साक्षी होना
साक्षी होने का अर्थ है-केंद्र में पहुँच जाना, स्वयं में स्थित हों जाना। मनुष्य जीवन के चार आयाम हैं, चार तल हैं। सबसे पहला और बाहरी आयाम कर्म का है।
काम करने की दुनिया है–सबसे बाहर | थोड़ा भीतर चलते हैं तो बिचार का जगत है, ज्ञान की दुनिया है। थोड़ा और भीतर चलें तो भाव का जगत है, भक्ति और प्रेम की दुनिया है और इन परिधियों से, इन आयामों से गुजरने पर थोड़ा और अधिक भीतर केंद्र है, जहाँ पहुँचकर साक्षी होने की स्थिति बनती है।
साक्षी होना हमारा अपना स्वभाव है; क्योंकि इसके पार जाने का कोई उपाय नहीं है। न तो कभी कोई गया है और न कभी कोई जा सकता है। साक्षी तो बस, साक्षी है।
साक्षी की नींव पर हमारा भवन है– भाव का, विचार का, कर्म का। सारी साधनाएँ साक्षी होने के लिए हैं। कर्म, विचांर और भाव के अनुसार तीन योग हैं| दरअसल ये तीनों योग-ध्यान की तीन पद्धतियाँ हैं, तीन प्रणालियाँ हैं। इन तीनों मार्गों से साक्षी होने के लिए प्रयास किया जाता है।
इनमें से कर्मयोग का मतलब हुआ-कर्म + ध्यान। सीधे कर्म से साक्षी होने की जो चेष्टा है, वही कर्मयोग है | इसमें ध्यान–मार्ग है, साक्षित्व-मंजिल है, गंतव्य है।
ध्यान की परिपूर्णता है–साक्षित्व | जो कर्म के साथ ध्यान को साधे, वही कर्मयोगी है।
फिर ज्ञानयोग है। इसका अर्थ है–विचार-ध्यान। जो विचार के जगत में ध्यान को जोड़ लेता है, वह ज्ञानयोगी बन जाता है। अब तीसरा भक्तियोग है। यह भाव ध्यान है।
भाव के साथ ध्यान जब जुड़ जाता है, तब भक्तियोग सधता है।
ध्यान है–दिशा परिवर्तन। इसके माध्यम से कर्म, विचार व भाव की दिशाएँ साक्षी होने की ओर मुड़ जाती हैं। ध्यान औषधि है, ये तीनों अनुपान हैं। इसका परिणाम है-स्वस्थ होना, स्वयं में स्थित हो जाना। यही साक्षी होना है।