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श्रीमद्भगवद्गीता पर हमारे विचार !

भगवद्गीता का ज्ञान इतना दिव्य है कि जो भी अर्जुन तथा श्रीकॄष्ण के बीच का संवाद जान लेता है वह पुण्यात्मा बन जाता है और वार्तालाप को भूल नहीं सकता, आध्यात्मिक जीवन की यह दिव्य स्थिति है, यानी जब कोई गीता को सही स्त्रोत से अर्थात् प्रत्यक्ष श्रीकॄष्ण से सुनता है तो उसे पूर्ण भगवद्भक्ति प्राप्त होती है, भगवद्भक्ति का फल यह होता है कि वह अत्यधिक प्रबुद्ध हो जाता और जीवन का भोग आनन्द सहित कुल काल तक ही नहीं, बल्कि प्रत्येक क्षण करता हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि व्यासजी की कृपा से संजय ने भी अर्जुन को दिखाये गये श्रीकृष्ण के विराट रुप को देखा था, निस्सन्देह यह कहा जाता है कि इसके पूर्व भगवान् श्रीकॄष्ण ने कभी ऐसा रुप प्रकट नहीं किया था, यह केवल अर्जुन को दिखाया गया था, लेकिन उस समय कुछ महान् भक्त भी उसे देख सके थे, व्यासदेवजी उनमें से एक थे, व्यासजी भगवान् के परम भक्तों में से है और श्रीकॄष्ण के शक्त्यावेश अवतार माने जाते है, व्यासजी ने इसे अपने शिष्य संजय के समक्ष प्रकट किया।

भाई-बहनों, भगवान् श्रीकॄष्ण की महिमा इतनी अपरन्पार है, उसी भगवान् को अहीर की छोरियाँ छछिया भर छाछ के लिये नाच नचाती हैं, माँ के सामने भगवान् को रूलवा देते है, कान पकड़वा देते है और रोते-रोते कहलवा देते है कि मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो, यह भावों का खेल है, भक्त और भगवान् का खेल है, मीराबाई जैसी भक्त श्रीकॄष्ण को पति के रुप में वरण कर ही लेती है, मीराबाई की तरह कोई मिटे तो विष के प्याले अमृत क्यों न होंगे? तब तो मीराबाई की पायल की एक झंकार को सुनने के लिये श्रीकॄष्ण वृन्दावन की कुँज गलियों में से क्यों न आयेंगे? जरुर आयेंगे।

भक्ति करते हुये क्या कभी हमारी अपनी आँखों से दो आँसू ढुलके है? क्या मन्दिर में जाकर यह भाव कभी जगा है कि हे प्रभु! मुझे अपने में स्वीकारों, आपके बगैर मैं जी नहीं सकता, जिस तरह पत्नी दो-तीन दिन के लिये पीहर चली जाय, तो जीना हराम हो जाता है, क्या वैसी ही तड़पन, वैसी ही पीड़ा हमें मन्दिर में जाने पर सताती है? पीड़ा पनपी नहीं, तो कैसे उसका मिलन होगा? यहाँ तो सब कुछ लुटाना पड़ता है, मकान और राजमहलों के भाव छोड़ देने पड़ते हैं, एकलयता होनी जरुरी है, खुद से ऊपर उठ जाना होता है।

सज्जनों! तब कहीं जाकर भगवान् साकार होकर अपने शंख को ध्रुव के होंठों पर छूते है और कहते है कि तू प्रकाश से भर जा, तभी कोई चैतन्य महाप्रभु अहोनृत्य करते है, तभी कोई मीरा नाचती है, तभी कोई तुलसीदासजी चन्दन घिसते है और श्रीरामजी तिलक कराने ठेठ बैकुँठ से धरती पर पहुँचते हैं, यहाँ तो मिटे बिना मिलन सम्भव ही नहीं है, जो मिटने को तैयार है उसी का श्रीकॄष्ण का मिलन पक्का हैं, सूरदासजी भगवान् की भक्ति में निमग्न थे, अपने इकतारे पर संगीत के रस में डूबे हुये वे भगवद्स्वरूप को गुनगुना रहे थे, तभी उस ओर से श्रीकॄष्ण के साथ राधाजी का गुजरना हुआ।

राधे-कृष्ण प्रत्यक्ष हुये, पर अन्धा कैसे देखे? राधाजी ने वरदान देना चाहा, तो सूरदासजी ने कहा- माँ! आपको जी भर निहारने की इच्छा है, राधाजी मुस्कराई, वे समझ गई कि सूरदासजी ने ऐसा कहकर उससे क्या माँगा है? राधाजी के वरदान के कारण सूरदासजी को आँखें मिल गई, अपनी आँखों से श्रीराधे-कृष्ण के उनके रासलीलामय् भगवद्स्वरूप को निहारकर सूरदासजी धन्य-धन्य हो उठे, कृत-कृत्य हो उठे, नृत्य करने लगे, सूरदासजी की आँखों से श्रद्धा, समर्पण और धन्यवाद के आँसू छलछला पड़े, सूरदासजी अपना आपा खो बैठे, श्रीकॄष्ण प्रमुदित हो उठे और कहने लगे कि भक्त और क्या चाहते हो?

सूरदासजी बोले कि प्रभु! माँ ने जो आँखें दी है वे आप वापस ले लों, मैं नहीं चाहता कि जिन आँखों से भगवत् स्वरूप को देखा है, उन आँखों से अब और किसी को देखूँ, श्रीकॄष्ण ने देखा कि सूरदासजी की बात सुनकर राधाजी का ह्रदय गदगद् हो उठा, राधाजी ने कहा- “योगक्षेमं वहाम्यहम्” यानी तुम्हारे कुशल-क्षेम को मैं वहन करूँगी, कितना गहरा भाव है, सूरदासजी की प्रार्थना कितनी निश्छल, नि:स्वार्थ भरी है, भगवान् तो चारों ओर व्याप्त हैं, शक्ति तो हमारी पुकार में होनी चाहिये, हमने ही अपने ही द्वार अपने हाथों से बन्द कर रखे हैं, फिर सूरज की किरणे हमारे भीतर कैसे प्रवेश करेगी?

जय श्री कॄष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

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