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मां धूमावती उत्पति कथाः-
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इनकी उत्पति की कथा कुछ इस प्रकार है।एक बार भगवान शिव के अंक में अवस्थित माँ पार्वती भूख से पिड़ित होकर शिव से कुछ भोजन प्रबंध करने को कहने लगी,तब शिव ने कहा देवी प्रतिक्षा किजिये,शीघ्र भोजन की व्यवस्था होगी।

परन्तु बहुत समय बीत जाने पर भी भोजन की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी तब स्वयं भगवती ने शिव को ही मुख में रखकर निगल लिया,उससे उनके शरीर से धुआं निकला और शिव जी अपने माया से बाहर आ गये।बाहर आकर शिव ने पार्वती से कहा,मैं एक पुरूष हूँ और तुम एक स्त्री हो,तुमने अपने पति को निगल लिया।

अतः अब तुम विधवा हो गई हो इस कारण तुम सौभाग्यवती के श्रृंगार को छोड़कर वैधव्यवेष में रहो। तुम्हारा यह शरीर परा भगवती बगलामुखी पीताम्बरा के रूप में विद्यमान था,लेकिन अब तुम धूमावती महाविद्या के रूप में जगत में पूजित होकर संसार का कल्याण करते हुए विख्यात होगी।
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रुप और नामः-
यह देवी भयानक आकृति वाली होती हुई भी अपने भक्तों के लिये सदा तत्पर रहती हैं।इन्हें ज्येष्ठा तथा अलक्ष्मी भी कहा जाता हैं।
जगत की अमांगल्यपूर्ण अवस्था की अधिष्ठात्री के रूप में ये देवी त्रिवर्णा,विरलदंता,चंचलाविधवा,मुक्तकेशी,शूर्पहस्ता,कलहप्रिया,काकध्वजिनी आदि विशेषणों से वर्णित हैं।

▪ प्रसंगः- ▪
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दतिया में माता धूमावती की प्रतिष्ठा हुई,कारण सन १९६२ ई. में चीन देश द्वारा अपने देश पर आक्रमण करने से देश में संकट की घड़ी पैदा हो गयी। देश की आजादी शैशवास्था में थी।वहाँ के नेता माओत्सेतुङ्ग और चाऊएनलाई ने भारत से मित्रता कर हमें धोखा दिया था़।सच्चे देशभक्त की भाँति *”श्रीस्वामी प्रभु” का हृदय राष्ट्र पर आई विपति को देखकर द्रवित हो उठा।
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प्रभु ने राष्ट्र को निर्लिप्त रखकर उस महानतम विपत्ति से किस प्रकार बचाया जाये,इसका स्मरण करते हुये माँ का गुणगान किया।

श्रीस्वामी जी ने एक शास्त्री को बुलाकर कहा कि देश पर संकट हैं और यह दैवीय उपाय से ही टाला जा सकता हैं। बड़े बलिदानों के बाद हमारा देश स्वतंत्र हुआ हैं,परन्तु शत्रु आक्रमण करके देश को फिर से गुलाम बनाना चाहते हैं। इन शत्रुओं की बर्बरता हमारे आर्य धर्म के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध होगी।देश में न राम रहेगा न दास।देश में नास्तिकता घर कर जाएगी।शास्त्री ने जिज्ञासा की,क्या इसका कोई उपाय किया जा सकता है……प्रभो..?

श्री स्वामी जी ने उत्तर दिया,साधु शस्त्र लेकर तो लड़ नहीं सकते,पर जगदम्बा का प्रार्थना रूप अनुष्ठान अवश्य करा सकते हैं।

इसके लिए सौ कर्मकाण्डी पण्डितों की आवश्यकता होगी,जो नित्य दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हो अपने दैनिक जीवन में।जो अपने भजन का विक्रय न करते हों,जो शक्ति मन्त्र से दीक्षित हो।इसके लिए धन भी चाहिए। फिर चीन तो क्या ब्रह्माण्ड भी बदला जा सकता है। तुम कार्यक्रम की तैयारी करो।

शास्त्री ने घर आकर विचार किया कि इसमें तो लाखों रूपये खर्च होंगे,धन कहाँ से आएगा? दूसरे दिन श्री महराज ने पूछा”क्या कार्यक्रम बना लिया हैं”?

नहीं महराज जी अभी बना रहा हूँ।कहकर बात टाल दी।श्रीस्वामी जी ने कहा शीघ्रता से बनाओ।तीसरे दिन भक्त रामदास बाबा ने देखा महाराज जी व्यग्रता और बैचेनी से शिव मन्दिर के पास टहल रहे हैं।डरते डरते पास जाकर उन्होंने देखा कि महाराज जी का शरीर काँप रहा है नेत्रों में लाली छायी हैं,और मुँह से सिंह जैसी गर्जना निकल रही हैं।उन्होंने देखा कि श्री महाराज जी ने दाहिने हाथ की मुट्ठी को बाँधकर अपने सीने पर बड़े जोर से मारा जिससे बड़े धमाके की आवाज हुई। फिर सिंह गर्जनाकर बोले चीन अवश्य वापस जाएगा,चाहे मुझे इसके लिए अपना सर्वस्व ही क्यों न लगाना पड़े।इस देश का अन्न खाया हैं। रामदास बाबा से कहकर उस शास्त्री को बुलवा कर पूछा क्या तुमने कार्यक्रम बना लिया हैं?

शास्त्री ने कहा महाराज बना रहा हूँ।यह सुनते ही महाराज जी ने कहा “तुम बड़े सुस्त हो,देश पर संकट आया है और तुम काम में देर कर रहे हो।”शास्त्री मन ही मन सोच रहे थे,चलो कार्यक्रम तो बना देते हैं होना जाना तो कुछ है नहीं क्योंकि खर्च का प्रबन्ध कहाँ से होगा।अभी यह बात सोच ही रहे थे कि देखा दवाईयाँ बनाने वाली कम्पनी “बैद्यनाथ भवन के मालिक पण्डित रामनारायण वैध” स्वामी दर्शन हेतु बड़ी व्यग्रता से अन्दर आ रहे हैं।वैद्य जी ने आते ही प्रणाम करके कहा प्रभो देश पर महान संकट आया है,क्या किया जाए?

श्री स्वामी जी ने उत्तर दिया “उपाय तो है लेकिन धन की आवश्यकता पड़ेगी।” वैद्यजी ने शीघ्र उत्तर दिया मेरी अपनी सम्पूर्ण सम्पति जो आपकी कृपा से ही मुझे प्राप्त हुई है,राष्ट को समर्पित हैं।

यह सुनकर शास्त्री सोचने लगे मुझे कितने दिन प्रभु के पास आते हुए हो गये लेकिन मैंने इन्हें पहचाना नहीं और बात को टालता रहा,वे लज्जित होकर शीघ्र ही कार्यक्रम बनाने में जुट गए।वैद्यजी ने धन और पण्डित सबका प्रबन्ध किया,अनुष्ठान प्रारम्भ हो गया। अनुष्ठान के मध्य में ही श्री सदाशिव स्वामी अनुष्ठान की सफलता की घोषणा कर दी।

इस अनुष्ठान में त्रैलोक्य स्तम्भिनी भगवती बगलामुखी एवं भगवती धूमावती का आह्वान किया गया था।

अनुष्ठान के दौरान जबकि अनुष्ठान प्रारंभ हुए करीब एक सप्ताह हुआ था श्री प्रभु ने अपने रात्री के एक स्वप्न का साधकजनों को विस्तृत विवरण दिया “रात्री को हमने स्वप्न में क्या देखा कि हम घूमते हुए उद्यान में पहुँचे जहाँ एक छोटा सा जलाशय भी है।समीप जाकर क्या देखते हैं,जलाशय के किनारे एक काले वर्ण की बुढिया बैठी है और उसके पास एक बालक भी खड़ा है।पास आने पर बुढिया अंग्रेजी में बोली “आई डोन्ट नो यू”।यह वचन सुनकर मैंने हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया,इतने में हमारी नींद टूट गई तब से हम यही सोच रहे हैं कि यह तो धूमावती देवी थी।हम हमेशा इनका स्मरण भी करते हैं फिर भी इन्होने यह क्यों कहा “आई डोन्ट नो यू” श्री महाराज के श्री मुख से यह शब्द बड़े ही प्यारे मालुम हुए।

श्री स्वामी ने आगे कहा “मालुम होता है कि इस अनुष्ठान में हमने इनका योगदान नहीं लिया है शायद वे इसलिए असंतुष्ट हैं,हमें उनका भी योगदान इस अनुष्ठान में लेना होगा।फिर वैसा ही किया गया।भक्त गोपालदास जो वहाँ बैठे थे,श्री महाराज जी से आज्ञा माँगकर भगवती धूमावती के संस्मरण सुनाने लगे जो अनुष्ठान के समय में हुए थे।श्री प्रभु ने उनको आदेश दिया था कि भगवती धूमावती के चित्र से,जो दीपक के सामने स्थित है,यदि कोई अनुभव या मूक भाषा सुनाई दे तो वह तुरन्त आपको सुनाया जाए।ग्यारहवें दिन अर्धरात्री को आश्रम में निर्मित अखाड़े के पास एक भयानक तांत्रिक पशु की ध्वनि हुई।

तुरन्त जाकर भक्तों द्वारा स्वामी जी को बताया गया और उन्होनें प्रसन्न मुद्रा में कहा आंरभ शुभ है जाओ अपना काम करो।पन्द्रहवें दिन चित्र से आदेश मिला मैं भूखी हूँ।यह भी प्रभु को बतलाया,तो उन्होनें पूरा विवरण सुनकर कहा,वह तो हमेशा भूखी रहती हैं,उनको बली देना अत्यन्त कठिन है।चावल,साबुत,उड़द,शुद्ध घी,गुड़ और दही सम्मिश्रण कर भोजन कराओ”।दूसरे दिन पुनःचित्र से संकेत मिला कि “भोजन पर्याप्त नहीं है,तब फिर श्री स्वामी की आज्ञा से घी चुपड़ी चार रोटी और बढा दी गई।अगली रात पुनः चित्र से संकेत मिला कि अभी जप कम हो रहा है,पाँच माला और बढाओ,तब उन्होनें पाँच माला का जप और बढाने का आदेश दिया।इक्कीसवें दिन जप करते हुए गोपालदास अर्धनिद्रित हो गए तभी भगवती धूमावती ने उनका हाथ पकड़ कर कहा,मेरे साथ मोटर में बैठकर चीन चलो।

गोपालदास ने उत्तर में कहा कि,मैं अनुष्ठान कर रहा हूँ,अनुष्ठान छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूँ,कृपा करके आप अकेली चली जाएँ।माता धूमावती कार में बैठ गयी,मोटर चलने की आवाज आयी और वे अदृश्य हो गयी।यह बात श्री प्रभु से कही, तो उन्होनें कहा,तुमने गलती की तुम्हें माँ के साथ जाना था,खैर!अब हमको जाना पड़ेगा।

उसके दूसरी रात्री को जपकर्ताओं ने जप करते समय अर्धोन्मीलित नेत्रों से देखा कि भगवती धूमामाई चीनी सेना पर प्रहार कर रही है, परिणाम स्वरूप चीनी सेना में भगदड़ सी मच रही है और वह अपने देश को वापस जा रही हैं।बाद में पूर्णाहुति से पूर्व ही चीन ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी।

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