वैज्ञानिक दृष्टि से भी यज्ञ को समझना होगा
यह सर्वविदित है कि बढ़ते हुए वायु प्रदुषण से इस समय सारा वैज्ञानिक जगत विशेष चिंतित है। हमारे अनुभवी ऋषि मुनियों ने आदि सृष्टि में ही यह बता दिया था कि वायु, जल, अन्न आदि की शुद्धि के लिए एवं अंत:करण की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र बहुत सहायक होता है।
इतिहास पढ़ने से जानकारी मिलती है। वैदिक युग में घर-घर यज्ञ होते थे तब हमारा (आर्वावर्त) भारत वर्ष देश धन्य-धान्य से परिपूर्ण था प्रत्येक का अन्त:करण पवित्र था। तब भारत विश्व का गुरु था। महाभारत काल के पश्चात् मत-मतान्तरों के द्वारा धर्म अध्यात्म के साथ कर्मकाण्ड सम्बन्धी भ्राँतियाँ भी बहुत फैली वाम मार्गी लोग यज्ञ के लिए निरपराध प्राणियों को मारने लगे। कालान्तर में करुणा प्रधान हृदय वाले महात्मा बुद्ध जैन तीर्थकर भगवान महावीर आदि ने उन हिंसक यज्ञों का विरोध किया और हिंसक यज्ञों के होने से अनेक व्यक्तियों के हृदय में अग्निहोत्र के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हो गई जिसके परिणाम स्वरुप यह सर्वकल्याणकारी वैदिक परम्परा प्राय: लुप्ती सी हो गई। देवी देवताओं एवं यज्ञों के नाम पर हो रहा पशुवध, वेद उद्धारक-महर्षि दयानन्द जी की कृपा से वैदिक विधानानुसार हिंसा रहित यज्ञ पुन: होने लगे।
अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेघ पर्यन्त जो कर्मकाण्ड है, उसमें चार प्रकार के द्रव्यों का होम करना होता है।
- सुगन्ध गुण युक्त-जो कस्तुरी केशर सुगन्धित गुलाब के फुल आदि।
- मिष्ट गुण युक्त-जो कि गुड़ या शक्कर आदि।
- पुष्टिकारक गुण युक्त जो घृत और जौ, तिल आदि।
- रोगनाशक गुणयुक्त-जो कि सोमलता, औषधि आदि। इन चारों का परस्पर शोधन, संस्कार और यथायोग्य मिलाकर अग्नि में वेद ऋचाओं द्वारा युक्तिपूर्वक जो होम किया जाता है। वह वायु और वृष्टिजल की शुद्धि करने वाला होता है। इससे सब जगत को सुख होता है। इसमें पूर्व मीमांसा धर्मशास्त्र की भी सम्मति है-एक तो द्रव्य, दूसरा संस्कार तीसरा उनका यथावत उपयोग करना-ये तीनों बात यज्ञ के कर्ता को अवश्य करनी चाहिए। सौ पूर्वोक्त सुगन्धादि युक्त चार प्रकार के द्रव्यों का अच्छी प्रकार संस्कार करके अग्नि में वेद ऋचाओं द्वारा होम करने से जगत का अत्यन्त उपकार होता है। जैसे-दाल, और साग-सब्जी आदि में सुगंध द्रव्य और देशी घी इन दोनों को चमचे में अग्नि में तपाकर उनमें छोंक देने से वे सुगन्धित हो जाते है। क्योंकि उस सुगंध द्रव्य और घी के अणुओं को ओर अधिक सुगन्धित करके दाल आदि पदार्थो को पुष्टि और रुचि बढ़ाने वाले कर देते हैं। वैसे ही यज्ञ से जो भाप उठता है वह भी वायु और वृष्टि के जल को निर्दोष और सुगन्धित करके सब जगत को सुख करता है। इससे वह यज्ञ परोपकार के लिए ही होता है। अर्थात् जनता नाम जो मनुष्यों का समूह है उसी के सुख के लिए यज्ञ होता है। यह एतरेय ब्राह्मण का प्रमाण है। वेद में तो है ही लेकिन शतपथ ब्राह्मण का भी प्रमाण है। जो (होम) यज्ञ करने के द्रव्य अग्नि में डाले जाते हैं। उनसे धुआँ और भाप उत्पन्न होते है, क्योंकि अग्नि का यही स्वभाव है कि पदार्थो में प्रवेश करके उनको भिन्न-भिन्न कर देता है फिर वे हल्के होके वायु के साथ ऊपर आकाश में चढ़ जाते हैं। उनमें जितना जल का अंश है वह भाप कहलाता है। और जो शुष्क है वह पृथ्वी का भाग है, इन दोनों के योग का नाम धूम है। जब वे परमाणु मेघ मंडल में वायु के आधार से रहते हैं फिर वे परस्पर मिलकर बादल होकर उनसे वृष्टि, वृष्टि से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से धातु, और धातु से शरीर और शरीर से कर्म बनता है। वैसे ही ईश्वर ने मनुष्यों को यज्ञ करने की आज्ञा वेद द्वारा दी है। इसलिए सबके उपकार करने वाले यज्ञ को नहीं करने से मनुष्यों को दोष लगता है। जहाँ जितने मनुष्य आदि के समुदाय अधिक होते हैं वहाँ उतना ही दुर्गन्ध भी अधिक होता है। वह ईश्वर की सृष्टि से नहीं किन्तु मनुष्य आदि प्राणियों के निमित्त से ही उत्पन्न होता है। क्योंकि पशु व वस्तु मनुष्य अपने सुख के लिए इकट्ठा करता हैं। इससे उन पशुओं से भी जो अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न होती सो मनुष्यों के ही सुख की इच्छा से होती है।
जब वायु और वृष्टि जल को बिगाड़ने वाला सब दुर्गन्ध मनुष्यों के ही निमित्त से उत्पन्न होता है तो उसका निवारण करना भी मनुष्यों को ही चाहिए जितने प्राणी देहधारी जगत में है उनमें से मनुष्य ही उत्तम है, इससे वे ही उपकार और अनुपकार को जानने के योग्य है।
मनन नाम विचार का है, जिसके होने से ही मनुष्य नाम होता है। अन्यथा नहीं क्योंकि ईश्वर ने मनुष्यों के शरीर में परमाणु आदि के संयोग विशेष इस प्रकार रचे है। कि जिनसे उनको ज्ञान की उन्नति होती है। इसी कारण से धर्म का अनुष्ठान और अधर्म का त्याग करने को भी मनुष्य ही योग्य होते हैं अन्य नहीं इससे सबके उपकार के लिए यज्ञ का अनुष्ठान भी सभी मनुष्यों को करना उचित एवं अनिवार्य है।
सुगंध युक्त घी आदि पदार्थों को अन्य द्रव्यों में मिलकर अग्नि में डालने से उनका नाश नहीं होता है किन्तु किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल वियोग मात्र होता है। और यज्ञ में वेद मंत्र द्वारा दी हुई। आहूति में उस पदार्थ की शक्ति 100 गुना बढ़ जाती है। जैसे माईक में अग्नि होती है। जो अपनी आवाज को बुलंद कर देती है। एक व्यक्ति द्वारा मिर्ची खाने पर वह खुद सी सी करता रहेगा। पास ही बैठा व्यक्ति पर उस मिर्ची का असर नहीं होता है। लेकिन जब वही मिर्ची अग्नि में डाल दी जाती है तब गली, मोहल्ला के सभी लोग छींकने लग जाते है।
वैसे ही जो सुगंध आदि युक्त द्रव्य अग्नि में डाला जाता है। उसके अणु अलग अलग होकर आकाश में रहते ही है। क्योंकि किसी द्रव्य का वस्तुता से अभाव नहीं होता है।
इससे वह द्रव्य दुर्गन्ध आदि दोषों का निवारण करने वाला अवश्य होता है। फिर उससे वायु और वृष्टि जल की शुद्धि के होने से हमारे घर का, हमारे परिवार का, हमारे गांव का, हमारे देश का और जगत का उपकार और सुख अवश्य होता है।
यज्ञ से पर्यावरण शुद्ध होता है। वर्षा होती है और हमारा अंत:करण भी पवित्र होता है। यह विज्ञान द्वारा सिद्ध है इस कारण से यज्ञ केवल हिन्दूओं के लिए ही नहीं किन्तु विश्व के प्रत्येक मानव के लिए है। चाहे वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, यहुदी और पारसी आदि हो इसलिए सबके लिए यज्ञ सबके घरों में स्वयं द्वारा करना अनिवार्य है।
इससे हमारा अन्त-करण भी पवित्र होता है। और बुद्धि शुद्ध व निर्मल होती है। अत: हमारा अन्त:करण और बुद्धि पवित्र होने से हमारे भाव, हमारे कर्म भी हमारे विचार भी अच्छे होते है। जिससे हमें शांति और आनंद मिलता है। यह कार्य अन्य किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि अतर पुष्पादि का सुगंध तो उसी दुर्गन्ध वायु में मिलकर रहता है। उसको छेदन करके बाहर नहीं निकाल सकता और ना ही वह ऊपर चढ़ सकता है। क्योंकि उसमें हल्कापन नहीं होता उसके उसी अवकाश में रहने से बाहार का शुद्ध वायु उस ठिकाने में जा भी नहीं सकता क्योंकि खाली जगत के बिना दूसरे का प्रवेश नहीं हो सकता।
फिर दुर्गन्धयुक्त वायु को भेदनकर सुगंधीत वायु के रहने से रोगनाशदि फल भी नहीं होते है और जब अग्नि उस दुर्गन्ध युक्त वायु को वहां से हल्का करके निकाल देता है। तब वहाँ शुद्ध वायु भी प्रवेश कर सकता है। इसी कारण यह फल यज्ञ से ही हो सकता है। अन्य प्रकार से नहीं क्योंकि जो होम के परमाणु युक्त वायु है। सो पूर्वस्थित और मनुष्यादि सृष्टि को उत्तम सुख को प्राप्त करता है। वह हमारा अन्त:करण पवित्र होता है। जो वायु सुगंध आदि द्रव्य के परमाणुओं से युक्त या आकाश में चढ़कर वृष्टि जल को शुद्ध कर देता है और उससे वृष्टि भी अधिक होती है। क्योंकि यज्ञ करने से नीचे गर्मी अधिक होने से जल भी ऊपर अधिक चढ़ता हैा शुद्ध जल और वायु के द्वारा अन्नादि औषधि भी अत्यंत शुद्ध होती है। ऐसे प्रतिदिन सुगंध के अधिक होने से जगत में नित्यप्रति अधिक-अधिक सुख बढ़ता है।
यह फल अग्नि में यज्ञ करने के बिना दूसरे प्रकार से होना असंभव है। इससे स्वयं यज्ञ (होम) का करना प्रत्येक घरों में, प्रत्येक परिवार में प्रत्येक ग्राम, में अनिवार्य है।
यज्ञ (होम) केवल वेद मंत्रों की ऋचाओं से ही किया जाये। क्योंकि ईश्वर की प्रार्थना पूर्वक ही सब कर्मों का आरंभ करना होता है। सो वेद मंत्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिए सब उत्तम कर्म वेद मंत्रों से ही करना चाहिए।
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