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8काल (समय) के रहस्य …?
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लोकानामन्तकृत्कालः कालोन्यः कल्नात्मकः |
स द्विधा स्थूल सुक्ष्मत्वान्मूर्त श्चामूर्त उच्यते ||

अर्थात – एक प्रकार का काल संसार का नाश करता है और दूसरे प्रकार का कलानात्मक है, अर्थात जाना जा सकता है। यह भी दो प्रकार का होता है (१) स्थूल और (२) सूक्ष्म स्थूल नापा जा सकता है इसलिए मूर्त कहलाता है और जिसे नापा नहीं जा सकता इसलिए अमूर्त कहलाता है।

ज्योतिष में प्रयुक्त काल (समय) के विभिन्न प्रकार.

प्राण (असुकाल) – स्वस्थ्य मनुष्य सुखासन में बैठकर जितनी देर में श्वास लेता व छोड़ता है, उसे प्राण कहते हैं।

६ प्राण = १ पल (१ विनाड़ी)
६० पल = १ घडी (१ नाडी)
६० घडी = १ नक्षत्र अहोरात्र (१ दिन रात)
अतः १ दिन रात = ६०६०६ प्राण = २१६०० प्राण

इसे यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो
१ दिन रात = २४ घंटे = २४ x ६० x ६० = ८६४०० सेकण्ड्स
अतः १ प्राण = 86400/२१६०० = ४ सेकण्ड्स

अतः एक स्वस्थ्य मनुष्य को सुखासन में बैठकर श्वास लेने और छोड़ने में ४ सेकण्ड्स लगते हैं।

प्राचीन काल में पल का प्रयोग तोलने की इकाई के रूप में भी किया जाता था।

१ पल = ४ तोला(जिस समय में एक विशेष प्रकार के छिद्र द्वारा घटिका यंत्र में चार तोले जल चढ़ता है, उसे पल कहते हैं)।

जितने समय में मनुष्य की पलक गिरती है, उसे निमेष कहते हैं।

१८ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला = ६० विकला
३० कला = १ घटिका
२ घटिका = ६० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन
इस प्रकार १ नक्षत्र दिन = ३० x २ x ३० x ३० x १८ = ९७२००० निमेष.

उपरोक्त गणना सूर्य सिद्धांत से ली गयी है; किन्तु स्कन्द पुराण में इसकी संरचना कुछ भिन्न मिलती है। उसके अनुसार…

१५ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला
३० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन रात

इसके अनुसार…
१ दिन रात = ३० x ३० x ३० x १५ = ४०५०० निमेष होते हैं।

यहाँ हम सूर्य सिद्धांत को ज्यादा प्रमाणित मानते हैं, क्योंकि वो विशुद्ध ज्योतिष ग्रन्थ है और उसकी गणना भी ज्योतिषी द्वारा ही की गयी है, जबकि स्कन्द पुराण में मात्र अनुवाद मिलता है, जो गलत भी हो सकता है; क्योंकि कोई आवश्यक नहीं की अनुवादक ज्योतिषी भी हो।

अब
१ दिन = २१६०० प्राण = ८६४०० सेकण्ड्स = ९७२००० निमेष
१ प्राण = ९७२०००/२१६०० = ४५ निमेष
१ सेकंड = ९७२०००/८६४०० = ११.२५ निमेष.

सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं। सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है। सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय ही सौरमास है। (सूर्य मंडल का केंद्र जिस समय एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उस समय दूसरी राशि की संक्रांति होती है। एक संक्रांति से दूसरी संक्राति के समय को सौर मास कहते हैं। १२ राशियों के हिसाब से १२ ही सौर मास होते हैं )। यह मास प्रायः तीस-एकतीस दिन का होता है। कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है। चन्द्रमा की ह्र्वास वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चन्द्र मास है। यह दो प्रकार का होता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला ‘जमांत’ मास मुख्य चंद्रमास है। कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की ह्र्वास वृद्धि के अनुसार २९, २८, २७ एवं ३० दिनों का भी हो जाता है।

सूर्य जब पृथ्वी के पास होता है-(जनवरी के प्रारंभ में) तब उसकी कोणीय गति तीव्र होती है और जब पृथ्वी से दूर होता है-(जुलाई के आरम्भ में) तब इसकी कोणीय गति मंद होती है। जब कोणीय गति तीव्र होती है, तब वह एक राशि शीघ्र पार कर लेता है और सौर मास छोटा होता है, इसके विपरीत जब कोणीय गति मंद होती है, तब सौर मास बड़ा होता है।

सौर मास का औसत मान = ३०.४४ औसत सौर दिन.

जितने दिनों में चंद्रमा अश्वनी से लेकर रेवती के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नक्षत्रमास कहलाता है। यह लगभग २७ दिनों का होता है। सावन मास तीस दिनों का होता है। यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है। प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है। इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं। सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है। चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है।

नोट १ – यहाँ पर नक्षत्र एवं राशियों को संक्षेप में लिखा गया है, इनके बारे में विस्तृत चर्चा खगोल अध्ययन में की जाएगी, जहाँ पर इनके बारे में सम्पूर्ण व्याख्या दी जाएगी।

तिथि – चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता हुआ, जिस समय सूर्य के बहुत पास पहुच जाता है, उस समय अमावस्या होती है। (जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बिलकुल मध्य में स्थित होता है तब वह सूर्य के निकटतम होता है)। अमावस्या के बाद चंद्रमा सूर्य से आगे पूर्व की ओर बढ़ता जाता है और जब १२० कला आगे हो जाता है, तब पहली तिथि (प्रथमा) बीतती है। १२० से २४० कला का जब अंतर रहता है, तब दूज रहती है। २४० से २६० तक जब चंद्रमा सूर्य से आगे रहता है, तब तीज रहती है। इसी प्रकार जब अंतर १६८०-१८०० तक होता है, तब पूर्णिमा होती है, १८००-१९२० तक जब चंद्रमा आगे रहता है, तब १६ वी तिथि (प्रतिपदा) होती है। १९२०- २०४० तक दूज होती है, इत्यादि। पूर्णिमा के बाद चंद्रमा सूर्यास्त से प्रतिदिन कोई २ घडी (४८ मिनट) पीछे निकालता है।

चन्द्र मासों के नाम इस प्रकार हैं – चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष या मृगशिरा, पौष, माघ और फाल्गुन।

देवताओं का एक दिन – मनुष्यों के एक वर्ष को देवताओं के एक दिन माना गया है। उत्तरायण तो उनका दिन है और दक्षिणायन रात्रि। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर देवताओं के रहने का स्थान तथा दक्षिणी ध्रुव पर राक्षसों के रहने का स्थान बताया गया है। साल में २ बार दिन और रात सामान होती है। ६ महीने तक सूर्य विषुवत के उत्तर और ६ महीने तक दक्षिण रहता है।पहली छमाही में उत्तरी गोल में दिन बड़ा और रात छोटी तथा दक्षिण गोल में दिन छोटा और रात बड़ी होती है। दूसरी छमाही में ठीक इसका उल्टा होता है। परन्तु जब सूर्य विषुवत वृत्त के उत्तर रहता है, तब वह उत्तरी ध्रुव (सुमेरु पर्वत पर) ६ महीने तक सदा दिखाई देता है और दक्षिणी ध्रुव पर इस समय में नहीं दिखाई पड़ता इसलिए इस छमाही को देवताओ का दिन तथा राक्षसों की रात कहते हैं। जब सूर्य ६ महीने तक विषुवत वृत्त के दक्षिण रहता है, तब उत्तरी ध्रुव पर देवताओं को नहीं दिख पड़ता और राक्षसों को ६ महीने तक दक्षिणी ध्रुव पर बराबर दिखाई पड़ता है। इसलिए हमारे १२ महीने देवताओं अथवा राक्षसों के एक अहोरात्र के समान होते हैं।

देवताओं का १ दिन (दिव्य दिन) = १ सौर वर्ष

दिव्य वर्ष – जैसे ३६० सावन दिनों से एक सावन वर्ष की कल्पना की गयी है, उसी प्रकार ३६० दिव्य दिन का एक दिव्य वर्ष माना गया है। यानी ३६० सौर वर्षों का देवताओं का एक वर्ष हुआ अब आगे बढ़ते हैं।

१२०० दिव्य वर्ष = १ चतुर्युग = १२०० x ३६० = ४३२००० सौर वर्ष.

चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं। चतुर्युग के दसवें भाग का चार गुना सतयुग (४०%), तीन गुना (३०%) त्रेतायुग, दोगुना (२०%) द्वापर युग और एक गुना (१०%) कलियुग होता है।

अर्थात १ चतुर्युग (महायुग) = ४३२०००० सौर वर्ष.

१ कलियुग = ४३२००० सौर वर्ष

१ द्वापर युग = ८६४६०० सौर वर्ष

१ त्रेता युग = १२९६००० सौर वर्ष

१ सतयुग = १७२८००० सौर वर्ष

जैसे एक अहोरात्र में प्रातः और सांय दो संध्या होती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक युग के आदि में जो संध्या होती है, उसे आदि संध्या और अंत में जो संध्या आती है, उसे संध्यांश कहते हैं। प्रत्येक युग की दोनों संध्याएँ उसके छठे भाग के बराबर होती हैं, इसलिए एक संध्या (संधि काल) बारहवें भाग के सामान हुई। इसका तात्पर्य यह हुआ कि..

कलियुग की आदि व अंत संध्या = ३६०० सौर वर्ष वर्ष,

द्वापर की आदि व् अंत संध्या = ७२००० सौर वर्ष,

त्रेता युग की आदि व अंत संध्या = १०८००० सौर वर्ष,

सतयुग की आदि व अंत संध्या = १४४००० सौर वर्ष.

अब और आगे बढ़ते हैं👉

७१ चतुर्युगों का एक मन्वंतर होता है, जिसके अंत में सतयुग के समान संध्या होती है। इसी संध्या में जलप्लव् होता है। संधि सहित १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है, जिसके आदि में भी सतयुग के समान एक संध्या होती है, इसलिए एक कल्प में १४ मन्वंतर और १५ सतयुग के सामान संध्या हुई।

अर्थात १ चतुर्युग में २ संध्या.

१ मन्वंतर = ७१ x ४३२०००० = ३०६७२०००० सौर वर्ष

मन्वंतर के अंत की संध्या = सतयुग की अवधि = १७२८००० सौर वर्ष.

= १४ x ७१ चतुर्युग + १५ सतयुग.

= ९९४ चतुर्युग + (१५ x ४)/१० चतुर्युग (चतुर्युग का ४०%)

= १००० चतुर्युग = १००० x १२००० = १२०००००० दिव्य वर्ष

= १००० x ४३२०००० = ४३२००००००० सौर वर्ष

ऐसा मनुस्मृति में भी मिलता है. किन्तु आर्यभट की आर्यभटीय के अनुसार

१ कल्प = १४ मनु (मन्वंतर)

१ मनु = ७२ चतुर्युग

और आर्यभट्ट के अनुसार

१४ x ७२ = १००८ चतुर्युग = १ कल्प

जबकि सूर्य सिद्धांत से १००० चतुर्युग = १ कल्प

जो की ब्रह्मा के १ दिन के बराबर है। इतने ही समय की ब्रह्मा की एक रात भी होती है। इस समय ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी है, शेष आधी आयु का यह पहला कल्प है। इस कल्प के संध्या सहित ६ मनु बीत गए हैं और सातवें मनु वैवस्वत के २७ महायुग बीत गए हैं तथा अट्ठाईसवें महायुग का भी सतयुग बीत चूका है।

इस समय २०१३ में कलियुग के ५०४७ वर्ष बीते हैं

महायुग से सतयुग के अंत तक का समय = १९७०७८४००० सौर वर्ष।

यदि कल्प के आरम्भ से अब तक का समय जानना हो तो ऊपर सतयुग के अंत तक के सौर वर्षों में त्रेता के १२८६००० सौरवर्ष, द्वापर के ८६४००० सौर वर्ष तथा कलियुग के ५०४७ वर्ष और जोड़ देने चाहिए।


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