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दुःखी क्यों है

🌷कोई किसी दूसरे का दुख नहीं मिटा सकता, ये संभव ही नहीं कि दूसरे का दुख मिटाया जा सके।और यहां प्रत्येक व्यक्ति सोच रहा है कि कोई उसका दुख मिटा दे,कोई दूसरा उसके लिए करिश्मा करदे।और यह भी सोचता है कि कोई दूसरा ही उसे दुख दे रहा है जबकि यहां हर कोई दूसरे के कारण दुखी नहीं अपितु स्वयं के ही कारण दुखी है।अपने दुखों का कारण आदमी स्वयं है ,कोई दूसरा दुख नहीं दे रहा है।हम अपने ही कारण दुखी हैं और जब दुख का कारण हम स्वयं हैं तो दूसरा कोई हमारा दुख कैसे मिटा सकता है।आदमी अपना दुख स्वयं ही मिटा सकता है क्योंकि कारण भी स्वयं ही है इसलिए दुख को स्वयं ही मिटाया जा सकता है।”
किसीभी आदमी के जीवन में मौलिक परिवर्तन तब तक नहीं घट सकता जब तक वह यह न जान ले कि उसके दुखों का कारण वह स्वयं है।
इस सच को जान लेने से बडी घटना यह घटती है कि परमुखापेक्षा की आदत ही समाप्त होजाती है।
दूसरे का मुख देखना कि वह मेरा दुख दूर कर दे यह इस भ्रम से है कि कोई उसे दुख दे रहा है।तब तो आत्मनिर्भरता हो ही नहीं सकती।सुख भी परनिर्भर, दुख भी परनिर्भर;सम्मान भी परनिर्भर,अपमान भी परनिर्भर।हमेशा दूसरों का ही मुख देखते रहना।यह पराधीनता, परनिर्भरता, लाचारी की समस्या का कारण आदमी स्वयं है।वह नहीं जानता कि सचमुच वह स्वयं अपने सारे दुखों का कारण है।जान ले तो परनिर्भरता पूरी तरह से समाप्त हो जाय।अपने कारण को समझकर अपने दुख को दूर किया जा सकता है।
अपने दुख का कारण क्या है-अज्ञान,अहंकार-अभिमान, प्रेम का अभाव।
ये अपने ही कारण हैं जो दुख पैदा करते हैं।
अज्ञान अर्थात बहिर्मुखता-दूसरों को देखना।ज्ञान अर्थात अंतर्मुखता-स्वयं को देखना, समझना कि मुझे क्या होता है,मेरे भीतर अकारण विचार क्या हैं,कहां से आते हैं, मैं उनमें डूबकर उनका झूठा कर्ता क्यों बन जाता हूँ?मैं ऐसा क्यों मानता हूं कि मैं सोचता हूं यह सब?
भीतर से उठते विचारों में खो कर उनका कर्ता बनना बडा कारण है।अतः बडी सजगता की जरूरत है।अपने विचारों को जानने के लिए अंतर्मुखी होना पडता है।बहिर्मुखी आदमी तो इसे जान ही नहीं सकता।वह बाहर देखता है और भीतर आगंतुक विचारों से परिचालित होता रहता है।
अंतर्मुखी आदमी भीतर से उठते विचारों को पहचान लेता है जिससे वह उनमें खोने से होने वाला रागद्वेष पूर्ण व्यवहार नहीं करता।वह जानता है बाहर कुछ नहीं है,जो कुछ है उसके भीतर है समझ,नासमझी, ज्ञान,अज्ञान जो भी।
परिणाम यह होता है कि उसके भीतर प्रेम का उदय होता है।वह दोषदृष्टि से लोगों को देखना बंद कर देता है।जिम्मेदारी खुद पर आ जाती है।
प्रेम के अभाव में कोई किसीको कुरुप मान सकता है।प्रेम सबको सुंदर बना देता है।मुंबई में लोकल ट्रेन में देखा एक माता अपने बच्चे को बहुत दुलार कर रही थी जो दिखने में बेहद कुरुप मालूम होता था।बडा होकर वह कभी इस आत्मीय स्वीकार को,गहन अपनत्व को नहीं भूल सकता।
यहां कौन किसे अपनाता है?यहां सभीकी शर्तें हैं।इसलिए तो सबके चेहरे तने खिंचे नजर आते हैं।प्रेम परिपूर्ण सुंदरता फैलाने का भाव वहां पूरी तरह से अनुपस्थित है।
फिर यह समस्या कि लोगों में प्रेम नहीं यह दुख।अब कोई इस दुख को कैसे दूर कर सकता है?यह दुख तो आदमी स्वयं दूर कर सकता है स्वयं सर्वथा प्रेमपूर्ण होकर।इसके लिए जिम्मेदारी लेनी पडे,प्रेम को समर्पण करना पडे।समर्पण अर्थात अपने आपको खोना।अहंकार चला जाय,प्रेम ही रहे।वह प्रेम फिर चमत्कार करता है।परनिर्भरता हमेशा के लिए चली जाती है।स्थायी रुप से आत्मनिर्भरता का आविर्भाव हो जाता है।
कितने लोग इस जिम्मेदारी को लेने के लिए तैयार हैं?
जिम्मेदारी नहीं लेने का मतलब अपने दुख का कारण स्वयं को न मानकर हमेशा दूसरों को ही मानते रहना, उनसे आशा रखना, आशा पूरी न होने पर उनसे उलझना,उन पर दोषारोपण करना।ये सब वातावरण को नर्क में बदलना है जिसमें असंख्य लोग जी रहे हैं।वे मानते हैं वे इसके लिए बाध्य हैं जबकि बाध्यता नहीं है,अनिच्छा है कारण।रचनात्मक जिम्मेदारी लेना ही नहीं चाहते,प्रेमपूर्ण-सहयोगपूर्ण होना नहीं चाहते।परनिर्भर हैं।वे चाहते हैं दूसरा उन्हें सुख दे,उनका तथाकथित दुख दूर करे पर ये नहीं सोचते कि दुख आया कहां से?
दुख का कारण है अपनी प्रेमशून्य अपेक्षा।होना चाहिए अपेक्षाशून्य प्रेम,होती है प्रेमशून्य अपेक्षा जिससे अहंकार-अभिमान, अज्ञान जुडे हुए हैं।स्पष्टतया यह समझ की कमी है।
कुछ लोग थोडा बहुत समझते हैं पर वे संस्कार, विचार, आदत की समस्या से उत्पन्न कठिनाई को अनुभव करते हैं।
तो कोई बात नहीं।ऐसा हो सके तो यह भी बहुत बढिया है क्योंकि ध्यान दूसरों से हटकर खुद पर तो आया।अब खुद पर कार्य करना रहा।मेरा मित्र कहता-फुरसत तो है नहीं स्वयं को देखने की।हमेशा दूसरों में व्यस्त।
दोष नहीं तो गुण देखेंगे।यह गुण देखना भी गैरजिम्मेदारी का काम है।काम तो एक ही है दूसरों का गुण देखकर खुश होना और दोष देखकर नाराज होना।फिर अपना क्या होगा?अपना यही होता है कि पूरी जिंदगी परनिर्भरता में निकल जाती है।आत्मनिर्भरता की शक्ति, सामर्थ्य, विशेषता पहचान में नहीं आती।
अहंकार हमेशा आत्मनिर्भर होना चाहता है ,इसमें उसे बडी खुशी है किंतु वह दूसरों पर निर्भर होकर आत्मनिर्भर होना चाहता है और यहां वह समस्या उत्पन्न करता है।दूसरों पर निर्भर होकर आत्मनिर्भर कैसे हुआ जा सकता है?
इसका मतलब आत्मनिर्भर होने का अर्थ ही मालूम नहीं।इतना मालूम है कि आत्मनिर्भर होना अच्छा लगता है तो वह इसे सही अर्थ में क्यों नहीं जान लेता ताकि सदा आनंद में रहे?
न किसी को दुख का कारण माने,न किसीका मुख देखे सुख के लिए अपितु स्वयं पर ही ध्यान दे।
स्वयं को समझे,स्वयं में निवास करे।आत्मप्रेम से पूर्ण रहे।जो स्वयं से प्रेम करता है सब उससे प्रेम करते हैं।जो स्वयं से प्रेम नहीं करता कोई उससे प्रेम नहीं करता।
बेशक यहां अहंकारपूर्ण अपने से प्रेम की बात नहीं हो रही है अपितु अहंकाररहित अपने से प्रेम की बात हो रही है।सरलता चाहिए।
सही समझ चाहिए।
“Right thinking comes with self-knowledge.”
“Bondage and liberation are both mere thoughts and hence they can exist only in the state of ignorance and not in the state of self-abidance.”
आशय है आप विचार मुक्त अर्थात अहंकार मुक्त दशा में अपने हृदय में विराजे रहें जो अज्ञान रहित सहज स्वाभाविक अवस्था है।वह प्रेमस्वरूप है,आनंदस्वरूप है।

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