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नवरात्र के मौके पर माउंट आबू आध्यात्मिक नगरी में तब्दील हो जाता है। यहां मां अर्बुदा के दर्शन के लिए लाखों श्रद्धालु आते हैं। बता दें क‍ि अर्बुदा पर्वत पर अर्बुदा देवी का मंदिर है जो 51 में से छठा शक्तिपीठ माना जाता है। अर्बुदा देवी देवी दुर्गा के नौ रूपों में से कात्यायनी का रूप है जिसकी पूजा नवरात्र के छठे द‍िन पर होती है।

माना जाता है कि भगवान शंकर के तांडव के समय माता पार्वती का अधर यही गिरा था। इसलिए इसे अधर देवी के नाम से भी जाना जाता है। मान्‍यता है कि यह मंदिर साढ़े पांच हजार साल पुराना है। अर्बुदा देवी की पूजा मां कात्यायनी के रूप में होती है क्योंकि मां अर्बुदा मां कात्यायनी का ही रुप मानी जाती है। यह मंदिर एक प्राकृतिक गुफा में प्रतिष्ठित है और यहां तक पहुंचने के लिए 365 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं।

ऐसी पौराणिक मान्यता है कि नवरात्र के दिनों में माता के दर्शन मात्र से सभी दुखों से मुक्ति मिल जाती है, श्रद्धालुओं की मुराद पूरी हो जाती है और उसे मोक्ष मिल जाता है। पूरे नवरात्र में यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ दर्शन के लिए उमड़ती है। हालांक‍ि नवरात्र के बाद भी मां अर्बुदा की पूजा कई दिनों तक चलती रहती है।
उपासना मंत्र :
चन्द्रहासोज्जवलकरा शाईलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।

माता अर्बुदा देवी का यहां चरण पादुका मंदिर भी स्थित हैं। माना जाता है कि ये वही पादुका है जिसके नीचे मां ने बासकली राक्षस का संहार किया था। मां कात्यायनी के बासकली वध की कथा पुराणों में भी मिलती है।

इस पादुका के पीछे पौराणिक कथा ये है कि दानव राजा कली जिसे बासकली के नाम से भी जाना जाता था, उसने जंगल में हजार साल तक तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न कर दिया। भगवान शिव ने उसे अजेय होने का वरदान दिया। बासकली इस वरदान को पाकर घमंड से चूर चूर हो गया। उसने वरदान हासिल करने के बाद देवलोक में इंद्र सहित सभी देवताओं को कब्जे में कर लिया। देवता उसके उत्पात से दुखी होकर जंगलों में छिप गए।

देवताओं ने कई सालों तक अर्बुदा देवी को प्रसन्न करने के लिए हजार सालों तक तपस्या की। उसके बाद अर्बुदा देवी तीन रूपों में प्रकट हुई और बासकली राक्षस को अपने चरण से दबा कर उसे मुक्ति दी। उसी के बाद से माता की चरण पादुका की यहां पूजा होने लगी।

दुर्गा के छठे स्वरूप को कात्यायनी कहते हैं। ये महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। इस जन्म का उद्देश्य ऋषियों के कार्य को सिद्ध करना था। महर्षि ने इनका पालन-पोषण अपनी कन्या के रूप में किया। महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण इन देवी का नाम कात्यायनी पड़ा।

मां कात्यायनी के विषय में एक कथा प्रचलित है। प्रसंग सती के आत्माहुति से जुड़ा हुआ है। अपने पिता दक्ष की बातों से दुखी होकर सती यज्ञ की अग्नि में कूद गई थीं। क्रोधित महादेव सती के शरीर को लेकर जगह-जगह घूमने लगे। शिव के क्रोध की वजह से संसार में जन्म-मृत्यु की प्रक्रिया रुक गई। चिंतित देवता भगवान विष्णु के पास गए और उनसे कुछ उपाय करने को कहा। उसके बाद चक्रधारी भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के अंगों का विच्छेद कर दिया। इससे शिव का मोह भंग हो गया। प्रत्येक अंग अलग-अलग स्थान पर गिरे। जिस स्थान पर सती के बाल (कात्या) गिरे, वहां देवी कात्यायनी की पूजा की जाने लगी।

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