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: पितृ-मातृ भक्त आदर्श-पुत्र………
पुत्रों के आदर्श की अनेक कहानिया हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं।

१. गणेशजी……..

गणेशजी का सर्वप्रथम मातृ और पितृभक्त के रूप में उल्लेख शिव पुराण में मिलता है। एक बार माता की आज्ञा से गणेश द्वार पर शिव को रोक लेते हैं। कुपित होकर शिव उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। जब माँ पार्वती को पता चलता है तो वे दुखी होकर बालक के जन्म का वृतांत बताते हुए उसे जीवित करने का अनुग्रह करती हैं।

तब शिवजी हाथी के बच्चे के सिर को बालक के धड़ पर रखकर, उसे जीवित कर देते हैं और गणेश नाम देते हुए अपने समस्त गणों में अग्रणी घोषित करते हैं।

बड़े भाई कार्तिकेय का वाहन मोर और गणेश का चूहा माना गया। प्रथम पूज्य की स्पर्धा इन दोनों के मध्य हुई, जिसमें पृथ्वी का सम्पूर्ण परिक्रमा लगाने की शर्त। जो परिक्रमा लगाकर पाहिले आएगा, उसे प्रथम पूज्य का स्थान प्राप्त। कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर चढ़कर पृथ्वी की परिक्रमा करने चल पड़े। गणेशजी ने सोचा माता-पिता तो पृथ्वी से बड़े और महान हैं। ऐसा मानकर उन्होंने अपने माता पिता की ही सात परिक्रमा पूरी कर ली और कार्तिकेय के आने की प्रतीक्षा करने लगे। कार्तिकेय ने लौटने पर इस प्रतिस्पर्धा के निर्णय पर गहन विचार किया गया और निर्णय गणेशजी के पक्ष में गया। गणेशजी, प्रथम पूजन के अधिकारी बन गए।

२. पितृभक्त नचिकेता …….

नचिकेता एक पितृभक्त बालक था। जब उनके पिता वाजश्रवस विश्वजीत यज्ञ के बाद बूढ़ी एवं बीमार गायों को दान कर रहे थे तो यह देखकर नचिकेता को बहुत ग्लानी हुई। तब नचिकेता ने अपने पिता से पूछा कि आप मुझे दान में किसे देंगे?

तब नचिकेता के पिता क्रोध से भरकर बोले कि मैं तुम्हें यमराज को दान में दूंगा। चूंकि ये शब्द यज्ञ के समय कहे गए थे, अतः नचिकेता को यमराज के पास जाना ही पड़ा। यमराज अपने स्थान से बाहर थे, इस कारण नचिकेता ने तीन दिन-रात तक यमराज की प्रतीक्षा की।

तीन दिन बाद जब यमराज आए तो उन्होंने इस धीरज भरी प्रतीक्षा और वचनबद्धता से प्रसन्न होकर नचिकेता से तीन वरदान मांगने को कहा। नचिकेता ने पहले वरदान में कहा कि जब वह घर वापस पहुंचे तो उसके पिता उसे स्वीकार करें एवं उसके पिता का क्रोध शांत हो। विषय आदर्श पुत्र का होने से आगे की कथा को यही तक सीमित किया जाता हैं। नचिकेता ने अपने पुत्र धर्म का पालन कर पिता के शौर्य को स्थापित किया था।

३. मातृ-पितृभक्ति-श्रवण कुमार……..

जब भी मातृ-पितृभक्ति की बात होती है तो सबसे पहले श्रवण कुमार का ही नाम याद आता है। श्रवण कुमार का नाम इतिहास में मातृभक्ति और पितृभक्ति के लिए अमर हैं।

श्रवण के माता-पिता अंधे थे। वह अपने माता-पिता को बहुत प्यार करता। उसकी मां ने बहुत कष्ट उठाकर श्रवण को पाला था। जैसे-जैसे श्रवण बड़ा होता गया, अपने माता-पिता के कामों में अधिक से अधिक सहायता करता था।

सुबह उठकर श्रवण माता-पिता के लिए नदी से पानी भरकर लाता। जंगल से लकड़ियां लाता। चूल्हा जलाकर खाना बनाता। मां उसे मना करतीं- ‘बेटा श्रवण, तू हमारे लिए इतनी मेहनत क्यों करता है? भोजन तो मैं बना सकती हूं। इतना काम करके तू थक जाएगा।’ ‘नहीं मां, तुम्हारे और पिताजी का काम करने में मुझे जरा भी थकान नहीं होती। मुझे आनंद मिलता है। तुम देख नहीं सकतीं। रोटी बनाते हुए, तुम्हारे हाथ जल जाएंगे।’

‘हे भगवान! हमारे श्रवण जैसा बेटा हर मां-बाप को मिले। उसे हमारा कितना खयाल है।’ माता-पिता श्रवण को आशीर्वाद देते न थकते। श्रवण के माता-पिता रोज भगवान की पूजा करते। श्रवण उनकी पूजा के लिए फूल लाता, बैठने के लिए आसन बिछाता। माता-पिता के साथ श्रवण भी पूजा करता। मता-पिता की सेवा करता श्रवण बड़ा होता गया। घर के काम पूरे कर, श्रवण बाहर काम करने जाता। अब उसके माता-पिता को काम नहीं करना होता।

एक दिन श्रवण के माता-पिता ने कहा- ‘बेटा, तुमने हमारी सारी इच्छाएं पूरी की हैं। अब एक इच्छा बाकी रह गई है।’ ‘कौन-सी इच्छा मां? क्या चाहते हैं पिता जी? आप आज्ञा दीजिए। प्राण रहते आपकी इच्छा पूरी करूंगा।’

‘हमारी उमर हो गई अब तीर्थ यात्रा पर जाना चाहते हैं, बेटा। शायद भगवान के चरणों में हमें शांति मिले।’ श्रवण सोच में पड़ गया। उन दिनों आज के समान यातायात के साधन नहीं थे। वे लोग ज्यादा देख तो नहीं सकते थे किन्तु चलने में भी असमर्थ थे।

श्रवण ने दो बड़ी-बड़ी टोकरियां लीं। उन्हें एक मजबूत लाठी के दोनों सिरों पर रस्सी से बांधकर लटका दिया। इस तरह एक बड़ा कांवर बन गई। उसमें अपने माता-पिता को बैठाकर, कांवर को अपने कंधे में रखकर तीर्थ यात्रा कराने चल पड़ा और अनेक तीर्थ कृते हुए एक दिन अयोध्या के पास एक जंगल में मां-बाप को प्यास लगने पर, वह कांवर वही रखकर पानी लेने पास बहती हुई नदी के किनारे पंहुचा।

श्रवण ने जल भरने के लिए कमंडल को पानी में डुबोया। बर्तन में पानी भरने की अवाज सुनकर राजा दशरथ जो उस समय शिकार खेलने आये थे, को लगा कि कोई जानवर नदी में पानी पी रहा हैं, ऐसा समझकर उन्होंने शब्द- की दिशा में बाण चला दिया जो श्रवण कुमार को लगा और वह “आह” कहते हुए वही गिर पड़ा।

राजा जब शिकार को लेने पहुंचे तो उन्हें अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ हुई। अनजाने में उनसे इतना बड़ा अपराध हो गया। उन्होंने श्रवण से क्षमा मांगी।

‘राजन्, जंगल में मेरे माता-पिता प्यासे बैठे हैं। आप जल ले जाकर उनकी प्यास बुझा दीजिए। इतना कहते-कहते श्रवण ने प्राण त्याग दिए। आगे की कथा को विषय के आधार पर सीमित किया गया हैं।

४. पितृ भक्ति भीष्म…….

पितृ भक्ति का एक विलक्षण उदाहरण महाभारत में देवव्रत के पात्र के रूप में मिलता है। यही देवव्रत आगे चलकर भीष्म कहलाए। हस्तिनापुर नरेश शांतनु का पराक्रमी एवं विद्वान पुत्र देवव्रत उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी था, लेकिन एक दिन शांतनु की भेंट निषाद कन्या सत्यवती से हुई और वे उस पर मोहित हो गए।

उन्होंने सत्यवती के पिता से मिलकर उसका हाथ मांगा। पिता ने शर्त रखी कि मेरी पुत्री से होने वाले पुत्र को राजसिंहासन का उत्तराधिकारी बनाएं, तो ही मैं इस विवाह की अनुमति दे सकता हूं। शांतनु देवव्रत के साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकते थे। वे भारी हृदय से लौट आए लेकिन सत्यवती के वियोग में व्याकुल रहने लगे। उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। जब देवव्रत को पिता के दुख का कारण पता चला, तो वह सत्यवती के पिता से मिलने जा पहुचे और उन्हें आश्वस्त किया कि शांतनु के बाद सत्यवती का पुत्र ही सम्राट बनेगा।

निषाद ने कहा कि आप तो अपना दावा त्याग रहे हैं लेकिन भविष्य में आपकी संतानें सत्यवती की संतान के लिए परेशानी खड़ी नहीं करेंगी, इसका क्या भरोसा! तब देवव्रत ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी और उसने वहीं प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचारी रहेंगे। इसी प्रतिज्ञा के कारण उन्हें भीष्म कहा जाता हैं।

६.पितृभक्त यज्ञशर्मा.

द्वारका में शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहते थे। वे योगशास्त्र के पारंगत विद्वान थे। सभी सिद्धियां उन्हें प्राप्त थीं। उनके पांच पुत्र थे- यज्ञशर्मा, वेदशर्मा, धर्मशर्मा, विष्णुशर्मा, और सोमशर्मा। ये पांचों ही पुत्र पितृ भक्त और तपस्वी थे।

एक बार शिवशर्मा ने अपने पुत्रों के पितृप्रेम की परीक्षा लेनी चाही। वे समर्थ तो थे ही, उन्होंने माया का प्रयोग किया, जिससे पांचों पुत्रों के सामने उनकी माता दारुण ज्वर से पीड़ित हो गयीं। कोई उपचार काम न आया और देखते-देखते वे मर गई। विवश होकर पुत्रों ने इसकी सूचना पिता को दी और अगले कर्तव्य का निर्देश चाहा।

पिता तो परिक्षण पर तुले ही थे। आज्ञा दी- ‘यज्ञशर्मा! तुम तीक्ष्ण शस्त्र से अपनी माता को खण्ड-खण्ड काटकर इधर-उधर फेंक दो।’ आज्ञाकारी पुत्र ने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया।

2.पितृभक्त वेदशर्मा : इसके पश्चात् पिता ने वेदशर्मा से कहा- ‘पुत्र! मैंने एक स्त्री को देखा है। उसके बिना मैं रह नहीं सकता। तुम मेरे लिए उसे प्रसन्न कर लो और बुला लाओ।’ वेदशर्मा पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर उस नारी के पास पहुंचे और उसके बिना अपने पिता की विह्वलता सुनाई।

स्त्री ने वेदशर्मा की प्रार्थना को ठुकराते हुए कहा- ‘तुम्हारा पिता बूढ़ा और रोगी है। उसके मुख से कफ निकलता रहता है। उससे मैं विवाह नहीं करना चाहती। मैं तो तुम्हें चाहती हूं। तुम रूपवान और नवयौवन से सम्पन्न हो। उस बूढ़े के पीछे तुम क्यों व्याकुल हो। तुम जो चाहोगे, मैं सदा किया करूंगी।’

वेदशर्मा ऐसी असंगत बात सुनकर आश्चर्यचकित होकर बोला- ‘देवी! तुम मेरी माता के सदृश्य हो। अपने पुत्र से ऐसी अधार्मिक बात तुम्हें नहीं कहनी चाहिए। मैंने कोई अपराध भी तो नहीं किया है कि तुम ऐसी असंगत बात सुनाकर मुझे व्यथित कर रही हो। मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूं, तुम मेरे पिता को वरण कर लो। तुम जो चाहोगी, मैं वही दूंगा।’

स्त्री ने कहा- ‘यदि तुम देना चाहते हो तो तीनों देवों और इन्द्र के साथ सभी देवों को यहां बुला दो। मैं उनका दर्शन करना चाहती हूं।’

वेदशर्मा ने अपनी तपस्या का उपयोग किया। सभी देव वहां आ विराजे। सारा वातावरण पवित्र हो गया। देवताओं ने वेदशर्मा को आदर दिया और वरदान मांगने को कहा। वेदशर्मा ने पिता के चरणों में निर्मल प्रेम मांगा वरदान देकर देवता अन्तर्हित हो गए।

इसके पश्चात् भी वह स्त्री वेदशर्मा के पिता को वरण करने के लिए तैयार नहीं हुई और बोली- ‘इस घटना से तो केवल तुम्हारी तपस्या के बल का पता चला। उन देवताओं से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। यदि तुम अपने पिता के लिए मुझे कुछ देना चाहते हो तो अपना सिर स्वयं काटकर मुझे दे दो।’

वेदशर्मा को प्रसन्नता हुई कि पिता की आज्ञा के पालन में वह सफल हुआ। झट उसने तलवार से अपना सिर काटकर उसे दे दिया। स्त्री खून से लथपथ वेदशर्मा के सिर को लेकर उसके पिता के पास पहुंची। उसके भाई वहीं थे। इस दृश्य को देखकर उन्हें रोमांच हो आया। उनके मुख से निकल पड़ा- ‘हम लोगों में वेदशर्मा ही धन्य हैं, जिसने पिता के लिए अपने शरीर का सदुपयोग किया।’

3.पितृभक्ति धर्मशर्मा :पिता ने वेदशर्मा के उस कटे सिर को धर्मशर्मा को देते हुए कहा- ‘बेटा! अपने भाई के इस सिर को लो और इसे जीवित कर दो।’ धर्मशर्मा ने धर्मराज का आह्वान किया। धर्मराज प्रकट होकर बोले- ‘वत्स! तुमने मुझे क्यों बुलाया है? तुम्हें क्या चाहिए?’

धर्मशर्मा ने कहा- ‘यदि मेरी पितृभक्ति सही है तो मेरा यह भाई जीवित हो जाय।’ धर्मराज ने तुरंत उसके भाई को जीवित कर दिया। फिर धर्मशर्मा को पितृभक्ति का वरदान देकर वे अन्तर्हित हो गए। वेदशर्मा ने जब आंखे खोलीं, तब वहां न तो वह स्त्री थी और न उसके प्रिय पिता। उसने पूछकर सारी बातें जान लीं। फिर दोनों भाई पिता से आ मिले।

4.विष्णुशर्मा की पितृभक्ति :इसके बाद भी उनके पिता चिन्तित ही दिखाई पड़े। उन्होंने विष्णुशर्मा को संबोधित किया- ‘बेटा! मैं रुग्ण हूं। अमृत के बिना मैं स्वस्थ न हो सकूंगा। तुम देवलोक से मेरे लिए अमृत से भरा कलश ले जाओ।’

विष्णुशर्मा ने योग की शक्ति का आश्रय लिया। वे तीव्रगति से स्वर्गलोक की ओर बढ़े। अमृत का कलश देना देवता क्यों चाहेंगे? इन्द्र ने विष्णुशर्मा को रास्ते में ही प्रलोभित करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका ने अपनी माया अच्छी तरह से फैलाई। उसकी सुन्दरता और गीत की मधुरता से कण-कण आप्लावित हो उठा। वह झूले में झूल रही थी। झूले ने उसमें निखार ला दिया था।

विष्णुशर्मा ने यह सब देखा और सुना, परन्तु उन पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे सब को छोड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। अब मेनका को इनके पीछे लगाना पड़ा। उसने दीनता भरे शब्दों में प्रणय-याचना की, किंतु विष्णुशर्मा- जैसे पितृभक्त पर उसकी कोई माया न चली। इसके पश्चात् इन्द्र ने अनेक विघ्न प्रकट किए। इनकी चेष्टा से विष्णुशर्मा को क्रोध हो आया। वे इन्द्र को पदच्युत कर दूसरे इन्द्र को उनके पद पर बैठाने की बात सोचने लगे। तब इन्द्र हाथ में अमृत-कलश लेकर प्रकट हुए और उन्होंने सम्मान के साथ उसे विष्णुशर्मा को दे दिया।

अमृत-कलश लेकर विष्णुशर्मा घर लौटे और उसे पिता को दे दिया। पिता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने पुत्रों से कहा- ‘बच्चों! तुम्हारी सेवा से मैं प्रसन्न हूं। तुम सब वरदान मांगों।’

सभी पुत्रों ने अपनी माता को जीवित देखना चाहा। पिता ने यह वरदान उन्हें दे दिया। थोड़ी ही देर बाद ममता और स्नेह लुटाती हुई उनकी माता वहां आ पहुंचीं। उन्होंने हर्ष में भरकर कहा- ‘तुम सभी पुत्रों के कारण मेरा भाग्य चमक उठा है। न जाने मैंने कौन-से पुण्य किए थे कि मुझे तुम्हारे-जैसे पुत्र मिले।’

माता को हर्षित देख सभी पुत्र आनन्द से विह्वल हो गए। उन्होंने कहा- ‘हमारा कोई बहुत बड़ा पुण्य है, जिससे हम लोगों ने तुम्हें माता के रूप में पाया।’

पिता भी अपने प्रिय पुत्रों पर अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले- ‘पुत्रो! तुम लोग और वरदान मांगों। मेरे संतुष्ट होने पर तुम्हें अक्षयलोक भी प्राप्त हो सकता है।’ पुत्रों ने वरदान में अक्षयलोक ही मांगा। पिता के ‘तथास्तु’ कहते ही दीप्तिशाली विमान उतर आया। भगवान् ने माता-पिता सहित सभी पुत्रों को विष्णुलोक चलने के लिए कहा, परन्तु शिवशर्मा ने कहा- ‘मैं, मेरी स्त्री और मेरा छोटा पुत्र उस लोक में नहीं जाना चाहते, पीछे आएंगे। आप चार पुत्रों को ही वह दिव्य धाम दें।’

भगवान् विष्णु ने उन चारों भाग्यवान पुत्रों को ही साथ चलने के लिए कहा। उन चारों का स्वरूप विष्णु का-सा हो गया। वे वैकुण्ठलोक पधार गए।

5.पितृभक्त सोमशर्मा: चारों पुत्रों को विष्णुलोक प्रदान कर शिवशर्मा संतुष्ट थे। अब उन्हें अपने छोटे पुत्र सोमशर्मा के सत्त्व को परखना था। एक दिन उन्होंने सोमशर्मा से कहा- ‘बेटा! तुम हम में स्नेह तो रखते ही हो, इस बार एक कठिन कार्य दे रहा हूं। अमृत से भरा हुआ यह घड़ा हम तुझे सौंपकर तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं। इस घड़े सावधानी से रक्षा करना।’

सोमशर्मा पिता की कोई आज्ञा मिलने पर बहुत हर्ष होता था। इस बार भी उन्हें बहुत हर्ष हुआ। उन्होंने माता-पिता को इस ओर से निश्चिन्त बनाकर तीर्थयात्रा के लिए भेज दिया। इसके बाद वे बड़ी तत्परता से अमृतकुम्भ की रखवाली करने लगे।

दस वर्ष के पश्चात् माता-पिता लौटे। उन्होंने माया से अपने शरीर में कोढ़ पैदा कर लिया था। वे मांस के पिण्ड की तरह त्याज्य दीख रहे थे। यह देखकर सोमशर्मा को बड़ी व्यथा हुई, साथ-साथ विस्मय भी हुआ। उन्होंने पूछा- ‘आप दोनों तो विष्णुतुल्य हैं। आपको यह अधम रोग कैसे हो गया?’ पिता ने कहा- ‘पुत्र! अदृष्ट का भोग तो भोगना ही पड़ता है। किसी जन्म का कोई पाप उदित हुआ होगा।’

सोमशर्मा दोनों का कष्ट देखकर बड़ा कष्ट होता। वे जी-जान देकर सेवा में जुट गए। वे उनका मल-मूत्र साफ करते, मवाद धोते, मलहम-पट्टी करते, समय से खिलाते, समय से सुलाते, सब समय सेवा में लगे रहते, परन्तु पिता शिवशर्मा कठोर बने रहते। वे सदा सोमशर्मा को फटकार लगाया करते थे। पिता की ओर से डाट-फटकार और मार की झड़ी लगी रहती, परंतु सोमशर्मा की बोली सदा मधुर निकलती और व्यवहार में आदर झलकता था।

समर्थ पिता ने एक दिन सोचा-ज ‘मैंने तो बहुत ही कठोरता बरती है, किंतु सोमशर्मा में कभी प्रेम की कमी नहीं आई। पितृप्रेम की परीक्षा में तो यह उत्तीर्ण है, अब कुछ इसकी तपस्या की परीक्षा कर लूं।’

समर्थ शिवशर्मा ने पुत्र पर माया का प्रयोग किया- सुरक्षित अमृत के घड़े से अमृत का अपहरण कर लिया। इसके बाद सोमशर्मा से बोले-बेटा! अमृत से भरा हुआ कुम्भ मैंने सुरक्षा के लिए तुम्हें सौंपा था, उसे लाकर दो। उसे पीकर हम स्वस्थ हो जाएंगे।

सोमशर्मा ने अमृतकुम्भ को खाली पाया। उसमें अमृत की एक बूंद भी न थी, उन्हें चिंता हुई कि इस सुरक्षित कुम्भ से अमृत कौन ले गया। विवश होकर उन्होंने अपनी तपस्या की शरण ली। आंखे बंद करके बोले- ‘यदि मैंने निश्छल तपस्या की है और अन्य धर्मों का भी आदर से पालन किया है तो अमृत का यह घड़ा अमृत से लबालब भरा हो हुआ था। उन्हें संतोष हुआ कि अब इससे पिता-माता स्वस्थ हो जाएंगे। उन्होंने वह घड़ा पिता जी के सामने रखकर उनके चरणों में प्रणिपात किया।

बिना अमृत पिए ही माता-पिता भले-चंगे हो गए। दोनों के शरीर पहले-जैसे दीप्तिमान हो उठे। वे वस्तुतः रोगी तो थे नहीं। इधर सोमशर्मा माता-पिता को स्वस्थ देख प्रसन्नता से भर गए, उधर पिता ने सोमशर्मा को बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया। इतने में उनकी इच्छा से विष्णुलोक से एक विमान उतरा और उस पर सोमशर्मा सहित माता-पिता बैठकर परम धाम को चले गए।यही सोमशर्मा अगले जन्म में प्रह्वाद हुए।

     

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