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ईश्वर प्राप्ति के दो ही मार्ग है, “सांख्य-योग” और “निष्काम कर्म-योग”।

इन दोनों मार्गों में से किसी एक मार्ग का धर्मानुसार अनुसरण करके ही भक्ति-मार्ग में प्रवेश मिलता है, भक्ति मार्ग में प्रवेश पाना ही मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।

इन दोनों ही मार्गों में कर्म का आचरण तो करना ही होता हैं, प्रत्येक व्यक्ति इन दोनों में से ही किसी एक का अनुसरण कर रहा है। परन्तु आधिकतर मनुष्य सकाम भाव से कर्म करते है। जब तक निष्काम भाव उत्पन्न नहीं होगा तब तक “कर्म-योग” का आचरण नहीं हो सकता है और तब तक किसी भी मनुष्य का योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

योग किसे कहते हैं?

“योग” का अर्थ होता है “जोड़ना या मिलाना” जो भी कर्म हमारा भगवान से जोड़ने में या भगवान से मिलन कराने मे सहायक हो उसी को योग कहते हैं।

पूजा किसे कहते है?

पूजा शब्द दो शब्दों को जोड़ कर बना है….पू=पूर्ण और जा=मिलाना….. जो भी कर्म हमें पूर्ण से मिलाने में सहायक हों उसे पूजा कहते हैं। पूर्ण केवल भगवान ही हैं बाकी सभी तो अपूर्ण हैं।

जिस प्रकार मूर्ति-पूजा, भगवान का गीत गाना (भजन), तीर्थ यात्रा करना, पाठ करना, माला द्वारा मंत्र जप करना आदि को जिसे भक्ति-योग कहते हैं, यह भी कर्म-योग के अंतर्गत ही आती है।

जब तक भक्ति-कर्म भी निष्काम भाव से नहीं होगा तब तक भक्ति-योग सिद्ध नहीं हो सकता है।

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