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: तीनों लोकों का पालन पोषण करने वाली ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी….
तीनों लोक स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं। महाविद्याओं में देवी चौथे स्थान पर अवस्थित हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रिभुवन या तीनों लोकों की स्वामिनी हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दायित्व भुवनेश्वरी देवी का होने से जगत-माता तथा जगत-धात्री नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल, जिनसे चराचर जगत के प्रत्येक जड-चेतन का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तिओं से संचालित होता हैं। पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं। देवी की इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। महाविद्या भुवनेश्वरी साक्षात् प्रकृति स्वरूपा हैं तथा देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं।
देवी भुवनेश्वरी, भगवान शिव की समस्त लीला विलास की सहचरी हैं। देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिए दंड का विधान भी करती हैं। इनकी भुजा में सुशोभित अंकुश नियंत्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के परिणामस्वरूप रौद्री, प्रकृति निरूपण करने के कारण मूल-प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।
देवी भुवनेश्वरी सौम्य तथा अरुण के समान अंग-कांति युक्त हैं; देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र सुशोभित हैं, तीन नेत्र हैं, मुखमंडल मंद-मंद मुस्कान की छटा युक्त हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं। दाहिने भुजा से देवी अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं और बाएं भुजा में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं। देवी नाना प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न अलंकार धारण करती हैं।
दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो समस्त देवता तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जाकर इन्हीं भुवनेशी देवी की स्तुति की थीं। सताक्षी रूप में इन्होंने ही पृथ्वी के समस्त नदियों-जलाशयों को अपने अश्रु जल से भर दिया था, शाकम्भरी रूप में देवी ही अपने हाथों में नाना शाक-मूल इत्यादि खाद्य द्रव्य धारण कर प्रकट हुई तथा सभी जीवों को भोजन प्रदान किया। अंत में देवी ने दुर्गमासुर दैत्य का वध कर, तीनों लोकों को उसके अत्याचार से मुक्त किया और दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई।
देवी, ललित के नाम से भी विख्यात हैं, परन्तु यह देवी ललित, श्री विद्या-ललित नहीं हैं। भगवान शिव द्वारा दो शक्तियों का नाम ललिता रखा गया हैं, एक ‘पूर्वाम्नाय तथा दूसरी ऊर्ध्वाम्नाय’ द्वारा। ललिता जब त्रिपुरसुंदरी के साथ होती हैं तो वह श्री विद्या-ललिता के नाम से जानी जाती हैं, इनका सम्बन्ध श्री कुल से हैं। ललिता जब भुवनेश्वरी के साथ होती हैं तो भुवनेश्वरी-ललित के नाम से जानी जाती हैं।
देवी भुवनेश्वरी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा……….
सृष्टि के प्रारम्भ में केवल स्वर्ग ही विद्यमान था, सूर्य केवल स्वर्ग लोक में ही दिखाई देता था, किरणें स्वर्ग लोक तक ही सीमित थी। समस्त ऋषियों तथा सोमदेव ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण हेतु, सूर्य देव की आराधना की। जिससे प्रसन्न हो सूर्यदेव ने, देवी भुवनेश्वरी की प्रेरणा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। उस काल में देवी ही सर्व-शक्तिमान थी, देवी षोडशी ने सूर्यदेव को वह शक्ति प्रदान कर मार्गदर्शन किया, जिससे सूर्य देव ने संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की। देवी षोडशी की वह प्रेरणा उस समय से भुवनेश्वरी (सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी) नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी का सम्बन्ध इस चराचर दृष्टि-गोचर समस्त ब्रह्माण्ड से हैं, इनके नाम दो शब्दों के मेल से बना हैं भुवन + ईश्वरी, जिसका अभिप्राय हैं समस्त भुवन की ईश्वरी।
देवी के अन्य नाम.
१. मूल प्रकृति, २. सर्वेश्वरी या सर्वेशी, ३. सर्वरूपा, ४. विश्वरूपा, ५. जगन-
६. जगत-धात्री इत्यादि।
देवी का प्राकट्य…….
श्रीमद देवी-भागवत पुराण के अनुसार…. राजा जनमेजय ने व्यास जी से ‘ब्रह्मा’, विष्णु, शंकर की आदि शक्ति, से सम्बन्ध तथा विश्व की उत्पत्ति का हेतु प्रश्न पूछे जाने पर व्यासजी ने बताया…
एक बार व्यासजी के मन में जिज्ञासा जागृत हुई कि, “पृथ्वी या इस सम्पूर्ण चराचर जगत का सृष्टि कर्ता कौन हैं?” इस निमित्त उन्होंने नारदजी से प्रश्न किया। नारदजी ने व्यास जी से कहा कि “एक बार उनके मन में भी ऐसे ही जिज्ञासा जागृत हुई थीं।” तब नारदजी ब्रह्म लोक स्थित अपने पिता ब्रह्माजी के पास गए और उन्होंने उनसे पूछा!”ब्रह्मा, विष्णु और महेश, में किसके द्वारा इस चराचर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हैं, सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन हैं ?”
ब्रह्माजी ने नारद से कहा! प्राचीन काल में जल प्रलय के पश्चात केवल पञ्च महा-भूतों की उत्पत्ति हुई, जिसके कारण वे (ब्रह्मा जी) कमल से आविर्भूत हुए। उस समय सूर्य, चन्द्र, पर्वत इत्यादि स्थूल जगत लुप्त था तथा चारों ओर केवल जल ही जल दिखाई देता था। ब्रह्माजी कमल-कर्णिका पर ही आसन जमाये विचरने लगे। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि इस महा सागर के जल से उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ तथा उनका निर्माण करने वाला तथा पालन करने वाला कौन हैं? ब्रह्माजी ने दृढ़ निश्चय किया किवे अपने कमल के आसन का मूल आधार देखेंगे, जिससे उन्हें मूल भूमि मिल जाएगी। तदनंतर, उन्होंने जल में उतर-कर पद्म के मूल को ढूंढने का प्रयास किया, परन्तु वे अपने कमल-आसन के मूल तक नहीं पहुँच पाये। तक्षण ही आकाशवाणी हुई कि “ तुम तपस्या करो!” ब्रह्माजी ने कमल के आसन पर बैठ हजारों वर्ष तक तपस्या की। कुछ काल पश्चात पुनः आकाशवाणी हुई, सृजन करो, परन्तु ब्रह्माजी समझ नहीं पाये कि क्या सृजन करें तथा कैसे करें! उनके द्वारा ऐसा विचार करते हुए, उनके सनमुख ‘मधु तथा कैटभ’ नाम के दो महादैत्य उपस्थित हुए जो दोनों उनसे युद्ध करना चाहते थे, जिसे देख ब्रह्माजी भयभीत हो गए। ब्रह्माजी अपने आसन कमल के नाल का आश्रय ले महासागर में उतरे, जहाँ उन्होंने एक अत्यंत सुन्दर एवं अद्भुत पुरुष को देखा, जो मेघ के समान श्याम वर्ण के थे और उन्होंने अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर रखा था। शेष नाग की शय्या पर शयन करते हुए ब्रह्माजी ने श्री हरि-विष्णु को देखा। उन्हें देख ब्रह्माजी के मन में जिज्ञासा जागृत हुई और वे सहायता हेतु आदि शक्ति देवी की स्तुति करने लगे, जिनकी तपस्या में वे सर्वदा निमग्न रहते थे। परिणामस्वरूप, निद्रा स्वरूपी भगवान विष्णु की योग माया शक्ति आदि शक्ति महामाया, उनके शरीर से उद्भूत हुई। वह देवी दिव्य अलंकार, आभूषण, वस्त्र इत्यादि धारण किये हुए थी तथा आकाश में जा विराजित हुई।, भगवान विष्णु ने निद्रा का त्याग किया और जागृत होकर पाँच हजार वर्षों तक मधु-कैटभ नामक महा दैत्यों से युद्ध किया। बहुत अधिक समय तक युद्ध करते हुए भगवान विष्णु थक गए। अकेले ही युद्ध कर रहे थे, इसके विपरीत दोनों दैत्य भ्राता एक-एक कर युद्ध करते थे। भगवान् विष्णु ने अपने अन्तः कारण की शक्ति योगमाया आद्या शक्ति से सहायता हेतु प्रार्थना की। देवी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे उन दोनों दैत्यों को अपनी माया से मोहित कर देंगी। योगमाया आद्या शक्ति की माया से मोहित हो दैत्य भ्राता भगवान विष्णु से कहने लगे! “हम दोनों तुम्हारी वीरता पर बहुत प्रसन्न हैं, हमसे वर मांगो!” भगवान विष्णु ने दैत्य भ्राताओं से कहा! “तुम्हारी मौत मेरे हाथों से हों।” दैत्य भ्राताओं ने देखा की चारों ओर केवल जल ही जल हैं इसलिए भगवान विष्णु से कहा! “हमारा वध ऐसे स्थान पर करो जहाँ न जल हो और न ही स्थल।” भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपनी जंघा पर रख कर अपने चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मधु-कैटभ का वध किया, परन्तु वे केवल निमित्त मात्र ही थे, उस समय उनकी संहारक शक्ति से शंकरजी की उत्पत्ति हुई, जो संहार के प्रतीक हैं।
तदनंतर, ‘ब्रह्मा’, विष्णु तथा शंकर द्वारा, देवी आदि शक्ति योगनिद्रा महामाया की स्तुति की गई, जिससे प्रसन्न होकर आदि शक्ति ने ब्रह्माजी को सृजन, विष्णु को पालन तथा शंकर को संहार के दाईत्व निर्वाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्माजी ने देवी आदि शक्ति से प्रश्न किया गया कि! “अभी चारों ओर केवल जल ही जल हैं, पञ्च-तत्व, गुण, तन-मात्राएँ तथा इन्द्रियां, कुछ भी व्याप्त नहीं हैं और तीनों देव शक्ति-हीन हैं।” देवी ने मुसकुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनों देवताओं को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया, तीनों देवों के विमान पर आसीन होने के पश्चात, वह विमान आकाश में उड़ने लगा।
मन के वेग के समान वह दिव्य तथा सुन्दर विमान उड़कर ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ जल नहीं था, यह देख तीनों देवों को महान आश्चर्य हुआ। उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देखकर तीनों महा-देवों को लगा कि वे स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया और एक ऐसे स्थान पर पंहुचा, जहाँ ऐरावत हाथी दिखा साथ ही मेनका आदि अप्सराओं के समूह नृत्य कर रही थी, सैकड़ों गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ विद्यमान थे। वहाँ कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनों को महान आश्चर्य हुआ।, तीनों देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बढ़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित ब्रह्माजी को विद्यमान देख, तीनों देव विस्मय में पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने ब्रह्मा से पूछा, यह ब्रह्मा कौन हैं ? ब्रह्माजी ने उत्तर दिया! “मैं इन्हें नहीं जानता हूँ, मैं स्वयं भ्रमित हूँ।” तदनंतर, वह विमान कैलाश पर्वत पर पहुंचा, वहां तीनों ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओं वाले शंकरजी को देखा। जो व्याघ्र चर्म धारण किये थे। गणेश और कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, यह देख पुनः तीनों अत्यंत विस्मय में पड़ गये। अब उनका विमान कैलाश से भगवान विष्णु के वैकुण्ठ लोक जा पहुंचा। पक्षी-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारों से अलंकृत भगवान विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ, सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे। इसके बाद पुनः वह विमान वायु की गति से चलने लगा तथा सागर के तट पर पहुंचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था, नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओं से सुसज्जित था, तीनों महा-देवों ने रत्नमालाओं एवं विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित, पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्त-पुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण कर रखी थीं। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को सनमुख दृष्टि-गोचर हुई, जो सहस्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति महामाया ही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।
देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। भगवती भुवनेश्वरी को देख त्रि-देव आश्चर्य चकित एवं स्तब्ध रह गए और सोचने लगे, यह देवी कौन हैं? ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश सोचने लगे कि “न तो यह अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना!” यह सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उस सुन्दर हास्यवाली देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा ब्रह्माजी से कहा! “यह साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं, साथ ही यह देवी हम तीनों तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। देवी, महाविद्या शास्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, आदि स्वरूप ईश्वरी हैं और इस योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। मूल प्रकृति स्वरूपी भगवती महामाया परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सनमुख उसे उपस्थित करती हैं।” तदनंतर, तीनों देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त जैसे ही विमान से उतरकर देवी के सन्मुखजाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्री-रूप में परिणीत कर दिया। वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र सुसज्जित हो गए। उन्होंने देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में थी। तीनों देवों ने देवी के चरण-कमल के नख में सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा। समस्त देवता, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सरायें, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी, देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेव यह समझ गए कि देवी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।
संक्षेप में देवी भुवनेश्वरी से सम्बंधित मुख्य तथ्य।
मुख्य नाम : भुवनेश्वरी।
अन्य नाम : मूल प्रकृति, सर्वेश्वरी या सर्वेशी, सर्वरूपा, विश्वरूपा, जगत-धात्री इत्यादि।
भैरव : त्र्यंबक।
भगवान के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान वराह अवतार।
कुल : काली कुल।
दिशा : पश्चिम।
स्वभाव : सौम्य , राजसी गुण सम्पन्न।
कार्य : सम्पूर्ण जगत का निर्माण तथा सञ्चालन।
शारीरिक वर्ण : सहस्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी।

       

ll भुवनेश्वरी, ll

दस महाविद्याओं में विद्यमान चौथा महा-शक्ति, तीनो लोको, या त्रि-भुवन स्वर्ग, विश्व, पाताल की ईश्वरी या स्वामिनी माता भुवनेश्वरी हैं। ..
सम्पूर्ण जगत या तीनों लोकों की ईश्वरी, भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं, महाविद्याओं में इन्हें चौथा स्थान प्राप्त हैं। अपने नाम के अनुसार ही ये त्रि-भुवन या तीनो लोको के ईश्वरी या स्वामिनी हैं ये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं भुवनेश्वरी देवी का हैं, परिणाम स्वरूप ये जगन माता तथा जगत धात्री के नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व (१. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल), जिन से इस सम्पूर्ण चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तियों द्वारा संचालित होता हैं, पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं। देवी कि इच्छानुसार ही, चराचर ब्रह्माण्ड (तीनो लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। प्रकृति से सम्बंधित होने के परिणाम स्वरूप, देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं। आद्या शक्ति, भुवनेश्वरी स्वरूप में भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी है, सखी हैं। देवी नियंत्रक भी है तथा भूल या गलती करने वालों के लिया दंड का विधान भी तय करती है, इनके भुजा में व्याप्त अंकुश, नियंत्रक का प्रतिक हैं। जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवो को दण्डित करने के परिणाम स्वरूप रौद्री, प्रकृति का निरूपण करने से मूल प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग, देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।
पञ्च तत्वों की अधिष्ठात्री देवी है देवी भुवनेश्वरी।
संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त जीवित तथा अजीवित वस्तुओं का निर्माण मूल पञ्च तत्वों से ही होता हैं। १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल ये वो मूल तत्व है जिन से समस्त दिखने वाली तत्वों न निर्माण होता हैं। देवता तथा राक्षस, वेद, प्रकृति, महासागर, पर्वत, जीव, जंतु, समस्त वनस्पति इत्यादि समस्त भौतिक जगत इन्हीं पंच-तत्वों से जुड़ा हैं। पञ्च तत्वों का निरूपण तथा रचना इन्हीं भुवनेश्वरी देवी द्वारा ही हुआ है तथा वो इस इन समस्त तत्वों की ईश्वरी या मालकिन हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्वाह, पालन पोषण का दाइत्व इन्हीं देवी भुवनेश्वरी का है, सात करोड़ महा मंत्र सर्वदा इनकी आराधना करने में तत्पर रहते हैं। देवी भक्तों को समस्त प्रकार कि सिद्धियाँ तथा अभय प्रदान करती हैं। देवी ललित के नाम से भी जानी जाती हैं, परन्तु ये ललित श्री विद्या ललित नहीं हैं। भगवान शिव द्वारा दो शक्तियों का नाम ललिता रखा गया है, एक पूर्वाम्नाय तथा दूसरी ऊर्ध्वाम्नाय द्वारा। ललिता शब्द जब त्रिपुर सुंदरी के साथ होती हैं तो वो श्रीविद्या ललिता के नाम से जानी जाती है तथा जब भुवनेश्वरी के साथ होती है तो भुवनेश्वरी ललित के नाम से जनि जाती हैं। इन के भैरव सदाशिव हैं।

देवी पञ्च परमेश्वरी नाम से विख्यात हैं। (मूल पांच तत्वों की ईश्वरी)

देवी भुवनेश्वरी का भौतिक स्वरूप

स्वभाव से देवी अत्यंत कोमल है, भिन्न भिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नो से सुशोभित अलंकारों से आभूषित, उदित सूर्य के किरणों समान, स्वर्ण आभा के सामान कांति वाली देवी भुवनेश्वरी कमल के आसान पर विराजमान है, देवी उगते सूर्य या सिंदूरी वर्ण से शोभिता हैं। तीन नेत्रों से युक्त त्रि-नेत्रा जो की इच्छा, काम तथा प्रजनन शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं, मंद मंद मुस्कान वाली, अपने मस्तक पर अर्ध चन्द्रमा धारण करने वाली देवी भुवनेश्वरी मनोहर प्रतीत होती हैं। देवी के स्थान उभरे हुए तथा पूर्ण है तथा शरीर संपूर्ण गठित, देवी कि चार भुजाये है तथा ये अपने दो भुजाओ में पाश तथा अंकुश धारण करती है तथा अन्य दो भुजाओ से वार तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी नाना प्रकार से मूल्यवान् रत्नो से जडे हुए, मुक्ता के आभूषण धारण कर, बहुत ही शांत और सौम्य प्रतीत होता है।
देवी भुवनेश्वरी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।

सृष्टि के प्रारम्भ में केवल स्वर्ग ही विद्यमान था, सूर्य केवल स्वर्ग लोक में दिखाई देता था तथा उन की किरणे स्वर्ग लोक तक ही सीमित थी। समस्त साधुओ द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण हेतु, सोम ( वनस्पति ) से सूर्य देव की आराधना तथा प्रार्थना किया गया। परिणाम स्वरूप, सूर्य देव उन साधुओ पर प्रसन्न हो, देवी के प्रेरणा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। उस काल में देवी ही सर्व-शक्तिमान् मान थी। देवी षोडशी ने सूर्य देव को वो शक्ति प्रदान की तथा मार्गदर्शन किया जिस के परिणाम स्वरूप सूर्य देव ने संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की। देवी आद्या शक्ति तभी से भुवनेश्वरी (सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी) नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी का सम्बन्ध इस चराचर दृष्टि गोचर समस्त ब्रह्माण्ड से हैं।
देवी भुवनेश्वरी से सम्बंधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य।

देवी भुवनेश्वरी अपने अन्य नमो से भी प्रसिद्ध हैं :
१. मूल प्रकृति, देवी इस स्वरूप में स्वयं प्रकृति रूप में विद्यमान हैं, समस्त प्रकृति स्वरूप इन्हीं का रूप हैं।
२. सर्वेश्वरी या सर्वेशी, देवी इस स्वरूप में, सम्पूर्ण चराचर जगत की ईश्वरी या मालकिन है।
३. सर्वरूपा, देवी इस स्वरूप में, ब्रह्मांड के प्रत्येक तत्व में विद्यमान है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं का स्वरूप हैं।
४. विश्वरूपा, संपूर्ण विश्व का स्वरूप, इन्हीं देवी भुवनेश्वरी के रूप में हैं।
५. जगन-माता, सम्पूर्ण जगत, तीनो लोको की देवी जन्म दात्री है माता हैं।
६. जगत-धात्री, देवी इस रूप में सम्पूर्ण जगत को धारण तथा पालन पोषण करती हैं।

काली और भुवनेशी प्रकारांतर से अभेद है काली का लाल वर्ण स्वरूप ही भुवनेश्वरी हैं। दुर्गम नमक दैत्य के अत्याचारों से संतृप्त हो, सभी देवताओं तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जा कर सर्वकारण स्वरुपा देवी भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। सभी देवताओं तथा ब्राह्मणों के आराधना से संतुष्ट हो, देवी अपने हाथों में बाण, कमल पुष्प तथा शाक-मूल धारण किये हुए प्रकट हुई थी। देवी ने अपने नेत्रों से सहत्रो अश्रु जल धारा प्रकट की तथा इस जल से सम्पूर्ण भू-मंडल के समस्त प्राणी तृप्त हुए। समुद्रो तथा नदीओ में जल भर गया तथा समस्त वनस्पति सिंचित हुई। अपने हतो में धारण की हुई, शक फल मूलो से इन्होंने सम्पूर्ण प्राणिओ का पोषण किया, तभी से ये शाकम्भरी नाम से भी प्रसिद्ध हुई। इन्होंने ही दुर्गमासुर नमक दैत्य का वध किया तथा समस्त जगत को भय मुक्त, परिणाम स्वरूप देवी का दुर्गा नाम प्रसिद्ध हुआ।
भुवनेश्वरी अवतार धारण कर सम्पूर्ण जगत का निर्माण तथा सञ्चालन, तथा भगवान् विष्णु, ‘ब्रह्मा’ तथा शिव को जल प्रलय के पश्चात् अपना कार्य भर प्रदान करना।

श्रीमद देवी भागवत पुराण के अनुसार, जनमेजय द्वारा, व्यास जी से भगवान ‘ब्रह्मा’, विष्णु, शंकर तथा आदि शक्ति, अम्बा जी से उनके सम्बन्ध तथा विश्व के उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जाने पर, व्यास जी द्वारा जो वर्णन प्रस्तुत किया गया वो निन्नलिखित हैं। एक बार व्यास जी के मन में इसी तरह की जिज्ञासा जागृत हुई थी, तथा उन्होंने नारद जी से अपनी जिज्ञासा के निवारण हेतु प्रार्थना की। नारद जी के मन में भी ऐसी ही जिज्ञासा जागृत हुई थी, की पृथ्वी या इस सम्पूर्ण चराचर जगत का सृष्टि कर्ता कौन हैं ? तदनंतर नारद जी, ‘ब्रह्मा’ लोक में गमन कर अपने पिता ‘ब्रह्मा जी’ से प्रश्न किया।

नारद जी द्वारा पूछे जाने पर कि, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई ? ‘ब्रह्मा’, विष्णु तथा महेश में से किसके द्वारा इस चराचर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हैं, सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन हैं ?

‘ब्रह्मा जी’ द्वारा उत्तर दिया गया कि, प्राचीन काल में जल प्रलय होने पर, केवल पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति होने पर, उनका (‘ब्रह्मा जी’) कमल से आविर्भूत हुआ। उस समय सर्वत्र केवल जल ही जल था, सूर्य, चन्द्र, पर्वत इत्यादि स्थूल जगत लुप्त था तथा चारो ओर केवल जल ही जल था, कमलकर्णिका पर आसन जमाये वे विचरने लगे। उन्हें ये ज्ञात नहीं था की इस महा सागर के जाल में उन का प्रादुर्भाव कैसे हुआ, उनका निर्माण करने वाला तथा पालन करने वाला कौन हैं। एक बार, ‘ब्रह्मा जी’ ने दृढ़ निश्चय किया की वो अपने कमल के आसन के मूल आधार देखेंगे, जिस से उन्हें मुल भूमि मिल जाएगी। तदनंतर उनके द्वारा जल में उत्तर कर पद्म के मूल को ढूंढने का प्रयास किया गया परन्तु वो अपने आसन कमल के मूल तक नहीं पहुँच पाये। आकाशवाणी हुई की, तपस्या करो, तदनंतर ‘ब्रह्मा जी’ ने कमल के आसन पर बैठ हजारों वर्ष तक तपस्या की। कुछ काल पश्चात् पुनः आकाशवाणी हुई सृजन करो, परन्तु ‘ब्रह्मा जी’ समझ नहीं पाये की किसकी सृजन करे, कैसे करे। उनके सोचते सोचते, उन के सन्मुख मधु तथा कैटभ नाम के दो महा दैत्य आये, जो उन से युद्ध करना चाहते थे तथा जिसे देख ‘ब्रह्मा जी’ डर गए। तदनंतर ‘ब्रह्मा जी’ अपने आसन कमल के नाल का आश्रय ले महासागर में उतरे, जहाँ उन्होंने एक अत्यंत सुन्दर एवं अद्भुत पुरुष को देखा, जो मेघ के समान श्याम वर्ण के थे। शंख, चक्र, गदा, पद्म अपने चारो हाथों में धारण किये हुए, तथा शेष नाग की शैय्या पर शयन करते हुऐ उन्होंने महा विष्णु को देखा। महा विष्णु को देख, ‘ब्रह्मा जी’ के मन में चिंता जागृत हुई और वे आदि शक्ति की सहायता हेतु स्तुति करने लगे, जिनकी तपस्या में वे सदा निमग्न रहते थे। परिणाम स्वरूप निद्रा स्वरूपी, आदि शक्ति महामाया, महा विष्णु के शरीर से अलग हुई तथा दिव्य अलंकारों, आभूषणो तथा वस्त्रो से युक्त हो, आकाश में विराजमान हुई। तदनंतर महा विष्णु ने निद्रा का त्याग किया और जागृत हुऐ, तत्पश्चात् उन्होंने पाँच हजार वर्षों तक मधु-कैटभ नमक महा दैत्यों से युद्ध किया तथा आद्या शक्ति महामाया की कृपा से अपनी जंघा पर उन महा दैत्यों का मस्तक रख कर, उन दैत्यों का वध किया। वध करने के परिणाम स्वरूप शंकर जी भी वहाँ उपस्थित हुए, जो संहार के प्रतिक हैं।
तदनंतर, ‘ब्रह्मा’, विष्णु तथा शंकर द्वारा देवी आदि शक्ति की स्तुति की गई, जिस से प्रसन्न हो कर, आदि शक्ति ने ‘ब्रह्मा जी’ को सृजन, विष्णु को पालन तथा शंकर को संहार रूपी दाइत्व निर्वाह करने की आज्ञा दी। तत्पश्चात्, ‘ब्रह्मा जी’ द्वारा आदि शक्ति से प्रश्न किया गया कि, अभी चारो ओर जल ही जल फैला हुआ हैं, पञ्च-तत्व, गुण, तन्मात्राएँ तथा इन्द्रियां, कुछ भी व्याप्त नहीं हैं, वे तीनो देव शक्ति हीन हैं। देवी ने मुस्कुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनो देवताओ को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया, तीनो देवो के विमान पर आसीन होने पर, देवी विमान आकाश में उड़ने लगा।
मन के वेग के समान वो दिव्य तथा सुन्दर विमान, उड़ कर जिस स्थान पर पंहुचा, वहाँ जल नहीं था, इससे तीनो को महान आश्चर्य हुआ तथा उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देख कर उन तीनो महा देवो को लगा की वो स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात्, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया, तथा एक ऐसे स्थान पर गया, जहाँ, ऐरावत हाथी और मेनका आदि अप्सराओ के समूह नृत्य प्रदर्शित कर रही थी, सेकड़ो गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ दृष्टि-गोचर हो रहे थे। वहाँ पर कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनो को महान आश्चर्य हुआ। तदनंतर तीनो देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बड़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित ‘ब्रह्मा जी’ को विद्यमान देख, सभी विस्मय पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने ‘ब्रह्मा’ से पूछा, ये ‘ब्रह्मा’ कौन हैं ? ‘ब्रह्मा जी’ ने उत्तर दिया, मैं इन्हें नहीं जनता हूँ मैं स्वयं भ्रमित हूँ। तदनंतर वो विमान, कैलाश पर्वत पर पंहुचा, वहां तीनो ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओ वाले शंकर जी को देखा। जो व्यग्र चर्म पहने हुए थे तथा गणेश तथा कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, तथा वे तीनो पुनः अत्यंत विस्मय में पड़ गये। तदनंतर उनका विमान कैलाश से भगवान् विष्णु के वैकुण्ठ लोक में जा पंहुचा। पक्षि-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारो से अलंकृत भगवान् विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ तथा सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे। इसके बाद पुनः वो विमान वायु की गति से चलने लगा तथा एक सागर के तट पर पंहुचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था तथा नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओ से सुसज्जित था, तथा रत्नामलाओ, विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्तपुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण किया हुआ था। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को दृष्टि-गोचर हुई, जो करोडो उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति ही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।
देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। उन भगवती भुवनेश्वरी को देख, त्रि-देव आश्चर्य चकित और स्तब्ध रह गए तथा सोचने लगे ये देवी कौन हैं। ‘ब्रह्मा’, विष्णु तथा महेश सोचने लगे की, न तो ये अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना, ये सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उन सुन्दर हास्वली हृल्लेखा देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा ‘ब्रह्मा जी’ से कहा; ये साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं, तथा हम सब तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। ये महाविद्या शाश्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, सबकी आदि स्वरूप ईश्वरी हैं तथा इन योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। ये मूल प्रकृति स्वरूप भगवती महामाया, परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सन्मुख उसे उपस्थित करती हैं। तदनंतर तीनो देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त, देवी के चरणों के निकट गए। जैसे ही ‘ब्रह्मा’, विष्णु तथा शंकर, विमान से उतर कर देवी के सन्मुख जाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्रीरूप में परिणीत कर दिया तथा वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र धारण किये हुए थे। वे तीनो देवी के सन्मुख जा खड़े हो गए तथा देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में सेवारत थी। तदनंतर, तीनो देवो ने देवी के चरण-कमल के नख में, सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा, समस्त देवता, ‘ब्रह्मा’, विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सराये, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेवो ये समझ गए की ये देवी, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।

            

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