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मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है…….

सुख दुख सफलता असफलता यश अपयश का कारण भाग्य को मान लेना नितांत अज्ञानता है । परमात्मा किसी के भाग्य में सुख और किसी के भाग्य में दुख नहीं लिखता यह सब अपने ही कर्मों का परिणाम होता है जो हम भोगते हैं चाहे वाह आनंददायक हों या पीड़ादायक।

भाग्य पर सब कुछ छोड़ना उसी पर निर्भर होना
भाग्यवाद कहलाता है भाग्यवाद का उपदेश आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति ही देते हैं जो मनुष्य भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं, वे अपने जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते हमें भाग्य के भरोसे ना बैठ कर कर्म को प्रधानता देना चाहिए।
कर्म करके ही मनुष्य अपने भाग्य को सवांर सकता है भाग्यवादी थोथे चने के समान है जो बोलता जाता है किंतु अंदर से खोखला होता है । भाग्य बाद का निर्धारण करने वाला अपने साथ कुछ भी हो गलत होने पर परमात्मा को दोष देता है अपनी कर्म हीनता का विश्लेषण न करके अपनी आंखों पर भाग्य की पट्टी बांध लेता है और दोष परमात्मा पर मढ़ देता है।
कर्म के संबंध में तुलसीदास जी ने कहा है…
सकल पदारथ है जग माही ।
कर्म हीन नर पावत नाही।।
किसी ने सत्य कहा है “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है”
भाग्य के भरोसे बैठकर स्वयं को अकर्मण्य बना लेना बुद्धिमानी नहीं है ,कर्म में ही शक्ति है ,हमारे कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं निरंतर कर्म करते हुए ही हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं,केवल भाग्य के भरोसे बैठकर नहीं ।
भाग्य का निर्माण कोई अचानक होने वाला संयोग नहीं होता और ना ही उसका बनना बिगड़ना किसी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होता है ।
यदि मनुष्य चाहे तो उसके भाग्य में समृद्धि वैभव यश ऐश्वर्य सभी प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं।

परंतु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु हम दुष्कर्म में ना प्रवृत्त हो जाएं अन्यथा उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं।
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है “जो मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है”
जो मनुष्य अपने कर्तव्य पथ का निर्माण स्वयं करता है उसे स्वावलंबी कहते हैं जो मनुष्य किसी भी कार्य के लिए दूसरों को तलाशता है, उसे परावलम्बी कहते हैं।
हमें अपनी उन्नति के लिए दूसरों का मुंह नहीं देखना चाहिए इससे हमारी शक्तियां और क्षमताएं कुंठित हो सकती हैं परावलम्बी अपनी सफलता के लिए दूसरों पर निर्भर होने के साथ-साथ अपनी असफलताओं का कारण भी दूसरे को मानता है, इससे उसमें ईर्ष्या और द्वेष भाव का जन्म होता है और अपना आत्मबल खो देता है तथा अपनी इसी संकीर्ण सोच के कारण अपने साथ साथ दूसरे का भी अहित करता है।
परंतु पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बलबूते ही आगे बढ़ता है ,और प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेता है, स्वावलंबी व्यक्ति यदि असफल भी होता है तो वह स्वयं की कमियों को ही उत्तरदाई मानकर उसका निवारण करता है और अपने अंदर निरंतर सुधार और विकास करता है,तथा एक दिन निश्चित ही सफलता प्राप्त करता है।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने भाग्य का निर्माता स्वयं को ही मानकर सत्कर्म करें और कर्म पथ पर आने वाली बाधाओं को अपने स्वाबलंबी प्रभाव से दूर करता हुआ निरंतर प्रगति करें ।
इस प्रकार के मनुष्य को उन्नति तथा श्रेय का सौभाग्य मिलता है, ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है, उन्हें समान योग्यताएं वह क्षमताएं भी दी है, जरूरत है केवल उन्हें पहचानने की और यह सब केवल कर्म को आधार मानने वाला ही कर सकता है भाग्यवादी नहीं।।।।।

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