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कलियुग केवल नाम अधारा!!!!!!

  • एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
    रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥

भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥

संतों ने कहा है—कलियुग तुम धन्य हो ! क्यों धन्य है ? इसका उत्तर इस पद में दिया गया है—

  • कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
    जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥

भावार्थ:-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान्‌ के नाम से पा जाते हैं॥

  • कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
    त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥

भावार्थ:-सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥

  • द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
    कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥

भावार्थ:-द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥

  • कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
    सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥

भावार्थ:-कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥

  • सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
    कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥

भावार्थ:-वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥

  • कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
    गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

भावार्थ:-यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥

कलियुग को ‘नामयुग’ भी कहते हैं क्योंकि सत्ययुग में कठोर तप या ध्यान में जो शक्ति थी, त्रेतायुग में बड़े-बड़े यज्ञों में जो शक्ति थी और द्वापरयुग में पूजन-अर्चन में जो शक्ति थी, कलियुग में वह सब शक्ति भगवान के नाम में समाहित हो गई है ।

महाभारत की एक सुन्दर कथा : कलियुग तुम धन्य हो !

एक बार मुनियों में यह विवाद हुआ कि सबसे उत्तम युग कौन-सा है जिसमें थोड़े-से ही साधन से महान फल की प्राप्ति हो जाए । सभी ने अपने-अपने विचार रखे । अंत में यह निश्चय हुआ कि इस प्रश्न का उत्तर वेदव्यासजी से ही पूछा जाए । जिस समय सभी मुनिगण वेदव्यासजी के आश्रम में पहुंचे, वे जाह्नवी नदी में स्नान कर रहे थे । मुनिलोग स्नान की समाप्ति की प्रतीक्षा करते हुए एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए । वेदव्यासजी दिव्य ज्ञानी थे, वे मुनियों के आने का कारण जान गये । अर्धस्नान करके ही वे नदी से निकलकर मुनियों के सामने ‘कलि तुम धन्य हो’, ‘कलि तुम साधु हो’—ऐसा जोर-जोर से बोलने लगे ।

वेदव्यासजी के स्नान की समाप्ति पर सभी मुनिगण उनके आश्रम में पहुंचे और उनसे बोले—‘हम यह जानना चाहते हैं कि आपने स्नान करते समय ‘कलि तुम धन्य हो’, ‘कलि तुम साधु हो’—ऐसा कहकर कलियुग का गुणगान क्यों किया ?’

वेदव्यासजी ने मुसकराते हुए मुनियों से कहा—‘सत्ययुग में दस वर्ष, त्रेतायुग में एक वर्ष, और द्वापरयुग में एक मास तक तप, ब्रह्मचर्य और जप से जो फल प्राप्त होता है, कलियुग में मनुष्य को केवल आठ प्रहर अर्थात् एक दिन-रात के भजन के परिश्रम से वही फल प्राप्त हो जाता है । इसलिए धन्य ! धन्य ! कहकर मैंने कलियुग का गुणगान किया ।’

कलियुग में इतने कम समय में ही महान फल की प्राप्ति क्यों होती है ?

इसका उत्तर देते हुए वेदव्यासजी ने कहा—

—कलियुग में मनुष्य की न तो इतनी आयु है कि वह निर्विघ्न दस वर्ष तक तप, पूजन-अर्चन और यजन कर सके और न ही मनुष्यों के पास इतना धन है कि वे बड़े-बड़े यज्ञ-अनुष्ठान कर सकें । कलिकाल में मनुष्य के अंदर इतनी शारीरिक शक्ति भी नहीं है कि है वह इतने लम्बे समय तक पूजन-अर्चन कर सके । अत: शक्ति-सामर्थ्य, आयु और धनहीन कलियुग के प्राणियों पर दया करके भगवान ने अपने ‘नाम’ में सारी शक्तियां प्रविष्ट करा दीं ।

गीता (८।७) में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—‘हे अर्जुन ! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर । इस प्रकार मेरे में अर्पण किये हुए मनबुद्धि से युक्त हुआ तू नि:संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा ।’

भगवान की इस आज्ञा के अनुसार उठते, बैठते, खाते, पीते, सोते, जागते और सभी सांसारिक कार्य करते समय मनुष्य को नाम-जप के साथ मन व बुद्धि से भगवान के स्वरूप का चिन्तन करते रहना चाहिए ।

भयनाशन दुर्मति हरन, कलि मंह हरि को नाम ।
निसिदिन नानक जो भजै, सफल होइ तेहि काम ।
जिह्वा गुण गोविन्द भजो, कान सुनो हरिनाम ।
कह नानक सुनरे मना, परहिं न यम के धाम ।।

किस नाम का जप अघिक लाभदायक है ?

परमात्मा के अनेक नाम हैं, उनमें से जिस मनुष्य की जिस नाम में अधिक रुचि और श्रद्धा हो, उसे उसी नाम के जप से विशेष लाभ होता है; साथ ही भगवान के उसी स्वरूप का ध्यान भी करना चाहिए । जैसे—

‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्र का जप करने वाले को चतुर्भुज भगवान विष्णु का ध्यान करना चाहिए ।

‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र का जप करने वाले को सर्वव्यापी वासुदेव श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए ।

‘श्रीकृष्ण शरणं मम’ का जप करने वाले मनुष्य को भगवान श्रीनाथजी का ध्यान करना चाहिए ।

‘ॐ नम: शिवाय’ मन्त्र का जप करने वाले को भगवान शंकरका ध्यान करना चाहिए ।

नाम और नामी में कोई भेद नहीं है

जो नाम है वही नामी है । कृष्णनाम चिन्तामणिस्वरूप स्वयं श्रीकृष्ण है । जो गुण भगवान में हैं वही उनके नाम में हैं । भगवान के नाम में प्रेम होने से भगवान से प्रेम होता है और मनुष्य के सारे पाप जल जाते हैं—

जबहि नाम हृदय धरा, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, पड़ी पुराने घास ।।

नाम-जप किसलिए करना चाहिए ?

श्रुति के अनुसार भगवान का नाम कल्पवृक्ष के समान है इससे मनुष्य जिस वस्तु को चाहता है, उसे वही मिल सकती है । परन्तु भगवान का सच्चा प्रेमी अपने आराध्य को छोड़कर कभी दूसरे को अपने मन में स्थान नहीं दे सकता है । वे दूसरी वस्तु न कभी चाहते हैं और न उन्हें सुहाती ही है । सच्चे भक्तों को निष्कामभाव से ही भजन करना चाहिए । ऐसे भक्त के लिए सभी कामों को छोड़कर भगवान को स्वयं आना ही पड़ता है । कबीरदासजी कहते हैं—
केशव केशव कूकिये, न कूकिये असार ।
रात दिवस के कूकते, कभी तो सुनें पुकार ।।
राम नाम रटते रहो, जब लग घट में प्रान ।
कबहुं तो दीनदयाल के, भनक परेगी कान ।।

जब साधारण संख्या में नाम-जप करने से इतना आनन्द और शान्ति मिलती है तब जो मनुष्य निष्कामभाव से ध्यानसहित नित्य जप करते हैं उनके आनन्द और शान्ति का तो कहना ही क्या ! कलियुग में नाम के बिना जीव की और कोई गति नहीं है—
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।।

इस युग में नाम-जप ही मुक्ति का सरल उपाय है—

सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने वश करि राखेहु रामू ।।
अपर अजामिल गज गणिकाऊ । भये मुक्त हरिनाम प्रभाऊ ।।

—नाम-जप की तुलना में नाम-संकीर्तन सौगुना श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि जप करने वाला तो केवल अपने को ही पवित्र करता है परन्तु ऊंचे स्वर में कीर्तन करने वाला अपने साथ-साथ जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि सबको पवित्र करता है।

—नाम-कीर्तन किसी भी प्राणी, किसी भी समय और किसी भी अवस्था में किया जा सकता है । इसे करते समय देश, काल, पात्र, पवित्रता और अपवित्रता का कोई बंधन नहीं है ।

—जप संख्यानुसार किया जाता है । संख्या के लिए माला की आवश्यकता पड़ती है और माला रखने के लिए झोली की जरुरत होती है । साथ ही माला करने में एक हाथ भी घिर जाता है । ऐसे में घर, दफ्तर आदि का काम करने वालों के लिए यह संभव नहीं है । नाम-संकीर्तन में यह असुविधा नहीं है । काम करते हुए भी मुख से—

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

यह कलिकाल का महामन्त्र करते रहिये, न संख्या गिनने की आवश्यकता है और न माला-झोली की । काम करने के लिए दोनों हाथ भी खाली हैं । इतनी सरलता होने पर भी यदि मनुष्य का मन नाम-कीर्तन में न लगे तो यह हमारा दुर्भाग्य ही है।

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