगा.

5. खूब पिएं पानी :- पानी पीने के लिए प्यास लगने का इंतजार ना करें. दिन भर में कम से कम 8 गिलास पानी जरूर पिएं. इसके अलावा कभी कभी पानी में नींबू का रस मिला कर पिएं. इससे आप हमेशा हाइड्रेटेट रहेंगे और वजन भी कंट्रोल में रहेगा
: मीठे तरबूज की पहचान कैसे करें, जानिए पांच तरीके

  1. तरबूज के ऊपर सफेद, पीले और नारंगी कलर के धब्बे पाए जाते हैं। इस धब्बे वाले तरबूज पके हुए और मीठे होते हैं। दरअसल, यह वह तरबूज होता है, जहां तरबूज जमीन पर रखा होता है।
  2. अक्सर लोग समझते हैं कि बड़ा बड़ा तरबूज ज्यादा मीठा होता है लेकिन यह अर्द्धसत्य है। इसलिए छोटा तरबूज लें, वो ज्यादा मीठा होता है।
  3. तरबूज की पूंछ दर्शाती है कि वो कितना पका है। हरी पूंछ का मतलब कि तरबूज जल्दी पकने वाला है। सूखी पूंछ का मतलब है कि वो पूरी तरह से पक गया है।
  4. कच्चा तरबूज देखने में गाढ़े रंग का और ज्यादा चमकदार होता है जबकि पका तरबूज ऐसा नहीं होता है। कच्चे तरबूज की खाल थोड़ी पक्की या मजबूत होती है।
  5. तरबूज खरीदते समय लोग उसे थपथपाकर देखते हैं। तरबूज को अंगुलियों के जोड़ों से हल्के से खटखटाकर आवाज सुनें। एक बढ़िया पका हुआ तरबूज, कच्चे तरबूज की तुलना में तेज आवाज पैदा करता है। अगर आवाज हल्की या दबी-सी आए तो मतलब तरबूज कच्चा है।
    तरबूज के लाभ : तरबूज जहां आपके शरीर की गर्मी को छांटता है वहीं इसे खाने से शरीर में पानी का स्‍तर ठीक बना रहता है यानी हमारी बॉडी हाइड्रेट रहती है। यह त्‍वचा व बालों के लिए फायदेमंद है। इसके और भी कई लाभ हैं।
    : Benefits of Clapping /
    Treatment by Clapping
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  6. रोज 400 तालियां बजाने / Clapping से गठिया रोग ठीक हो जाता है। लगातार 3-4 महीने सुबह शाम ताली बजायें। ताली बजाने से उगलियों, हाथों का रक्त संचार / Blood Flow तीव्र गति से होता है। जोकि सीधे नसों को प्रभावित करता है जिससे गठिया रोग / Arthritis ठीक हो जाता है।
  7. Hand Paralysis / हाथों में लकवा और हाथ कापना, हाथ कमजोर होने पर रोज नियमित सुबह शाम 400 तालियां बजाने से 5-6 महीनें में समस्या से निदान मिलता है।
  8. Internal Organs / हृदय रोग, फेडडे़ खराब होने पर, लिवर की समस्या होने पर रोग नियमित सुबह शाम 400-400 तालियां बजायें। आंतरिक बीमारियों से तुरन्त छुटकारा मिलता है।
  9. Immune System / रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने में तालियां अहम हैं। तालियां बजाने से शरीर में तीव्र रक्त संचार होता है। शरीर का अंग अंग काम करने लगता है।
  10. तालियां बजाने से नसें और धमिनयों सही तरह से सुचारू हो जाती है। Veins, Muscles Strains / मांसपेशियों का तनाव खिचाव ठीक करने में तालियां बजाना सक्षम है।
  11. तालियां बजाने से सिरदर्द, अस्थमा, मधुमेह नियंत्रण में रहता है। Clapping / तालियां मारना हेल्थ समस्याऐं नियंत्रण में रखने में सहायक है।
  12. Hair Fall / बालों के झड़ने से रोकने में तालियां खास फायदा करती है। तालियां बजाने से हाथों में घर्षण बनता है। हाथ की अंगूठे उगलियां नसे सिर से जुड़ी होती हैं।
  13. प्रतिदिन भोजन ग्रहण के बाद 400 तालियों बजाने से शरीर समस्त रोगों से दूर रहता है। शरीर में फालतू चर्बी नहीं जमती और मोटापा / Obesity, Fat से दूर रखने में तालियां अहम हैं।
  14. तालियां बजाने से स्मरण शक्ति / Memory Power बढ़ती है। क्योंकि हाथ का अंगूठे की नसें सीधें दिमाग से जुड़ी होती है।
  15. शरीर के समस्त जोड़ पाइन्टस हाथों की हथेलियों उगलियों से जुड़े होते हैं। इसलिए तालियां बजानें से Healthy Body Fit Mind / शरीर स्वस्थ और निरोग रहता है।
    : इलायची खाने का स्वाद ही नहीं बढ़ाती, सेहत और सुंदरता भी बढ़ा सकती हैं, जानिए कैसे..

भारतीय पकवानों में डलने वाला एक महत्वपूर्ण मसाला है इलायची। अगर अभी तक आपको लगता था कि इलायची खाने में इस्तेमाल करने से केवल खाने की महक और स्वाद ही बढ़ता है, तो आप गलत सोच रहे हैं। इलायची का इस्तेमाल आपके भोजन का स्वाद बढ़ाने के साथ ही आपकी सेहत और सुंदरता को भी बढ़ा सकता है। आइए जानते हैं कि कैसे –

  1. यदि आपको कील-मुंहासे की समस्या रहती है तो आप नियमित रात को सोने से पहले गर्म पानी के साथ एक इलायची का सेवन करें। इससे आपकी त्वचा संबंधी समस्या दूर होगी।
  2. यदि आपको पेट से संबंधित समस्या है, आपका पेट ठीक नहीं रहता या आपके बाल बहुत ज्यादा झड़ते है तो इन सभी समस्याओं से बचने के लिए आप इलायची का सेवन करें। इसके लिए आप सुबह खाली पेट 1 इलायची गुनगुने पानी के साथ खाएं।
  3. दिनभर की बहुत ज्यादा थकान के बाद भी अगर आपको नींद आने में परेशानी होती है तो इसका उपाय भी इलायची है। नींद नहीं आने की समस्या से निजात पाने के लिए आप रोजाना रात को सोने से पहले इलायची को गर्म पानी के साथ खाएं। ऐसा करने से नींद भी आएगी और खर्राटे भी नहीं आएंगे।
    : 👉🏻गर्मियों में स्वास्थ्य-सुरक्षा हेतु

क्या करें ?

1. गर्मी के कारण जिनको सिरदर्द व कमजोरी होती है वे लोग सूखा धनियां पानी में भिगा दें और घिसके माथे पर लगायें | इससे सिरदर्द और कमजोरी दूर होगी |

2. नाक से खून गिरता हो तो हरे धनिये अथवा ताजी कोमल दूब (दूर्वा) का २ – २ बूँद रस नाक में डालें | इससे नकसीर फूटना बंद हो जायेगा |

3. सत्तू में शीतल जल, मिश्री और थोडा घी मिलाकर घोल बनाके पियें | यह बड़ा पुष्टिा दायी प्रयोग है | भोजन थोडा कम करें |

4. भोजन के बीच में २५ – ३५ मि. ली. आँवले का रस पियें | ऐसा २१ दिन करें तो ह्रदय व मस्तिष्क की दुर्बलता दूर होगी | ( शुक्रवार व रविवार को आँवले का सेवन वर्जित है | )

5. २० मि. ली. आँवला रस, १० ग्राम शहद, ५ ग्राम घी – सबका मिश्रण करके पियें तो बल, बुद्धि, ओज व आयु बढ़ाने में मदद मिलती है |

6. मुँह में छाले पड गये हों तो त्रिफला चूर्ण को पानी में डाल के कुल्ले करें तथा मिश्री चूसें | इससे छाले शांत हो जायेंगे |

क्या न करें ?

1. अति परिश्रम, अति कसरत, अति रात्रि-जागरण, अति भोजन व भारी भोजन नहीं करें | भोजन में लाल मिर्च व गर्म मसालों का प्रयोग न करें |

2. लस्सी या छाछ बना के मिश्री मिला के या छौंक लगा के सेवन करें | ध्यान रहे, दही खट्टा न हो |

3. शीतल पेयों से बचें | फ्रिज का पानी न पियें | धूप में से आकर तुरंत पानी न पियें |

4. अति मैथुन से बुढापा जल्दी आयेगा, कमजोरी जल्दी आयेगी | अत: इससे दूर रहें | ग्रीष्म ऋतू में विशेषरूप से संयम रखें |

👉🏻 मोटापा हो तो

मोटापा हो तो गर्म पानी में १ पके बड़े नींबू का रस और शहद मिलाकर भोजन के तुरंत बाद पियें l

छाछ में तुलसी के पत्ते लेने से भी मोटापे में आराम होता है l

👉🏻 फोड़े-फुंसियाँ
फोड़ा-फुंसी है तो पालक+गाजर+ककड़ी तीनों को मिला कर उसका रस ले लें अथवा नारियल का पानी पियें तो फोड़ा फुंसी में आराम होता है ।

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