Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

आधुनिक उज्जैन और महर्षि सान्दीपनि का प्राचीन शिक्षा आश्रम :-

            लोककथाएँ वर्णन करती हैं कि महर्षि सान्दीपनि का आश्रम अवन्तिकापुरी में महाकाल वन की उत्तर दिशा में क्षिप्रा नदी के तट पर पूर्व दिशा में स्थित था | आश्रम परिसर में स्थित विशालकाय ‘अश्वत्थ’ का वृक्ष दूर से ही आगन्तुक ज्ञान पिपासुजन के लिये ऋषिआश्रम में पहुँचने का मार्ग इंगित करता रहता था | यहाँ इस आश्रम में ही महर्षि सान्दीपनि द्वारा बालक श्रीकृष्ण-बलराम का  शिक्षा प्राप्ति हेतु आगमन होने पर उनका‘उपनयन’ संस्कार किया गया था तथा कुल चौंसठ दिन रहकर बालक श्रीकृष्ण और भ्राता श्रीबलराम द्वारा शिक्षा प्राप्त की गयी थी | 

         यह ‘उपनयन संस्कार’ जिसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहा गया है यह अपने युग्मरूप में देखने अर्थात् बोध प्राप्त करने की अतिरिक्त क्षमता को प्राप्त करना तथा अपने सम्पूर्ण जीवन में कर्म की यज्ञ रूप अवस्था को अपनाने का संकल्प धारण करना सूचित करता है | 

       इस ‘उपनयन’ को धर्मशास्त्रों में ‘मनःचक्षु’ प्राप्त करना कथन किया गया है और इसे ही देवगण का चक्षु – ‘देवानाम् चक्षु:’ होना जाना गया है | उपनिषद् वाणी में श्रुति कथन आया है कि वह सर्वरूप आत्मा अर्थात् विराट् पुरुष परमात्मा मन के द्वारा ही देखा, जाना और प्राप्त किया जाता है | स्थूल दृष्टि को अपनाकर पृथक्–पृथक् देखना अर्थात् भेददृष्टि को अपनाना तो इस पुरुषरूप जीवात्मा के लिये पुनर्जन्म का कारण हो जाता है –

मनसैवेदमाप्ताव्यं नेह नानास्ति किंचन |
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति || (कठोपनिषद् २.१.११)

अर्थात् – “मन के द्वारा ही वह आत्मा अर्थात् सर्वरूप परब्रह्म परमात्मा जानने और प्राप्त किया जाने योग्य है | इस जगत् में नाना अर्थात् भिन्न-भिन्न कुछ भी नहीं है | यह सर्वरूप एक परम पुरुष परमात्मा ही है | जो कोई इस जगत में नाना की भांति देखता है अर्थात् सबको अलग-अलग जानता है वह मृत्यु से मृत्यु की ओर जाता अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त करता है |”

तथा ‘यज्ञरूप रूप में किया गया कर्म इस पुरुषरूप जीवात्मा के लिये बन्धनकारी होता नहीं, प्रारब्ध का सृजन करता नहीं-

‘यज्ञाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते |’ (गीता ४.२३)

    इस प्रकार प्राप्त  शिक्षा (विद्या) आधारपर मनःचक्षु को दृष्टिबोध हेतु अपनाना तथा कर्म की यज्ञरूप अवस्था को अपने नित्यजीवन में अपना लेना ही ‘अनामय पद’ रूप में विराट् पुरुष परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करने एवं अमृतत्व को भोगने का आधार होता है |  

प्राचीन अवन्तिकापुरी में महर्षि सान्दीपनि का आश्रम जिस स्थान पर स्थित था, वहाँ इसकी स्मृतिमें वर्तमान समयमें एक शिवमन्दिर तथा गोमती कुण्ड बना हुआ है | यहाँ के शिवमन्दिर के पुजारी कथन करते हैं कि ‘इस स्थान पर शिक्षाप्राप्ति के अनुक्रम में बालक श्रीकृष्ण ने अपनी लेखनपट्टी पर लिखे गये गणना के अंकों को यहीं पर पानी से धोकर गिराया गया था, जिसकी स्मृतिमें यह स्थान ‘अंकपात’ नाम से जाना जाता है | वर्तमान उज्जैन नगर का ‘अवन्तिपुरा मोहल्ला’ इस ‘अंकपात’ स्थान के निकट ही स्थित है |

       यहाँ इस आश्रम में स्थित 'गोमती कुण्ड' के किनारे पर बैठकर जब हम महर्षि सान्दीपनि के प्राचीनआश्रम की परिकल्पना करते हैं, ‘पाषाण शिला’ पर बैठकर प्राप्त की गयी शिक्षा और शिक्षणकार्य पर आधारित शिक्षापट्टी पर लिखे गए अंकों को गिराने या मिटाने पर आधारित अंकों के ‘पतन’ पर विचार करते हैं और महर्षि सान्दीपनि के पौराणिक नाम से मिलनेवाले चिरसन्देश और शिव मन्दिर में स्थापित की गयी चारों ही पैर पर खड़ी हुई चतुष्पाद अवस्था को प्राप्त नन्दी (वृषभ) की प्रतीमा पर विचार करते हैं तो हम यह पाते हैं कि - यह 'सान्दीपनि' नाम 'सन्दीपन' शब्द से बना है | देववाणी संस्कृत भाषा के शब्दकोश में 'सन्दीपन' शब्द का अर्थ– सुलगाने वाला, प्रज्ज्वलित करने वाला, भड़काने वाला, उद्दीप्त करने वाला, आदि प्रकट किया गया है | 

अतः महर्षि सान्दीपनि का नाम तथा उनका यह ‘शिक्षा आश्रम’ – आत्मज्योति को सुलगाने, या ज्ञानदीपक को प्रज्ज्वलित करने, या सुप्तावस्था को प्राप्त हुई प्रज्ञा को जागृत करने, या बालक श्रीकृष्ण की बालबुद्धि को उद्दीप्त करने से सम्बन्ध रखनेवाला प्रकट होता है | इस प्रकार शिक्षाप्राप्ति का यह महर्षि सान्दीपनि आश्रम – उस ज्ञानाग्नि को प्रदान करने से सम्बन्ध रखता है, जिसे स्मृतिग्रन्थ श्रीमद् भगवद्गीता में ‘अज्ञान से ज्ञान का ढंका होना’ – ‘अज्ञानेनावृतं ज्ञानं’ (गीता ५.१५) कहा जाकर प्रकट किया गया है और ज्ञान प्राप्ति का परिणाम “स्वयं ही कर्मबन्धन का परित्याग कर देना – ‘यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि |’ (गीता २.३९) और इस ज्ञानाग्नि द्वारा सम्पूर्ण कर्मबन्धन को भस्मीभूत कर देना कथन किया गया है :–

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || (गीता ४.३७)

अर्थात् – “’हे अर्जुन ! जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि समस्त ईंधनों को भस्मीभूत (भस्मसात) कर देता है, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको (समस्त कर्मबन्धनको) भस्मसात कर देता है |”

इस प्रकार ‘अंकपात’ शब्द आधारित श्रीकृष्ण-बलराम द्वारा महर्षि सान्दीपनि के आश्रम में निवास करके प्राप्त की गयी शिक्षा गणना के अंक अर्थात् ‘संख्या आधारित ज्ञान’ रूपमें ज्ञानयोग से सम्बंध रखनेवाली प्रकट होती है, जिसे ‘सांख्यज्ञान’ या ‘साँख्य दर्शन’ कहा जाकर – ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ रूपमें सबके लिए मुक्तिदाता जाना गया है |

     

Recommended Articles

Leave A Comment