Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

दुःख और उनका कारण

आकस्मिक सुख दुख हर व्यक्ति के जीवन में आया करते हैं। इनसे सुर, मुनि, देव, दानव कोई नहीं बचता। भगवान राम तक इस कर्म गति से छूट न सके। सूरदास ने ठीक कहा है-

कर्मगति टारी नाँहि टरै। गुरु वशिष्ठ पण्डित बड़ ज्ञानि।। रचि पचि लगन धरै। पिता मरण और हरण सिया को, वन में विपत्ति परै।।

वशिष्ठ जैसे गुरु के होते हुए भी राम कर्म गति को टाल न सके। उन्हें भी पिता का मरण, सिया का हरण एवं वन की विपत्तियाँ सहन करनी पड़ीं। वह विपत्तियाँ कहीं से अकस्मात टूट पड़ती हैं या ईश्वर नाराज होकर दुख दंड देता है, ऐसा समझना ठीक न होगा। सब प्रकार के दुख अपने ही बुलाने से आते हैं। रामायण का मत भी इस सम्बन्ध में वही है-

काहु न कोउ दुख सुख कर दाता। निज निज कर्म भोग सब भ्राता।।

दूसरा कोई भी प्राणी या पदार्थ किसी को दुख देने की शक्ति नहीं रखता। सब लोग अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं और उसी भोग से रोते चिल्लाते रहते हैं। जीव की पूँछ से ऐसी कठोर व्यवस्था बँधी हुई है जो कर्मों का फल तैयार करती है। मछली पानी में तैरती है उसकी पूँछ पानी को काटती हुई पीछे पीछे एक रेखा सी बनाती चलती है। साँप रेंगता जाता है और रेत पर उसकी लकीर बनती जाती है,जो काम हम करते हैं उनके संस्कार बनते जाते हैं। बुरे कर्मों के संस्कार, स्वयं बोई हुई कटीली झाड़ी की तरह अपने लिए ही दुखदायी बन जाते हैं।

दुख तीन प्रकार के होते हैं…
(1) दैविक
(2) दैहिक
(3) भौतिक।

दैनिक दुख वे कहे जाते हैं जो मन को होते हैं जैसे चिन्ता आशंका क्रोध, अपमान, शत्रुता, विछोह, भय, शोक आदि।

दैहिक दुख वे होते हैं जो शरीर को होते हैं जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट।

भौतिक दुख वे हैं जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं जैसे भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि। इन्हीं तीन प्रकार के दुखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है। यह तीनों दुख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मों के फल हैं। मानसिक पापों के परिणाम से दैविक दुख आते हैं, शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक और सामाजिक पापों के कारण भौतिक दुख उत्पन्न होते हैं।

ईश्वरीय नियम है कि हर मनुष्य स्वयं सदाचारी जीवन बितावे और दूसरों को अनीति पर न चलने देने के लिये भरसक प्रयत्न करे। यदि कोई देश या जाति अपने तुच्छ स्वार्थों में संलग्न होकर दूसरों के कुकर्मों को रोकने और सदाचार बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करती तो उसे भी दूसरों का पाप लगता है। उसी स्वार्थपरता के सामूहिक पाप से सामूहिक दण्ड मिलता है। भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी, महायुद्ध के मूल कारण इस प्रकार के ही सामूहिक दुष्कर्म होते हैं जिनमें स्वार्थ परता को प्रधानता दी जाती है और परोपकार की उपेक्षा की जाती है।

देखा जाता है कि अन्याय करने वाले अमीरों की अपेक्षा मूक पशु की तरह जीवन बिताने वाले भोले भाले लोगों पर दैवी प्रकोप अधिक होते हैं। अतिवृष्टि का कष्ट गरीब किसानों को ही अधिक सहन करना पड़ता है। इसका कारण यह है कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक बड़ा पापी होता है। कहते है कि “बुज़दिल जालिम का बाप होता है।” कायरता में यह गुण है कि वह अपने ऊपर जुल्म करने के लिये किसी न किसी को न्योत ही बुलाता है। भेड़ की ऊन एक गड़रिया छोड़ देगा तो दूसरा कोई न कोई उसे काट लेगा। कायरता, कमजोरी, अविद्या स्वयं बड़े भारी पातक हैं। ऐसे पातकियों पर यदि भौतिक कोप अधिक हो तो कुछ आश्चर्य नहीं? सम्भवतः उनकी कायरता को दूर करने एवं स्वाभाविक सतेजता जगा कर निष्पाप बना देने के लिये अदृश्य सत्ता द्वारा यह घटनाएं उपस्थित होती हैं। यह भौतिक दुर्घटनायें सृष्टि के दोष नहीं है वरन् अपने ही दोष हैं। अग्नि में तपा कर सोने की तरह हमें शुद्ध करने के लिये यह कष्ट बार-बार कृपा पूर्वक आया करते हैं।

Recommended Articles

Leave A Comment